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== शिक्षा समाजनिष्ठ  होनी चाहिये ==
 
== शिक्षा समाजनिष्ठ  होनी चाहिये ==
मनुष्य समाज में रहता है । मनुष्य का मनुष्य के साथ
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मनुष्य समाज में रहता है । मनुष्य का मनुष्य के साथ जीना सामाजिक जीवन है । सामाजिक जीवन भौतिक समृद्धि, सुरक्षा और स्वतन्त्रता से युक्त हो यह आवश्यक है ।मनुष्य की आवश्यकतायें अधिक होती हैं । मनुष्य की इच्छायें अनंत होती हैं । मनुष्य रागद्वेष आदि के कारण स्वार्थी भी होता है । इस कारण से सुख,शान्ति, सुरक्षा आदि सब खतरे में पड़ जाते हैं । अपने मन के कारण यदि वह खतरे निर्माण करता है तो अपनी बुद्धि के सहारे वह खतरे से बचने के उपाय खोजता है ।
   −
जीना सामाजिक जीवन है सामाजिक जीवन भौतिक
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इस मन और बुद्धि की प्रवृत्तियों से ही मनुष्य ने विभिन्न सामाजिक व्यवस्थायें बनाई हैं, विभिन्न शास्त्रों का निर्माण किया है और अपना सामाजिक जीवन व्यवस्थित
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समृद्धि, सुरक्षा और स्वतन्त्रता से युक्त हो यह आवश्यक है
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किया है। भौतिक समृद्धि के लिये मनुष्य ने अनेक वस्तुओं के उत्पादन की कला सीखी है। साथ ही उनके निर्माण, वितरण और उपभोग की व्यवस्था बनाई । वस्तुओं के निर्माण में सहायक हों ऐसे यंत्र बनाए। अपने कई काम सुकर हो सकें इसलिए भी यंत्र बनाए। इस सृष्टि को जानना चाहा और भौतिक विज्ञानों के शास्त्र बने इन विज्ञानों की सहायता से उसने यंत्र तथा अन्य उपभोग के पदार्थ बनाये। विज्ञान को उसने केवल जिज्ञासा की पूर्ति तक सीमित नहीं रखा अपितु अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनाया। इसलिए  तंत्रज्ञान का अध्ययन विज्ञान के साथ गौण रूप से और मनोविज्ञान के साथ और मन को नियंत्रित करने वाले धर्मशास्त्र के साथ मुख्य रूप से करना चाहिये।
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मनुष्य की आवश्यकतायें अधिक होती हैं मनुष्य की
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मनुष्य ने चिन्तन किया और अपने जीवन को समझने का प्रयास किया । उस समझ को व्यवस्थित बनाने हेतु चार पुरुषार्थों, चार आश्रम, चार वर्ण, असंख्य जातियाँ आदि की रचना की और उन सबके व्यवहार के नियमों को निरूपित करने वाला धर्मशास्त्र बनाया वास्तव में धर्मशास्त्र ही समाजशास्त्र है जिसे भारत की मनीषा ने मानव धर्मशास्त्र कहा और इस मानव धर्मशास्त्र को ही स्मृति कहा । मानव धर्मशास्त्र कहकर भारतीय मनीषा ने अपने आपको भारत में सीमित नहीं रखा अपितु संपूर्ण विश्व को अपना व्यवहारक्षेत्र बनाया। मानवसम्बन्धों को आध्यात्मिक आधार देने हेतु उसने कुट्म्ब की व्यवस्था बनाई, एक स्त्री और एक पुरुष को पतिपत्नी बनाने हेतु विवाह संस्कार और विवाह संस्था की रचना की, एकात्मता को परिवारभावना का स्वरूप दिया और इस परिवारभावना का विस्तार संपूर्ण वसुधा बने ऐसे उदार अंतःकरण को विकास का पर्याय बनाया । परिवारभावना को ही राज्यसंस्था, वाणिज्यसंस्था, शिक्षाशास्त्र का भी केन्द्रवर्ती तत्त्व बनाया । इस प्रकार उसने अगणित व्यवस्थायें और अगणित शास्त्र बनाये । साथ ही अगणित शास्त्र बनाने के लिये खुलापन भी रखा ।
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इच्छायें अनंत होती हैं मनुष्य रागद्रष आदि के कारण
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काल की गति और प्रभाव को तथा प्रकृति की परिवर्तनशीलता को समझकर उसने सारे व्यवहारशास्त्रों को परिवर्तनक्षम रखा । भेदों को स्वाभाविक मानकर उसमें विविधता और सुन्दरता को देखा और व्यवहार में समदृष्टि को ही आधार बनाया, भेदों को नहीं । दिखाई देने वाले भेदों में आन्तरिक एकत्व का प्रतिपादन किया । इस प्रकार समाज को चिरंजीविता प्रदान की । समाज को चिरंजीव बनाने वाले मूल तत्त्वों को ही पहचानना भारत की मनीषा का खास लक्षण बना
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स्वार्थी भी होता है । इस कारण से सुख,शान्ति, सुरक्षा आदि
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यहाँ शास्त्रों और व्यवस्थाओं का निरूपण करने का उद्देश्य नहीं है । यहाँ यह बताने का उद्देश्य है कि यह जो समाजव्यवस्था है उसे हर भारतीय के हृदय और बुद्धि में उतारने की व्यवस्था शिक्षा में होनी चाहिये क्योंकि शिक्षा के अलावा उसका कोई साधन नहीं है । शिक्षा समाज को धर्म सिखाती है यह कथन यदि सही है तो इस कथन को लागू करने की प्रक्रिया क्या होगी इसका विचार करना होगा । यह विचार कौन करे और पहल कौन करे यह भी समस्या है क्योंकि आज सरकार ही सभी बातों का विचार करेगी ऐसा मानस बन गया है । इस मानसिकता को बदलने की प्रथम आवश्यकता है । यदि शासन इसका विचार नहीं करता है तो कौन इसका विचार करेगा यह भी निश्चित करना होगा । परम्परा देखें तो ऐसा विचार हमेशा शिक्षकों ने किया है और समाज ने उनका साथ दिया है ।
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वेदकाल के वसिष्ठ और विश्वामित्र से लेकर दो या ढाई हजार वर्ष पूर्व के चाणक्य तक सभी आचार्य इसके उदाहरण हैं । ये सब आचार्य थे, ऋषि थे । वे प्रमुख रूप से धर्म जानते थे और ज्ञान के क्षेत्र के दिग्गज थे । वे सब मुक्ति के मार्ग की ही बात करते थे तो भी युद्ध भी करते थे और राजनीति भी करते थे । भगवान श्रीकृष्ण अध्यात्म, धर्म, युद्ध, राजनीति, संगीत, योग, अध्यापन, धर्मोपदेश आदि सबके आदर्श स्थापित करने वाले ही थे । आज भी शासन की सहायता, वि्ेंद्रित उत्पादन और आर्थिक शिक्षकों ने ही पहल करनी होगी और समाज के सहयोग से स्वतन्त्रता की संकल्पना की प्रतिष्ठा हो इस प्रकार से
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
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''शिक्षा को समाज के लिए वास्तव में उपयोगी बनाना होगा । योजना करनी होगी । आज शिक्षा और अर्थव्यवस्था''
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सब खतरे में पड़ जाते हैं । अपने मन के कारण यदि वह
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''बार बार कहा जाता है कि शिक्षा का भारतीयकरण दोनों शासन की ज़िम्मेदारी बन गए हैं । शासन ने''
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खतरे निर्माण करता है तो अपनी बुद्धि के सहारे वह खतरे से
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''करना चाहिए । यह भी कहा जाता है कि यह काम शिक्षकों अपने आपकी मुक्ति के लिए भी अर्थ पुरुषार्थ को''
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बचने के उपाय खोजता है
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''को ही करना चाहिए परन्तु इस काम को करने की एक समाज आधारित बनाने की दिशा में प्रयत्नशील बनना''
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इस मन और बुद्धि की प्रवृत्तियों से ही मनुष्य ने
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''योजना बनाये बिना यह काम हो नहीं सकता । होगा ।''
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विभिन्न सामाजिक व्यवस्थायें बनाई हैं, विभिन्न शास्त्रों का
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''इस काम के कुछ चरण इस प्रकार हो सकते हैं ... ०... प्रजा के काम पुरुषार्थ को व्यवस्थित करना साधु-संतों''
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निर्माण किया है और अपना सामाजिक जीवन व्यवस्थित
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''०... सर्व प्रथम शिक्षकों को नौकरी की व्यवस्था से बाहर का काम है । उन्हें यह काम करना होगा ।''
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किया है
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''निकल जाना होगा ०... ज्ञान और धर्म की प्रतिष्ठा के लिए साधु संत, संन्यासी''
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भौतिक समृद्धि के लिये मनुष्य ने अनेक वस्तुओं के
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''०... समाज को अथर्जिन हेतु नौकरी नहीं करना सिखाना आदि ने अपनी तपश्चर्या का पुण्य देना होगा । तपश्चर्या''
   −
उत्पादन की कला सीखी है साथ ही उनके निर्माण, वितरण
+
''होगा के पुण्य के बिना महत्त्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होते ।''
   −
और उपभोग की व्यवस्था बनाई । वस्तुओं के निर्माण में
+
''© aah हेतु भौतिक वस्तुओं का उत्पादन हो इस... *... देश में जिस प्रकार धार्मिक संगठन चल रहे हैं उसी''
   −
सहायक हों ऐसे यंत्र बनाए अपने कई काम सुकर हो सकें
+
''बात को बढ़ावा देना होगा। प्रकार शैक्षिक संगठन भी चल रहे हैं दोनों प्रकार के''
   −
इसलिए भी यंत्र बनाए इस सृष्टि को जानना चाहा और
+
''०... भारतीय समाज का नियंत्रक तत्त्व धर्म है ब्रिटिश संगठनों को सरकार मुखापेक्षी बनाने के स्थान पर''
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भौतिक विज्ञानों के शास्त्र बने इन विज्ञानों की सहायता से
+
''राज्य के चलते वह अर्थ हो गया है धर्म को पुन: समाजमुखापेक्षी बनाना होगा और समाज को अधिक''
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उसने यंत्र तथा अन्य उपभोग के पदार्थ बनाये विज्ञान को
+
''नियंत्रक बनाने के लिए धर्माचार्यों ने शिक्षकों को दायित्वबोध से युक्त बनाना होगा ''
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उसने केवल जिज्ञासा की पूर्ति तक सीमित नहीं रखा अपितु
+
''आधार देना होगा । धर्माचार्य और शिक्षक दोनों ने. *. इन दोनों संगठनों के साथ साथ आर्थिक संगठन बनाने''
   −
अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन
+
''मिलकर समाज के सहयोग से शिक्षा का एक भारतीय होंगे जो समाज को आर्थिक दृष्टि से स्वायत्त और''
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बनाया ( इसलिए  तंत्रज्ञान का अध्ययन विज्ञान के साथ
+
''ढाँचा तैयार करना होगा जो समाज के ही बल पर मानवतायुक्त बनायें ''
   −
गौण रूप से और मनोविज्ञान के साथ और मन को नियंत्रित
+
''खड़ा हो । ०... जो समाज आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं और समृद्ध''
   −
करने वाले धर्मशास्त्र के साथ मुख्य रूप से करना चाहिये । )
+
''०. शिक्षा का जो भी ढाँचा निर्माण हो उसमें आर्थिक नहीं उसकी संस्कृति का और उत्तम गुणों का नाश''
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मनुष्य ने चिन्तन किया और अपने जीवन को समझने
+
''स्वतन्त्रता का विचार सबसे पहले करना होगा | होता है । स्वतन्त्रता और स्वायत्तता प्रथम हृदय में''
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का प्रयास किया उस समझ को व्यवस्थित बनाने हेतु चार
+
''केवल शिक्षा के ढाँचे से काम नहीं चलेगा और बाद में व्यवहार में लानी होगी ।''
   −
पुरुषार्थों, चार आश्रम, चार वर्ण, असंख्य जातियाँ आदि की
+
''०... अर्थकरी शिक्षा को उत्पादन के साथ आर्थिक क्षेत्र के... *... शिक्षा ने कुट्म्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना''
   −
रचना की और उन सबके व्यवहार के नियमों को निरूपित
+
''साथ जोड़ना होगा । होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने''
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करने वाला धर्मशास्त्र बनाया वास्तव में धर्मशास्त्र ही
+
''०... लोगों का रोजगार आज जिस आयु में निश्चित होता है कुट्म्बशिक्षा की योजना बनानी होगी समाज को''
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समाजशास्त्र है जिसे भारत की मनीषा ने मानव धर्मशास्त्र कहा
+
''उससे कहीं जल्दी निश्चित हो जाय ऐसा करना होगा, स्वायत्त बनाने की शुरूआत कुट्म्ब को स्वायत्त बनाने''
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और इस मानव धर्मशास्त्र को ही स्मृति कहा मानव
+
''भले ही प्रत्यक्ष अथर्जिन कानून के अनुसार अठारह से करनी होगी ''
   −
धर्मशास्त्र कहकर भारतीय मनीषा ने अपने आपको भारत में
+
''वर्ष में ही हो । अथर्जिन की पात्रता कम से कम दस... *... आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है''
   −
सीमित नहीं रखा अपितु संपूर्ण विश्व को अपना व्यवहारक्षेत्र
+
''वर्ष पूर्व ही निश्चित हो जाना आवश्यक है । अठारह उसके स्थान पर कुट्म्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी ।''
   −
बनाया ।
+
''वर्ष तक पात्रता ही निर्माण नहीं करना अत्यन्त शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अथर्जिन आदि का केन्द्र''
   −
मानवसम्बन्धों को आध्यात्मिक आधार देने हेतु उसने
+
''अव्यवहारिक है । erst को बनाना होगा । सांस्कृतिक इकाई और''
   −
कुट्म्ब की व्यवस्था बनाई, एक स्त्री और एक पुरुष को
+
''०... बड़े उद्योजकों को विकेन्द्रीकरण के लिए धर्माचार्यों ने आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ''
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पतिपत्नी बनाने हेतु विवाहसंस्कार और विवाहसंस्था की
+
''ही समझाना होगा । ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा ।''
   −
tat की, एकात्मता को परिवारभावना का स्वरूप दिया
+
''ov''
   −
और इस परिवारभावना का विस्तार संपूर्ण वसुधा बने ऐसे
+
देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण करने होंगे और संन्यासी लोगों को तथा शिक्षा को समर्पित लोगों को अध्ययन की योजना में लगना होगा । वानप्रस्थी लोगों का तो यह सामाजिक दायित्व ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग अथर्जिन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम में लगना होगा ।
   −
उदार Aaa को विकास का पर्याय बनाया ।
+
संक्षेप में शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन केवल चिन्तन का विषय नहीं है । वह कृति का विषय बनाना होगा । वह यदि कृति का विषय नहीं बनता तो पूर्व के दो प्रयोजन भी पूर्ण नहीं हो सकते ।
 
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9%
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परिवारभावना को ही. राज्यसंस्था,
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  −
वाणिज्यसंस्था, शिक्षाशास्त्र का भी केन्द्रवर्ती तत्त्व बनाया ।
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इस प्रकार उसने अगणित व्यवस्थायें और अगणित
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शास्त्र बनाये । साथ ही अगणित शास्त्र बनाने के लिये
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खुलापन भी रखा ।
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काल की गति और प्रभाव को तथा प्रकृति की
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परिवर्तनशीलता को समझकर उसने सारे व्यवहारशास्त्रों को
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परिवर्तनक्षम रखा । भेदों को स्वाभाविक मानकर उसमें
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विविधता और सुन्दरता को देखा और व्यवहार में समदृष्टि
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को ही आधार बनाया, भेदों को नहीं । दिखाई देने वाले भेदों
  −
 
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में आन्तरिक एकत्व का प्रतिपादन किया । इस प्रकार समाज
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को चिरंजीविता प्रदान की । समाज को चिरंजीव बनाने वाले
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मूल तत्त्वों को ही पहचानना भारत की मनीषा का खास
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लक्षण बना ।
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यहाँ शास्त्रों और व्यवस्थाओं का निरूपण करने का
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उद्देश्य नहीं है । यहाँ यह बताने का उद्देश्य है कि यह जो
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समाजव्यवस्था है उसे हर भारतीय के हृदय और बुद्धि में
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उतारने की व्यवस्था शिक्षा में होनी चाहिये क्योंकि शिक्षा के
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अलावा उसका कोई साधन नहीं है ।
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शिक्षा समाज को धर्म सिखाती है यह कथन यदि सही
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है तो इस कथन को लागू करने की प्रक्रिया क्या होगी इसका
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विचार करना होगा । यह विचार कौन करे और पहल कौन
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करे यह भी समस्या है क्योंकि आज सरकार ही सभी बातों
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का विचार करेगी ऐसा मानस बन गया है । इस मानसिकता
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को बदलने की प्रथम आवश्यकता है । यदि शासन इसका
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विचार नहीं करता है तो कौन इसका विचार करेगा यह भी
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निश्चित करना होगा । परम्परा देखें तो ऐसा विचार हमेशा
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शिक्षकों ने किया है और समाज ने उनका साथ दिया है ।
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वेदकाल के वसिष्ठ और विश्वामित्र से लेकर दो या ढाई हजार
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वर्ष पूर्व के चाणक्य तक सभी आचार्य इसके उदाहरण हैं ।
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ये सब आचार्य थे, ऋषि थे । वे प्रमुख रूप से धर्म जानते थे
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और ज्ञान के क्षेत्र के दिग्गज थे । वे सब मुक्ति के मार्ग की
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ही बात करते थे तो भी युद्ध भी करते थे और राजनीति भी
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करते थे । भगवान श्रीकृष्ण अध्यात्म, धर्म, युद्ध, राजनीति,
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संगीत, योग, अध्यापन, धर्मोपदेश आदि सबके steal
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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स्थापित करने वाले ही थे । आज भी शासन की सहायता, वि्ेंद्रित उत्पादन और आर्थिक
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शिक्षकों ने ही पहल करनी होगी और समाज के सहयोग से स्वतन्त्रता की संकल्पना की प्रतिष्ठा हो इस प्रकार से
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शिक्षा को समाज के लिए वास्तव में उपयोगी बनाना होगा । योजना करनी होगी । आज शिक्षा और अर्थव्यवस्था
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बार बार कहा जाता है कि शिक्षा का भारतीयकरण दोनों शासन की ज़िम्मेदारी बन गए हैं । शासन ने
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करना चाहिए । यह भी कहा जाता है कि यह काम शिक्षकों अपने आपकी मुक्ति के लिए भी अर्थ पुरुषार्थ को
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को ही करना चाहिए । परन्तु इस काम को करने की एक समाज आधारित बनाने की दिशा में प्रयत्नशील बनना
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योजना बनाये बिना यह काम हो नहीं सकता । होगा ।
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इस काम के कुछ चरण इस प्रकार हो सकते हैं ... ०... प्रजा के काम पुरुषार्थ को व्यवस्थित करना साधु-संतों
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०... सर्व प्रथम शिक्षकों को नौकरी की व्यवस्था से बाहर का काम है । उन्हें यह काम करना होगा ।
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निकल जाना होगा । ०... ज्ञान और धर्म की प्रतिष्ठा के लिए साधु संत, संन्यासी
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०... समाज को अथर्जिन हेतु नौकरी नहीं करना सिखाना आदि ने अपनी तपश्चर्या का पुण्य देना होगा । तपश्चर्या
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होगा । के पुण्य के बिना महत्त्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होते ।
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© aah हेतु भौतिक वस्तुओं का उत्पादन हो इस... *... देश में जिस प्रकार धार्मिक संगठन चल रहे हैं उसी
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बात को बढ़ावा देना होगा। प्रकार शैक्षिक संगठन भी चल रहे हैं । दोनों प्रकार के
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०... भारतीय समाज का नियंत्रक तत्त्व धर्म है । ब्रिटिश संगठनों को सरकार मुखापेक्षी बनाने के स्थान पर
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राज्य के चलते वह अर्थ हो गया है । धर्म को पुन: समाजमुखापेक्षी बनाना होगा और समाज को अधिक
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नियंत्रक बनाने के लिए धर्माचार्यों ने शिक्षकों को दायित्वबोध से युक्त बनाना होगा ।
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आधार देना होगा । धर्माचार्य और शिक्षक दोनों ने. *. इन दोनों संगठनों के साथ साथ आर्थिक संगठन बनाने
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मिलकर समाज के सहयोग से शिक्षा का एक भारतीय होंगे जो समाज को आर्थिक दृष्टि से स्वायत्त और
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ढाँचा तैयार करना होगा जो समाज के ही बल पर मानवतायुक्त बनायें ।
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खड़ा हो । ०... जो समाज आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं और समृद्ध
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०. शिक्षा का जो भी ढाँचा निर्माण हो उसमें आर्थिक नहीं उसकी संस्कृति का और उत्तम गुणों का नाश
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स्वतन्त्रता का विचार सबसे पहले करना होगा | होता है । स्वतन्त्रता और स्वायत्तता प्रथम हृदय में
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केवल शिक्षा के ढाँचे से काम नहीं चलेगा । और बाद में व्यवहार में लानी होगी ।
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०... अर्थकरी शिक्षा को उत्पादन के साथ आर्थिक क्षेत्र के... *... शिक्षा ने कुट्म्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना
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साथ जोड़ना होगा । होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने
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०... लोगों का रोजगार आज जिस आयु में निश्चित होता है कुट्म्बशिक्षा की योजना बनानी होगी । समाज को
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उससे कहीं जल्दी निश्चित हो जाय ऐसा करना होगा, स्वायत्त बनाने की शुरूआत कुट्म्ब को स्वायत्त बनाने
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भले ही प्रत्यक्ष अथर्जिन कानून के अनुसार अठारह से करनी होगी ।
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वर्ष में ही हो । अथर्जिन की पात्रता कम से कम दस... *... आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है
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वर्ष पूर्व ही निश्चित हो जाना आवश्यक है । अठारह उसके स्थान पर कुट्म्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी ।
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वर्ष तक पात्रता ही निर्माण नहीं करना अत्यन्त शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अथर्जिन आदि का केन्द्र
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अव्यवहारिक है । erst को बनाना होगा । सांस्कृतिक इकाई और
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०... बड़े उद्योजकों को विकेन्द्रीकरण के लिए धर्माचार्यों ने आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ
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ही समझाना होगा । ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा ।
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
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देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार
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बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण
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करने होंगे और संन्यासी लोगों को तथा शिक्षा को
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समर्पित लोगों को अध्ययन की योजना में लगना
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होगा । वानप्रस्थी लोगों का तो यह सामाजिक दायित्व
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ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग
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अथर्जिन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम
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में लगना होगा ।
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संक्षेप में शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन केवल चिन्तन
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का विषय नहीं है । वह कृति का विषय बनाना होगा । वह
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यदि कृति का विषय नहीं बनता तो पूर्व के दो प्रयोजन भी
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पूर्ण नहीं हो सकते ।
      
== व्यक्ति को समर्थ बनाना ==
 
== व्यक्ति को समर्थ बनाना ==
वर्तमान का सारा शिक्षा विचार व्यक्ति के लिए ही हो
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वर्तमान का सारा शिक्षा विचार व्यक्ति के लिए ही हो रहा है। मनुष्य को जीवनयात्रा चलाने के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है । अथर्जिन के लिए पात्रता चाहिए इसलिए बहुत छोटी आयु से उसे विद्यालय में भेज दिया जाता है । पन्द्रह बीस वर्ष उसका अध्ययन चलता है । वह अथर्जिन के लिए पात्र बना है ऐसा माना तो जाता है परन्तु अथर्जिन कर सकता है ऐसा नहीं होता । एक ओर उसके पास प्रमाणपत्र होते हुए भी अथर्जिन हेतु वास्तविक पात्रता उसमें नहीं होती । दूसरी ओर अधथर्जिन के अवसर भी व्यवस्थित आयोजन नहीं होने के कारण प्राप्त नहीं होते । शिक्षा की चर्चा होती है तब शिक्षाविद सबसे पहले यह कहते हैं कि शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है अथर्जिन के लिए नहीं परन्तु व्यवहार में अथार्जिन के संदर्भ में ही योजना होती है । स्थिति यह है कि न अथर्जिन होता है न ज्ञानार्जन और जीवन के अमूल्य वर्ष बर्बाद हो जाते हैं ।  
 
  −
रहा है। मनुष्य को जीवनयात्रा चलाने के लिए अर्थ की
  −
 
  −
आवश्यकता होती है । अथर्जिन के लिए पात्रता चाहिए
  −
 
  −
इसलिए बहुत छोटी आयु से उसे विद्यालय में भेज दिया
  −
 
  −
जाता है । पन्द्रह बीस वर्ष उसका अध्ययन चलता है । वह
  −
 
  −
अधथर्जिन के लिए पात्र बना है ऐसा माना तो जाता है परन्तु
  −
 
  −
अथर्जिन कर सकता है ऐसा नहीं होता । एक ओर उसके
  −
 
  −
पास प्रमाणपत्र होते हुए भी अथर्जिन हेतु वास्तविक पात्रता
  −
 
  −
उसमें नहीं होती । दूसरी ओर अधथर्जिन के अवसर भी
  −
 
  −
व्यवस्थित आयोजन नहीं होने के कारण प्राप्त नहीं होते ।
  −
 
  −
शिक्षा की चर्चा होती है तब शिक्षाविद सबसे पहले यह
  −
 
  −
कहते हैं कि शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है अधथर्जिन के
  −
 
  −
लिए नहीं परन्तु व्यवहार में अथार्जिन के संदर्भ में ही योजना
  −
 
  −
होती है । स्थिति यह है कि न अथर्जिन होता है न ज्ञानार्जन
  −
 
  −
और जीवन के अमूल्य वर्ष बर्बाद हो जाते हैं ।
  −
 
  −
आज की शिक्षा व्यक्ति के लिए इसलिए है कि हम
  −
 
  −
व्यक्तिकेन्द्री जीवनव्यवस्था को स्वीकार करके चलते हैं ।
  −
 
  −
वास्तव में भारतीय व्यवस्था कुट्म्ब को इकाई मानती है,
  −
 
  −
व्यक्ति को नहीं । व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था को स्वीकार करने के
  −
 
  −
कारण व्यक्ति के अथर्जिन और व्यक्ति के विकास और
  −
 
  −
करियर को ही प्राथमिकता दी जाती है । इससे भी बड़ी बड़ी
  −
 
  −
७५
  −
 
  −
2८ ५
  −
 
  −
2 ५.
  −
 
  −
समस्याएँ निर्माण होती हैं । मुख्य
  −
 
  −
समस्या तो यह है कि जिस व्यक्ति को केन्द्र में रखा जाता है
  −
 
  −
वही सबसे अधिक संकट में पड़ जाता है । साथ ही समाज
  −
 
  −
तो संकटग्रस्त होता ही है ।
  −
 
  −
अत: व्यक्ति को लेकर भी शिक्षा का विचार नये सिरे
  −
 
  −
से करना होगा ।
  −
 
  −
देशदुनिया की जो भी स्थिति हम चाहते हैं उसे प्राप्त
  −
 
  −
करने के लिये व्यक्ति को ही पुरुषार्थ करना होता है ।
  −
 
  −
व्यवस्था कुटुम्बकेन्द्री होती है, विचार अध्यात्मनिष्ठ होता है,
  −
 
  −
व्यवहार आत्त्मीयतायुक्त होता है परन्तु पुरुषार्थ व्यक्तिकेन्द्री
  −
 
  −
ही होता है । समर्थ राष्ट्र और सुन्दर विश्व के लिये प्रत्येक
  −
 
  −
व्यक्ति को ही समर्थ और सज्जन बनना होता है । शिक्षा
  −
 
  −
व्यक्ति को समर्थ और सज्जन बनाने वाली होनी चाहिए ।
  −
 
  −
व्यक्ति को समर्थ और सज्जन बनाने के लिये कुछ इस
  −
 
  −
प्रकार से शिक्षा का विचार करना होगा ...
  −
 
  −
०... प्रथम उसकी सोच बदलनी होगी । जगत मेरे लिये है
  −
 
  −
और मैं उसका मेरे सुख के लिये उपयोग कर सकता हूँ
  −
 
  −
इस विचार को उसे त्याग देना होगा । उसके स्थान पर
  −
 
  −
मैं इस जगत के लिये हूँ और मेरे सामर्थ्य का उपयोग
  −
 
  −
जगत के भले के लिये कर सकूँ इसलिए मुझे सामर्थ्य
  −
 
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प्राप्त करना चाहिए ऐसा विचार उसे देना होगा ।
  −
 
  −
०... सुख प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य है इसलिए
  −
 
  −
प्रत्येक व्यक्ति ने उसे प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ
  −
 
  −
करना ही चाहिए परन्तु पढ़ने वाले व्यक्ति को समझ
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देनी चाहिए कि अपने आसपास के लोगों के सुख का
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विचार किए बिना अकेले को कभी भी सुख प्राप्त नहीं
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हो सकता । ऐसी इच्छा कभी भी पूर्ण हो नहीं
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सकती । उल्टे व्यक्ति की और अन्य लोगों की
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परेशानियाँ ही बढ़ती हैं ।
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०... मनुष्य सुख चाहता है उसमें तो कोई बुराई नहीं है
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परन्तु सुख क्या है यह समझना आवश्यक है । केवल
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खानेपीने और इंद्रियों के उपभोग में ही सुख नहीं है ।
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मनुष्य केवल शारीरिक और मानसिक सुखों से संतुष्ट
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नहीं होता है । उसे आत्मिक सुख की उतनी ही
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कामना होती है जितनी इंद्रियों के सुख की । यह सुख
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प्राप्त कैसे करना यह उसे सिखाना
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चाहिए ।
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मनुष्य के जीवन का लक्ष्य मोक्ष है । आज मोक्ष संज्ञा
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का प्रयोग भी होता नहीं है, उसे लक्ष्य बनाने की और
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समझने की बात तो बहुत दूर की है ।
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मनुष्य की भिन्न भिन्न संदर्भों में, भिन्न भिन्न
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परिस्थितियों में भिन्न भिन्न भूमिकायें निभानी होती हैं ।
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वह व्यक्ति के रूप में तो युवा या वृद्ध, सुन्दर या
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कुरूप, बुद्धिमान या निर्बुद्ध, बलवान या दुर्बल होता
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है । इस व्यक्तित्व को पहचानकर उसे व्यवहार करना
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चाहिए । परन्तु कुटुम्ब में वह किसीका भाई, किसीका
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पति, किसीका पिता और किसीका पुत्र होता है ।
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अन्य भी अनेक रिश्ते होते हैं । इन सब सम्बन्धों के
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कारण उसके अनेक कर्तव्य और अधिकार होते हैं ।
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इनको भी सम्यक रूप में जानकर व्यवहार करना
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आना चाहिए । समाज में वह एक व्यवसायी है । उसे
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लेकर भी उसके अनेक दायित्व होते हैं । एक नागरिक
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के नाते वह एक भारतीय है । उसे भारतीय के नाते
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व्यवहार करना अपेक्षित है । यह व्यवहार सिखाना
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शिक्षा का ही काम है ।
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सृष्टि के प्राणीजगत ot, वनस्पतिजगत को,
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पंचमहाभूतों को उससे सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए । वे
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मनुष्य से भयभीत न हों उसी में उसका बड़प्पन है,
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उसका श्रेष्ठत्व है । मैं श्रेष्ठ हूँ इसलिए मैं सबको अपने
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वश में करूँगा ऐसा नहीं अपितु मैं बड़ा हूँ इसलिए
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सबकी रक्षा करूँगा ऐसा उसका भाव और व्यवहार
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होना चाहिये ।
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व्यक्ति को समर्थ बनाने का अर्थ है उसमें अपने मन
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को वश में रखने की शक्ति होनी चाहिए । अपनी
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इच्छाशक्ति को बलवान बनाने से ही कार्यसिद्धि होती
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है यह व्यक्ति की समझ में आना चाहिए । स्वामी
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विवेकानंद मन से संबंधित दो शक्तियों की चाह रखते
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हैं । ये दो शक्तियाँ हैं एकाग्रता की और ब्रह्मचर्य की ।
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ये दोनों सामर्थ्य बढ़ाने की शक्तियाँ हैं । इस दृष्टि से
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पाठ्यक्रमों की रचना होना आवश्यक है ।
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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मनुष्य को बुद्धिपूर्वक व्यवहार करना चाहिए । उसकी
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बुद्धि का सामर्थ्य बढ़ाना चाहिए । अपनी बुद्धि से
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ब्रह्माण्ड के रहस्य खोल सके ऐसा सामर्थ्य उसमें है ।
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शिक्षा के माध्यम से उसका विकास होना चाहिए ।
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पूर्व में कहा है उसके अनुसार समाजधारणा के लिये
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आवश्यक शास्त्रों की रचना करना तथा शास्त्र के
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अनुसार प्रत्यक्ष व्यवहार करना ही बुद्धिपूर्वक व्यवहार
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करना है । स्वयं शास्त्र की रचना करना और अन्यों ने
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की हुई रचना समझना उसका काम है । ऐसी बुद्धि का
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विकास शिक्षा के माध्यम से होना चाहिए ।
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स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है ।
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शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक के साथ साथ सामाजिक
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और आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने हेतु और प्राप्त
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स्वतन्त्रता की रक्षा करने हेतु उसने समर्थ बनना
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चाहिए । परन्तु अपने अकेले की स्वतन्त्रता की रक्षा
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पर्याप्त नहीं है । अन्य सभी व्यक्तियों की तथा पदार्थों
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की स्वतन्त्रता की भी रक्षा करनी चाहिए । सबकी
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स्वतंत्र सत्ता का आदर करना उसका कर्तव्य है ।
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अपनी निर्माणशील बुद्धि और कार्यकुशल हाथों का
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उपयोग कर मनुष्य को अनेक वस्तुओं का तथा
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कल्पनाशक्ति एवं सृूजनशीलता का उपयोग कर अनेक
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कलाकृतियों का सृजन करना चाहिए । साहित्य,
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संगीत, कला आदि उसकी प्रतिभा के क्षेत्र हैं । उसे
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इस क्षेत्र में भी प्रवीण बनाना शिक्षा का काम है ।
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मनुष्य आध्यात्मिक सत्ता है इसकी अनुभूति तक
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पहुँचाना भी उसका लक्ष्य होना चाहिये । साधना
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करना सिखाना भी शिक्षा का ही काम है ।
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संक्षेप में समर्थ मनुष्य से ही शेष सारे प्रयोजन सिद्ध हो
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सकते हैं इस बात को स्वीकार कर शिक्षा की योजना
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करने से ही समाज की संस्कृति और समृद्धि का विकास
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हो सकता है । श्रेष्ठ समाज सुसंस्कृत और समृद्ध होता
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है । व्यक्ति श्रेष्ठ समाज का अंग बनकर अभ्युद्य और
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निःश्रेयस को प्राप्त कर सकता है ।
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इस प्रकार शिक्षा के प्रयोजन का विचार समग्रता में
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करना चाहिए । वर्तमान स्थिति से यह सर्वथा विपरीत है यह
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
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वस्तुस्थिति है । परन्तु केवल आज की स्थिति से विपरीत है
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इसलिए वह अनुचित या अव्यावहारिक नहीं हो जाता । उसे
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ठीक से समझकर व्यावहारिक बनाने की ही योजना करना
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अपेक्षित है । शिक्षा का अभारतीय प्रतिमान दूर कर यदि
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भारतीय प्रतिमान पुनः स्थापित करना है तो बहुत व्यापक
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प्रयास करने होंगे । यह केवल चिन्तन का विषय नहीं है,
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चिन्तन को व्यावहारिक बनाने हेतु कृति का भी विषय है ।
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अनेक संस्थाओं और संगठनों को मिलकर करना चाहिए
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ऐसा यह कार्य है । कहीं पर भी समझौते
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न करते हुए मूल में जाकर, छोटी से छोटी बात पर ध्यान देते
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हुए करने का यह कार्य है । आज समझौते करने की प्रवृत्ति
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बहुत दिखाई देती है । उसको आग्रहपूर्वक छोड़ना चाहिए
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आज की शिक्षा व्यक्ति के लिए इसलिए है कि हम व्यक्तिकेन्द्री जीवनव्यवस्था को स्वीकार करके चलते हैं वास्तव में भारतीय व्यवस्था कुट्म्ब को इकाई मानती है, व्यक्ति को नहीं । व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था को स्वीकार करने के कारण व्यक्ति के अथर्जिन और व्यक्ति के विकास और करियर को ही प्राथमिकता दी जाती है । इससे भी बड़ी बड़ी समस्याएँ निर्माण होती हैं । मुख्य समस्या तो यह है कि जिस व्यक्ति को केन्द्र में रखा जाता है वही सबसे अधिक संकट में पड़ जाता है । साथ ही समाज तो संकटग्रस्त होता ही है
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भारत की शिक्षा यदि ठीक हो गई तो केवल भारत को ही
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अत: व्यक्ति को लेकर भी शिक्षा का विचार नये सिरे से करना होगा ।
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नहीं तो सम्पूर्ण विश्व को लाभ होगा क्योंकि भारत हमेशा
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देशदुनिया की जो भी स्थिति हम चाहते हैं उसे प्राप्त करने के लिये व्यक्ति को ही पुरुषार्थ करना होता है । व्यवस्था कुटुम्बकेन्द्री होती है, विचार अध्यात्मनिष्ठ होता है, व्यवहार आत्त्मीयतायुक्त होता है परन्तु पुरुषार्थ व्यक्तिकेन्द्री ही होता है । समर्थ राष्ट्र और सुन्दर विश्व के लिये प्रत्येक व्यक्ति को ही समर्थ और सज्जन बनना होता है । शिक्षा व्यक्ति को समर्थ और सज्जन बनाने वाली होनी चाहिए ।
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समग्र विश्व के कल्याण का ही विचार करता है ।
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व्यक्ति को समर्थ और सज्जन बनाने के लिये कुछ इस प्रकार से शिक्षा का विचार करना होगा:
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* प्रथम उसकी सोच बदलनी होगी । जगत मेरे लिये है और मैं उसका मेरे सुख के लिये उपयोग कर सकता हूँ इस विचार को उसे त्याग देना होगा । उसके स्थान पर मैं इस जगत के लिये हूँ और मेरे सामर्थ्य का उपयोग जगत के भले के लिये कर सकूँ इसलिए मुझे सामर्थ्य प्राप्त करना चाहिए ऐसा विचार उसे देना होगा ।
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* सुख प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य है इसलिए प्रत्येक व्यक्ति ने उसे प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ करना ही चाहिए परन्तु पढ़ने वाले व्यक्ति को समझ देनी चाहिए कि अपने आसपास के लोगों के सुख का विचार किए बिना अकेले को कभी भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसी इच्छा कभी भी पूर्ण हो नहीं सकती । उल्टे व्यक्ति की और अन्य लोगों की परेशानियाँ ही बढ़ती हैं ।
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* मनुष्य सुख चाहता है उसमें तो कोई बुराई नहीं है परन्तु सुख क्या है यह समझना आवश्यक है । केवल खानेपीने और इंद्रियों के उपभोग में ही सुख नहीं है । मनुष्य केवल शारीरिक और मानसिक सुखों से संतुष्ट नहीं होता है । उसे आत्मिक सुख की उतनी ही कामना होती है जितनी इंद्रियों के सुख की । यह सुख प्राप्त कैसे करना यह उसे सिखाना चाहिए ।
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* मनुष्य के जीवन का लक्ष्य मोक्ष है । आज मोक्ष संज्ञा का प्रयोग भी होता नहीं है, उसे लक्ष्य बनाने की और समझने की बात तो बहुत दूर की है ।
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* मनुष्य की भिन्न भिन्न संदर्भों में, भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न भिन्न भूमिकायें निभानी होती हैं । वह व्यक्ति के रूप में तो युवा या वृद्ध, सुन्दर या कुरूप, बुद्धिमान या निर्बुद्ध, बलवान या दुर्बल होता है । इस व्यक्तित्व को पहचानकर उसे व्यवहार करना चाहिए । परन्तु कुटुम्ब में वह किसी का भाई, किसी का पति, किसी का पिता और किसी का पुत्र होता है । अन्य भी अनेक रिश्ते होते हैं । इन सब सम्बन्धों के कारण उसके अनेक कर्तव्य और अधिकार होते हैं । इनको भी सम्यक रूप में जानकर व्यवहार करना आना चाहिए । समाज में वह एक व्यवसायी है । उसे लेकर भी उसके अनेक दायित्व होते हैं । एक नागरिक के नाते वह एक भारतीय है । उसे भारतीय के नाते व्यवहार करना अपेक्षित है । यह व्यवहार सिखाना शिक्षा का ही काम है ।
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* सृष्टि के प्राणीजगत, वनस्पतिजगत को, पंचमहाभूतों को उससे सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए । वे मनुष्य से भयभीत न हों उसी में उसका बड़प्पन है, उसका श्रेष्ठत्व है । मैं श्रेष्ठ हूँ इसलिए मैं सबको अपने वश में करूँगा ऐसा नहीं अपितु मैं बड़ा हूँ इसलिए सबकी रक्षा करूँगा ऐसा उसका भाव और व्यवहार होना चाहिये ।
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* व्यक्ति को समर्थ बनाने का अर्थ है उसमें अपने मन को वश में रखने की शक्ति होनी चाहिए । अपनी इच्छाशक्ति को बलवान बनाने से ही कार्यसिद्धि होती है यह व्यक्ति की समझ में आना चाहिए । स्वामी विवेकानंद मन से संबंधित दो शक्तियों की चाह रखते हैं । ये दो शक्तियाँ हैं एकाग्रता की और ब्रह्मचर्य की । ये दोनों सामर्थ्य बढ़ाने की शक्तियाँ हैं । इस दृष्टि से पाठ्यक्रमों की रचना होना आवश्यक है ।
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* मनुष्य को बुद्धिपूर्वक व्यवहार करना चाहिए । उसकी बुद्धि का सामर्थ्य बढ़ाना चाहिए । अपनी बुद्धि से ब्रह्माण्ड के रहस्य खोल सके ऐसा सामर्थ्य उसमें है । शिक्षा के माध्यम से उसका विकास होना चाहिए । पूर्व में कहा है उसके अनुसार समाजधारणा के लिये आवश्यक शास्त्रों की रचना करना तथा शास्त्र के अनुसार प्रत्यक्ष व्यवहार करना ही बुद्धिपूर्वक व्यवहार करना है । स्वयं शास्त्र की रचना करना और अन्यों ने की हुई रचना समझना उसका काम है । ऐसी बुद्धि का विकास शिक्षा के माध्यम से होना चाहिए।
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* स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक के साथ साथ सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने हेतु और प्राप्त स्वतन्त्रता की रक्षा करने हेतु उसने समर्थ बनना चाहिए । परन्तु अपने अकेले की स्वतन्त्रता की रक्षा पर्याप्त नहीं है । अन्य सभी व्यक्तियों की तथा पदार्थों की स्वतन्त्रता की भी रक्षा करनी चाहिए । सबकी स्वतंत्र सत्ता का आदर करना उसका कर्तव्य है । अपनी निर्माणशील बुद्धि और कार्यकुशल हाथों का उपयोग कर मनुष्य को अनेक वस्तुओं का तथा कल्पनाशक्ति एवं सृूजनशीलता का उपयोग कर अनेक कलाकृतियों का सृजन करना चाहिए । साहित्य, संगीत, कला आदि उसकी प्रतिभा के क्षेत्र हैं । उसे इस क्षेत्र में भी प्रवीण बनाना शिक्षा का काम है ।
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* मनुष्य आध्यात्मिक सत्ता है इसकी अनुभूति तक पहुँचाना भी उसका लक्ष्य होना चाहिये । साधना करना सिखाना भी शिक्षा का ही काम है । संक्षेप में समर्थ मनुष्य से ही शेष सारे प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं इस बात को स्वीकार कर शिक्षा की योजना करने से ही समाज की संस्कृति और समृद्धि का विकास हो सकता है । श्रेष्ठ समाज सुसंस्कृत और समृद्ध होता है । व्यक्ति श्रेष्ठ समाज का अंग बनकर अभ्युद्य और निःश्रेयस को प्राप्त कर सकता है ।
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इस प्रकार शिक्षा के प्रयोजन का विचार समग्रता में करना चाहिए । वर्तमान स्थिति से यह सर्वथा विपरीत है यह वस्तुस्थिति है । परन्तु केवल आज की स्थिति से विपरीत है इसलिए वह अनुचित या अव्यावहारिक नहीं हो जाता । उसे ठीक से समझकर व्यावहारिक बनाने की ही योजना करना अपेक्षित है । शिक्षा का अभारतीय प्रतिमान दूर कर यदि भारतीय प्रतिमान पुनः स्थापित करना है तो बहुत व्यापक प्रयास करने होंगे । यह केवल चिन्तन का विषय नहीं है, चिन्तन को व्यावहारिक बनाने हेतु कृति का भी विषय है । अनेक संस्थाओं और संगठनों को मिलकर करना चाहिए ऐसा यह कार्य है । कहीं पर भी समझौते न करते हुए मूल में जाकर, छोटी से छोटी बात पर ध्यान देते हुए करने का यह कार्य है । आज समझौते करने की प्रवृत्ति बहुत दिखाई देती है । उसको आग्रहपूर्वक छोड़ना चाहिए । भारत की शिक्षा यदि ठीक हो गई तो केवल भारत को ही नहीं तो सम्पूर्ण विश्व को लाभ होगा क्योंकि भारत हमेशा समग्र विश्व के कल्याण का ही विचार करता है ।
    
==References==
 
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