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== सत्य और धर्म<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> ==
 
== सत्य और धर्म<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> ==
हम सब यह जानते हैं कि सत्य और धर्म इस सृष्टि की धारणा करने वाले मूल तत्त्व हैं । धर्म विश्वनियम हैं । इस सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही धर्म की भी उत्पत्ति हुई है।वर्तमान सृष्टि के प्रलय के बाद भी नई सृष्टि के सृजन के लिये जो बीज बचे रहते हैं उनके साथ धर्म के भी बीज बचे रहते हैं । इस धर्म को जानना, समझना और अपनाना मनुष्य का कर्तव्य है । यही मनुष्य के लिये प्रमुख रूप से और सर्व प्रथम करणीय कार्य है ।
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हम सब यह जानते हैं कि सत्य और धर्म इस सृष्टि की धारणा करने वाले मूल तत्व हैं । धर्म विश्वनियम हैं । इस सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही धर्म की भी उत्पत्ति हुई है।वर्तमान सृष्टि के प्रलय के बाद भी नई सृष्टि के सृजन के लिये जो बीज बचे रहते हैं उनके साथ धर्म के भी बीज बचे रहते हैं । इस धर्म को जानना, समझना और अपनाना मनुष्य का कर्तव्य है । यही मनुष्य के लिये प्रमुख रूप से और सर्व प्रथम करणीय कार्य है ।
    
सत्य इसकी वाचिक अभिव्यक्ति है। जो धर्म नहीं बोलता वह सत्य नहीं है और जो सत्य में प्रतिष्ठित नहीं होता वह धर्म नहीं है । सत्य केवल मनुष्य के लिये है जबकि धर्म
 
सत्य इसकी वाचिक अभिव्यक्ति है। जो धर्म नहीं बोलता वह सत्य नहीं है और जो सत्य में प्रतिष्ठित नहीं होता वह धर्म नहीं है । सत्य केवल मनुष्य के लिये है जबकि धर्म
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यह संघर्ष मनुष्य के मन में भी है और मनुष्य का जहाँ जहाँ संचार है वहाँ बाहर के जगत में भी है। इस संघर्ष का कारण मनुष्य ही है । बाहरी संघर्ष का स्रोत भी उसका आन्तरिक संघर्ष है । मनुष्य सत्य और धर्म को नहीं जानता है ऐसा भी नहीं है । सत्य और धर्म का भान ही ज्ञान है । परन्तु इन बातों पर अज्ञान का आवरण छाया हुआ होने के कारण वह असत्य और अधर्म का आचरण करता है। कभी कभी तो वह असत्य और अधर्म को जानता भी है तथापि मन की दुर्बलता के कारण अनुचित व्यवहार करता है । सत्य और धर्म का आचरण उसके लिये सहज नहीं होता है ।
 
यह संघर्ष मनुष्य के मन में भी है और मनुष्य का जहाँ जहाँ संचार है वहाँ बाहर के जगत में भी है। इस संघर्ष का कारण मनुष्य ही है । बाहरी संघर्ष का स्रोत भी उसका आन्तरिक संघर्ष है । मनुष्य सत्य और धर्म को नहीं जानता है ऐसा भी नहीं है । सत्य और धर्म का भान ही ज्ञान है । परन्तु इन बातों पर अज्ञान का आवरण छाया हुआ होने के कारण वह असत्य और अधर्म का आचरण करता है। कभी कभी तो वह असत्य और अधर्म को जानता भी है तथापि मन की दुर्बलता के कारण अनुचित व्यवहार करता है । सत्य और धर्म का आचरण उसके लिये सहज नहीं होता है ।
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शिक्षा का प्रमुख प्रयोजन उसे सत्य और धर्म सिखाना है । यह काम सरल नहीं है । धर्म का तत्त्व जानना कितना दुष्कर है इसे बताते हुए सुभाषित कहता है{{Citation needed}}  
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शिक्षा का प्रमुख प्रयोजन उसे सत्य और धर्म सिखाना है । यह काम सरल नहीं है । धर्म का तत्व जानना कितना दुष्कर है इसे बताते हुए सुभाषित कहता है{{Citation needed}}  
:<blockquote>तरकों प्रतिष्ठ स्पृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्थ वच: प्रमाणम्‌</blockquote><blockquote>धर्मस्य तत्त्वम निहितम गुहायाम्‌ महाजनो येन गत: स पंथा ।।</blockquote>अर्थात्‌ तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । तर्क कुछ भी सिद्ध कर सकता है । स्मृतियाँ सब अलग अलग बातें बताती हैं । सारे मुनि अर्थात्‌ मनीषी ऐसी बात करते हैं जिन्हें प्रमाण मानने को मन नहीं करता है । धर्म का तत्त्व ऐसी गुफा में छिपा हुआ है कि हमारे लिये महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं उसी मार्ग पर जाना श्रेयस्कर होता है ।
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:<blockquote>तरकों प्रतिष्ठ स्पृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्थ वच: प्रमाणम्‌</blockquote><blockquote>धर्मस्य तत्वम निहितम गुहायाम्‌ महाजनो येन गत: स पंथा ।।</blockquote>अर्थात्‌ तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । तर्क कुछ भी सिद्ध कर सकता है । स्मृतियाँ सब अलग अलग बातें बताती हैं । सारे मुनि अर्थात्‌ मनीषी ऐसी बात करते हैं जिन्हें प्रमाण मानने को मन नहीं करता है । धर्म का तत्व ऐसी गुफा में छिपा हुआ है कि हमारे लिये महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं उसी मार्ग पर जाना श्रेयस्कर होता है ।
    
सामान्य जन की यह कठिनाई है। तर्क उसकी बुद्धि में उतरता नहीं इसलिए उसके जंगल में भटक जाता है। स्मृतियाँ कालानुरूप होती हैं इसलिए कालबाह्म भी होती हैं। अनेक स्मृतियों में से कौनसी मानना इसका विवेक करना होता है जो उसके पास नहीं होता है। विवेक इसलिए नहीं होता क्योंकि उसकी उसे शिक्षा नहीं मिली होती है । मनीषियों का भी मामला स्मृतियों जैसा ही होता है। उनके वचनों में उसे श्रद्धा नहीं होती। अत: वह और किसी झंझट में न पड़ते हुए स्वयं जिन्हें महाजन मानता है उनका अनुसरण और अनुकरण करता है। किसे महाजन मानना यह निश्चित करने का विवेक अथवा परम्परा यदि उसके पास है तो यह सरल मार्ग है । परन्तु यह विवेक होना ही कठिन है क्योंकि ऐसा विवेक सिखाने वाला भी धर्म ही होता है। इसलिए सामान्य जन हो या विशेष जन उसे धर्म तो सीखना ही होता है।
 
सामान्य जन की यह कठिनाई है। तर्क उसकी बुद्धि में उतरता नहीं इसलिए उसके जंगल में भटक जाता है। स्मृतियाँ कालानुरूप होती हैं इसलिए कालबाह्म भी होती हैं। अनेक स्मृतियों में से कौनसी मानना इसका विवेक करना होता है जो उसके पास नहीं होता है। विवेक इसलिए नहीं होता क्योंकि उसकी उसे शिक्षा नहीं मिली होती है । मनीषियों का भी मामला स्मृतियों जैसा ही होता है। उनके वचनों में उसे श्रद्धा नहीं होती। अत: वह और किसी झंझट में न पड़ते हुए स्वयं जिन्हें महाजन मानता है उनका अनुसरण और अनुकरण करता है। किसे महाजन मानना यह निश्चित करने का विवेक अथवा परम्परा यदि उसके पास है तो यह सरल मार्ग है । परन्तु यह विवेक होना ही कठिन है क्योंकि ऐसा विवेक सिखाने वाला भी धर्म ही होता है। इसलिए सामान्य जन हो या विशेष जन उसे धर्म तो सीखना ही होता है।
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राष्ट्रीयता की व्यवस्थाओं को ही व्यवस्थाधर्म और जीवनशैली कहते हैं । उदाहरण के लिये भारत राष्ट्र की जीवनदृष्टि की कुछ धारणायें इस प्रकार हैं:
 
राष्ट्रीयता की व्यवस्थाओं को ही व्यवस्थाधर्म और जीवनशैली कहते हैं । उदाहरण के लिये भारत राष्ट्र की जीवनदृष्टि की कुछ धारणायें इस प्रकार हैं:
* यह सृष्टि आत्मतत्त्व का विस्तार है ।
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* यह सृष्टि आत्मतत्व का विस्तार है ।
 
* जीवन एक और अखण्ड है ।
 
* जीवन एक और अखण्ड है ।
 
* सृष्टि के सारे सजीव निर्जीव पदार्थों का आपसी सम्बन्ध एकात्मता का है ।
 
* सृष्टि के सारे सजीव निर्जीव पदार्थों का आपसी सम्बन्ध एकात्मता का है ।
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किया है। भौतिक समृद्धि के लिये मनुष्य ने अनेक वस्तुओं के उत्पादन की कला सीखी है। साथ ही उनके निर्माण, वितरण और उपभोग की व्यवस्था बनाई । वस्तुओं के निर्माण में सहायक हों ऐसे यंत्र बनाए। अपने कई काम सुकर हो सकें इसलिए भी यंत्र बनाए। इस सृष्टि को जानना चाहा और भौतिक विज्ञानों के शास्त्र बने । इन विज्ञानों की सहायता से उसने यंत्र तथा अन्य उपभोग के पदार्थ बनाये। विज्ञान को उसने केवल जिज्ञासा की पूर्ति तक सीमित नहीं रखा अपितु अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनाया। इसलिए  तंत्रज्ञान का अध्ययन विज्ञान के साथ गौण रूप से और मनोविज्ञान के साथ और मन को नियंत्रित करने वाले धर्मशास्त्र के साथ मुख्य रूप से करना चाहिये।
 
किया है। भौतिक समृद्धि के लिये मनुष्य ने अनेक वस्तुओं के उत्पादन की कला सीखी है। साथ ही उनके निर्माण, वितरण और उपभोग की व्यवस्था बनाई । वस्तुओं के निर्माण में सहायक हों ऐसे यंत्र बनाए। अपने कई काम सुकर हो सकें इसलिए भी यंत्र बनाए। इस सृष्टि को जानना चाहा और भौतिक विज्ञानों के शास्त्र बने । इन विज्ञानों की सहायता से उसने यंत्र तथा अन्य उपभोग के पदार्थ बनाये। विज्ञान को उसने केवल जिज्ञासा की पूर्ति तक सीमित नहीं रखा अपितु अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनाया। इसलिए  तंत्रज्ञान का अध्ययन विज्ञान के साथ गौण रूप से और मनोविज्ञान के साथ और मन को नियंत्रित करने वाले धर्मशास्त्र के साथ मुख्य रूप से करना चाहिये।
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मनुष्य ने चिन्तन किया और अपने जीवन को समझने का प्रयास किया । उस समझ को व्यवस्थित बनाने हेतु चार पुरुषार्थों, चार आश्रम, चार वर्ण, असंख्य जातियाँ आदि की रचना की और उन सबके व्यवहार के नियमों को निरूपित करने वाला धर्मशास्त्र बनाया । वास्तव में धर्मशास्त्र ही समाजशास्त्र है जिसे भारत की मनीषा ने मानव धर्मशास्त्र कहा और इस मानव धर्मशास्त्र को ही स्मृति कहा । मानव धर्मशास्त्र कहकर भारतीय मनीषा ने अपने आपको भारत में सीमित नहीं रखा अपितु संपूर्ण विश्व को अपना व्यवहारक्षेत्र बनाया। मानवसम्बन्धों को आध्यात्मिक आधार देने हेतु उसने कुट्म्ब की व्यवस्था बनाई, एक स्त्री और एक पुरुष को पतिपत्नी बनाने हेतु विवाह संस्कार और विवाह संस्था की रचना की, एकात्मता को परिवारभावना का स्वरूप दिया और इस परिवारभावना का विस्तार संपूर्ण वसुधा बने ऐसे उदार अंतःकरण को विकास का पर्याय बनाया । परिवारभावना को ही राज्यसंस्था, वाणिज्यसंस्था, शिक्षाशास्त्र का भी केन्द्रवर्ती तत्त्व बनाया । इस प्रकार उसने अगणित व्यवस्थायें और अगणित शास्त्र बनाये । साथ ही अगणित शास्त्र बनाने के लिये खुलापन भी रखा ।
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मनुष्य ने चिन्तन किया और अपने जीवन को समझने का प्रयास किया । उस समझ को व्यवस्थित बनाने हेतु चार पुरुषार्थों, चार आश्रम, चार वर्ण, असंख्य जातियाँ आदि की रचना की और उन सबके व्यवहार के नियमों को निरूपित करने वाला धर्मशास्त्र बनाया । वास्तव में धर्मशास्त्र ही समाजशास्त्र है जिसे भारत की मनीषा ने मानव धर्मशास्त्र कहा और इस मानव धर्मशास्त्र को ही स्मृति कहा । मानव धर्मशास्त्र कहकर भारतीय मनीषा ने अपने आपको भारत में सीमित नहीं रखा अपितु संपूर्ण विश्व को अपना व्यवहारक्षेत्र बनाया। मानवसम्बन्धों को आध्यात्मिक आधार देने हेतु उसने कुट्म्ब की व्यवस्था बनाई, एक स्त्री और एक पुरुष को पतिपत्नी बनाने हेतु विवाह संस्कार और विवाह संस्था की रचना की, एकात्मता को परिवारभावना का स्वरूप दिया और इस परिवारभावना का विस्तार संपूर्ण वसुधा बने ऐसे उदार अंतःकरण को विकास का पर्याय बनाया । परिवारभावना को ही राज्यसंस्था, वाणिज्यसंस्था, शिक्षाशास्त्र का भी केन्द्रवर्ती तत्व बनाया । इस प्रकार उसने अगणित व्यवस्थायें और अगणित शास्त्र बनाये । साथ ही अगणित शास्त्र बनाने के लिये खुलापन भी रखा ।
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काल की गति और प्रभाव को तथा प्रकृति की परिवर्तनशीलता को समझकर उसने सारे व्यवहारशास्त्रों को परिवर्तनक्षम रखा । भेदों को स्वाभाविक मानकर उसमें विविधता और सुन्दरता को देखा और व्यवहार में समदृष्टि को ही आधार बनाया, भेदों को नहीं । दिखाई देने वाले भेदों में आन्तरिक एकत्व का प्रतिपादन किया । इस प्रकार समाज को चिरंजीविता प्रदान की । समाज को चिरंजीव बनाने वाले मूल तत्त्वों को ही पहचानना भारत की मनीषा का खास लक्षण बना ।
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काल की गति और प्रभाव को तथा प्रकृति की परिवर्तनशीलता को समझकर उसने सारे व्यवहारशास्त्रों को परिवर्तनक्षम रखा । भेदों को स्वाभाविक मानकर उसमें विविधता और सुन्दरता को देखा और व्यवहार में समदृष्टि को ही आधार बनाया, भेदों को नहीं । दिखाई देने वाले भेदों में आन्तरिक एकत्व का प्रतिपादन किया । इस प्रकार समाज को चिरंजीविता प्रदान की । समाज को चिरंजीव बनाने वाले मूल तत्वों को ही पहचानना भारत की मनीषा का खास लक्षण बना ।
    
यहाँ शास्त्रों और व्यवस्थाओं का निरूपण करने का उद्देश्य नहीं है । यहाँ यह बताने का उद्देश्य है कि यह जो समाजव्यवस्था है उसे हर भारतीय के हृदय और बुद्धि में उतारने की व्यवस्था शिक्षा में होनी चाहिये क्योंकि शिक्षा के अलावा उसका कोई साधन नहीं है । शिक्षा समाज को धर्म सिखाती है यह कथन यदि सही है तो इस कथन को लागू करने की प्रक्रिया क्या होगी इसका विचार करना होगा । यह विचार कौन करे और पहल कौन करे यह भी समस्या है क्योंकि आज सरकार ही सभी बातों का विचार करेगी ऐसा मानस बन गया है । इस मानसिकता को बदलने की प्रथम आवश्यकता है । यदि शासन इसका विचार नहीं करता है तो कौन इसका विचार करेगा यह भी निश्चित करना होगा । परम्परा देखें तो ऐसा विचार हमेशा शिक्षकों ने किया है और समाज ने उनका साथ दिया है ।
 
यहाँ शास्त्रों और व्यवस्थाओं का निरूपण करने का उद्देश्य नहीं है । यहाँ यह बताने का उद्देश्य है कि यह जो समाजव्यवस्था है उसे हर भारतीय के हृदय और बुद्धि में उतारने की व्यवस्था शिक्षा में होनी चाहिये क्योंकि शिक्षा के अलावा उसका कोई साधन नहीं है । शिक्षा समाज को धर्म सिखाती है यह कथन यदि सही है तो इस कथन को लागू करने की प्रक्रिया क्या होगी इसका विचार करना होगा । यह विचार कौन करे और पहल कौन करे यह भी समस्या है क्योंकि आज सरकार ही सभी बातों का विचार करेगी ऐसा मानस बन गया है । इस मानसिकता को बदलने की प्रथम आवश्यकता है । यदि शासन इसका विचार नहीं करता है तो कौन इसका विचार करेगा यह भी निश्चित करना होगा । परम्परा देखें तो ऐसा विचार हमेशा शिक्षकों ने किया है और समाज ने उनका साथ दिया है ।
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वेदकाल के वसिष्ठ और विश्वामित्र से लेकर दो या ढाई हजार वर्ष पूर्व के चाणक्य तक सभी आचार्य इसके उदाहरण हैं । ये सब आचार्य थे, ऋषि थे । वे प्रमुख रूप से धर्म जानते थे और ज्ञान के क्षेत्र के दिग्गज थे । वे सब मुक्ति के मार्ग की ही बात करते थे तो भी युद्ध भी करते थे और राजनीति भी करते थे । भगवान श्रीकृष्ण अध्यात्म, धर्म, युद्ध, राजनीति, संगीत, योग, अध्यापन, धर्मोपदेश आदि सबके आदर्श स्थापित करने वाले ही थे । आज भी शासन की सहायता, वि्ेंद्रित उत्पादन और आर्थिक शिक्षकों ने ही पहल करनी होगी और समाज के सहयोग से स्वतन्त्रता की संकल्पना की प्रतिष्ठा हो इस प्रकार से
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वेदकाल के वसिष्ठ और विश्वामित्र से लेकर दो या ढाई हजार वर्ष पूर्व के चाणक्य तक सभी आचार्य इसके उदाहरण हैं । ये सब आचार्य थे, ऋषि थे । वे प्रमुख रूप से धर्म जानते थे और ज्ञान के क्षेत्र के दिग्गज थे । वे सब मुक्ति के मार्ग की ही बात करते थे तो भी युद्ध भी करते थे और राजनीति भी करते थे । भगवान श्रीकृष्ण अध्यात्म, धर्म, युद्ध, राजनीति, संगीत, योग, अध्यापन, धर्मोपदेश आदि सबके आदर्श स्थापित करने वाले ही थे ।  
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''शिक्षा को समाज के लिए वास्तव में उपयोगी बनाना होगा । योजना करनी होगी । आज शिक्षा और अर्थव्यवस्था''
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आज भी शिक्षकों को ही पहल करनी होगी और समाज के सहयोग से शिक्षा को समाज के लिए वास्तव में उपयोगी बनाना होगा। बार बार कहा जाता है कि शिक्षा का भारतीयकरण करना चाहिए । यह भी कहा जाता है कि यह काम शिक्षकों को ही करना चाहिए । परन्तु इस काम को करने की एक योजना बनाये बिना यह काम हो नहीं सकता।
 
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''बार बार कहा जाता है कि शिक्षा का भारतीयकरण दोनों शासन की ज़िम्मेदारी बन गए हैं । शासन ने''
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''करना चाहिए । यह भी कहा जाता है कि यह काम शिक्षकों अपने आपकी मुक्ति के लिए भी अर्थ पुरुषार्थ को''
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''को ही करना चाहिए । परन्तु इस काम को करने की एक समाज आधारित बनाने की दिशा में प्रयत्नशील बनना''
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''योजना बनाये बिना यह काम हो नहीं सकता । होगा ।''
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''इस काम के कुछ चरण इस प्रकार हो सकते हैं ... ०... प्रजा के काम पुरुषार्थ को व्यवस्थित करना साधु-संतों''
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''०... सर्व प्रथम शिक्षकों को नौकरी की व्यवस्था से बाहर का काम है । उन्हें यह काम करना होगा ।''
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''निकल जाना होगा । ०... ज्ञान और धर्म की प्रतिष्ठा के लिए साधु संत, संन्यासी''
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''०... समाज को अथर्जिन हेतु नौकरी नहीं करना सिखाना आदि ने अपनी तपश्चर्या का पुण्य देना होगा । तपश्चर्या''
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''होगा । के पुण्य के बिना महत्त्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होते ।''
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''© aah हेतु भौतिक वस्तुओं का उत्पादन हो इस... *... देश में जिस प्रकार धार्मिक संगठन चल रहे हैं उसी''
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''बात को बढ़ावा देना होगा। प्रकार शैक्षिक संगठन भी चल रहे हैं । दोनों प्रकार के''
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''०... भारतीय समाज का नियंत्रक तत्त्व धर्म है । ब्रिटिश संगठनों को सरकार मुखापेक्षी बनाने के स्थान पर''
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''राज्य के चलते वह अर्थ हो गया है । धर्म को पुन: समाजमुखापेक्षी बनाना होगा और समाज को अधिक''
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''नियंत्रक बनाने के लिए धर्माचार्यों ने शिक्षकों को दायित्वबोध से युक्त बनाना होगा ।''
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''आधार देना होगा । धर्माचार्य और शिक्षक दोनों ने. *. इन दोनों संगठनों के साथ साथ आर्थिक संगठन बनाने''
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''मिलकर समाज के सहयोग से शिक्षा का एक भारतीय होंगे जो समाज को आर्थिक दृष्टि से स्वायत्त और''
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''ढाँचा तैयार करना होगा जो समाज के ही बल पर मानवतायुक्त बनायें ।''
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''खड़ा हो । ०... जो समाज आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं और समृद्ध''
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''०. शिक्षा का जो भी ढाँचा निर्माण हो उसमें आर्थिक नहीं उसकी संस्कृति का और उत्तम गुणों का नाश''
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''स्वतन्त्रता का विचार सबसे पहले करना होगा | होता है । स्वतन्त्रता और स्वायत्तता प्रथम हृदय में''
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''केवल शिक्षा के ढाँचे से काम नहीं चलेगा । और बाद में व्यवहार में लानी होगी ।''
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''०... अर्थकरी शिक्षा को उत्पादन के साथ आर्थिक क्षेत्र के... *... शिक्षा ने कुट्म्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना''
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''साथ जोड़ना होगा । होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने''
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''०... लोगों का रोजगार आज जिस आयु में निश्चित होता है कुट्म्बशिक्षा की योजना बनानी होगी । समाज को''
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''उससे कहीं जल्दी निश्चित हो जाय ऐसा करना होगा, स्वायत्त बनाने की शुरूआत कुट्म्ब को स्वायत्त बनाने''
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''भले ही प्रत्यक्ष अथर्जिन कानून के अनुसार अठारह से करनी होगी ।''
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''वर्ष में ही हो । अथर्जिन की पात्रता कम से कम दस... *... आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है''
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''वर्ष पूर्व ही निश्चित हो जाना आवश्यक है । अठारह उसके स्थान पर कुट्म्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी ।''
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''वर्ष तक पात्रता ही निर्माण नहीं करना अत्यन्त शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अथर्जिन आदि का केन्द्र''
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''अव्यवहारिक है । erst को बनाना होगा । सांस्कृतिक इकाई और''
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''०... बड़े उद्योजकों को विकेन्द्रीकरण के लिए धर्माचार्यों ने आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ''
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''ही समझाना होगा । ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा ।''
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देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण करने होंगे और संन्यासी लोगों को तथा शिक्षा को समर्पित लोगों को अध्ययन की योजना में लगना होगा । वानप्रस्थी लोगों का तो यह सामाजिक दायित्व ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग अथर्जिन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम में लगना होगा ।
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इस काम के कुछ चरण इस प्रकार हो सकते हैं:
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* सर्व प्रथम शिक्षकों को नौकरी की व्यवस्था से बाहर निकल जाना होगा।
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* समाज को अर्थार्जन हेतु नौकरी नहीं करना सिखाना होगा।
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* अर्थार्जन हेतु भौतिक वस्तुओं का उत्पादन हो इस बात को बढ़ावा देना होगा।
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* भारतीय समाज का नियंत्रक तत्व धर्म है। ब्रिटिश राज्य के चलते वह अर्थ हो गया है । धर्म को पुन: नियंत्रक बनाने के लिए धर्माचार्यों ने शिक्षकों को आधार देना होगा। धर्माचार्य और शिक्षक दोनों ने मिलकर समाज के सहयोग से शिक्षा का एक भारतीय ढाँचा तैयार करना होगा जो समाज के ही बल पर खड़ा हो।
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* शिक्षा का जो भी ढाँचा निर्माण हो उसमें आर्थिक स्वतन्त्रता का विचार सबसे पहले करना होगा। केवल शिक्षा के ढाँचे से काम नहीं चलेगा।
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* अर्थकरी शिक्षा को उत्पादन के साथ आर्थिक क्षेत्र के साथ जोड़ना होगा।
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* लोगों का रोजगार आज जिस आयु में निश्चित होता है उससे कहीं जल्दी निश्चित हो जाय ऐसा करना होगा, भले ही प्रत्यक्ष अर्थार्जन कानून के अनुसार अठारह वर्ष में ही हो । अर्थार्जन की पात्रता कम से कम दस वर्ष पूर्व ही निश्चित हो जाना आवश्यक है । अठारह वर्ष तक पात्रता ही निर्माण नहीं करना अत्यन्त अव्यवहारिक है।
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* बड़े उद्योजकों को विकेन्द्रीकरण के लिए धर्माचार्यों को ही समझाना होगा।
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* शासन की सहायता, विकेंद्रित उत्पादन और आर्थिक स्वतन्त्रता की संकल्पना की प्रतिष्ठा हो इस प्रकार से योजना करनी होगी। आज शिक्षा और अर्थव्यवस्था दोनों शासन की ज़िम्मेदारी बन गए हैं। शासन ने अपने आपकी मुक्ति के लिए भी अर्थ पुरुषार्थ को समाज आधारित बनाने की दिशा में प्रयत्नशील बनना होगा।
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* प्रजा के काम पुरुषार्थ को व्यवस्थित करना साधु-संतों का काम है। उन्हें यह काम करना होगा।
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* ज्ञान और धर्म की प्रतिष्ठा के लिए साधु संत, संन्यासी आदि ने अपनी तपश्चर्या का पुण्य देना होगा । तपश्चर्या के पुण्य के बिना महत्त्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होते।
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* देश में जिस प्रकार धार्मिक संगठन चल रहे हैं उसी प्रकार शैक्षिक संगठन भी चल रहे हैं । दोनों प्रकार के संगठनों को सरकार मुखापेक्षी बनाने के स्थान पर समाजमुखापेक्षी बनाना होगा और समाज को अधिक दायित्वबोध से युक्त बनाना होगा।
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* इन दोनों संगठनों के साथ साथ आर्थिक संगठन बनाने होंगे जो समाज को आर्थिक दृष्टि से स्वायत्त और मानवतायुक्त बनायें।
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* जो समाज आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं और समृद्ध नहीं उसकी संस्कृति का और उत्तम गुणों का नाश होता है। स्वतन्त्रता और स्वायत्तता प्रथम हृदय में और बाद में व्यवहार में लानी होगी।
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* शिक्षा को कुटुम्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने कुटुम्बशिक्षा की योजना बनानी होगी। समाज को स्वायत्त बनाने की शुरूआत कुटुम्ब को स्वायत्त बनाने से करनी होगी।
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* आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है उसके स्थान पर कुटुम्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी। शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अर्थार्जन आदि का केन्द्र कुटुम्ब को बनाना होगा। सांस्कृतिक इकाई और आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा।
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* देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण करने होंगे और संन्यासी लोगों को तथा शिक्षा को समर्पित लोगों को अध्ययन की योजना में लगना होगा । वानप्रस्थी लोगों का तो यह सामाजिक दायित्व ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग अथर्जिन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम में लगना होगा ।
 
संक्षेप में शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन केवल चिन्तन का विषय नहीं है । वह कृति का विषय बनाना होगा । वह यदि कृति का विषय नहीं बनता तो पूर्व के दो प्रयोजन भी पूर्ण नहीं हो सकते ।
 
संक्षेप में शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन केवल चिन्तन का विषय नहीं है । वह कृति का विषय बनाना होगा । वह यदि कृति का विषय नहीं बनता तो पूर्व के दो प्रयोजन भी पूर्ण नहीं हो सकते ।
  

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