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| | सामान्य जन की यह कठिनाई है। तर्क उसकी बुद्धि में उतरता नहीं इसलिए उसके जंगल में भटक जाता है। स्मृतियाँ कालानुरूप होती हैं इसलिए कालबाह्म भी होती हैं। अनेक स्मृतियों में से कौनसी मानना इसका विवेक करना होता है जो उसके पास नहीं होता है। विवेक इसलिए नहीं होता क्योंकि उसकी उसे शिक्षा नहीं मिली होती है । मनीषियों का भी मामला स्मृतियों जैसा ही होता है। उनके वचनों में उसे श्रद्धा नहीं होती। अत: वह और किसी झंझट में न पड़ते हुए स्वयं जिन्हें महाजन मानता है उनका अनुसरण और अनुकरण करता है। किसे महाजन मानना यह निश्चित करने का विवेक अथवा परम्परा यदि उसके पास है तो यह सरल मार्ग है । परन्तु यह विवेक होना ही कठिन है क्योंकि ऐसा विवेक सिखाने वाला भी धर्म ही होता है। इसलिए सामान्य जन हो या विशेष जन उसे धर्म तो सीखना ही होता है। | | सामान्य जन की यह कठिनाई है। तर्क उसकी बुद्धि में उतरता नहीं इसलिए उसके जंगल में भटक जाता है। स्मृतियाँ कालानुरूप होती हैं इसलिए कालबाह्म भी होती हैं। अनेक स्मृतियों में से कौनसी मानना इसका विवेक करना होता है जो उसके पास नहीं होता है। विवेक इसलिए नहीं होता क्योंकि उसकी उसे शिक्षा नहीं मिली होती है । मनीषियों का भी मामला स्मृतियों जैसा ही होता है। उनके वचनों में उसे श्रद्धा नहीं होती। अत: वह और किसी झंझट में न पड़ते हुए स्वयं जिन्हें महाजन मानता है उनका अनुसरण और अनुकरण करता है। किसे महाजन मानना यह निश्चित करने का विवेक अथवा परम्परा यदि उसके पास है तो यह सरल मार्ग है । परन्तु यह विवेक होना ही कठिन है क्योंकि ऐसा विवेक सिखाने वाला भी धर्म ही होता है। इसलिए सामान्य जन हो या विशेष जन उसे धर्म तो सीखना ही होता है। |
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| − | धर्म और सत्य सीखने के लिये मनुष्य का हृदय | + | धर्म और सत्य सीखने के लिये मनुष्य का हृदय प्रेमपूर्ण चाहिये। हृदय में प्रेम नहीं है तो वह दया और करुणा, अनुकम्पा और उदारता, मैत्री और बन्धुता का व्यवहार नहीं कर सकता । ऐसे भाव जिसके पास नहीं हैं उसका हृदय कठोर कहा जाता है। कठोर हृदयी व्यक्ति को आनन्द का अनुभव नहीं हो सकता । उसे जीवन में रस भी नहीं आता । अत: प्रथम तो हृदय की शिक्षा चाहिये । दूसरा विवेक चाहिये। सत्य तो बुद्धि का ही विषय है । तात्त्विक और व्यावहारिक सत्य जानना आवश्यक है । तात्विक सत्य जानना तो एक बार सरल है परन्तु व्यावहारिक सत्य जानना कठिन है। उदाहरण के लिये सुवर्ण और मिट्टी दोनों ही पृथ्वी नामक महाभूत हैं यह जानना सरल है परन्तु सुवर्ण के अलंकार बनते हैं और मिट्टी का घड़ा यह जानने के लिये व्यावहारिक विवेक चाहिये। जगत के व्यवहार इतने जटिल होते हैं कि प्राप्त परिस्थिति में सत्य असत्य और धर्म अधर्म का निर्णय करना कठिन हो जाता है । ऐसा धर्म और सत्य जानना सबके लिये बहुत आवश्यक होता है। शिक्षा धर्म सिखाती है। सत्य की पहचान सिखाती है । हृदय, बुद्धि, मन आदि को सत्य और धर्म के आचरण हेतु सक्षम बनाती है। अर्थात् शिक्षा का यह प्रथम दायित्व बनना चाहिये । |
| | | | |
| − | प्रेमपूर्ण चाहिये । हृदय में प्रेम नहीं है तो वह दया और
| + | वर्तमान में स्थिति इससे बहुत विपरीत है यह बात सत्य है। परन्तु स्थिति विपरीत होने से वह न्याय्य नहीं हो जाती । शिक्षा के अन्य प्रयोजन भी हैं । वे भी महत्त्वपूर्ण हैं, परन्तु इस प्रथम प्रयोजन के बिना उन सभी प्रयोजनों की सार्थकता ही नहीं होती। सत्य और धर्म की शिक्षा को आज मूल्य शिक्षा कहा जाता है। कभी उसे नैतिक आध्यात्मिक शिक्षा भी कहा जाता है। परन्तु उसका प्रयास बहुत गौण रूप से होता है । धर्म विवाद का विषय बना है और सत्य कानून का। कानून यान्त्रिक है और सत्य को समझने में भी अक्षम है । इस स्थित में सत्य और धर्म की शिक्षा के लिये बहुत अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है इसमें कोई सन्देह नहीं। |
| − | | |
| − | करुणा, अनुकम्पा और उदारता, मैत्री और बन्धुता का
| |
| − | | |
| − | व्यवहार नहीं कर सकता । ऐसे भाव जिसके पास नहीं हैं
| |
| − | | |
| − | उसका हृदय कठोर कहा जाता है । कठोर हृदयी व्यक्ति को
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| − | | |
| − | आनन्द का अनुभव नहीं हो सकता । उसे जीवन में रस भी
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| − | | |
| − | नहीं आता । अत: प्रथम तो हृदय की शिक्षा चाहिये । दूसरा
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| − | | |
| − | विवेक चाहिये । सत्य तो बुद्धि का ही विषय है । तात्त्विक
| |
| − | | |
| − | और व्यावहारिक सत्य जानना आवश्यक है । तात्विक सत्य
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| − | | |
| − | जानना तो एक बार सरल है परन्तु व्यावहारिक सत्य जानना
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| − | | |
| − | कठिन है । उदाहरण के लिये सुवर्ण और मिट्टी दोनों ही
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| − | | |
| − | पृथ्वी नामक महाभूत हैं यह जानना सरल है परन्तु सुवर्ण के
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| − | | |
| − | अलंकार बनते हैं और मिट्टी का घड़ा यह जानने के लिये
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| − | | |
| − | व्यावहारिक विवेक चाहिये । जगत के व्यवहार इतने जटिल
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| − | | |
| − | होते हैं कि प्राप्त परिस्थिति में सत्य असत्य और धर्म अधर्म
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| − | | |
| − | का निर्णय करना कठिन हो जाता है । ऐसा धर्म और सत्य
| |
| − | | |
| − | जानना सबके लिये बहुत आवश्यक होता है ।
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| − | | |
| − | शिक्षा धर्म सिखाती है । सत्य की पहचान सिखाती
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| − | | |
| − | है । हृदय, बुद्धि, मन आदि को सत्य और धर्म के आचरण
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| − | | |
| − | हेतु सक्षम बनाती है । अर्थात् शिक्षा का यह प्रथम दायित्व
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| − | | |
| − | बनना चाहिये ।
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| − | | |
| − | वर्तमान में स्थिति इससे बहुत विपरीत है यह बात | |
| − | | |
| − | सत्य है । परन्तु स्थिति विपरीत होने से वह न्याय्य नहीं हो | |
| − | | |
| − | जाती । शिक्षा के अन्य प्रयोजन भी हैं । वे भी महत्त्वपूर्ण हैं | |
| − | | |
| − | परन्तु इस प्रथम प्रयोजन के बिना उन सभी प्रयोजनों की | |
| − | | |
| − | सार्थकता ही नहीं होती । | |
| − | | |
| − | सत्य और धर्म की शिक्षा को आज मूल्य शिक्षा कहा | |
| − | | |
| − | जाता है। कभी उसे नैतिक आध्यात्मिक शिक्षा भी कहा | |
| − | | |
| − | जाता है। परन्तु उसका प्रयास बहुत गौण रूप से होता है । | |
| − | | |
| − | धर्म विवाद का विषय बना है और सत्य कानून का । कानून | |
| − | | |
| − | यान्त्रिक है और सत्य को समझने में भी अक्षम है । इस | |
| − | | |
| − | स्थित में सत्य और धर्म की शिक्षा के लिये बहुत अधिक | |
| − | | |
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| |
| − | | |
| − | पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
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| − | | |
| − | प्रयास करने की आवश्यकता है इसमें कोई सन्देह नहीं । | |
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| | == शिक्षा राष्ट्रीय होती है == | | == शिक्षा राष्ट्रीय होती है == |
| − | पूर्व के अध्याय में हमने राष्ट्र संकल्पना का विचार | + | पूर्व के अध्याय में हमने राष्ट्र संकल्पना का विचार किया है । प्रजा, भूमि और जीवनदृष्टि मिलकर राष्ट्र बनता है। तीनों का एकदूसरे के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । प्रजा भूमि को माता मानती है । यह स्वाभाविक है । इसके लिये किसी संविधान की आवश्यकता नहीं है । उस भूमि और प्रजा का स्वभाव ही उस राष्ट्र की जीवनदृष्टि है। |
| − | | |
| − | किया है । प्रजा, भूमि और जीवनदृष्टि मिलकर राष्ट्र बनता | |
| − | | |
| − | है। तीनों का एकदूसरे के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । | |
| − | | |
| − | प्रजा भूमि को माता मानती है । यह स्वाभाविक है । इसके | |
| − | | |
| − | लिये किसी संविधान की आवश्यकता नहीं है । उस भूमी | |
| − | | |
| − | और प्रजा का स्वभाव ही उस राष्ट्र की जीवनदृष्टि है । | |
| − | | |
| − | राष्ट्रजीवन की सभी व्यवस्थायें, प्रजा के सारे व्यवहार उस
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| − | | |
| − | स्वभाव के अनुसार बनते हैं । यह जीवनदृष्टि उस राष्ट्र की
| |
| − | | |
| − | शिक्षा का आधार होती है और शिक्षा से जीवनदृष्टि पुष्ट होती
| |
| − | | |
| − | है । ऐसा जीवनदृष्टि और शिक्षाका परस्पर सम्बन्ध होता है ।
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| − | | |
| − | राष्ट्रजीवन समरस, समृद्ध, सुखी होना चाहिये । इसका
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| − | | |
| − | अर्थ है राष्ट्र के सभी घटक सुखी होने चाहिये । इतना ही नहीं
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| − | | |
| − | तो एक राष्ट्र का हित विश्व के अन्य राष्ट्रों से अविरोधी होकर
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| − | | |
| − | सुखी होना चाहिये । राष्ट्र के घटक से तात्पर्य है एक एक
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| − | | |
| − | व्यक्ति, सम्पूर्ण समाज और पंचमहाभूतात्मक प्रकृति, वृक्ष
| |
| − | | |
| − | वनस्पति और प्राणिजगत । इन सबके एकसाथ समरस, सुखी
| |
| − | | |
| − | और समृद्ध बनने के लिये बहुत सारा सोचविचार करना होता
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| − | | |
| − | है, बहुत सारी व्यवस्थायें करनी होती हैं ।
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| − | | |
| − | राष्ट्रीयता की व्यवस्थाओं को ही व्यवस्थाधर्म और
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| − | | |
| − | जीवनशैली कहते हैं । उदाहरण के लिये भारत राष्ट्र की
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| − | | |
| − | जीवनदृष्टि की कुछ धारणायें इस प्रकार हैं ...
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| − | | |
| − | ०... यह सृष्टि आत्मतत्त्व का विस्तार है ।
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| − | | |
| − | ०... जीवन एक और अखण्ड है ।
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| − | | |
| − | ०... सृष्टि के सारे सजीव निर्जीव पदार्थों का आपसी
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| − | | |
| − | सम्बन्ध एकात्मता का है ।
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| − | | |
| − | <nowiki>*</nowiki>... सऊ्न व्यक्ति दूसरों का विचार प्रथम करता है, बाद
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| − | | |
| − | में अपना ।
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| − | | |
| − | ०... त्याग और सेवा व्यवहार के आदर्श हैं ।
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| − | | |
| − | ०. अन्न पवित्र है।
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| − | | |
| − | ०... विद्या, अन्न, औषध क्रय विक्रय की वस्तुयें नहीं हैं ।
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| − | | |
| − | © एक ही सत्य को मनीषी भिन्न भिन्न नामों से पहचानते
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| − | | |
| − | हैं । उपासना के मार्गों का वैविध्य होने पर भी ईश्वर
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| − | | |
| − | ७१
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| − | | |
| − | एक है । उपासना के सभी मार्गों
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| − | | |
| − | का गंतव्य एक ही है । इसलिए सर्वपंथसमादर ही
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| − | | |
| − | सज्जनों का व्यवहार है ।
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| − | | |
| − | ०... जगत में सभी भिन्न भिन्न दिखने वाले पदार्थों का तथा
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| − | | |
| − | प्रजाओं का सहअस्तित्व सत्कार योग्य है ।
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| − | | |
| − | ०... स्वतन्त्रता सबका मूल अधिकार है इसलिए सभी
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| − | | |
| − | पदार्थों के स्वतन्त्र अस्तित्व का सम्मान करना
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| − | | |
| − | चाहिये ।
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| − | | |
| − | ०... जगत मनुष्य के उपभोग के लिये नहीं बना है, मनुष्य
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| − | | |
| − | ही सबकी रक्षा हेतु बना है ।
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| − | | |
| − | ०... जगत में सर्व व्यवहार परिवारभावना से होना अपेक्षित
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| − | | |
| − | है।
| |
| − | | |
| − | ऐसे और भी अनेक सूत्र हैं जो भारत को अन्य देशों
| |
| − | | |
| − | से भिन्न पहचान देते हैं । यह पहचान बनाए रखने के लिये
| |
| − | | |
| − | शिक्षा होती है ।
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| − | | |
| − | भारत परम्परा का देश है । भारत में परम्परा के वाहक
| |
| − | | |
| − | मुख्य दो केन्द्र हैं । एक है कुट्म्ब और दूसरा है विद्यालय ।
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| − | | |
| − | घर में वंशपरम्परा होती है जबकि विद्यालय में ज्ञानपरम्परा ।
| |
| − | | |
| − | एक में पितापुत्र परम्परा के वाहक हैं, दूसरे में गुरुशिष्य । इन
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| − | | |
| − | दोनों परम्पराओं से जीवनशैली और ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी
| |
| − | | |
| − | पीढ़ी को हस्तान्तरित होता है । हस्तांतरण का यह कार्य जब
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| − | | |
| − | wap रूप में होता है तब राष्ट्रजीवन समरस, सुखी और
| |
| − | | |
| − | समृद्ध बना रहता है । परम्परा खण्डित होती है तब राष्ट्रजीवन
| |
| − | | |
| − | भी विशुूँखल हो जाता है । जब शिक्षा की व्यवस्था ठीक
| |
| − | | |
| − | नहीं रहती तब परम्परा खण्डित होती है ।
| |
| − | | |
| − | शिक्षा सम्यकू नहीं होने का एक दूसरा स्वरूप भी है ।
| |
| − | | |
| − | जब शिक्षा और राष्ट्र के जीवनदर्शन का संबंध विच्छेद हो
| |
| − | | |
| − | जाता है तब राष्ट्रजीवन गम्भीर रूप से क्षत विक्षत हो जाता
| |
| − | | |
| − | है । ऐसा एक राष्ट्र के दूसरे राष्ट्र पर सांस्कृतिक आक्रमण के
| |
| − | | |
| − | परिणामस्वरूप होता है । भारत का ही उदाहरण हम ले
| |
| − | | |
| − | सकते हैं । भारत में सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध
| |
| − | | |
| − | तक ब्रिटिशों का राज्य रहा । उस दौरान उन्होंने अठारहवीं
| |
| − | | |
| − | शताब्दी में भारत को सांस्कृतिक दृष्टि से यूरोपीय बनाना
| |
| − | | |
| − | चाहा । उनका उद्देश्य अपने शासन को सुदूढ़ बनाने का AT |
| |
| − | | |
| − | उन्होंने अनुभव किया था कि भारत की व्यवस्था में समाज
| |
| − | | |
| − | ............. page-88 .............
| |
| − | | |
| − | शासन से स्वतन्त्र और स्वायत्त था,
| |
| − | | |
| − | अत: राज्य किसीका भी हो प्रजा सांस्कृतिक दृष्टि से स्वतन्त्र
| |
| − | | |
| − | ही रहती थी । प्रजा को अपने अधीन बनाने के लिये उन्होंने
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| − | | |
| − | शिक्षा का यूरोपीकरण किया । शिक्षा का आधार ही उन्होंने
| |
| − | | |
| − | बदल दिया । वे यूरोप का इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र,
| |
| − | | |
| − | मनोविज्ञान, साहित्य आदि पढ़ाने लगे । यह केवल जानकारी
| |
| − | | |
| − | नहीं थी । इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की दृष्टि ही
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| − | | |
| − | उन्होंने बदल दी । अब भारत में यूरोप का इतिहास नहीं
| |
| − | | |
| − | अपितु यूरोप की इतिहासदृष्टि पढ़ाई जाने लगी । ऐसा सभी
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| − | | |
| − | विषयों के साथ हुआ । यह केवल विषयों और उनकी
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| − | | |
| − | विषयवस्तु तक सीमित नहीं रहा । उन्होंने शिक्षा की
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| − | | |
| − | व्यवस्था बदल दी । भारत में शिक्षा स्वायत्त थी । ब्रिटिशों ने
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| − | | |
| − | उसे शासन के अधीन बना दिया । भारत में शिक्षा नि:शुल्क
| |
| − | | |
| − | चलती थी । ब्रिटिशों ने उसे सशुल्क बना दिया । इस प्रकार
| |
| − | | |
| − | शिक्षा दृष्टि भी बदल गई । व्यवस्थित ढंग से शिक्षा के
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| − | | |
| − | माध्यम से जीवनदृष्टि में परिवर्तन शुरू हुआ । विगत दस
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| − | | |
| − | पीढ़ियों से परिवर्तन की यह प्रक्रिया चल रही है । जीवनदृष्टि
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| − | | |
| − | और शिक्षा के सम्बन्ध विच्छेद की इस प्रक्रिया के परिणाम
| |
| − | | |
| − | बहुत हानिकारक हुए हैं । केवल जगत के कुछ अन्य राष्ट्रीं से
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| − | | |
| − | भारत की भिन्नता यह है कि दस पीढ़ियों से यह संघर्ष
| |
| − | | |
| − | निरन्तर रूप से चल रहा है तो भी राष्ट्र के रूप में भारत पूर्ण
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| − | | |
| − | नष्ट नहीं हुआ है । समय समय पर यूरोपीय जीवनदृष्टि के
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| − | | |
| − | चंगुल से मुक्त होने के लिये राष्ट्रीय शिक्षा के आन्दोलन
| |
| − | | |
| − | चलते रहे । परन्तु वे पूर्ण रूप से शिक्षा को राष्ट्रीय नहीं बना
| |
| − | | |
| − | सके । आज भी भारतीय और यूरोपीय जीवनदृष्टि का मिश्रण
| |
| − | | |
| − | शिक्षा का आधार बना हुआ है । चूँकि शिक्षा का आधार
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| − | | |
| − | ऐसा सम्मिश्र है राषट्रजीवन भी सम्मिश्र स्वरूप का ही है।
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| − | | |
| − | एक भीषण परिणाम यह हुआ है कि हम समाज के रूप में
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| − | | |
| − | हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और क्या भारतीय और क्या
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| − | | |
| − | अभारतीय इसकी समझ स्पष्ट नहीं हो रही है । शिक्षा जब
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| − | | |
| − | राष्ट्रीयता की पुष्टि करने वाली नहीं होती तब राष्ट्र की स्थिति
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| − | | |
| − | ऐसी ही हो जाती है । इसलिए किसी भी राष्ट्र को अपना
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| − | | |
| − | स्वत्व बनाये रखना है तो उस राष्ट्र की शिक्षा को राष्ट्रीय होना
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| − | | |
| − | चाहिये । यह केवल भारत के लिये ही सत्य है ऐसा नहीं है ।
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| − | | |
| − | विश्व के किसी भी राष्ट्र को यह लागू है । अमेरिका में शिक्षा
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| − | | |
| − | ७२
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| − | | |
| − | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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| − | | |
| − | अमेरिकन होगी, चीन में चीनी, आफ्रिका में आफ्रीकी और
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| − | | |
| − | जापान में जापानी ।
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| − | | |
| − | जबतक किसी भी राष्ट्र कि जीवनदृष्टि लोकजीवन में
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| − | | |
| − | प्रतिष्ठित रहती है तबतक राष्ट्र ज़िंदा रहता है । हम विश्व के
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| − | | |
| − | इतिहास में देखते हैं कि अनेक राष्ट्र जो किसी एक
| |
| − | | |
| − | कालखण्ड में सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत उच्च स्थिति पर थे वे
| |
| − | | |
| − | कुछ समय के बाद काल के प्रवाह में लुप्त हो गये । परन्तु
| |
| − | | |
| − | भारत विश्व के सभी राष्ट्रीं से पूर्व भी था और आज भी है ।
| |
| − | | |
| − | विश्व में भारत सबसे प्राचीन देश है । इस चिरंजीविता का
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| − | | |
| − | कारण यह है कि भारत की जीवनदृष्टि सर्वथा लुप्त नहीं हो
| |
| − | | |
| − | गई है । हम क्षीणप्राण हुए हैं परन्तु गतप्राण नहीं हुए । राष्ट्र
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| − | | |
| − | की शिक्षाव्यवस्था इस चिरंजीविता के लिये प्रमुख रूप से
| |
| − | | |
| − | कारणभूत है ।
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| − | | |
| − | आज भी राष्ट्र के सामने शिक्षा को राष्ट्रीय बनाने की
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| − | | |
| − | महती चुनौती खड़ी है । अनेक शैक्षिक और सांस्कृतिक
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| − | | |
| − | संगठन इस कार्य में लगे हुए हैं । अनेक शोध संस्थान इस
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| − | | |
| − | दृष्टि से अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य में लगे हुए हैं ।
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| | | | |
| − | अनेक संस्थायें जनमानस प्रबोधन का कार्य भी कर रही है ।
| + | राष्ट्रजीवन की सभी व्यवस्थायें, प्रजा के सारे व्यवहार उस स्वभाव के अनुसार बनते हैं । यह जीवनदृष्टि उस राष्ट्र की शिक्षा का आधार होती है और शिक्षा से जीवनदृष्टि पुष्ट होती है। ऐसा जीवनदृष्टि और शिक्षाका परस्पर सम्बन्ध होता है । राष्ट्रजीवन समरस, समृद्ध, सुखी होना चाहिये । इसका अर्थ है राष्ट्र के सभी घटक सुखी होने चाहिये । इतना ही नहीं तो एक राष्ट्र का हित विश्व के अन्य राष्ट्रों से अविरोधी होकर सुखी होना चाहिये । राष्ट्र के घटक से तात्पर्य है एक एक व्यक्ति, सम्पूर्ण समाज और पंचमहाभूतात्मक प्रकृति, वृक्ष, वनस्पति और प्राणिजगत । इन सबके एकसाथ समरस, सुखी और समृद्ध बनने के लिये बहुत सारा सोचविचार करना होता है, बहुत सारी व्यवस्थायें करनी होती हैं। |
| | | | |
| − | आज देश में शिक्षा के दो प्रवाह चल रहे हैं । एक प्रवाह
| + | राष्ट्रीयता की व्यवस्थाओं को ही व्यवस्थाधर्म और जीवनशैली कहते हैं । उदाहरण के लिये भारत राष्ट्र की जीवनदृष्टि की कुछ धारणायें इस प्रकार हैं: |
| | + | * यह सृष्टि आत्मतत्त्व का विस्तार है । |
| | + | * जीवन एक और अखण्ड है । |
| | + | * सृष्टि के सारे सजीव निर्जीव पदार्थों का आपसी सम्बन्ध एकात्मता का है । |
| | + | * सज्जन व्यक्ति दूसरों का विचार प्रथम करता है, बाद में अपना । |
| | + | * त्याग और सेवा व्यवहार के आदर्श हैं । |
| | + | * अन्न पवित्र है। |
| | + | * विद्या, अन्न, औषध क्रय विक्रय की वस्तुयें नहीं हैं । |
| | + | * एक ही सत्य को मनीषी भिन्न भिन्न नामों से पहचानते हैं । |
| | + | * जगत में सभी भिन्न भिन्न दिखने वाले पदार्थों का तथा प्रजाओं का सहअस्तित्व सत्कार योग्य है । |
| | + | * स्वतन्त्रता सबका मूल अधिकार है इसलिए सभी पदार्थों के स्वतन्त्र अस्तित्व का सम्मान करना चाहिये । |
| | + | * जगत मनुष्य के उपभोग के लिये नहीं बना है, मनुष्य ही सबकी रक्षा हेतु बना है । |
| | + | * जगत में सर्व व्यवहार परिवारभावना से होना अपेक्षित है। |
| | + | ऐसे और भी अनेक सूत्र हैं जो भारत को अन्य देशों से भिन्न पहचान देते हैं । यह पहचान बनाए रखने के लिये शिक्षा होती है । |
| | | | |
| − | अराष्ट्रीय शिक्षा का है, दूसरा राष्ट्रीय शिक्षा का । दोनों
| + | भारत परम्परा का देश है। भारत में परम्परा के वाहक मुख्य दो केन्द्र हैं । एक है कुट्म्ब और दूसरा है विद्यालय । घर में वंशपरम्परा होती है जबकि विद्यालय में ज्ञानपरम्परा । एक में पितापुत्र परम्परा के वाहक हैं, दूसरे में गुरुशिष्य । इन दोनों परम्पराओं से जीवनशैली और ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता है। हस्तांतरण का यह कार्य जब सम्यक रूप में होता है तब राष्ट्रजीवन समरस, सुखी और समृद्ध बना रहता है । परम्परा खण्डित होती है तब राष्ट्रजीवन भी विश्रंखल हो जाता है । जब शिक्षा की व्यवस्था ठीक नहीं रहती तब परम्परा खण्डित होती है । |
| | | | |
| − | तुल्यबल हैं । संवाद और संघर्ष दोनों चल रहे हैं । एक के
| + | शिक्षा सम्यक नहीं होने का एक दूसरा स्वरूप भी है । जब शिक्षा और राष्ट्र के जीवनदर्शन का संबंध विच्छेद हो जाता है तब राष्ट्रजीवन गम्भीर रूप से क्षत विक्षत हो जाता है । ऐसा एक राष्ट्र के दूसरे राष्ट्र पर सांस्कृतिक आक्रमण के परिणामस्वरूप होता है । भारत का ही उदाहरण हम ले सकते हैं । भारत में सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक ब्रिटिशों का राज्य रहा । उस दौरान उन्होंने अठारहवीं शताब्दी में भारत को सांस्कृतिक दृष्टि से यूरोपीय बनाना चाहा । उनका उद्देश्य अपने शासन को सुदूढ़ बनाने का था | |
| | | | |
| − | पास अधिकार है, दूसरे के पास जनमानस पर प्रभाव ।
| + | उन्होंने अनुभव किया था कि भारत की व्यवस्था में समाज शासन से स्वतन्त्र और स्वायत्त था, अत: राज्य किसी का भी हो प्रजा सांस्कृतिक दृष्टि से स्वतन्त्र ही रहती थी। प्रजा को अपने अधीन बनाने के लिये उन्होंने शिक्षा का यूरोपीकरण किया। शिक्षा का आधार ही उन्होंने बदल दिया । वे यूरोप का इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्य आदि पढ़ाने लगे। यह केवल जानकारी नहीं थी। इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की दृष्टि ही उन्होंने बदल दी । अब भारत में यूरोप का इतिहास नहीं अपितु यूरोप की इतिहासदृष्टि पढ़ाई जाने लगी। ऐसा सभी विषयों के साथ हुआ। यह केवल विषयों और उनकी विषयवस्तु तक सीमित नहीं रहा । उन्होंने शिक्षा की व्यवस्था बदल दी। भारत में शिक्षा स्वायत्त थी। ब्रिटिशों ने उसे शासन के अधीन बना दिया । भारत में शिक्षा नि:शुल्क चलती थी । ब्रिटिशों ने उसे सशुल्क बना दिया । इस प्रकार शिक्षा दृष्टि भी बदल गई। व्यवस्थित ढंग से शिक्षा के माध्यम से जीवनदृष्टि में परिवर्तन शुरू हुआ। विगत दस पीढ़ियों से परिवर्तन की यह प्रक्रिया चल रही है । जीवनदृष्टि और शिक्षा के सम्बन्ध विच्छेद की इस प्रक्रिया के परिणाम बहुत हानिकारक हुए हैं। केवल जगत के कुछ अन्य राष्ट्रों से भारत की भिन्नता यह है कि दस पीढ़ियों से यह संघर्ष निरन्तर रूप से चल रहा है तो भी राष्ट्र के रूप में भारत पूर्ण नष्ट नहीं हुआ है। समय समय पर यूरोपीय जीवनदृष्टि के चंगुल से मुक्त होने के लिये राष्ट्रीय शिक्षा के आन्दोलन चलते रहे। परन्तु वे पूर्ण रूप से शिक्षा को राष्ट्रीय नहीं बना सके । आज भी भारतीय और यूरोपीय जीवनदृष्टि का मिश्रण शिक्षा का आधार बना हुआ है। चूँकि शिक्षा का आधार ऐसा सम्मिश्र है राषट्रजीवन भी सम्मिश्र स्वरूप का ही है। |
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| − | राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का इतिहास भी डेढ़सौ वर्ष पुराना | + | एक भीषण परिणाम यह हुआ है कि हम समाज के रूप में हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और क्या भारतीय और क्या अभारतीय इसकी समझ स्पष्ट नहीं हो रही है । शिक्षा जब राष्ट्रीयता की पुष्टि करने वाली नहीं होती तब राष्ट्र की स्थिति ऐसी ही हो जाती है । इसलिए किसी भी राष्ट्र को अपना स्वत्व बनाये रखना है तो उस राष्ट्र की शिक्षा को राष्ट्रीय होना चाहिये । यह केवल भारत के लिये ही सत्य है ऐसा नहीं है । विश्व के किसी भी राष्ट्र को यह लागू है । अमेरिका में शिक्षा अमेरिकन होगी, चीन में चीनी, अफ्रीका में अफ्रीकी और जापान में जापानी । |
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| − | है । हमें आशा करनी चाहिये की हमारे पुरुषार्थ से हम शिक्षा | + | जब तक किसी भी राष्ट्र की जीवनदृष्टि लोकजीवन में प्रतिष्ठित रहती है तबतक राष्ट्र ज़िंदा रहता है । हम विश्व के इतिहास में देखते हैं कि अनेक राष्ट्र जो किसी एक कालखण्ड में सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत उच्च स्थिति पर थे वे कुछ समय के बाद काल के प्रवाह में लुप्त हो गये । परन्तु भारत विश्व के सभी राष्ट्रीं से पूर्व भी था और आज भी है। |
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| − | को पूर्ण रूप से राष्ट्रीय बनायें । भारत नामक राष्ट्र को विश्वगुरु
| + | विश्व में भारत सबसे प्राचीन देश है । इस चिरंजीविता का कारण यह है कि भारत की जीवनदृष्टि सर्वथा लुप्त नहीं हो गई है। हम क्षीणप्राण हुए हैं परन्तु गतप्राण नहीं हुए। राष्ट्र की शिक्षाव्यवस्था इस चिरंजीविता के लिये प्रमुख रूप से कारणभूत है। |
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| − | बनने का दायित्व मिला है । उस दायित्व को निभाने के
| + | आज भी राष्ट्र के सामने शिक्षा को राष्ट्रीय बनाने की महती चुनौती खड़ी है। अनेक शैक्षिक और सांस्कृतिक संगठन इस कार्य में लगे हुए हैं । अनेक शोध संस्थान इस दृष्टि से अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य में लगे हुए हैं। अनेक संस्थायें जनमानस प्रबोधन का कार्य भी कर रही है। |
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| − | लिये भी शिक्षा को राष्ट्रीय बनाना ही होगा । | + | आज देश में शिक्षा के दो प्रवाह चल रहे हैं। एक प्रवाह अराष्ट्रीय शिक्षा का है, दूसरा राष्ट्रीय शिक्षा का। दोनों तुल्यबल हैं। संवाद और संघर्ष दोनों चल रहे हैं। एक के पास अधिकार है, दूसरे के पास जनमानस पर प्रभाव। राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का इतिहास भी डेढ़ सौ वर्ष पुराना है। हमें आशा करनी चाहिये की हमारे पुरुषार्थ से हम शिक्षा को पूर्ण रूप से राष्ट्रीय बनायें । भारत नामक राष्ट्र को विश्वगुरु बनने का दायित्व मिला है। उस दायित्व को निभाने के लिये भी शिक्षा को राष्ट्रीय बनाना ही होगा। |
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| | == शिक्षा समाजनिष्ठ होनी चाहिये == | | == शिक्षा समाजनिष्ठ होनी चाहिये == |