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| :<blockquote>तरकों प्रतिष्ठ स्पृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्थ वच: प्रमाणम्</blockquote><blockquote>धर्मस्य तत्त्वम निहितम गुहायाम् महाजनो येन गत: स पंथा ।।</blockquote>अर्थात् तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । तर्क कुछ भी सिद्ध कर सकता है । स्मृतियाँ सब अलग अलग बातें बताती हैं । सारे मुनि अर्थात् मनीषी ऐसी बात करते हैं जिन्हें प्रमाण मानने को मन नहीं करता है । धर्म का तत्त्व ऐसी गुफा में छिपा हुआ है कि हमारे लिये महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं उसी मार्ग पर जाना श्रेयस्कर होता है । | | :<blockquote>तरकों प्रतिष्ठ स्पृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्थ वच: प्रमाणम्</blockquote><blockquote>धर्मस्य तत्त्वम निहितम गुहायाम् महाजनो येन गत: स पंथा ।।</blockquote>अर्थात् तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । तर्क कुछ भी सिद्ध कर सकता है । स्मृतियाँ सब अलग अलग बातें बताती हैं । सारे मुनि अर्थात् मनीषी ऐसी बात करते हैं जिन्हें प्रमाण मानने को मन नहीं करता है । धर्म का तत्त्व ऐसी गुफा में छिपा हुआ है कि हमारे लिये महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं उसी मार्ग पर जाना श्रेयस्कर होता है । |
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− | सामान्य जन की यह कठिनाई है । तर्क उसकी बुद्धि में | + | सामान्य जन की यह कठिनाई है। तर्क उसकी बुद्धि में उतरता नहीं इसलिए उसके जंगल में भटक जाता है। स्मृतियाँ कालानुरूप होती हैं इसलिए कालबाह्म भी होती हैं। अनेक स्मृतियों में से कौनसी मानना इसका विवेक करना होता है जो उसके पास नहीं होता है। विवेक इसलिए नहीं होता क्योंकि उसकी उसे शिक्षा नहीं मिली होती है । मनीषियों का भी मामला स्मृतियों जैसा ही होता है। उनके वचनों में उसे श्रद्धा नहीं होती। अत: वह और किसी झंझट में न पड़ते हुए स्वयं जिन्हें महाजन मानता है उनका अनुसरण और अनुकरण करता है। किसे महाजन मानना यह निश्चित करने का विवेक अथवा परम्परा यदि उसके पास है तो यह सरल मार्ग है । परन्तु यह विवेक होना ही कठिन है क्योंकि ऐसा विवेक सिखाने वाला भी धर्म ही होता है। इसलिए सामान्य जन हो या विशेष जन उसे धर्म तो सीखना ही होता है। |
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− | नहीं होता क्योंकि उसकी उसे शिक्षा नहीं मिली होती है । | |
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− | में न पड़ते हुए स्वयं जिन्हें महाजन मानता है उनका अनुसरण | |
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− | और अनुकरण करता है । किसे महाजन मानना यह निश्चित | |
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− | सरल मार्ग है । परन्तु यह विवेक होना ही कठिन है क्योंकि | |
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | ऐसा विवेक सिखाने वाला भी धर्म ही होता है । इसलिए | |
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− | सामान्य जन हो या विशेष जन उसे धर्म तो सीखना ही होता | |
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| धर्म और सत्य सीखने के लिये मनुष्य का हृदय | | धर्म और सत्य सीखने के लिये मनुष्य का हृदय |