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| ## मानव की वाणी की पूरी क्षमताओं को वह अवसर भी दे और विकसित भी कर सके। | | ## मानव की वाणी की पूरी क्षमताओं को वह अवसर भी दे और विकसित भी कर सके। |
| ## नये अनुभवों की भी सरलता से अभिव्यक्ति करने की क्षमता रखने हेतु शब्द-निर्माण की क्षमता विशाल और सटीक हो। | | ## नये अनुभवों की भी सरलता से अभिव्यक्ति करने की क्षमता रखने हेतु शब्द-निर्माण की क्षमता विशाल और सटीक हो। |
− | ## उपयोग में सहजता । व्याकरण-शुध्दता, तर्कशुध्दता, सरल लिपि आदि। | + | ## उपयोग में सहजता । व्याकरण-शुद्धता, तर्कशुद्धता, सरल लिपि आदि। |
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| == भारतीय भाषा विषय के अध्ययन और अध्यापन का उद्देश्य == | | == भारतीय भाषा विषय के अध्ययन और अध्यापन का उद्देश्य == |
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| === भारतीय भाषाएं समझने, सीखने में और उन के उपयोग में सरलता === | | === भारतीय भाषाएं समझने, सीखने में और उन के उपयोग में सरलता === |
− | ५.१ संस्कृत तो श्रेष्ठतम है ही । लेकिन अन्य भारतीय भाषाएं भी अंग्रेजी से अधिक व्याकरण शुध्द हैं। तर्कसंगत हैं। बुद्धियुक्त हैं। इस लिये भारतीय भाषाएं सीखना सरल है। भारतीय भाषाएं उपयोग करने में भी सरल है ।
| + | # संस्कृत तो श्रेष्ठतम है ही । लेकिन अन्य भारतीय भाषाएं भी अंग्रेजी से अधिक व्याकरण शुद्ध हैं। तर्कसंगत हैं। बुद्धियुक्त हैं। इस लिये भारतीय भाषाएं सीखना सरल है। भारतीय भाषाएं उपयोग करने में भी सरल है। शरीर रचना शास्त्र का भी इसमे विशेष ध्यान दिया गया है। ओष्ठय, दंत्य, मूर्धन्य, तालव्य और कंठय ऐसी हमारे भाषाओं की वर्णमालाओं के अक्षरों की रचना अत्यंत वैज्ञानिक है। |
− | शरीर रचना शास्त्र का भी इसमे विशेष ध्यान दिया गया है । ओष्ठय, दंत्य, मूर्धन्य, तालव्य और कंठय ऐसी हमारे भाषाओं की वर्णमालाओं के अक्षरों की रचना अत्यंत वैज्ञानिक है । | + | # भारतीय भाषाएँ, अपवाद छोड़कर सामान्यत: जैसी लिखी जाती है वैसी ही बोली जाती है। हमारी भाषाएं, व्यवहार, भारतीय सोच यह 'पूर्णत्व' का आग्रह करने वाली है। इसीलिये व्यवहार में सरलता में पूर्णत्व की दृष्टि से हमारी लिपियाँ ऐसी बनाई गई है। अंग्रेजी शब्दों की लिखाई (स्पेलिंग) अलग होती है, और उन लिखे हुए शब्दों को पढा अलग ढंग से जाता है। लिखा जाता है 'डीओ' लेकिन पढा जाता है 'डू'। लिखा जाता है 'सीओडब्ल्यू' लेकिन पढ़ा जाता है 'काऊ'। इस मामले में तो अंग्रेजी भाषा भारतीय भाषाओं की तुलना में बहुत ही निम्न स्तर पर है। |
− | ५.२ भारतीय भाषाएँ, अपवाद छोड़कर सामान्यत: जैसी लिखी जाती है वैसी ही बोली जाती है। हमारी भाषाएं, व्यवहार, भारतीय सोच यह ' पूर्णत्व ' का आग्रह करनेवाली है । इसीलिये व्यवहार में सरलता में पूर्णत्व की दृष्टि से हमारी लिपियाँ ऐसी बनाई गई है । अंग्रेजी शब्दों की लिखाई (स्पेलिंग) अलग होती है, और उन लिखे हुए शब्दों को पढा अलग ढंग से जाता है । लिखा जाता है ' डीओ ' लेकिन पढा जाता है ' डू ' । लिखा जाता है ' सीओडब्ल्यू ' लेकिन पढ़ा जाता है ' काऊ ' । इस मामले में तो अंग्रेजी भाषा भारतीय भाषाओं की तुलना में बहुत ही निम्न स्तरपर है ।
| + | # अंग्रेजी लिखाई के पढने में उच्चारण की भी समस्याएं है। 'इ' का उच्चारण कभी 'अ' तो कभी 'आइ' तो कभी 'ई' तो कभी 'ए' किया जाता है। किस शब्द में किस जगह कौन सा उच्चारण करना है यह स्मरणशक्ति का काम है। उसे तो याद ही करना और रखना पड़ता है। ऐसा ही मामला अंग्रेजी भाषा के सी, एफ, पी आदि कई अन्य व्यंजन और स्वरों के विषय में भी है। जैसे 'सी' का उच्चार 'सेंटर' शब्द में 'स' तो 'कल्चर' शब्द में 'क' किया जाता है । 'सी' का, 'के' का और 'क्यू' का तीनों के उच्चारण कभी एक 'क' ही होते है तो कभी भिन्न । इस समस्या के कारण बहुत बडी संख्या में योग्य शब्दों के प्रयोग के लिये उन्हे कण्ठगत करना पड़ता है। इस कारण व्यक्ति को अपनी मस्तिष्क की क्षमताओं का एक हिस्सा अकारण ही अधिक व्यय करना पड़ता है। जिस का उपयोग व्यक्ति अन्य किसी अधिक उपयुक्त बातों का स्मरण रखने के लिये कर सकता था। अंग्रेजी में एक ही अक्षर के कई उच्चारण यह सामान्य बात है । अब 'यू' का देखें। वह 'पुट' मे 'ह्रस्व उ', 'रूरल' में 'दीर्घ ऊ' 'प्यूअर' में 'यूअ', 'आवर' में 'व' और 'बट' मे उच्चारण हीन होता है। अंग्रेजी में स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त व्यक्ति को भी कितने ही शब्दों के सही उच्चारण जानने के लिये शब्दकोष देखना ही पड़ता है। यह कठिनाई भारतीय भाषाओं के पढने में दूसरी-तीसरी पढे बच्चे को भी नहीं होती। |
− | ५.३ अंग्रेजी लिखाई के पढने में उच्चारण की भी समस्याएं है । ' इ ' का उच्चारण कभी ' अ ' तो कभी 'आइ' तो कभी 'ई ' तो कभी ' ए ' किया जाता है । किस शब्द में किस जगह कौनसा उच्चारण करना है यह स्मरणशक्ती का काम है । उसे तो याद ही करना और रखना पड़ता है । ऐसा ही मामला अंग्रेजी भाषा के सी, एफ, पी आदि कई अन्य व्यंजन और स्वरों के विषय में भी है। जैसे ' सी ' का उच्चार ' सेंटर ' शब्द में ' स ' तो ' कल्चर ' शब्द में ' क ' किया जाता है । ' सी ' का ' के ' का और ' क्यू ' का तीनों के उच्चारण कभी एक ' क ' ही होते है तो कभी भिन्न । इस समस्या के कारण बहुत बडी संख्या में योग्य शब्दों के प्रयोग के लिये उन्हे कण्ठगत करना पड़ता है । इस कारण व्यक्ति को अपनी मस्तिष्क की क्षमताओं का एक हिस्सा अकारण ही अधिक व्यय करना पड़ता है । जिस का उपयोग व्यक्ति अन्य किसी अधिक उपयुक्त बातों का स्मरण रखने के लिये कर सकता था । अंग्रेजी में एक ही अक्षर के कई उच्चारण यह सामान्य बात है । अब ' यू ' का देखें । वह ' पुट ' मे ' -हस्व उ ', ' रूरल ' में ' दीर्घ ऊ ' प्यूअर ' में 'यूअ ', ' आवर ' में; ' व ' और ' बट ' मे उच्चारण हीन होता है । अंग्रेजी में स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त व्यक्ति को भी कितने ही शब्दों के सही उच्चारण जानने के लिये शब्दकोष देखना ही पड़ता है । यह कठिनाई भारतीय भाषाओं के पढने में दूसरी-तीसरी पढे बच्चे को भी नहीं होती ।
| + | # भारतीय भाषाओं के अक्षर सीखना भी अन्य भाषाओं के अक्षर सीखने से अधिक सरल है । भारतीय भाषाओं की अक्षरमाला का एक अक्षर समझ में आते ही उस वर्ग के सभी अक्षरों का उच्चारण सहज ही आ जाता है । जैसे 'क' अक्षर का उच्चारण कंठ से होता है। 'क' अक्षर का उच्चारण समझ में आते ही 'क' वर्ग के ख, ग, घ, ङ अक्षरों का उच्चारण आ जाता है। ऐसा अंग्रेजी में नहीं होता । 'बी' अल्फाबेट का 'ए' या 'सी' के उच्चारण से कोई संबंध नहीं होता। 'के' अल्फाबेट के उच्चारण का 'जे' या 'एल्' क्रे उच्चारण से कोई संबंध नहीं होता। हमारी वर्णमाला की रचना भी भाषा सीखने के लिये अति उपयुक्त हो, इस विचार से की गई है। 'क' वर्ग के वर्णाक्षरों के लिये मुख के किस अवयव का उपयोग करना है यह समझने से 'क, ख, ग, घ, ङ ' का शुद्ध उच्चारण सरल हो जाता है । अनुनासिकों के स्वाभाविक उच्चारणों को भी वर्णमाला में सटीक स्थान दिया गया है । जैसे दंड शब्द में 'ण्' का उच्चार होगा। 'म्' का नहीं। क्योंकि 'ण' यह 'ट' वर्ग का अनुनासिक है । |
− | ५.४ भारतीय भाषाओं के अक्षर सीखना भी अन्य भाषाओं के अक्षर सीखने से अधिक सरल है । भारतीय भाषाओं की अक्षरमाला का एक अक्षर समझ में आते ही उस वर्ग के सभी अक्षरों का उच्चारण सहज ही आ जाता है । जैसे ' क ' अक्षर का उच्चारण कंठ से होता है । ' क ' अक्षर का उच्चारण समझ में आते ही ' क ' वर्ग के ख, ग, घ, ङ अक्षरों का उच्चारण आ जाता है । ऐसा अंग्रेजी में नहीं होता । ' बी ' अल्फाबेट का ' ए ' या ' सी ' के उच्चारण से कोई संबंध नहीं होता । ' के ' अल्फाबेट के उच्चारण का ' जे ' या ' एल् ' क्रे उच्चारण से कोई संबंध नहीं होता । हमारी वर्णमाला की रचना भी भाषा सीखने के लिये अति उपयुक्त हो, इस विचार से की गई है । ' क ' वर्ग के वर्णाक्षरों के लिये मुख के किस अवयव का उपयोग करना है यह समझने से ' क. ख, ग, घ, ङ ' का शुध्द उच्चारण सरल हो जाता है ।
| + | # भारतीय सोच में 'पूर्णत्व की प्राप्ति' का आग्रह है। इसलिये भारतीय भाषाओं में शब्दों का उच्चारण स्पष्ट, पूरा और पर्याप्त शक्ति के साथ हो, जिससे वह सुनने वाले को अच्छी तरह से सुनाई दे, समझ में आये, ऐसा आग्रह होता है। अंग्रेजी या योरप की अन्य भाषा में शायद जितना अधूरा उच्चारण होगा, उतना उसे ठीक उच्चारण (राइट ऍक्सेंट) माना जाता है। |
− | अनुनासिकों के स्वाभाविक उच्चारणों को भी वर्णमाला में सटीक स्थान दिया गया है । जैसे दंड शब्द में ' ण् ' का उच्चार होगा । ' म् ' का नहीं। क्यों की ' ण ' यह ' ट ' वर्ग का अनुनासिक है । | + | # देवनागरी के लेखन से उंगलियाँ और संस्कृत भाषा बोलने से जबान लचीली बन जाती है । फिर विश्व की कोई भी भाषा लिखना और बोलना सरल हो जाता है । |
− | ५.५ भारतीय सोच में ' पूर्णत्व की प्राप्ति ' का आग्रह है । इसलिये भारतीय भाषाओं में शब्दों का उच्चारण स्पष्ट, पूरा और पर्याप्त शक्ति के साथ हो, जिससे वह सुननेवाले को अच्छी तरह से सुनाई दे, समझ में आये, ऐसा आग्रह होता है। अंग्रेजी या योरप की अन्य भाषा में शायद जितना अधूरा उच्चारण होगा, उतना उसे ठीक उच्चारण (राइट ऍक्सेंट) माना जाता है ।
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− | ५.६ देवनागरी के लेखन से उंगलियाँ और संस्कृत भाषा बोलने से जबान लचीली बन जाती है । फिर विश्व की कोई भी भाषा लिखना और बोलना सरल हो जाता है ।
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| === ज्ञान और विज्ञान की भाषा === | | === ज्ञान और विज्ञान की भाषा === |
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| ८.१ अपनी भाषा का प्रयोग सामान्य व्यवहार के लिये करना यह हर समाज के लिये स्वत्व और स्वाभिमान की बात होती है। पराभूत और परावलंबी मानसिकता रखनेवाले समाज ही विदेशी समाजों की भाषा अपनाते हैं। जर्मनी में जर्मन, जापान में जापानी, पुर्तगाल में पुर्तगाली, फ्रांस में फ्रेंच भाषाओं का ही ये देश सामान्य व्यवहार के लिये उपयोग करते हैं। | | ८.१ अपनी भाषा का प्रयोग सामान्य व्यवहार के लिये करना यह हर समाज के लिये स्वत्व और स्वाभिमान की बात होती है। पराभूत और परावलंबी मानसिकता रखनेवाले समाज ही विदेशी समाजों की भाषा अपनाते हैं। जर्मनी में जर्मन, जापान में जापानी, पुर्तगाल में पुर्तगाली, फ्रांस में फ्रेंच भाषाओं का ही ये देश सामान्य व्यवहार के लिये उपयोग करते हैं। |
| ८.२ अभारतीय भाषाएं उन समाजों की मान्यताओं, सोच को अभिव्यक्त करती है । और अभारतीय समाजों में एकात्मता का विचार नहीं है। इसलिये इन भाषाओं में अध्ययन कर बच्चे हीन संस्कृति अपनाते जाते है। बच्चों को हीन संस्कृति से बचाकर ' एकात्मता ' पर आधारित श्रेष्ठ संस्कृति मे संस्कारित करना भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने से ही संभव होता है । | | ८.२ अभारतीय भाषाएं उन समाजों की मान्यताओं, सोच को अभिव्यक्त करती है । और अभारतीय समाजों में एकात्मता का विचार नहीं है। इसलिये इन भाषाओं में अध्ययन कर बच्चे हीन संस्कृति अपनाते जाते है। बच्चों को हीन संस्कृति से बचाकर ' एकात्मता ' पर आधारित श्रेष्ठ संस्कृति मे संस्कारित करना भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने से ही संभव होता है । |
− | ८.३ बच्चों की प्रतिभा का पूरा उपयोग अध्ययन के लिये होता है । भारतीय भाषाएं सीखने के लिये सरल, व्याकरणशुध्द और तर्कशुध्द होने के कारण भाषा सीखने में प्रतिभा का न्यूनतम और बहुत छोटा हिस्सा ही व्यय होता है । बचा हुआ पूरा हिस्सा नये विषयों के अध्ययन के लिये उपयोग में लाया जा सकता है । | + | ८.३ बच्चों की प्रतिभा का पूरा उपयोग अध्ययन के लिये होता है । भारतीय भाषाएं सीखने के लिये सरल, व्याकरणशुद्ध और तर्कशुद्ध होने के कारण भाषा सीखने में प्रतिभा का न्यूनतम और बहुत छोटा हिस्सा ही व्यय होता है । बचा हुआ पूरा हिस्सा नये विषयों के अध्ययन के लिये उपयोग में लाया जा सकता है । |
| ८.४ संस्कृत भाषा जिसे आती है, उसे विश्व की अन्य कोई भी भाषा सीखना बहुत सरल होता है । अन्य भारतीय भाषाओं के लिये भी यह कम-अधिक मात्रा में लागू होता है । | | ८.४ संस्कृत भाषा जिसे आती है, उसे विश्व की अन्य कोई भी भाषा सीखना बहुत सरल होता है । अन्य भारतीय भाषाओं के लिये भी यह कम-अधिक मात्रा में लागू होता है । |
| ८.५ ग्रीक और लॅटिन यह संस्कृत के बाद दूसरे क्रमांक की प्राचीन भाषाएं हैं। किंतु संस्कृत में आज भी उपलब्ध विविध विषयोंपर लिखे ग्रंथों की पांडुलिपियाँ ग्रीक और लॅटिन दोनों भाषाओं में लिखी पांडुलिपियों की संख्या से सैंकड़ों गुना अधिक है । वर्तमान शिक्षा के कारण इन पांडुलिपियों से प्राप्त होनेवाला ज्ञान अस्तंगत होता जा रहा है । भारतीय और विशेषत: संस्कृत सीखने से इन ग्रंथों में सुरक्षित और छुपा ज्ञान मानवमात्र को उपलब्ध हो सकेगा । | | ८.५ ग्रीक और लॅटिन यह संस्कृत के बाद दूसरे क्रमांक की प्राचीन भाषाएं हैं। किंतु संस्कृत में आज भी उपलब्ध विविध विषयोंपर लिखे ग्रंथों की पांडुलिपियाँ ग्रीक और लॅटिन दोनों भाषाओं में लिखी पांडुलिपियों की संख्या से सैंकड़ों गुना अधिक है । वर्तमान शिक्षा के कारण इन पांडुलिपियों से प्राप्त होनेवाला ज्ञान अस्तंगत होता जा रहा है । भारतीय और विशेषत: संस्कृत सीखने से इन ग्रंथों में सुरक्षित और छुपा ज्ञान मानवमात्र को उपलब्ध हो सकेगा । |