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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
भारतीय समाज के बारे में ऐसा कहा जाता है कि, ' हमने इतिहास से केवल एक बात सीखी है और वह है इतिहास से कुछ भी नहीं सीखना '। इस बात मे तथ्य है ऐसा वर्तमान भारतीय समाज के अध्ययन से भी समझ में आता है । कुछ लोग गरूर से कहते है की हम इतिहास सीखते नहीं, हम इतिहास निर्माण करते है । ऐसे घमंडी लोगों की ओर ध्यान नहीं देना ही ठीक है । डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा था की जो लोग इतिहास से सबक नहीं सीखते वे लोग भविष्य में बारबार अपमानित होते रहते है ।
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भारतीय समाज के बारे में ऐसा कहा जाता है कि 'हमने इतिहास से केवल एक बात सीखी है और वह है इतिहास से कुछ भी नहीं सीखना'। इस बात मे तथ्य है ऐसा वर्तमान भारतीय समाज के अध्ययन से भी समझ में आता है । कुछ लोग दंभ से कहते है कि हम इतिहास सीखते नहीं, हम इतिहास निर्माण करते है। ऐसे घमंडी लोगों की ओर ध्यान नहीं देना ही ठीक है। डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा था कि जो लोग इतिहास से सबक नहीं सीखते वे लोग भविष्य में बार बार अपमानित होते रहते है। इतिहास से समाजमन तैयार होता है। हर समाज में साहित्य, लेखन, लोककथाएं, बालगीत, लोकवांग्मय, लोरीगीत आदि के माध्यम से इतिहास के उदात्त प्रसंगों द्वारा समाज मन तैयार करने की सहज प्रक्रिया हुआ करती थी। सामान्य लोग इसे भलीभाँति समझते है। इसलिये वर्तमान विद्यालयीन शिक्षा में यद्यपि विदेशी शासकों की भूमिका से लिखा इतिहास पढाया जाता है, फिर भी लोकसाहित्य, लोकगीत, बालगीत, लोरियाँ आदि अब भी भारत के गौरवपूर्ण इतिहास की गाथा ही गाते है।
इतिहास से समाजमन तैयार होता है । हर समाज में साहित्य, लेखन, लोककथाएं, बालगीत, लोकवांग्मय, लोरीगीत आदि के माध्यम से इतिहास के उदात्त प्रसंगोंद्वारा समाजमन तैयार करने की सहज प्रक्रिया हुआ करती थी । सामान्य लोग इसे भलीभाँति समझते है । इसलिये वर्तमान विद्यालयीन शिक्षा में यद्यपि विदेशी शासकों की भूमिका से लिखा इतिहास पढाया जाता है, फिर भी लोकसाहित्य, लोकगीत, बालगीत, लोरियाँ आदि अब भी भारत के गौरवपूर्ण इतिहास की गाथा ही गाते है ।
      
== शत्रुओं द्वारा लिखित भारतीय इतिहास की पार्श्वभूमि ==
 
== शत्रुओं द्वारा लिखित भारतीय इतिहास की पार्श्वभूमि ==
सामान्यत: अपने विद्यालयों में पढाए जानेवाले इतिहास की पार्श्वभूमि हमारे इतिहास शिक्षकों को विदित नहीं होती। यह जानकारी केवल ऑंखें खोलनेवाली ही नहीं तो अपने वास्तविक इतिहास के लेखन की अनिवार्यता की प्रेरणा देनेवाली भी है।    
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सामान्यत: अपने विद्यालयों में पढाए जानेवाले इतिहास की पार्श्वभूमि हमारे इतिहास शिक्षकों को विदित नहीं होती। यह जानकारी केवल आँखें खोलने वाली ही नहीं तो अपने वास्तविक इतिहास के लेखन की अनिवार्यता की प्रेरणा देनेवाली भी है।
अंग्रेजी राज भारत में आने से कुछ समय पहले १८ वीं सदी के उत्तरार्धतक केवल इंग्लंड ही नहीं तो योरप के सभी देशों में भारत के प्रति, आर्य संस्कृति के प्रति, भारतीय परंपराओं के प्रति, सामान्य भारतीय मनुष्य की नीतिमत्ता के प्रति अपार आदर था । भिन्न भिन्न ढंग से अपनी संस्कृति को आर्यों से जोडने की होड योरप के फ्रांस, जर्मनी जप्रसे प्रगत सभी देशों में लगी थी । इंग्लैण्ड भी पीछे नहीं था। १७५४ में व्हॉल्टेयरने लिखा है की मानव जाति को प्रगति के लिये भारत से मार्गदर्शन लेना चाहिये ।
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फ्रांस के बादशाह नेपोलियन का भारतप्रेम तो सर्वश्रुत ही था । हेगेल ने तो संस्कृत भाषा के योरपीय देशों को हुवे परिचय की तुलना एक नये द्वीपकल्प की खोज से की थी । जर्मनी ने जर्मन भाषा के व्याकरण में सुधार कर उसे संस्कृत भाषा के व्याकरण जैसा बनाने का प्रयास किया।
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ऐसी स्थिति में अंग्रेजों का राज्य भारत में दृढता की ओर बढ रहा था । भारतीय समाज के प्रति गौरव का भाव लेकर भारतीयोंपर शासन नहीं किया जा सकता । भारतीयों की संस्कृति, रहनसहन और मानसिकता जबतक अंग्रेजों की अनुगामिनी नहीं बनेगी भारतवर्षपर राज करना असंभव होगा । ऐसा विचार यहाँ के अंग्रेजी शासक कर रहे थे । चार्ल्स् ग्रँट उन में से ही एक था । भारत को ईसाई बनाना भारत में चिरंतन कालतक अंग्रेजी राज्य के लिये अनिवार्य है ऐसा यह शासक सोचते थे । सन १७९० में अपना २३ वर्षों का ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी का कार्यकाल पूरा कर वह इंग्लैंड लौटा था । भारत का ईसाईकरण करने की आकांक्षा रखनेवाले ईसाई आंदोलन (इव्हेंजेलिकल सोसायटी) के कार्यकर्ता विल्बरफोर्स, जेम्स् स्टुअर्ट मिल आदि लोग भी ऐसा ही सोचते थे। चार्ल्स् ग्रँटद्वारा निरंतर चलाए अभियान के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालकों ने भारत के ईसाईकरण के लिये भारत में पाद्री भेजने का प्रस्ताव १७९२ की इंग्लैंड की चार्टर्ड डिबेट में प्रस्तुत किया। 
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राष्ट्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसे नीति और रणनीति के महत्वपूर्ण मुद्दोंपर हर २० वर्ष के बाद गहराई से संसद मे चर्चा करने की ब्रिटेन में पध्दति थी । इसे चार्टर्ड डिबेट कहा जाता था । १७९२ से पूर्व भारत में अध्ययन के लिये आये, प्रसिध्द अंग्रेजी इतिहासकार विलियम  रोंबर्टसन ने लिखे और १७९२ में प्रकाशित      ' हिस्टॉरिकल डिस्क्विझिशन्स् ऑन ईंडिया ' पुस्तक में दी गयी जानकारी के आधारपर भारत में पाद्री भेजने का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया । विलियम रॉबर्टसन की यह पुस्तक उस के ही जैसे भारत अध्ययन करने आये कुछ इतिहास संशोधकोंद्वारा प्रस्तुत शोध प्रबंधोंपर आधारित थी । भारत का गव्हर्नर जनरल वॉरेन हेस्टींग्ज ( १७७२-१७८५) भी भारतीय सस्कृति, संस्कृत भाषा आदि का प्रशंसक था । उस ने इन के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना भी की थी । भारतीय साहित्य का अध्ययन पाश्चात्य राष्ट्रों के लिये हितकारी होगा ऐसा लॉर्ड मिन्टो (१८०६-१८१३) भी मानता था । ( पृष्ठ ३, ए स्टुडंण्ट्स् हिस्टरी ऑफ ईंडिया - लेखक सय्यद नुरूला और जे. पी नायक ) 
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१७९२ में प्रस्ताव के ठुकराए जाने के बाद भी चार्ल्स् ग्रँट निराश नहीं हुआ। वह १७९३ में कुछ पाद्रियों को अवैध रूप से भारत भेजने में सफल हो गया । इन पाद्रियों ने भेजी विकृत और अतिरंजित जानकारी के आधारपर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ने हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इण्डिया यह ग्रंथ दो खण्डों में प्रकाशित किया । जेम्स् स्टुअर्ट मिल भारत में कभी नहीं आया था । इसी इतिहास के आधारपर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ब्रिटिश सरकार का भारत से संबंधित सभी मामलों में सलाहकार बन गया ।
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इसी के बीच चार्ल्स् ग्रँट ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स् का चेयरमन बन गया था । आगामी चार्टर्ड डीबेट से पूर्व उस ने जेम्स् मिल ने लिखे इतिहास के आधारपर इंग्लैंड में भारत की प्रतिमा बिगाडने के लिये अभियान चलाया था । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में इसी इतिहास में लिखी विकृत और अतिरंजित जानकारी को ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में प्रस्तुत इस गलत भूमिका के लिये लॉर्ड हेस्ंटिग्ज ने विरोध भी जताया था ।
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ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत होने से और भारत की प्रतिमा-हनन के प्रयासों के कारण भारत में ईसाईयत के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में पाद्री भेजने का प्रस्ताव पारित हो गया । भारत का ईसाईकरण शुरू हो गया । सन १८५७ तक यह निर्बाध रूप से चलता रहा । १८५७ की लडाई के बाद इस नीति को बदला गया था । इस की जानकारी १८५७ के स्वातंत्र्य समर का इतिहास जाननेवाले सभी को है। 
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सिखों के इतिहास लेखन की कथा तो इस से भी अधिक गहरे षडयंत्र की कथा है । मॅकलिफ नाम का एक अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकारी बनकर पंजाब में आया था । उस ने सिख पंथ का स्वीकार किया । मॅकलिफसिंग बन गया । जीते हुवे समाज का और वह भी गोरी चमडीवाला अंग्रेज सिख बन जाता है, यह बात सिखों के लिये अत्यंत आनंद देनेवाली और अत्यंत गौरवपूर्ण ऐसी थी । इस के परिणामस्वरूप मॅकलिफसिंग सिखों का सिरमौर बन गया । पूरा सिख समाज मॅकलिफसिंग जिसे पूर्व कहे उसे पूर्व कहने लग गया ।
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सकल जगत में खालसा पंथ गाजे ।  
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अंग्रेजी राज भारत में आने से कुछ समय पहले १८ वीं सदी के उत्तरार्ध तक केवल इंग्लैंड ही नहीं तो योरप के सभी देशों में भारत के प्रति, आर्य संस्कृति के प्रति, भारतीय परंपराओं के प्रति, सामान्य भारतीय मनुष्य की नीतिमत्ता के प्रति अपार आदर था । भिन्न भिन्न ढंग से अपनी संस्कृति को आर्यों से जोडने की होड़ योरप के फ्रांस, जर्मनी जैसे सभी देशों में लगी थी। इंग्लैण्ड भी पीछे नहीं था। १७५४ में व्हॉल्टेयरने लिखा है कि मानव जाति को प्रगति के लिये भारत से मार्गदर्शन लेना चाहिये ।
जगे धर्म हिंन्दू सकल भंड भाजे ॥ - सिख्खों के दसवें गुरू गोविदसिंगजी
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गुरू गोविंदसिंगजी ने खालसा ( सिख ) पंथ की स्थापना ही हिंदु धर्म की रक्षा के लिये की थी यह बात उन के उपर्युक्त दोहे से स्पष्ट है । किन्तु सिखों (केशधारी हिंदु) में और हिन्दुओं में फूट डालने के लिये मॅकलिफसिंग ने सिखों का झूठा इतिहास लिख डाला । १९९० के दशक में पंजाब में चले खलिस्तान की अलगाववादी मांग के बीज मॅकलिफसिंग के लिखे सिखों के इतिहास में ही है । कंपनी की नौकरी का कार्यकाल समाप्त होते ही मॅकलिफसिंग दाढी-मूंछें मुंडवाकर फिर ईसाई बनकर इंग्लैंड चला गया।  किन्तु हमारी गुलामी की मानसिकता इतनी गहरी है की अब भी हम अंग्रेजों के षडयंत्र को समझ नहीं रहे । मॅकलिफसिंग का लिखा सिखों का इतिहास आज भी सिखों का प्रामाणिक संदर्भ इतिहास माना जाता है । इस इतिहास से भिन्न कुछ लिखनेपर हमारी तथाकथित इतिहासज्ञों की फौज लिखा हुआ सत्य है या नहीं इस को जाँचे बगैर ही उस के विरोध में खडी हो जाती है ।
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फ्रांस के बादशाह नेपोलियन का भारतप्रेम तो सर्वश्रुत ही था। हेगेल ने तो संस्कृत भाषा के योरपीय देशों को हुए परिचय की तुलना एक नये द्वीपकल्प की खोज से की थी। जर्मनी ने जर्मन भाषा के व्याकरण में सुधार कर उसे संस्कृत भाषा के व्याकरण जैसा बनाने का प्रयास किया।
स्वाधीनता के बाद इस में परिवर्तन होगा ऐसी आशा थी । किन्तु जवाहरलाल नेहरूजी का नेतृत्व हमें मिला। वह योरपीय सोच से अत्यधिक प्रभावित थे । भारतीयता के संबंध में उन की समझ बहुत कम और गलत थी । इसीलिये भारत के राष्ट्रपुरूष शिवाजी को उन्होंने ' राह भटका देशभक्त (मिसगायडेड पॅट्रियट)' कहा । गांधीजी की भारतीयता के नेहरूजी कट्टर विरोधी थे । काँग्रेस में घुसे कम्युनिस्टों के कारनामों को वह समझ नहीं सकते थे । इतिहास लेखन की जिम्मेदारी स्वाधीन भारत में नेहरूजी ने जिन्हें सौंपी वे सब छद्म किन्तु कट्टर कम्युनिस्ट थे । कम्युनिस्टों का इतिहास भारत के साथ गद्दारी का ही रहा है। उन्हें देश के सत्य इतिहास के लेखन में और भारतीय आदर्शों की पुनर्प्रतिष्ठा में कोई रस नहीं था, न आज है। इस कम्युनिस्ट गुट ने जितना भी इतिहास लेखन में योगदान दिया है, उस के कारण हमारे बच्चों की इतिहास पढने में रुचि खतम हो गई है । पूरा इतिहास हिंदु समाज के बच्चों के मन में हीनताबोध निर्माण करनेवाला लिखा गया है । इतिहास लेखन, अध्ययन और अध्यापन की इन की दृष्टि तो जेम्स् स्टुअर्ट मिल की ही रही है।  
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जबतक शेर अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, शिकारी की भूमिका से ही इतिहास लिखे जाएंगे । यही हमारे इतिहास के बारे में हो रहा है । भारत का स्वर्णयुग, गुप्त काल जिस का वर्णन चीनी प्रवासियों ने कर रखा है, उसे अंग्रेज भी नकार नहीं सके थे । किन्तु हमारे इतिहास विभाग ने एक चक्रक (सर्क्युलर) निकालकर आदेश दिया की ' गुप्त काल को स्वर्णयुग कहकर उस का गौरव नहीं करें ' । तथाकथित इतिहासज्ञों (छद्म कम्युनिस्टों) ने इंडियन काउन्सिल फॉर हिस्टॉरिकल रिसर्च इस सर्वोच्च संस्थापर लगभग ५० वर्षोंतक कब्जा जमाए रखा था । १९९८ में इन्हे बर्खास्त किया गया । अरूण शौरी की पुस्तक ' एमिनंट हिस्टॉरियन्स् - देयर टेक्नॉलॉजी, देयर लाईन ऍंड देयर फ्रॉड्स् ' में सबूतों के साथ इरफान हबीब, रोमिला थापर, जगदीशचन्द्र आदि जैसे ४०-५० तथाकथित इतिहासज्ञों के कारनामों की जानकारी मिलती है । इन तथाकथित इतिहासकारों ने सरकारी तिजोरी को लाखों रुपयों का चूना कैसे लगाया इस के ऑंकडे भी इस पुस्तक में दिये है । इस तरह स्वाधीनता से पहले अंग्रेजी और स्वाधीनता के उपरांत कम्युनिस्ट ऐसी पाश्चात्य भूमिकाओं से ही हमारे इतिहास की प्रस्तुति हुई है ।
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ऐसी स्थिति में अंग्रेजों का राज्य भारत में दृढता की ओर बढ रहा था। अँगरेज़ समझ गए थे कि भारतीय समाज के प्रति गौरव का भाव लेकर भारतीयों पर शासन नहीं किया जा सकता। वे जानते थे कि भारतीयों की संस्कृति, रहनसहन और मानसिकता जब तक अंग्रेजों की अनुगामिनी नहीं बनेगी भारतवर्ष पर राज करना असंभव होगा। ऐसा विचार यहाँ के अंग्रेजी शासक कर रहे थे। चार्ल्स् ग्रँट उन में से ही एक था। भारत को ईसाई बनाना भारत में चिरंतन कालतक अंग्रेजी राज्य के लिये अनिवार्य है ऐसा यह शासक सोचते थे। सन १७९० में अपना २३ वर्षों का ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी का कार्यकाल पूरा कर वह इंग्लैंड लौटा था। भारत का ईसाईकरण करने की आकांक्षा रखनेवाले ईसाई आंदोलन (इव्हेंजेलिकल सोसायटी) के कार्यकर्ता विल्बरफोर्स, जेम्स् स्टुअर्ट मिल आदि लोग भी ऐसा ही सोचते थे। चार्ल्स् ग्रँट द्वारा निरंतर चलाए अभियान के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालकों ने भारत के ईसाईकरण के लिये भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव १७९२ की इंग्लैंड की चार्टर्ड डिबेट में प्रस्तुत किया।
भारतीय बच्चे जैसे बनें ऐसी अंग्रेजों की इच्छा थी उस के अनुरूप इतिहास का लेखन अंग्रेजों ने किया । हम अपने बच्चों को कैसा बनाना चाहते है यह हमें सोचना होगा । और इस सोच के अनुसार इतिहास का पुनर्लेखन हमें करना होगा । इस का अर्थ यह नहीं की हम झूठा इतिहास लिखें। इतिहास के विषय में भारतीय मान्यता है,' ना मूलम् लिख्यते किंचित् ' । इसलिये जो वास्तव में घटित हुआ है उस की भारतीय दृष्टिकोण से मीमांसा करते हुवे हमें अपना इतिहास फिर से लिखना होगा । ऐसे इतिहास को पढकर ही हमारे बच्चे वास्तविक अर्थों में आर्य बनेंगे और विश्व को आर्यत्व की सीख देंगे । वसुधैव कुटुंबकम् के अर्थ समझाएंगे ।
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राष्ट्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसे नीति और रणनीति के महत्वपूर्ण मुद्दों पर हर २० वर्ष के बाद गहराई से संसद मे चर्चा करने की ब्रिटेन में पध्दति थी। इसे चार्टर्ड डिबेट कहा जाता था। १७९२ से पूर्व भारत में अध्ययन के लिये आये, प्रसिध्द अंग्रेजी इतिहासकार विलियम रोबर्टसन द्वारा लिखे और १७९२ में प्रकाशित 'हिस्टॉरिकल डिस्क्विझिशन्स् ऑन ईंडिया' पुस्तक में दी गयी जानकारी के आधार पर भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया। विलियम रॉबर्टसन की यह पुस्तक उस के ही जैसे भारत अध्ययन करने आये कुछ इतिहास संशोधकों द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबंधोंपर आधारित थी। भारत का गव्हर्नर जनरल वॉरेन हेस्टींग्ज ( १७७२-१७८५) भी भारतीय सस्कृति, संस्कृत भाषा आदि का प्रशंसक था। उस ने इन के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना भी की थी। भारतीय साहित्य का अध्ययन पाश्चात्य राष्ट्रों के लिये हितकारी होगा ऐसा लॉर्ड मिन्टो (१८०६-१८१३) भी मानता था<ref>ए स्टुडंण्ट्स् हिस्टरी ऑफ ईंडिया - लेखक सय्यद नुरूला और जे. पी नायक, पृष्ठ ३</ref>। १७९२ में प्रस्ताव के ठुकराए जाने के बाद भी चार्ल्स् ग्रँट निराश नहीं हुआ। वह १७९३ में कुछ पादरियों को अवैध रूप से भारत भेजने में सफल हो गया। इन पादरियों द्वारा भेजी विकृत और अतिरंजित जानकारी के आधार पर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ने हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इण्डिया ग्रंथ दो खण्डों में प्रकाशित किया। जेम्स् स्टुअर्ट मिल भारत में कभी नहीं आया था। इसी इतिहास के आधार पर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ब्रिटिश सरकार का भारत से संबंधित सभी मामलों में सलाहकार बन गया।
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इसी के बीच चार्ल्स् ग्रँट ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स् का चेयरमन बन गया था । आगामी चार्टर्ड डीबेट से पूर्व उसने जेम्स् मिल द्वारा लिखे इतिहास के आधार पर इंग्लैंड में भारत की प्रतिमा बिगाडने के लिये अभियान चलाया था । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में इसी इतिहास में लिखी विकृत और अतिरंजित जानकारी को ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में प्रस्तुत इस गलत भूमिका के लिये लॉर्ड हेस्ंटिग्ज ने विरोध भी जताया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत होने से और भारत की प्रतिमा-हनन के प्रयासों के कारण भारत में ईसाईयत के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव पारित हो गया । भारत का ईसाईकरण शुरू हो गया । सन १८५७ तक यह निर्बाध रूप से चलता रहा । १८५७ की लडाई के बाद इस नीति को बदला गया था। इस की जानकारी १८५७ के स्वातंत्र्य समर का इतिहास जाननेवाले सभी को है।
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सिखों के इतिहास लेखन की कथा तो इस से भी अधिक गहरे षडयंत्र की कथा है। मॅकलिफ नाम का एक अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकारी बनकर पंजाब में आया था। उस ने सिख पंथ का स्वीकार किया। मॅकलिफ सिंग बन गया। जीते हुए समाज का और वह भी गोरी चमडी वाला अंग्रेज सिख बन जाता है, यह बात सिखों के लिये अत्यंत आनंद देनेवाली और अत्यंत गौरवपूर्ण थी । इस के परिणामस्वरूप मॅकलिफसिंग सिखों का सिरमौर बन गया । पूरा सिख समाज मॅकलिफसिंग जिसे पूर्व कहे उसे पूर्व कहने लग गया ।<blockquote>सकल जगत में खालसा पंथ गाजे ।</blockquote><blockquote>जगे धर्म हिंन्दू सकल भंड भाजे ॥</blockquote>सिख्खों के दसवें गुरू गोविद सिंह जी ने खालसा ( सिख ) पंथ की स्थापना ही हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये की थी यह बात उन के उपर्युक्त दोहे से स्पष्ट है। किन्तु सिखों (केशधारी हिन्दू) में और हिन्दुओं में फूट डालने के लिये मॅकलिफसिंग ने सिखों का झूठा इतिहास लिख डाला। १९९० के दशक में पंजाब में चले खलिस्तान की अलगाववादी मांग के बीज मॅकलिफसिंग के लिखे सिखों के इतिहास में ही है। कंपनी की नौकरी का कार्यकाल समाप्त होते ही मॅकलिफसिंग दाढी-मूंछें मुंडवाकर फिर ईसाई बनकर इंग्लैंड चला गया।  किन्तु हमारी गुलामी की मानसिकता इतनी गहरी है कि अब भी हम अंग्रेजों के षडयंत्र को समझ नहीं रहे । मॅकलिफसिंग का लिखा सिखों का इतिहास आज भी सिखों का प्रामाणिक संदर्भ इतिहास माना जाता है। इस इतिहास से भिन्न कुछ लिखने पर हमारी तथाकथित इतिहासज्ञों की फौज लिखा हुआ सत्य है या नहीं इस को जाँचे बगैर ही उस के विरोध में खडी हो जाती है।
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स्वाधीनता के बाद इस में परिवर्तन होगा ऐसी आशा थी। किन्तु जवाहरलाल नेहरूजी का नेतृत्व हमें मिला। वह योरपीय सोच से अत्यधिक प्रभावित थे। भारतीयता के संबंध में उन की समझ बहुत कम और गलत थी। इसीलिये भारत के राष्ट्रपुरूष शिवाजी को उन्होंने 'राह भटका देशभक्त (मिसगायडेड पॅट्रियट)' कहा। गांधीजी की भारतीयता के नेहरूजी कट्टर विरोधी थे। काँग्रेस में घुसे कम्युनिस्टों के कारनामों को वह समझ नहीं सकते थे। इतिहास लेखन की जिम्मेदारी स्वाधीन भारत में नेहरूजी ने जिन्हें सौंपी वे सब छद्म किन्तु कट्टर कम्युनिस्ट थे। कम्युनिस्टों का इतिहास भारत के साथ गद्दारी का ही रहा है। उन्हें देश के सत्य इतिहास के लेखन में और भारतीय आदर्शों की पुनर्प्रतिष्ठा में कोई रस नहीं था, न आज है। इस कम्युनिस्ट गुट ने जितना भी इतिहास लेखन में योगदान दिया है, उस के कारण हमारे बच्चों की इतिहास पढने में रुचि खतम हो गई है। पूरा इतिहास हिन्दू समाज के बच्चों के मन में हीनताबोध निर्माण करनेवाला लिखा गया है। इतिहास लेखन, अध्ययन और अध्यापन की इन की दृष्टि तो जेम्स् स्टुअर्ट मिल की ही रही है।
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जबतक शेर अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, शिकारी की भूमिका से ही इतिहास लिखे जाएंगे। यही हमारे इतिहास के बारे में हो रहा है। भारत का स्वर्णयुग, गुप्त काल जिस का वर्णन चीनी प्रवासियों ने कर रखा है, उसे अंग्रेज भी नकार नहीं सके थे। किन्तु हमारे इतिहास विभाग ने एक चक्रक (सर्क्युलर) निकालकर आदेश दिया कि 'गुप्त काल को स्वर्णयुग कहकर उस का गौरव नहीं करें'। तथाकथित इतिहासज्ञों (छद्म कम्युनिस्टों) ने इंडियन काउन्सिल फॉर हिस्टॉरिकल रिसर्च इस सर्वोच्च संस्था पर लगभग ५० वर्षों तक कब्जा जमाए रखा था। १९९८ में इन्हे बर्खास्त किया गया।
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अरूण शौरी की पुस्तक 'एमिनंट हिस्टॉरियन्स् - देयर टेक्नॉलॉजी, देयर लाईन ऍंड देयर फ्रॉड्स्' में सबूतों के साथ इरफान हबीब, रोमिला थापर, जगदीशचन्द्र आदि ४०-५० तथाकथित इतिहासज्ञों के कारनामों की जानकारी मिलती है। इन तथाकथित इतिहासकारों ने सरकारी तिजोरी को लाखों रुपयों का चूना कैसे लगाया इस के ऑंकडे भी इस पुस्तक में दिये है। इस तरह स्वाधीनता से पहले अंग्रेजी और स्वाधीनता के उपरांत कम्युनिस्ट ऐसी पाश्चात्य भूमिकाओं से ही हमारे इतिहास की प्रस्तुति हुई है।
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हम अपने बच्चों को कैसा बनाना चाहते है यह हमें सोचना होगा । और इस सोच के अनुसार इतिहास का पुनर्लेखन हमें करना होगा । इस का अर्थ यह नहीं की हम झूठा इतिहास लिखें। इतिहास के विषय में भारतीय मान्यता है, 'ना मूलम् लिख्यते किंचित्'। इसलिये जो वास्तव में घटित हुआ है उस की भारतीय दृष्टिकोण से मीमांसा करते हुए हमें अपना इतिहास फिर से लिखना होगा। ऐसे इतिहास को पढकर ही हमारे बच्चे वास्तविक अर्थों में आर्य बनेंगे और विश्व को आर्यत्व की सीख देंगे। वसुधैव कुटुंबकम् के अर्थ समझाएंगे।
    
== इतिहास दृष्टि और जीवनदृष्टि ==
 
== इतिहास दृष्टि और जीवनदृष्टि ==
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== भारतीय इतिहास लेखन, अध्ययन और अध्यापन का उद्देश्य ==
 
== भारतीय इतिहास लेखन, अध्ययन और अध्यापन का उद्देश्य ==
भारतीय विचारों के अनुसार मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है । शिक्षा का उद्देष्य भी इसीलिये ' सा विद्या या विमुक्तये ' अर्थात् मोक्ष ही है ऐसा कहा गया है । इच्छाओं को और इच्छापूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखते हुवे मोक्ष की ओर बढने की प्रक्रिया का इस हेतु विकास किया गया। पुत्रेषणा (संतानप्राप्ति), वित्तेषणा (धनप्राप्ति) और लोकेषणा (समाज में प्रतिष्ठा) यह तीन इच्छाएं तो सभी को होती ही है । किन्तु श्रेष्ठ दैवी गुणसंपदायुक्त संतान को जन्म देना, उस हेतु अपना जीवन ढालना, मन को संयम में रखना, प्रामाणिक व्यवहार और उद्योग से धन कमाना, अपने सच्चे सर्वहितकारी स्वभाव और व्यवहार से लोगों के मन जीतने का अर्थ है धर्मानुकूल अर्थ और काम रखते हुवे मोक्ष की ओर बढना ही वास्तविक मानव जीवन का भारतीय आदर्श है।
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भारतीय विचारों के अनुसार मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है । शिक्षा का उद्देष्य भी इसीलिये ' सा विद्या या विमुक्तये ' अर्थात् मोक्ष ही है ऐसा कहा गया है । इच्छाओं को और इच्छापूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखते हुए मोक्ष की ओर बढने की प्रक्रिया का इस हेतु विकास किया गया। पुत्रेषणा (संतानप्राप्ति), वित्तेषणा (धनप्राप्ति) और लोकेषणा (समाज में प्रतिष्ठा) यह तीन इच्छाएं तो सभी को होती ही है । किन्तु श्रेष्ठ दैवी गुणसंपदायुक्त संतान को जन्म देना, उस हेतु अपना जीवन ढालना, मन को संयम में रखना, प्रामाणिक व्यवहार और उद्योग से धन कमाना, अपने सच्चे सर्वहितकारी स्वभाव और व्यवहार से लोगों के मन जीतने का अर्थ है धर्मानुकूल अर्थ और काम रखते हुए मोक्ष की ओर बढना ही वास्तविक मानव जीवन का भारतीय आदर्श है।
 
शिक्षा के उद्देष्य से इतिहास लेखन, अध्ययन और अध्यापन का उद्देष्य भिन्न नहीं हो सकता । इसलिये इतिहास की भारतीय व्याख्या कही गई -
 
शिक्षा के उद्देष्य से इतिहास लेखन, अध्ययन और अध्यापन का उद्देष्य भिन्न नहीं हो सकता । इसलिये इतिहास की भारतीय व्याख्या कही गई -
 
धर्मार्थकाममोक्षाणाम् उपदेश समन्वितम् ।  
 
धर्मार्थकाममोक्षाणाम् उपदेश समन्वितम् ।  
 
पुरावृत्तं कथारूपं इतिहासं प्रचक्षते ॥  
 
पुरावृत्तं कथारूपं इतिहासं प्रचक्षते ॥  
भावार्थ : अर्थ और काम को धर्मानुकूल रखते हुवे मोक्ष की ओर बढने के लिये जो प्रत्यक्ष में हो गये है ऐसे प्रसंगों के आधारपर रोचक रंजक अर्थात् कथा के रूप में की गई प्रस्तुति ही इतिहास है । इस का अर्थ है की इतिहास की प्रस्तुति समाज को चराचर के साथ एकात्मता की भावना और व्यवहार की दृष्टि से अग्रेसर करने के लिये ही करनी होगी । जिस इतिहास की प्रस्तुति से समाज के घटक के साथ एकात्मता की भावना को हानी होती हो, चराचर के साथ आत्मीयता को ठेस पहुंचती हो ऐसे इतिहास की प्रस्तुति वर्जित होगी । यह है अत्यंत संक्षेप में भारतीय इतिहास दृष्टि ।
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भावार्थ : अर्थ और काम को धर्मानुकूल रखते हुए मोक्ष की ओर बढने के लिये जो प्रत्यक्ष में हो गये है ऐसे प्रसंगों के आधारपर रोचक रंजक अर्थात् कथा के रूप में की गई प्रस्तुति ही इतिहास है । इस का अर्थ है की इतिहास की प्रस्तुति समाज को चराचर के साथ एकात्मता की भावना और व्यवहार की दृष्टि से अग्रेसर करने के लिये ही करनी होगी । जिस इतिहास की प्रस्तुति से समाज के घटक के साथ एकात्मता की भावना को हानी होती हो, चराचर के साथ आत्मीयता को ठेस पहुंचती हो ऐसे इतिहास की प्रस्तुति वर्जित होगी । यह है अत्यंत संक्षेप में भारतीय इतिहास दृष्टि ।
भारतीय विचारों के अनुसार मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है। शिक्षा का उद्देष्य भी इसीलिये ' सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् मोक्ष ही है ऐसा कहा गया है। इच्छाओं को और इच्छापूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखते हुवे मोक्ष की ओर बढने की प्रक्रिया का इस हेतु विकास किया गया। पुत्रेषणा (संतानप्राप्ति), वित्तेषणा (धनप्राप्ति) और लोकेषणा (समाज में प्रतिष्ठा) यह तीन इच्छाएं तो सभी को होती ही है। किन्तु श्रेष्ठ दैवी गुणसंपदायुक्त संतान की इच्छा करना, उस हेतु अपना जीवन ढालना, मन को संयम में रखना, प्रामाणिक व्यवहार और  उद्योग से धन कमाना, चतुराई से लोगों के मन नहीं जीतना, अपने सच्चे सर्वहितकारी स्वभाव और  व्यवहार से लोगों के मन जीतने का अर्थ है धर्मानुकूल अर्थ और काम रखते हुवे मोक्ष की ओर बढना।  
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भारतीय विचारों के अनुसार मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है। शिक्षा का उद्देष्य भी इसीलिये ' सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् मोक्ष ही है ऐसा कहा गया है। इच्छाओं को और इच्छापूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखते हुए मोक्ष की ओर बढने की प्रक्रिया का इस हेतु विकास किया गया। पुत्रेषणा (संतानप्राप्ति), वित्तेषणा (धनप्राप्ति) और लोकेषणा (समाज में प्रतिष्ठा) यह तीन इच्छाएं तो सभी को होती ही है। किन्तु श्रेष्ठ दैवी गुणसंपदायुक्त संतान की इच्छा करना, उस हेतु अपना जीवन ढालना, मन को संयम में रखना, प्रामाणिक व्यवहार और  उद्योग से धन कमाना, चतुराई से लोगों के मन नहीं जीतना, अपने सच्चे सर्वहितकारी स्वभाव और  व्यवहार से लोगों के मन जीतने का अर्थ है धर्मानुकूल अर्थ और काम रखते हुए मोक्ष की ओर बढना।  
 
इस दृष्टिपर आधारित इतिहास के चिंतन, मनन, विश्लेषण को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में अब प्रस्तुत करने का हम प्रयास करेंगे। निम्न बिन्दुओं का विचार भी लाभदायी होगा।
 
इस दृष्टिपर आधारित इतिहास के चिंतन, मनन, विश्लेषण को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में अब प्रस्तुत करने का हम प्रयास करेंगे। निम्न बिन्दुओं का विचार भी लाभदायी होगा।
 
- भारतीय समाज अत्यंत प्राचीन समाज है। इसलिए इसके इतिहास का कालखंड भी बहुत दीर्घ है।
 
- भारतीय समाज अत्यंत प्राचीन समाज है। इसलिए इसके इतिहास का कालखंड भी बहुत दीर्घ है।
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- पाश्चात्य समाजजीवनपर शासन का बहुत गहरा प्रभाव होता है। इसलिये वर्तमान में हमें इतिहास पढाया जाता है वह भारत का राजकीय इतिहास होता है। भूगोल पढाया जाता है वह भारत का राजकीय भूगोल होता है। अर्थशास्त्र पढाया जाता है वह राजकीय अर्थशास्त्र (पोलिटिकल ईकॉनॉमी) होता है। भारतीय इतिहास लेखन में समाज जीवन के सब ही पहलुओं के इतिहास का समावेश होगा। राजकीय, कला, संस्कार, साहित्य, सामाजिक शास्त्र, भौतिक शास्त्र आदि सभी का समावेश हमारे इतिहास में होगा। भारतीय जीवन में धर्म सर्वोपरि होता है। इसलिए धर्माचरण सिखानेवाला इतिहास हो।
 
- पाश्चात्य समाजजीवनपर शासन का बहुत गहरा प्रभाव होता है। इसलिये वर्तमान में हमें इतिहास पढाया जाता है वह भारत का राजकीय इतिहास होता है। भूगोल पढाया जाता है वह भारत का राजकीय भूगोल होता है। अर्थशास्त्र पढाया जाता है वह राजकीय अर्थशास्त्र (पोलिटिकल ईकॉनॉमी) होता है। भारतीय इतिहास लेखन में समाज जीवन के सब ही पहलुओं के इतिहास का समावेश होगा। राजकीय, कला, संस्कार, साहित्य, सामाजिक शास्त्र, भौतिक शास्त्र आदि सभी का समावेश हमारे इतिहास में होगा। भारतीय जीवन में धर्म सर्वोपरि होता है। इसलिए धर्माचरण सिखानेवाला इतिहास हो।
 
- इतिहास की प्रस्तुति स्वाधीनता और स्वतन्त्रता के अर्थों का अन्तर ध्यान में रखकर करनी होगी । वर्तमान सभी व्यवस्थाएं (तंत्र) भारत में अंग्रेजों की देन है । हमें अपना समाज, अपनी संस्कृति, अपने संसाधन, अपनी शक्तियाँ, अपनी श्रेष्ठ परंपराएं, अपना जीवनलक्ष्य आदि विभिन्न बातों को ध्यान में रखकर अपने समाज के और चराचर के हिते में व्यवस्थाएं निर्माण करने की प्रेरणा इतिहास से मिलनी चाहिये ।   
 
- इतिहास की प्रस्तुति स्वाधीनता और स्वतन्त्रता के अर्थों का अन्तर ध्यान में रखकर करनी होगी । वर्तमान सभी व्यवस्थाएं (तंत्र) भारत में अंग्रेजों की देन है । हमें अपना समाज, अपनी संस्कृति, अपने संसाधन, अपनी शक्तियाँ, अपनी श्रेष्ठ परंपराएं, अपना जीवनलक्ष्य आदि विभिन्न बातों को ध्यान में रखकर अपने समाज के और चराचर के हिते में व्यवस्थाएं निर्माण करने की प्रेरणा इतिहास से मिलनी चाहिये ।   
- भारत की सीमाओं का आकुंचन क्यों हुआ और होता ही जा रहा है ? देश के जिस हिस्से में हिंदु अल्पसंख्य हुवे, असंगठित हुवे, दुर्बल हुवे वह देश का हिस्सा हमरे भूगोल मे नहीं रहा । इसलिये आगे देश के किसी भी हिस्से में हिंदु अल्पसंख्य नहीं रहें, असंगठित नहीं रहें और दुर्बल नहीं रहे यह सबक सीखानेवाला इतिहास हमें लिखना होगा ।   
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- भारत की सीमाओं का आकुंचन क्यों हुआ और होता ही जा रहा है ? देश के जिस हिस्से में हिन्दू अल्पसंख्य हुए, असंगठित हुए, दुर्बल हुए वह देश का हिस्सा हमरे भूगोल मे नहीं रहा । इसलिये आगे देश के किसी भी हिस्से में हिन्दू अल्पसंख्य नहीं रहें, असंगठित नहीं रहें और दुर्बल नहीं रहे यह सबक सीखानेवाला इतिहास हमें लिखना होगा ।   
 
- हिन्दुस्थान १९४७ से नहीं वेदकाल से भी पहले से एक राष्ट्र रहा है । (संदर्भ यजुर्वेद २२\२२)
 
- हिन्दुस्थान १९४७ से नहीं वेदकाल से भी पहले से एक राष्ट्र रहा है । (संदर्भ यजुर्वेद २२\२२)
 
- सामान्य आदमी की गलतियों का नुकसान उस के घरवालों को या थोडेसे लोगों को होता है। किन्तु देश का नेता जब गलती करता है तो देश और समाज का तात्कालिक ही नहीं कई पीढीयों का नुकसान होता है। जैसे पृथ्विराज चौहान, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री आदि। इसलिये नेता का चुनाव बहुत सावधानी से करना चाहिये। ऐसा चुनाव करने के उपरांत भी सदैव चौकन्ने रहना चाहिये।  
 
- सामान्य आदमी की गलतियों का नुकसान उस के घरवालों को या थोडेसे लोगों को होता है। किन्तु देश का नेता जब गलती करता है तो देश और समाज का तात्कालिक ही नहीं कई पीढीयों का नुकसान होता है। जैसे पृथ्विराज चौहान, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री आदि। इसलिये नेता का चुनाव बहुत सावधानी से करना चाहिये। ऐसा चुनाव करने के उपरांत भी सदैव चौकन्ने रहना चाहिये।  
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