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→‎सामाजिक मान्यताएँ: लेख सम्पादित किया
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# समाज के भिन्न भिन्न प्रश्नोंपर विचार करते समय संपूर्ण मानववंश की तथा बलवान राष्ट्रों की मति, गति, व्याप्ति और अवांछित दबाव डालने की शक्ति का विचार भी करना पडेगा।
 
# समाज के भिन्न भिन्न प्रश्नोंपर विचार करते समय संपूर्ण मानववंश की तथा बलवान राष्ट्रों की मति, गति, व्याप्ति और अवांछित दबाव डालने की शक्ति का विचार भी करना पडेगा।
 
# समाज स्वयंभू है। अन्य सृष्टि की तरह परमात्मा निर्मित है। परमात्मा ने मानव का निर्माण समाज के और यज्ञ के साथ किया है<ref>श्रीमद भगवदगीता, 3.10 </ref>। प्रकृति को यज्ञ के माध्यम से पुष्ट बनाने से हम भी सुखी होंगे<ref>श्रीमद भगवदगीता, 3.11</ref>।
 
# समाज स्वयंभू है। अन्य सृष्टि की तरह परमात्मा निर्मित है। परमात्मा ने मानव का निर्माण समाज के और यज्ञ के साथ किया है<ref>श्रीमद भगवदगीता, 3.10 </ref>। प्रकृति को यज्ञ के माध्यम से पुष्ट बनाने से हम भी सुखी होंगे<ref>श्रीमद भगवदगीता, 3.11</ref>।
# सुखी सहजीवन के लिए नि:श्रेयस की ओर ले जानेवाले अभ्युदय का विचार आवश्यक है। इसीलिये धर्म की व्याख्या की गयी है – यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म:। अध्यात्म विज्ञान के दो हिस्से हैं: ज्ञान और विज्ञान, परा और अपरा<ref>श्रीमद भगवदगीता, अध्याय 15, 16 व 17  </ref> (गीता अध्याय १५-१६,१७)। परा नि:श्रेयस के लिए और अपरा अभुदय के लिए है।
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# सुखी सहजीवन के लिए नि:श्रेयस की ओर ले जानेवाले अभ्युदय का विचार आवश्यक है। इसीलिये धर्म की व्याख्या की गयी है – यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म:<ref>वैशेषिक दर्शन 1.1.2</ref>। अध्यात्म विज्ञान के दो हिस्से हैं: ज्ञान और विज्ञान, परा और अपरा<ref>श्रीमद भगवदगीता, अध्याय 15, 16 व 17  </ref> (गीता अध्याय १५-१६,१७)। परा नि:श्रेयस के लिए और अपरा अभुदय के लिए है।
# धर्म की व्याख्या ‘धारयति इति धर्म:’ है। धर्म का अर्थ समाजधारणा के लिए उपयुक्त वैश्विक नियमों का समूह होता है। विशेष स्थल, काल और परिस्थिति के लिए आपद्धर्म होता है। ४.७ सामाजिक हित की दृष्टि से आवश्यक/महत्वपूर्ण सुधार समाजमानस में परिवर्तन के द्वारा होते हैं। ४.८ व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चारित्र्य का निर्माण सुयोग्य समाजधारणा का आवश्यक अंग है। सदाचार, स्वतंत्रता, स्वदेशी, सादगी, स्वच्छता, स्वावलंबन, सहजता, श्रमप्रतिष्ठा ये समाज में वांछित बातें हैं। ४.९ शिक्षा का उद्देश्य : प्रत्येक व्यक्ति में एकही परमात्मा है यह आत्मौपम्य बु़द्धि जगाने का, जीवनदृष्टि को व्यवहारमें उतारकर अभ्युदय(भौतिक समृद्धि) तथा परम सुख की प्राप्तिका मार्ग धर्माचरणही है। धर्म सिखाने के लिए पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा और शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा से बने चतुर्विध व्यक्तित्व में मन की शिक्षा, शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण पहलू हैं।  ४.१० समाज (समष्टी) के साथ एकात्मता (कुटुम्ब भावना) का बढ़ता स्तर, सृष्टि के साथ एकात्मता (कुटुम्ब भावना) का बढ़ता स्तर यह मानव और मानव समाज के विकास का भारतीय मापदंड है। व्यक्तिवादिता या जंगल का क़ानून होने से स्पर्धा आती है। कुटुम्ब भावना के विकास से स्पर्धा का निराकरण अपने आप हो जाता है। ४.११ प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता और क्षमता के अनुसार विकास का समान अवसर मिलना चाहिए। ४.१२ राष्ट्रीय एवं व्यक्तिगत सुख के लिए संस्कृति और समृद्धि दोनों आवश्यक हैं। संस्कृति के बिना समृद्धि मनुष्य को आसुरी बना देती है। और समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती। ४.१३ व्यक्ति का स्वभाव(वर्ण) त्रिगुणात्मक(सत्व, रज, तम युक्त) होता है। सत्त्व, रज और तम गुणों में किसी एक गुण की प्रधानता स्वभाव सात्त्विक है, राजसी है या तामसी है यह तय करती है। ४.१४ कर्तव्य व अधिकार का सन्तुलन कर्तव्यपालन के सार्वत्रिकीकरण से अपने आप हो जाता है। ४.१५ भारतीय परम्परा प्रवृत्ति मार्गपर बल देने की ही रही है। अभ्युदय के लिए त्रिवर्ग याने धर्म, अर्थ और काम पुरूषार्थ करने की रही है। निवृत्ति मार्ग का चलन सार्वजनिक नहीं होता और नहीं होना चाहिए।  ४.१६ कृतज्ञता मानवता का व्यवच्छेदक लक्षण है। अन्य सजीवों में यह अभाव से ही होता है। इससे भी आगे ऋणमुक्ति सिद्धांत मानव को मोक्षगामी बनाता है। ४.१७ प्रकृति विकेन्द्रित है इसलिये सभी क्षेत्रोंमे विकेंद्रीकरण हितकारी है। विकेंद्रीकरण की सीमा को समझना भी महत्त्वपूर्ण है। जिससे अधिक विकेंद्रीकरण करने से उस इकाई का नुकसान होने लग जाता है यही वह सीमा है। ४.१८ समाज व्यवहार व्यापक सामाजिक संगठन, व्यापक सामाजिक व्यवस्थाओं के माध्यम से नियमित होने से श्रेष्ठ होता है। स्थाई होता है। फफूँद जैसी निर्माण की गई छोटी छोटी अल्पजीवी संस्थाओं (इन्स्टीट्युशंस) के निर्माण से नहीं। बहुत बड़ी मात्रा में समाज का इन्स्टीट्युशनायझेशन (संस्थीकरण) करना यह जीवन के अभारतीय प्रतिमान की आवश्यकता है, भारतीय जीवन के प्रतिमान की नहीं।।  ४.१९ शासन को क़ानून बनाने का अधिकार नहीं होता। अनुपालन करवाने का कर्तव्य और अधिकार दोनों होते हैं। धर्म के जानकार ही क़ानून बनाने के अधिकारी हैं। ४.२० सामान्य लोग सामान्य बुद्धि के ही होते हैं। विकास का मार्ग चयन करने के लिए उन्हें मार्गदर्शन करना धर्म के जानकार पंडितों(य: क्रियावान) का काम है। शासन की भूमिका सहायक तथा संरक्षक की होनी चाहिए। ४.२१ समाज नियमन स्वयंनियमन, सामाजिक नियमन और सरकारद्वारा नियमन इस प्राधान्यक्रम से हो। ४.२२ समाज के मार्गदर्शन के लिये धर्म के जानकार लोगों की नैतिक शक्ति का प्रभावी होना आवश्यक है। ४.२३ सामान्य परिस्थितियों में जीवंत ईकाईके स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक रचना को संगठन कहते हैं। और विशेष परिस्थिती में सामाजिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए निर्मित रचना को व्यवस्था कहते हैं। जैसे कुटुंब यह सामाजिक संगठन का हिस्सा है जब कि शासन यह व्यवस्था समूह का हिस्सा है। ४.२४ हर व्यक्ति का व्यक्तित्व (शरीर, मन, बुद्धि और इस कारण जीवात्मा मिलकर) भिन्न होता है। ४.२५ सामाजिक सुधार उत्क्रांति या समाज आत्मसात कर सके ऐसी (मंथर) गति से होना ही उपादेय है। ४.२६ किसी भी कृति की उचितता एवं उपादेयता सर्वहितकारिता के मापदंडोंपर आँकी जानी चाहिए। ४.२७ समान जीवनदृष्टि वाले सामाजिक समूह के सुरक्षित सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं। यह राष्ट्रीय समूह अपनी जीवन दृष्टि की और इस जीवन दृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोगों की सुविधा के लिए प्रेरक, पोषक और रक्षक सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ बनाता है। ४.२८ सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:- सामाजिक व्यवहारों की दिशा हो। ४.२९ सभी को अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए समान अवसर प्राप्त हों। संस्कृति और समृद्धि दोनों महत्वपूर्ण हैं। समृद्धि के बिना संस्कृति टिक नहीं सकती। और संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती है। ४.३० प्रत्येक की संभाव्य क्षमताओं का पूर्ण विकास हो। स्त्री के स्त्रीत्व और पुरूष के पुरूषत्व का पूर्ण विकास हो। ४.३१ प्रत्येक की उचित और न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये।
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# धर्म की व्याख्या ‘धारयति इति धर्म:’ है। धर्म का अर्थ समाजधारणा के लिए उपयुक्त वैश्विक नियमों का समूह होता है। विशेष स्थल, काल और परिस्थिति के लिए आपद्धर्म होता है।
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# सामाजिक हित की दृष्टि से आवश्यक / महत्वपूर्ण सुधार समाजमानस में परिवर्तन के द्वारा होते हैं।
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# व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चारित्र्य का निर्माण सुयोग्य समाजधारणा का आवश्यक अंग है। सदाचार, स्वतंत्रता, स्वदेशी, सादगी, स्वच्छता, स्वावलंबन, सहजता, श्रमप्रतिष्ठा ये समाज में वांछित बातें हैं।
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# शिक्षा का उद्देश्य : प्रत्येक व्यक्ति में एक ही परमात्मा है यह बु़द्धि जगाने का, जीवनदृष्टि को व्यवहार में उतार कर अभ्युदय (भौतिक समृद्धि) तथा परम सुख की प्राप्ति का मार्ग धर्माचरण ही है। धर्म सिखाने के लिए पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा और शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा से बने चतुर्विध व्यक्तित्व में मन की शिक्षा, शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण पहलू हैं।   
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# समाज (समष्टी) के साथ एकात्मता (कुटुम्ब भावना) का बढ़ता स्तर, सृष्टि के साथ एकात्मता (कुटुम्ब भावना) का बढ़ता स्तर यह मानव और मानव समाज के विकास का भारतीय मापदंड है। व्यक्तिवादिता या जंगल का क़ानून होने से स्पर्धा आती है। कुटुम्ब भावना के विकास से स्पर्धा का निराकरण अपने आप हो जाता है।
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# प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता और क्षमता के अनुसार विकास का समान अवसर मिलना चाहिए।
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# राष्ट्रीय एवं व्यक्तिगत सुख के लिए संस्कृति और समृद्धि दोनों आवश्यक हैं। संस्कृति के बिना समृद्धि मनुष्य को आसुरी बना देती है। और समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती।
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# व्यक्ति का स्वभाव(वर्ण) त्रिगुणात्मक(सत्व, रज, तम युक्त) होता है। सत्व, रज और तम गुणों में किसी एक गुण की प्रधानता स्वभाव सात्विक है, राजसी है या तामसी है यह तय करती है।  
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# कर्तव्य व अधिकार का सन्तुलन कर्तव्यपालन के सार्वत्रिकीकरण से अपने आप हो जाता है।
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# भारतीय परम्परा प्रवृत्ति मार्गपर बल देने की ही रही है। अभ्युदय के लिए त्रिवर्ग याने धर्म, अर्थ और काम पुरूषार्थ करने की रही है। निवृत्ति मार्ग का चलन सार्वजनिक नहीं होता और नहीं होना चाहिए।   
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# कृतज्ञता मानवता का व्यवच्छेदक लक्षण है। अन्य सजीवों में यह अभाव से ही होता है। इससे भी आगे ऋणमुक्ति सिद्धांत मानव को मोक्षगामी बनाता है।
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# प्रकृति विकेन्द्रित है इसलिये सभी क्षेत्रों मे विकेंद्रीकरण हितकारी है। विकेंद्रीकरण की सीमा को समझना भी महत्त्वपूर्ण है। जिससे अधिक विकेंद्रीकरण करने से उस इकाई का नुकसान होने लग जाता है यही वह सीमा है।
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# समाज व्यवहार व्यापक सामाजिक संगठन, व्यापक सामाजिक व्यवस्थाओं के माध्यम से नियमित होने से श्रेष्ठ होता है। स्थाई होता है। फफूँद जैसी निर्माण की गई छोटी छोटी अल्पजीवी संस्थाओं (इन्स्टीट्युशंस) के निर्माण से नहीं। बहुत बड़ी मात्रा में समाज का इन्स्टीट्युशनायझेशन (संस्थीकरण) करना यह जीवन के अभारतीय प्रतिमान की आवश्यकता है, भारतीय जीवन के प्रतिमान की नहीं।
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# शासन को क़ानून बनाने का अधिकार नहीं होता। अनुपालन करवाने का कर्तव्य और अधिकार दोनों होते हैं। धर्म के जानकार ही क़ानून बनाने के अधिकारी हैं।
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# सामान्य लोग सामान्य बुद्धि के ही होते हैं। विकास का मार्ग चयन करने के लिए उन्हें मार्गदर्शन करना धर्म के जानकार पंडितों (य: क्रियावान) का काम है। शासन की भूमिका सहायक तथा संरक्षक की होनी चाहिए।
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# समाज नियमन स्वयंनियमन, सामाजिक नियमन और सरकारद्वारा नियमन इस प्राधान्यक्रम से हो।
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# समाज के मार्गदर्शन के लिये धर्म के जानकार लोगों की नैतिक शक्ति का प्रभावी होना आवश्यक है।  
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# सामान्य परिस्थितियों में जीवंत ईकाई के स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक रचना को संगठन कहते हैं। और विशेष परिस्थिती में सामाजिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए निर्मित रचना को व्यवस्था कहते हैं। जैसे कुटुंब यह सामाजिक संगठन का हिस्सा है जब कि शासन व्यवस्था समूह का हिस्सा है।
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# हर व्यक्ति का व्यक्तित्व (शरीर, मन, बुद्धि और इस कारण जीवात्मा मिलकर) भिन्न होता है।
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# सामाजिक सुधार उत्क्रांति या समाज आत्मसात कर सके ऐसी (मंथर) गति से होना ही उपादेय है।
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# किसी भी कृति की उचितता एवं उपादेयता सर्वहितकारिता के मापदंडों पर आँकी जानी चाहिए।
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# समान जीवन दृष्टि वाले सामाजिक समूह के सुरक्षित सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं। यह राष्ट्रीय समूह अपनी जीवन दृष्टि की और इस जीवन दृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोगों की सुविधा के लिए प्रेरक, पोषक और रक्षक सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ बनाता है।
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# सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: - सामाजिक व्यवहारों की दिशा हो।
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# सभी को अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए समान अवसर प्राप्त हों। संस्कृति और समृद्धि दोनों महत्वपूर्ण हैं। समृद्धि के बिना संस्कृति टिक नहीं सकती। और संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती है।
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# प्रत्येक की संभाव्य क्षमताओं का पूर्ण विकास हो। स्त्री के स्त्रीत्व और पुरूष के पुरूषत्व का पूर्ण विकास हो।
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# प्रत्येक की उचित और न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये।
    
== सम्यक् विकास के सूत्र ==
 
== सम्यक् विकास के सूत्र ==
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ये सब मानव से या व्यक्तियों से बनीं जीवन्त इकाईयाँ हैं। इन सब के अपने ‘स्वधर्म’ हैं। इन सभी स्तरों के करणीय और अकरणीय बातों को ही उस ईकाई का धर्म कहा जाता है। निम्न स्तरकी ईकाई उससे बड़े स्तरकी ईकाई का हिस्सा होने के कारण हर ईकाईका धर्म आगे की या उससे बड़ी जीवंत ईकाई के धर्म का अविरोधी होना आवश्यक होता है। जैसे व्यक्ति के धर्म का कोई भी पहलू कुटुम्ब से लेकर वैश्विक धर्म का विरोधी नहीं होना चाहिए।  
 
ये सब मानव से या व्यक्तियों से बनीं जीवन्त इकाईयाँ हैं। इन सब के अपने ‘स्वधर्म’ हैं। इन सभी स्तरों के करणीय और अकरणीय बातों को ही उस ईकाई का धर्म कहा जाता है। निम्न स्तरकी ईकाई उससे बड़े स्तरकी ईकाई का हिस्सा होने के कारण हर ईकाईका धर्म आगे की या उससे बड़ी जीवंत ईकाई के धर्म का अविरोधी होना आवश्यक होता है। जैसे व्यक्ति के धर्म का कोई भी पहलू कुटुम्ब से लेकर वैश्विक धर्म का विरोधी नहीं होना चाहिए।  
 
   ११.१.१.१ व्यक्ति : व्यक्ति के स्तरपर जिन धर्मों का समावेश होता है वे निम्न हैं।
 
   ११.१.१.१ व्यक्ति : व्यक्ति के स्तरपर जिन धर्मों का समावेश होता है वे निम्न हैं।
     अ) स्वभावज : याने जन्म से जो सत्त्व-रज-तम युक्त स्वभाव मिला है उसमें शुद्धि और विकास करना।  
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     अ) स्वभावज : याने जन्म से जो सत्व-रज-तम युक्त स्वभाव मिला है उसमें शुद्धि और विकास करना।  
 
आ) स्त्री-पुरुष : स्त्री या पुरुष होने के कारण स्त्री होने का या पुरुष होने का जो प्रयोजन है उसे पूर्ण करना। स्त्री ने एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी माता बनना। इसी  तरह से पुरुष ने अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता बनना। i   
 
आ) स्त्री-पुरुष : स्त्री या पुरुष होने के कारण स्त्री होने का या पुरुष होने का जो प्रयोजन है उसे पूर्ण करना। स्त्री ने एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी माता बनना। इसी  तरह से पुरुष ने अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता बनना। i   
 
इ) विविध व्यक्तिगत धर्म : इसमें उपर्युक्त दोनों कर्तव्यों को छोड़कर अन्य व्यक्तिगत कर्तव्यों का समावेश होता है। जैसे शरीरधर्म, पड़ोसीधर्म, व्यवसायधर्म, समाजधर्म, राष्ट्रधर्म, विश्वधर्म अदि।  
 
इ) विविध व्यक्तिगत धर्म : इसमें उपर्युक्त दोनों कर्तव्यों को छोड़कर अन्य व्यक्तिगत कर्तव्यों का समावेश होता है। जैसे शरीरधर्म, पड़ोसीधर्म, व्यवसायधर्म, समाजधर्म, राष्ट्रधर्म, विश्वधर्म अदि।  
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