श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 7.4 व 7.5</ref>-<blockquote>भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।</blockquote><blockquote>अपरेयमितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ये पंचमहाभूत और मन बुद्धि और अहंकार इन आठ घटकों से बनीं यह अष्टधा प्रकृति मेरी ही बनाई हुई है। यह मेरी अपरा याने अचेतन प्रकृति है। इससे भिन्न जिसके द्वारा दुनिया की धारणा होती है उस मेरी जीवरूप परा को मेरी चेतन प्रकृति समझो।</blockquote>श्रीमद्भगवद्गीता में आगे और कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15.15 व 15.16</ref><blockquote>द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोक्षर उच्यते।।</blockquote><blockquote>उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : दुनिया में नाशवान और अविनाशी ऐसे दो प्रकारके पुरुष हैं। उनमें प्रकृति के सभी अस्तित्वों में (सर्वाणि भूतानि) क्षर याने नाशवान और जीवों के शरीर में नाशवान प्रकृति और अविनाशी जीवात्मा है। लेकिन परमात्मा जो तीनों लोकों की धारणा करता है वह तो इन से भिन्न उत्तम पुरुष है।</blockquote>इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता हमें सृष्टि के चेतन और अचेतन की जानकारी देती है। यह चेतन और अचेतन सब उसी एक आत्मतत्व से बना होने के कारण ही अध्यात्म विद्या को सभी विद्याओं से श्रेष्ठ कहा गया है। अध्यात्मविद्या विद्यानाम्। जिसे जान लेने के बाद अन्य कुछ भी जानने के लिए शेष नहीं रह जाता। इसलिए अध्यात्म शास्त्र यह सभी विषयों का अंगी है। जिस परमात्मा में से और परमात्मा की इच्छा और प्रयास से सारी सृष्टि बनी है उस परमात्मा को जानने से सृष्टि का ज्ञान तो हो ही जाता है। परमात्मा को जानने और प्राप्त करने का शास्त्र अध्यात्म शास्त्र है। जब की सृष्टि को और उसके साथ के व्यवहार की करणीयता और अकरणीयता को जानने का शास्त्र धर्मशास्त्र है। सृष्टिसंचालन की व्यवस्थाओं के नियमों को ही धर्म कहते हैं। इसलिए धर्म शास्त्र यह अध्यात्मशास्त्र का अंग है और अध्यात्मशास्त्र धर्मशास्त्र का अंगी है। मानव से संबंधित मानव की इच्छाओं की पूर्ति करनेवाला शास्त्र अर्थशास्त्र है इसलिए जहांतक मानव के व्यवहार का सम्बन्ध है मानवधर्मशास्त्र ही अर्थशास्त्र है। ये दोनों व्यापक धर्मशास्त्र के अंग हैं। | श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 7.4 व 7.5</ref>-<blockquote>भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।</blockquote><blockquote>अपरेयमितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ये पंचमहाभूत और मन बुद्धि और अहंकार इन आठ घटकों से बनीं यह अष्टधा प्रकृति मेरी ही बनाई हुई है। यह मेरी अपरा याने अचेतन प्रकृति है। इससे भिन्न जिसके द्वारा दुनिया की धारणा होती है उस मेरी जीवरूप परा को मेरी चेतन प्रकृति समझो।</blockquote>श्रीमद्भगवद्गीता में आगे और कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15.15 व 15.16</ref><blockquote>द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोक्षर उच्यते।।</blockquote><blockquote>उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : दुनिया में नाशवान और अविनाशी ऐसे दो प्रकारके पुरुष हैं। उनमें प्रकृति के सभी अस्तित्वों में (सर्वाणि भूतानि) क्षर याने नाशवान और जीवों के शरीर में नाशवान प्रकृति और अविनाशी जीवात्मा है। लेकिन परमात्मा जो तीनों लोकों की धारणा करता है वह तो इन से भिन्न उत्तम पुरुष है।</blockquote>इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता हमें सृष्टि के चेतन और अचेतन की जानकारी देती है। यह चेतन और अचेतन सब उसी एक आत्मतत्व से बना होने के कारण ही अध्यात्म विद्या को सभी विद्याओं से श्रेष्ठ कहा गया है। अध्यात्मविद्या विद्यानाम्। जिसे जान लेने के बाद अन्य कुछ भी जानने के लिए शेष नहीं रह जाता। इसलिए अध्यात्म शास्त्र यह सभी विषयों का अंगी है। जिस परमात्मा में से और परमात्मा की इच्छा और प्रयास से सारी सृष्टि बनी है उस परमात्मा को जानने से सृष्टि का ज्ञान तो हो ही जाता है। परमात्मा को जानने और प्राप्त करने का शास्त्र अध्यात्म शास्त्र है। जब की सृष्टि को और उसके साथ के व्यवहार की करणीयता और अकरणीयता को जानने का शास्त्र धर्मशास्त्र है। सृष्टिसंचालन की व्यवस्थाओं के नियमों को ही धर्म कहते हैं। इसलिए धर्म शास्त्र यह अध्यात्मशास्त्र का अंग है और अध्यात्मशास्त्र धर्मशास्त्र का अंगी है। मानव से संबंधित मानव की इच्छाओं की पूर्ति करनेवाला शास्त्र अर्थशास्त्र है इसलिए जहांतक मानव के व्यवहार का सम्बन्ध है मानवधर्मशास्त्र ही अर्थशास्त्र है। ये दोनों व्यापक धर्मशास्त्र के अंग हैं। |