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| ## आचार्य की व्याख्या है: आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत । स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥ अर्थ : जो शास्त्रों का जानकार है, जो शास्त्रों के ज्ञान को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी वैसा आचरण करता है और छात्रों से आचरण करवाता है उसे आचार्य कहते हैं। | | ## आचार्य की व्याख्या है: आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत । स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥ अर्थ : जो शास्त्रों का जानकार है, जो शास्त्रों के ज्ञान को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी वैसा आचरण करता है और छात्रों से आचरण करवाता है उसे आचार्य कहते हैं। |
| ## शिक्षक के अन्य गुण निम्न हैं: | | ## शिक्षक के अन्य गुण निम्न हैं: |
− | ##* जिसे ज्ञानार्जन में आनंद आता है, जो स्वयं भी ज्ञानवान है, श्रध्दा (अपने आपमें, ज्ञान में और विद्यार्थी में) रखता है, विद्यार्थी को अपने पुत्र की भाँति प्रेम करता है, विद्यार्थीप्रिय है, तत्त्वनिष्ठ है (सौदेबाज नहीं है), समाज को श्रेष्ठ बनाने की जिम्मेदारी मेरी है ऐसा माननेवाला, सभ्य, सुशील, गौरवशील, सुसंस्कृत, मन के विकारों को नियंत्रण में रखता है, सन्मार्गगामी, लालच, भय, खुशामद और निंदा से दूर रहनेवाला आदि। | + | ##* जिसे ज्ञानार्जन में आनंद आता है, जो स्वयं भी ज्ञानवान है, श्रध्दा (अपने आपमें, ज्ञान में और विद्यार्थी में) रखता है, विद्यार्थी को अपने पुत्र की भाँति प्रेम करता है, विद्यार्थीप्रिय है, तत्वनिष्ठ है (सौदेबाज नहीं है), समाज को श्रेष्ठ बनाने की जिम्मेदारी मेरी है ऐसा माननेवाला, सभ्य, सुशील, गौरवशील, सुसंस्कृत, मन के विकारों को नियंत्रण में रखता है, सन्मार्गगामी, लालच, भय, खुशामद और निंदा से दूर रहनेवाला आदि। |
| ##* शिशू, बाल, किशोर बच्चों का शिक्षक अपंग, अंध, अस्पष्ट उच्चारण वाला, गंदे दाँतवाला न हो। सुदृढ, सशक्त, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो। | | ##* शिशू, बाल, किशोर बच्चों का शिक्षक अपंग, अंध, अस्पष्ट उच्चारण वाला, गंदे दाँतवाला न हो। सुदृढ, सशक्त, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो। |
| ##* आचार्य की नियुक्ति का अधिकार केवल उससे श्रेष्ठ आचार्य को है, अन्य किसी को नहीं है। | | ##* आचार्य की नियुक्ति का अधिकार केवल उससे श्रेष्ठ आचार्य को है, अन्य किसी को नहीं है। |
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| धर्मानुकूल सभी इच्छाओं की और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये याने समाज के पोषण के लिये समृद्धि व्यवस्था की आवश्यकता होती है। समृद्धि व्यवस्था की मूलभूत बातों की चर्चा हम समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि विषय में करेंगे। समृद्धि व्यवस्था के प्रमुख घटकों का अब हम विचार करेंगे: | | धर्मानुकूल सभी इच्छाओं की और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये याने समाज के पोषण के लिये समृद्धि व्यवस्था की आवश्यकता होती है। समृद्धि व्यवस्था की मूलभूत बातों की चर्चा हम समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि विषय में करेंगे। समृद्धि व्यवस्था के प्रमुख घटकों का अब हम विचार करेंगे: |
| # कौटुम्बिक व्यवसाय: | | # कौटुम्बिक व्यवसाय: |
− | #* - कौटुम्बिक व्यवसाय का अर्थ है कुटुम्ब के लोगों की मदद से चलाया हुआ उद्योग। अनिवार्यता की स्थिति में ही सेवक होंगे। अन्यथा ऐसे उद्योग में सब मालिक ही होते हैं। नौकर कोई नहीं। - ऐसे व्यवसाय और संयुक्त कुटुम्ब ये अन्योन्याश्रित होते हैं। - कौटुम्बिक उद्योगों के आकार की और विस्तार की सीमा होती है। लोभ और मोह सामान्यत: नहीं होते। क्यों कि संयुक्त कुटुम्ब में लोभ और मोह का संयम सब सदस्य अपने आप सीख जाते हैं। - उद्योग व्यवसाय और उसके माध्यम से अधिकतम धन पैदा करना यह लक्ष्य नहीं होता। धर्मानुकूल जीने के एक साधन के रूप में व्यवसाय को देखा जाता है। - उत्पादन माँग के अनुसार होता है। - संक्षेप में कहें तो अर्थ पुरूषार्थ की शिक्षा में दिये लगभग सभी बिंदुओं को व्यवहार में लाने के लिये कौटुम्बिक व्यवसाय अनिवार्य ऐसा पहलू है। ३.२ कौशल समायोजन व्यवस्था : मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत सारी हैं। लेकिन एक मनुष्य की क्षमताएँ मर्यादित हैं। इसलिये परस्परावलंबन अनिवार्य होता है। हर मनुष्य की अपनी विशेषता होती है। इस विशेषता में किसी व्यावसायिक कौशल के विकास की सम्भावना भी आती है। कोई दिखने में सरल और लाभदायक व्यवसाय करने इच्छा होना तो सभी के लिये स्वाभाविक है। लेकिन ऐसा प्रत्यक्ष में होने से एक ओर तो जीवन के कई व्यावसायिक कौशलों की क्षमता होते हुए भी लोग उन का उपयोग नहीं करेंगे। दुसरी बात याने इससे समाज की उन आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं हो पाएगी। तीसरी बात याने किसी एक कौशल के क्षेत्र में अनावश्यक संख्या में लोग आने से स्पर्धा, संघर्ष, नैराश्य, लाचारी, बेरोजगारी आदि अनेक दोष समाज में निर्माण होंगे। समाज के प्रत्येक व्यक्ति की अंगभूत कौशल के विकास की संभावनाओं को समझकर उस व्यक्ति का विकास उस व्यावसायिक कौशल के क्षेत्र में होने से वह व्यक्ति और समाज दोनों लाभान्वित होंगे। ३.२.१ आनुवंशिकता : व्यावसायिक कौशलों का आनुवंशिकता से संबंध होता है। माता पिता (विशेषत: पिता) में यदि एक व्यावसायिक कौशल के विकास की संभावनाएँ या क्षमताएँ हैं तो उनके बच्चों में उस व्यावसायिक कुशलता का अवतरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। जब उनके बच्चे वही व्यवसाय अपनाते हैं तब उन्हें काम बोझ नहीं लगता। उन्हें अपने व्यावसायिक काम में आनंद आता है। यह आनंद उनके जीवन में भर जाता है। ऐसे लोग औरों को भी आनंद बाँटते हैं। इस दृष्टि से व्यावसायिक कौशलों के समायोजन के लिये निम्न बिंदुओं का विचार करना आवश्यक होगा। ऐसी व्यावसायिक कौशलों के समायोजन की व्यवस्था के लाभ हमने ‘कौशल्य समायोजन के विषय’ में जाने हैं। आनुवंशिकता के कुछ लाभ नीचे लिख रहे हैं। - पिता से स्वभाविक रूप में जो कौशल बेटे को प्राप्त हुए हैं उनका सदुपयोग। - कौशल की आवश्यकता और उपलब्धता का संतुलन। - बेरोजगारी का निर्मूलन - समाज आक्रमक नहीं बनता। सहिष्णू, सदाचारी बनता है। आदि ३.२.२ कौशल परिवर्तन : समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। उनके लिये रोजगार की आश्वस्ति बहुत महत्वपूर्ण होती है। कौशल विधा व्यवस्था को आनुवंशिक बनाने से बेरोजगारी की समस्या सुलझ जाती है। समाज में ५-१० प्रतिशत बच्चे प्रतिभाशाली भी रहते हैं। जो आनुवंशिकता से आए गुण-लक्षणोंपर मात कर सकते हैं। जिस भी विषय में वे चाहे अपनी प्रतिभा के आधारपर पराक्रम कर सकते हैं। ऐसे बच्चे वास्तव में समाज की बौध्दिक धरोहर होते हैं। इसलिये ऐसे बच्चों के लिये कौशल विधा में परिवर्तन की कोई व्यव्स्था होनी चाहिये। ऐसे बच्चों को अच्छी तरह से परखकर उनकी इच्छा और रुचि के व्यवसाय को स्वीकार करने की अनुमति देने की व्यवस्था ही कौशल परिवर्तन व्यवस्था है। ३.३ स्वभाव समायोजन : समाज सुचारू रूप से चलने के लिये परमात्मा भिन्न भिन्न स्वभाव के लोग निर्माण करता है। इन स्वभावों के अनुसार यदि उन्हें काम करने का अवसर मिलता है तो वे बहुत सहजता और आनंद से काम करते हैं। काम का उन्हें बोझ नहीं लगता। जब लोग आनंद से काम करते हैं सबसे श्रेष्ठ क्षमताओं का विकास होता है। इसलिये समाज में प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव जानकर, ठीक से परखकर उसे उसके स्वभाव के अनुसार काम करने का अवसर देना यह समाज के ही हित में है। इसलिये ऐसी व्यवस्था निर्माण करना यह समाज की जिम्मेदारी भी है। इससे काम की गुणवत्ता का स्तर भी ऊँचा रहता है। इस व्यवस्था के दो अनिवार्य स्तर हैं। एक नवजात बालक के स्वभाव को जानना। स्वभाव वैशिष्ट्य को जानकर उस स्वभाव के लिये पोषक ऐसे संस्कार उसे देना। यह काम कुटुम्ब के स्तरपर होगा। दूसरा स्तर है विद्यालय। माता पिता विद्यालय में प्रवेश के समय बच्चे के स्वभाव विशेष के बारे में जानकारी दें। विद्यालय भी मातापिता ने दी हुई जानकारी को फिर से ठीक से परखे। क्यों कि अब बालक के स्वभाव कि विशेषताएँ समझना अधिक सरल होता है। बालक के स्वभाव की आश्वस्ति के उपरांत उसे स्वभाव विशेष की शिक्षा का प्रबंध करना यह विद्यालय स्तर का काम है। ३.४ समृद्धिव्यवस्था का स्वरूप : समृद्धिव्यवस्था के ३ आधार होने चाहिये। ग्रामाधारित, गो-आधारित और कौटुम्बिक भावना आधारित। ग्रामाधारित का अर्थ है विकेंद्रितता। गो-आधारित का अर्थ है खेती में लगनेवाली ऊर्जा और बाहर से आवश्यक संसाधनों में गाय से उपलब्ध संसाधनों का यथा ऊर्जा के लिये बैल, खेती के आवश्यक (इनपुट्स्) कीटकनाशक, खत आदि गाय से प्राप्त गोबर और गोमुत्र में से बनाया हुआ हो। और कौटुम्बिक भावना आधारित का अर्थ है ग्राम की व्यवस्थाएँ और ग्राम में लोगों का परस्पर व्यवहार दोनों बडे संयुक्त कुटुम्ब जैसे हों। गो आधारित कृषि के संबंध में ढेर सारा साहित्य और प्रत्यक्ष प्रयोग की जानकारियाँ उपलब्ध है। ग्रामाधारित और कौटुम्बिक भावनापर आधारित व्यवस्था समझने के लिये कृपया ‘ग्रामकुल की अर्थव्यवस्था’ पढें। ३.५ हाटबाजार : हर गाँव लोगों की सभी आवश्यकताओं के लिये उत्पादन नहीं कर सकता। ऐसे उत्पादनों की प्राप्ति हाट-बाजार से हो सकती है। हाट बाजार में वही वस्तुएँ बिकेंगी जो गाँव की नित्य और आपातकालीन ऐसी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद अतिरिक्त होगा। साथ ही में पडोस के गाँवों के लोगों ने जो भौतिक विकास किया है उस की जानकारी प्राप्त करने और आपस में बांटने के लिये हाट-बाजार की व्यवस्था आवश्यक है। हाट-बाजार की व्यवस्थाएँ तीन प्रकार की हो सकतीं हैं। ३.५.१ भौगोलिक : ग्रामसंकुल केंद्र ३.५.२ नियतकालिक: दैनंदिन, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक आदि। ३.५.३ विशेष उत्पादन ३.६ विदेश व्यापार : विदेश व्यापार के सूत्र निम्न होंगे। - ऐसी किसी भी वस्तु का व्यापार नहीं होगा जिससे गाँवों की अर्थव्यवस्था को हानि हो। - विदेश व्यापार ऐसा नहीं हो कि कोई अन्य देश पूर्णत: अपने देश से होनेवाले व्यापारपर निर्भर (मण्डी) हो जाए। अपने देश को भी अन्य किसी भी देश की मण्डी पर निर्भर नहीं बनने देना। - जिस वस्तू की राष्ट्र के समाज को अनिवार्य रूप में आवश्यकता होगी उसी वस्तू की आयात की जाए। - व्यापार अपनी शर्तों के आधारपर ही चलेगा। परस्पर आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार होगा। - देश में आनेवाला और देश से बाहर जानेवाला सारा माल शासन के द्वारा जाँच होने के उपरांत ही देश में आए अथवा बाहर जाए। - मुद्रा विनिमय की दर क्रय-मूल्य-समानता (पर्चेस् प्राईस पॅरिटि)के आधारपर ही हो। ३.७ नियंत्रण : समृद्धिव्यवस्था पर नियंत्रण का स्वरूप विकेंद्रित होगा। जिस केंद्र से जुडा विषय होगा उस स्तर से ही नियंत्रण किया जाएगा। जैसे – ३.७.१ कुटुम्ब ३.७.२ ग्राम ३.७.३ कौशल विधा ३.७.४ न्यायालय (अंतिम केंद्र) | + | #* कौटुम्बिक व्यवसाय का अर्थ है कुटुम्ब के लोगों की मदद से चलाया हुआ उद्योग। अनिवार्यता की स्थिति में ही सेवक होंगे। अन्यथा ऐसे उद्योग में सब मालिक ही होते हैं। नौकर कोई नहीं। |
| + | #* ऐसे व्यवसाय और संयुक्त कुटुम्ब ये अन्योन्याश्रित होते हैं। |
| + | #* कौटुम्बिक उद्योगों के आकार की और विस्तार की सीमा होती है। लोभ और मोह सामान्यत: नहीं होते। क्यों कि संयुक्त कुटुम्ब में लोभ और मोह का संयम सब सदस्य अपने आप सीख जाते हैं। |
| + | #* उद्योग व्यवसाय और उसके माध्यम से अधिकतम धन पैदा करना यह लक्ष्य नहीं होता। धर्मानुकूल जीने के एक साधन के रूप में व्यवसाय को देखा जाता है। |
| + | #* उत्पादन माँग के अनुसार होता है। |
| + | #* संक्षेप में कहें तो अर्थ पुरूषार्थ की शिक्षा में दिये लगभग सभी बिंदुओं को व्यवहार में लाने के लिये कौटुम्बिक व्यवसाय अनिवार्य ऐसा पहलू है। |
| + | # कौशल समायोजन व्यवस्था : मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत सारी हैं। लेकिन एक मनुष्य की क्षमताएँ मर्यादित हैं। इसलिये परस्परावलंबन अनिवार्य होता है। हर मनुष्य की अपनी विशेषता होती है। इस विशेषता में किसी व्यावसायिक कौशल के विकास की सम्भावना भी आती है। कोई दिखने में सरल और लाभदायक व्यवसाय करने इच्छा होना तो सभी के लिये स्वाभाविक है। लेकिन ऐसा प्रत्यक्ष में होने से एक ओर तो जीवन के कई व्यावसायिक कौशलों की क्षमता होते हुए भी लोग उन का उपयोग नहीं करेंगे। दुसरी बात याने इससे समाज की उन आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं हो पाएगी। तीसरी बात याने किसी एक कौशल के क्षेत्र में अनावश्यक संख्या में लोग आने से स्पर्धा, संघर्ष, नैराश्य, लाचारी, बेरोजगारी आदि अनेक दोष समाज में निर्माण होंगे। समाज के प्रत्येक व्यक्ति की अंगभूत कौशल के विकास की संभावनाओं को समझकर उस व्यक्ति का विकास उस व्यावसायिक कौशल के क्षेत्र में होने से वह व्यक्ति और समाज दोनों लाभान्वित होंगे। |
| + | ## आनुवंशिकता : व्यावसायिक कौशलों का आनुवंशिकता से संबंध होता है। माता पिता (विशेषत: पिता) में यदि एक व्यावसायिक कौशल के विकास की संभावनाएँ या क्षमताएँ हैं तो उनके बच्चों में उस व्यावसायिक कुशलता का अवतरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। जब उनके बच्चे वही व्यवसाय अपनाते हैं तब उन्हें काम बोझ नहीं लगता। उन्हें अपने व्यावसायिक काम में आनंद आता है। यह आनंद उनके जीवन में भर जाता है। ऐसे लोग औरों को भी आनंद बाँटते हैं। इस दृष्टि से व्यावसायिक कौशलों के समायोजन के लिये निम्न बिंदुओं का विचार करना आवश्यक होगा। ऐसी व्यावसायिक कौशलों के समायोजन की व्यवस्था के लाभ हमने [[Jaati System (जाति व्यवस्था)|इस]] लेख में जाने हैं। आनुवंशिकता के कुछ लाभ नीचे लिख रहे हैं: |
| + | ##* पिता से स्वभाविक रूप में जो कौशल बेटे को प्राप्त हुए हैं उनका सदुपयोग |
| + | ##* कौशल की आवश्यकता और उपलब्धता का संतुलन। |
| + | ##* बेरोजगारी का निर्मूलन |
| + | ##* समाज आक्रमक नहीं बनता। सहिष्णू, सदाचारी बनता है। आदि |
| + | ## कौशल परिवर्तन : समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। उनके लिये रोजगार की आश्वस्ति बहुत महत्वपूर्ण होती है। कौशल विधा व्यवस्था को आनुवंशिक बनाने से बेरोजगारी की समस्या सुलझ जाती है। समाज में ५-१० प्रतिशत बच्चे प्रतिभाशाली भी रहते हैं। जो आनुवंशिकता से आए गुण-लक्षणों पर मात कर सकते हैं। जिस भी विषय में वे चाहे अपनी प्रतिभा के आधारपर पराक्रम कर सकते हैं। ऐसे बच्चे वास्तव में समाज की बौध्दिक धरोहर होते हैं। इसलिये ऐसे बच्चों के लिये कौशल विधा में परिवर्तन की कोई व्यव्स्था होनी चाहिये। ऐसे बच्चों को अच्छी तरह से परखकर उनकी इच्छा और रुचि के व्यवसाय को स्वीकार करने की अनुमति देने की व्यवस्था ही कौशल परिवर्तन व्यवस्था है। |
| + | # स्वभाव समायोजन : समाज सुचारू रूप से चलने के लिये परमात्मा भिन्न भिन्न स्वभाव के लोग निर्माण करता है। इन स्वभावों के अनुसार यदि उन्हें काम करने का अवसर मिलता है तो वे बहुत सहजता और आनंद से काम करते हैं। काम का उन्हें बोझ नहीं लगता। जब लोग आनंद से काम करते हैं सबसे श्रेष्ठ क्षमताओं का विकास होता है। इसलिये समाज में प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव जानकर, ठीक से परखकर उसे उसके स्वभाव के अनुसार काम करने का अवसर देना यह समाज के ही हित में है। इसलिये ऐसी व्यवस्था निर्माण करना यह समाज की जिम्मेदारी भी है। इससे काम की गुणवत्ता का स्तर भी ऊँचा रहता है। इस व्यवस्था के दो अनिवार्य स्तर हैं। एक नवजात बालक के स्वभाव को जानना। स्वभाव वैशिष्ट्य को जान कर उस स्वभाव के लिये पोषक ऐसे संस्कार उसे देना। यह काम कुटुम्ब के स्तरपर होगा। दूसरा स्तर है विद्यालय। माता पिता विद्यालय में प्रवेश के समय बच्चे के स्वभाव विशेष के बारे में जानकारी दें। विद्यालय भी मातापिता ने दी हुई जानकारी को फिर से ठीक से परखे। क्यों कि अब बालक के स्वभाव कि विशेषताएँ समझना अधिक सरल होता है। बालक के स्वभाव की आश्वस्ति के उपरांत उसे स्वभाव विशेष की शिक्षा का प्रबंध करना यह विद्यालय स्तर का काम है। |
| + | # समृद्धिव्यवस्था का स्वरूप : समृद्धिव्यवस्था के ३ आधार होने चाहिये। ग्रामाधारित, गो-आधारित और कौटुम्बिक भावना आधारित। ग्रामाधारित का अर्थ है विकेंद्रितता। गो-आधारित का अर्थ है खेती में लगनेवाली ऊर्जा और बाहर से आवश्यक संसाधनों में गाय से उपलब्ध संसाधनों का यथा ऊर्जा के लिये बैल, खेती के आवश्यक (इनपुट्स्) कीटकनाशक, खत आदि गाय से प्राप्त गोबर और गोमुत्र में से बनाया हुआ हो। और कौटुम्बिक भावना आधारित का अर्थ है ग्राम की व्यवस्थाएँ और ग्राम में लोगों का परस्पर व्यवहार दोनों बडे संयुक्त कुटुम्ब जैसे हों। गो आधारित कृषि के संबंध में ढेर सारा साहित्य और प्रत्यक्ष प्रयोग की जानकारियाँ उपलब्ध है। ग्रामाधारित और कौटुम्बिक भावनापर आधारित व्यवस्था समझने के लिये कृपया [[Grama Kul (ग्रामकुल)|इस]] लेख को पढें। |
| + | # हाटबाजार : हर गाँव लोगों की सभी आवश्यकताओं के लिये उत्पादन नहीं कर सकता। ऐसे उत्पादनों की प्राप्ति हाट-बाजार से हो सकती है। हाट बाजार में वही वस्तुएँ बिकेंगी जो गाँव की नित्य और आपातकालीन ऐसी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद अतिरिक्त होगा। साथ ही में पडोस के गाँवों के लोगों ने जो भौतिक विकास किया है उस की जानकारी प्राप्त करने और आपस में बांटने के लिये हाट-बाजार की व्यवस्था आवश्यक है। हाट-बाजार की व्यवस्थाएँ तीन प्रकार की हो सकतीं हैं: |
| + | ## भौगोलिक : ग्रामसंकुल केंद्र |
| + | ## नियतकालिक: दैनंदिन, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक आदि। |
| + | ## विशेष उत्पादन |
| + | # विदेश व्यापार : विदेश व्यापार के सूत्र निम्न होंगे: |
| + | #* ऐसी किसी भी वस्तु का व्यापार नहीं होगा जिससे गाँवों की अर्थव्यवस्था को हानि हो। |
| + | #* विदेश व्यापार ऐसा नहीं हो कि कोई अन्य देश पूर्णत: अपने देश से होनेवाले व्यापारपर निर्भर (मण्डी) हो जाए। अपने देश को भी अन्य किसी भी देश की मण्डी पर निर्भर नहीं बनने देना। |
| + | #* जिस वस्तू की राष्ट्र के समाज को अनिवार्य रूप में आवश्यकता होगी उसी वस्तू की आयात की जाए। |
| + | #* व्यापार अपनी शर्तों के आधार पर ही चलेगा। परस्पर आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार होगा। |
| + | #* देश में आने वाला और देश से बाहर जाने वाला सारा माल शासन के द्वारा जाँच होने के उपरांत ही देश में आए अथवा बाहर जाए। |
| + | #* मुद्रा विनिमय की दर क्रय-मूल्य-समानता (पर्चेस् प्राईस पॅरिटि) के आधार पर ही हो। |
| + | # नियंत्रण: समृद्धिव्यवस्था पर नियंत्रण का स्वरूप विकेंद्रित होगा। जिस केंद्र से जुडा विषय होगा उस स्तर से ही नियंत्रण किया जाएगा। जैसे: |
| + | ## कुटुम्ब |
| + | ## ग्राम |
| + | ## कौशल विधा |
| + | ## न्यायालय (अंतिम केंद्र) |
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| == धर्म व्यवस्था == | | == धर्म व्यवस्था == |
− | समाज में व्याप्त धर्म और अधर्म से संबंधित भावनाओं और मान्यताओं के आधारपर धर्मव्यवस्था खडी होती है। इसका अलग से निर्माण नहीं किया जाता। धर्मव्यवस्था के प्रमुखत: पाँच काम होते हैं। ४.१ धर्म की व्यापक रूप में कालानुकूल व्याख्या करना। व्याख्या करने से अर्थ है मार्गदर्शक सूत्रों की प्रस्तुति करना। धर्म जीवनव्यापी होता है। इसलिये इस धर्म की व्याख्या का दायरा जीवनव्यापी होगा। इसमें समाज के सभी संगठनों और व्यवस्थाओं के संबंध में तथा व्यक्तिगत और सामुहिक ऐसे दोनों स्तरों के लिये विधिनिषेध होंगे। बदलती परिस्थितियों के साथ समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर धर्म के व्यवहार पक्ष का निरंतर अवलोकन, परीक्षण और आवश्यक सुधार करना भी इसी का हिस्सा है। | + | समाज में व्याप्त धर्म और अधर्म से संबंधित भावनाओं और मान्यताओं के आधारपर धर्मव्यवस्था खडी होती है। इसका अलग से निर्माण नहीं किया जाता। धर्मव्यवस्था के प्रमुखत: पाँच काम होते हैं: |
− | ४.२ धर्म के सार्वत्रिकीकरण के लिये, धर्म को समाजव्यापी बनाने के लिये श्रेष्ठ शिक्षकों का निर्माण करना। शिक्षक निर्माण का अर्थ है शिक्षा की जिम्मेदारी जो अपने कंधेपर सम्हालें और समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिये कटिबध्द हों ऐसे लोग निर्माण करना।
| + | # धर्म की व्यापक रूप में कालानुकूल व्याख्या करना। व्याख्या करने से अर्थ है मार्गदर्शक सूत्रों की प्रस्तुति करना। धर्म जीवनव्यापी होता है। इसलिये इस धर्म की व्याख्या का दायरा जीवनव्यापी होगा। इसमें समाज के सभी संगठनों और व्यवस्थाओं के संबंध में तथा व्यक्तिगत और सामुहिक ऐसे दोनों स्तरों के लिये विधि निषेध होंगे। बदलती परिस्थितियों के साथ समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर धर्म के व्यवहार पक्ष का निरंतर अवलोकन, परीक्षण और आवश्यक सुधार करना भी इसी का हिस्सा है। |
− | ४.३ धर्मविरोधी व्यवहार करनेवाले लोगों के लिये दण्डविधान की व्यवस्था बनाना। दण्डविधान बनाने का अर्थ है साथ में दण्डविधानमें वर्णित धर्म और अधर्म को समझनेवाले, विधिनिषेधों में निहित तत्त्व को समझनेवाले और न्याय करनेवाले लोग निर्माण करना।
| + | # धर्म के सार्वत्रिकीकरण के लिये, धर्म को समाजव्यापी बनाने के लिये श्रेष्ठ शिक्षकों का निर्माण करना। शिक्षक निर्माण का अर्थ है शिक्षा की जिम्मेदारी जो अपने कंधेपर सम्हालें और समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिये कटिबध्द हों ऐसे लोग निर्माण करना। |
− | ४.४ दण्डविधान के अनुसार शासन चलानेवाले शासकों का निर्माण करना। ऐसे शासक नहीं होने से धर्म का आधार नष्ट हो जाता है। इसलिये अपने लोकहित के लिये समर्पण भाव, त्याग, तपस्या के आधारपर शासक को धर्माचरण के लिये बाध्य और अधर्माचरण के लिये दण्डित करने की नैतिक शक्ति निर्माण करना। यह बात भी श्रेष्ठ शासक निर्माण करने जितनी ही महत्त्वपूर्ण बात है। ४.५ समाज पोषण के लिये प्रयत्नशील रहनेवाला जानकार, कौशल्यवान, सामर्थ्यवान वर्ग निर्माण करना।
| + | # धर्मविरोधी व्यवहार करने वाले लोगों के लिये दण्डविधान की व्यवस्था बनाना। दण्डविधान बनाने का अर्थ है साथ में दण्डविधान में वर्णित धर्म और अधर्म को समझने वाले, विधिनिषेधों में निहित तत्व को समझनेवाले और न्याय करनेवाले लोग निर्माण करना। |
| + | # दण्डविधान के अनुसार शासन चलानेवाले शासकों का निर्माण करना। ऐसे शासक नहीं होने से धर्म का आधार नष्ट हो जाता है। इसलिये अपने लोकहित के लिये समर्पण भाव, त्याग, तपस्या के आधारपर शासक को धर्माचरण के लिये बाध्य और अधर्माचरण के लिये दण्डित करने की नैतिक शक्ति निर्माण करना। यह बात भी श्रेष्ठ शासक निर्माण करने जितनी ही महत्त्वपूर्ण बात है। |
| + | # समाज पोषण के लिये प्रयत्नशील रहनेवाला जानकार, कौशल्यवान, सामर्थ्यवान वर्ग निर्माण करना। |
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| == व्यवस्था समूह का संभाव्य स्वरूप == | | == व्यवस्था समूह का संभाव्य स्वरूप == |