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| == शासन व्यवस्था == | | == शासन व्यवस्था == |
| पूर्व में हमने देखा कि समाज में व्याप्त अनियंत्रित काम और मोह के नियंत्रण के लिये श्रेष्ठ शिक्षा और श्रेष्ठ शासन की आवश्यकता होती है। जब समाज में लोभ और मोह अनियंत्रित हो जाता है तब जो दुष्ट हैं और बलवान भी हैं ऐसे लोग सज्जनों का जीना हराम कर देते हैं। दुष्टों को दुर्बल शासन से लाभान्वित होते देखकर बलवान लेकिन जो दुर्बलात्मा हैं ऐसे सज्जन भी बिगडने लगते हैं। इससे शासन का काम और भी कठिन हो जाता है। शासन का काम दुर्बलोंकी दुष्ट बलवानों से रक्षा करनेका होता है। एक ओर शिक्षा का काम समाज के प्रत्येक घटक को कर्तव्यपथपर आगे बढाने का होता है। तब दूसरी ओर शासन का काम प्रजा के अधिकारों के रक्षण का होता है। इससे समाज में कर्तव्यों और अधिकारों का सन्तुलन बना रहता है। | | पूर्व में हमने देखा कि समाज में व्याप्त अनियंत्रित काम और मोह के नियंत्रण के लिये श्रेष्ठ शिक्षा और श्रेष्ठ शासन की आवश्यकता होती है। जब समाज में लोभ और मोह अनियंत्रित हो जाता है तब जो दुष्ट हैं और बलवान भी हैं ऐसे लोग सज्जनों का जीना हराम कर देते हैं। दुष्टों को दुर्बल शासन से लाभान्वित होते देखकर बलवान लेकिन जो दुर्बलात्मा हैं ऐसे सज्जन भी बिगडने लगते हैं। इससे शासन का काम और भी कठिन हो जाता है। शासन का काम दुर्बलोंकी दुष्ट बलवानों से रक्षा करनेका होता है। एक ओर शिक्षा का काम समाज के प्रत्येक घटक को कर्तव्यपथपर आगे बढाने का होता है। तब दूसरी ओर शासन का काम प्रजा के अधिकारों के रक्षण का होता है। इससे समाज में कर्तव्यों और अधिकारों का सन्तुलन बना रहता है। |
− | जब प्रजापर अन्याय होता है तब उसका कारण शासनकी अक्षमता होता है। जब शासन दुर्बल होता है तब न्याय माँगना पडता है। जब न्याय के लिये लडना पडता है शासन संवेदनाहीन होता है। और जब लडकर भी न्याय नहीं मिलता तब शासन होता ही नहीं है। अन्याय होने से पूर्व ही उसे रोकना यह प्रभावी शासन का लक्षण है। शासन के लिये लोगों में व्याप्त लोभ और मोह के नियंत्रण की भौगोलिक सीमा नहीं होती। शासित प्रदेश से बाहर रहनेवाले लोगों के भी लोभ और मोह के नियंत्रण की जिम्मेदारी शासन की ही होती है। इसे ही बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि अंतर्बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन की होती है।
| + | |
− | शासन का या न्यायदान का केन्द्र जितना दूर उतनी अन्याय की संभावनाएँ बढतीं हैं। इसलिये शासन विकेन्द्रित होना आवश्यक है। कुटुम्ब पंचायत, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, जनपद पंचायत आदि स्तरपर भी न्याय और शासन की व्यवस्था होने से अन्याय की संभावनाएँ न्यूनतम हो जातीं हैं।
| + | जब प्रजापर अन्याय होता है तब उसका कारण शासनकी अक्षमता होता है। जब शासन दुर्बल होता है तब न्याय माँगना पडता है। जब न्याय के लिये लडना पडता है शासन संवेदनाहीन होता है। और जब लडकर भी न्याय नहीं मिलता तब शासन होता ही नहीं है। अन्याय होने से पूर्व ही उसे रोकना यह प्रभावी शासन का लक्षण है। शासन के लिये लोगों में व्याप्त लोभ और मोह के नियंत्रण की भौगोलिक सीमा नहीं होती। शासित प्रदेश से बाहर रहनेवाले लोगों के भी लोभ और मोह के नियंत्रण की जिम्मेदारी शासन की ही होती है। इसे ही बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि अंतर्बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन की होती है। |
− | शासन के बारे में कहा है जो कम से कम शासन करे फिर भी किसीपर अन्याय नहीं हो तब वह अच्छा शासन होता है। किन्तु सामाजिक अनुशासन की प्राथमिक जिम्मेदारी शिक्षा या धर्म क्षेत्र की होती है। शासन का काम तो अनुशासनहींनता का नियंत्रण मात्र होता है।
| + | |
− | २.१ सत्ता का (विकेंद्रित) स्वरूप
| + | शासन का या न्यायदान का केन्द्र जितना दूर उतनी अन्याय की संभावनाएँ बढतीं हैं। इसलिये शासन विकेन्द्रित होना आवश्यक है। कुटुम्ब पंचायत, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, जनपद पंचायत आदि स्तरपर भी न्याय और शासन की व्यवस्था होने से अन्याय की संभावनाएँ न्यूनतम हो जातीं हैं। |
− | २.१.१ भौगोलिक : २.१.१.१ राष्ट्र २.१.१.२ प्रदेश २.१.१.३ जनपद/तीर्थक्षेत्र २.१.१.४ महानगर/शहर २.१.१.५ ग्राम
| + | |
− | २.१.२ सामाजिक : २.१.२.१ विद्वत्सभा २.१.२.२ कौशल विधा पंचायत २.१.२.३ गुरुकुल २.१.२.४ कुटुम्ब
| + | शासन के बारे में कहा है जो कम से कम शासन करे फिर भी किसीपर अन्याय नहीं हो तब वह अच्छा शासन होता है। किन्तु सामाजिक अनुशासन की प्राथमिक जिम्मेदारी शिक्षा या धर्म क्षेत्र की होती है। शासन का काम तो अनुशासनहींनता का नियंत्रण मात्र होता है। |
− | २.२ शासन के अंग
| + | # सत्ता का (विकेंद्रित) स्वरूप |
− | २.२.१ शासक : महत्वपूर्ण पहलू
| + | ## भौगोलिक: |
− | - शासक धर्म शास्त्र का जानकार हो। शासन धर्म द्वारा नियंत्रित, नियमित और निर्देशित होना चाहिये।
| + | ### राष्ट्र |
− | - अपने पीछे अपने से भी अधिक श्रेष्ठ शासक याने उत्तराधिकारी जनता को देना यह शासक का कर्तव्य है। इस दृष्टि से शासक के वंशानुगत होने से श्रेष्ठ भावि शासक के पैदा करने में, उस का संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण करने में सुविधा होती है।
| + | ### प्रदेश |
− | - शासक जन्मजात होता है। जिसका जन्मजात स्वभाव शासक का है वही श्रेष्ठ शासक बन सकता है। इसलिये शासक को जन्म देने से लेकर शासक निर्माण के प्रयास करने चाहिये। शसक निर्माण की प्रक्रिया आनुवंशिक बनाने से शासक निर्माण की प्रक्रिया में सफलता की संभावनाएँ बहुत अधिक होतीं हैं। शासक स्वभाववाले पति-पत्नि, घर में शासक बनने के लिये पोषक वातावरण, गर्भधारणा के समय पति-पत्नि का श्रेष्ठ शासक को जन्म देने का संकल्प, शासक के लिये अनुकूल गर्भ संस्कार, बालक का स्वभाव शासक जैसा है या नहीं यह जाँचने के लिये निरंतर स्वभाव का निरीक्षण और परीक्षण, शैशव में भी शासक निर्माण के लिये अनुकूल वातावरण के साथ शासक बनने के लिये योग्य संस्कार, विद्यालय में भी बालक का स्वभाव शासक जैसा है या नहीं यह जाँचने के लिये निरंतर स्वभाव का निरीक्षण और परीक्षण, शिक्षण और प्रशिक्षण इन बातों की आश्वस्ति करने से कोई कारण नहीं कि अच्छा शासक निर्माण न हो।
| + | ### जनपद/तीर्थक्षेत्र |
− | - शासक के लिये अनिवार्य बातें : राजनीति, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र, तर्कशास्त्र, युद्धशास्त्र, इतिहास, भूगोल इन विषयों में बालक पारंगत हो।
| + | ### महानगर/शहर |
− | - राजसी स्वभाव की वरीयता लेकिन सात्विक स्वभाव के भी प्रखर गुणों से पूर्ण ऐसा व्यक्ति ही श्रेष्ठ शासक बन सकता है।
| + | ### ग्राम |
− | २.२.२ मंत्रीमंडल : मंत्रीमंडल निर्माण की दृष्टि से महत्वपूर्ण बातें निम्न हैं।
| + | ## सामाजिक: |
− | - मंत्रीयों की संख्या में समाज के सभी महत्वपूर्ण सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिये।
| + | ### विद्वत्सभा |
− | - मंत्रियों की निष्ठा राष्ट्र के प्रति हो। शासकपर निष्ठा भी महत्वपूर्ण है। लेकिन प्राथमिकता राष्ट्र हित को देनेवाला मनुष्य ही मंत्री बनाया जाए।
| + | ### कौशल विधा पंचायत |
− | - मंत्री के गुण : शास्त्रों का जानकार, सात्त्विक और राजसी स्वभाव का मिश्रण है ऐसा, विपरीत परिस्थिती में भी शांत रहनेवाला, राष्ट्रनिष्ठ, शासकनिष्ठ, संवादकुशल, सदैव जाग्रत, दूर की भी सोचनेवाला आदि हो।
| + | ### गुरुकुल |
− | २.२.३ गुप्तचर : गुप्तचर की ऑंखों से शासक अपने राज्य और अन्य राज्यों को भी को देखता है। गुप्तचर विभाग का प्रभावी होना अच्छे शासक का लक्षण है। गुप्तचर संवादचतुर, भेष बदलने में माहिर, विविध कलाओं में पारंगत, राष्ट्रनिष्ठ, शासननिष्ठ, इंद्रियविजयी, खरीदा नहीं जानेवाला, उचितभाषी, बहुभाषी, प्रत्युत्पन्नमति आदि गुणों से संपन्न हो। मजहबी और आसुरी विस्तारवादी जनता और देशों की सूक्ष्मतम जानकारी होना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
| + | ### कुटुम्ब |
− | २.२.४ सेना : राष्ट्र की सेना दो प्रकार की होनी चाहिये। पहली प्रकट सेना और दूसरी अप्रकट सेना। प्रकट सेना तो नित्य और वेतनभोग़ी होगी। लेकिन अप्रकट सेना यह जनता का रजोगुणी वर्ग है जिसमें दूसरे क्रमांकपर सात्विक गुण उपस्थित है। अप्रकट सेना के प्रशिक्षण की नियमित व्यवस्था आवश्यक है।
| + | # शासन के अंग |
− | २.२.५ दुर्ग : दुर्ग का महत्त्व आज भी बहुत अधिक है। दुर्ग से तात्पर्य सुरक्षित स्थान से है। वर्तमान में इस दृष्टि से भूमिगत बकर यह तुलना में सबसे सुरक्षित माना जा सकता है। दुर्ग से एक मतलब गूढ़ स्थान से भी है। ढूँढने में अत्यंत कठिन, मार्गदर्शन के बिना जहाँ पहुँचना अत्यंत कठिन और पेंचिदा हो ऐसा दुर्गम स्थान।
| + | ## शासक : महत्वपूर्ण पहलू |
− | २.२.६ धन : शासन कर के रूप में जनता से धन प्राप्त करे यह सर्वमान्य है। यह प्रमाण कितना हो यही विवाद का विषय बनता है। जब शिक्षा व्यवस्था अच्छी होती है तब शासन अधिक से अधिक १६ % कर ले। कर की वसूली ग्रामों से की जाए। परिवारों से नहीं। शासन व्यवस्था का खर्चा उचित होता है तो कर १६% से अधिक लेने की आवश्यकता नहीं होती।
| + | ##* शासक धर्म शास्त्र का जानकार हो। शासन धर्म द्वारा नियंत्रित, नियमित और निर्देशित होना चाहिये। |
− | २.२.७ मित्र : यहाँ मित्र से तात्पर्य प्रत्यक्ष जिनसे मित्रता है ऐसे लोग, हितचिंतक, सहानुभूति रखनेवाले, सज्जन आदि सभी से है। यह वर्ग जितना अधिक होगा शासन करना उतना ही सरल होगा। इसी प्रकार से यदि शासन अच्छा होगा तो यह वर्ग बहुत बडा होगा। अर्थात् यह अन्योन्याश्रित बातें हैं। इसका प्रारंभबिंदू हमेशा शासक ही होगा। वह कितना श्रेष्ठ शासन प्रजा को दे सकता है इसपर उसके मित्र-कुटुम्ब की संख्या और प्रभाव बढेगा।
| + | ##* अपने पीछे अपने से भी अधिक श्रेष्ठ शासक याने उत्तराधिकारी जनता को देना यह शासक का कर्तव्य है। इस दृष्टि से शासक के वंशानुगत होने से श्रेष्ठ भावि शासक के पैदा करने में, उस का संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण करने में सुविधा होती है। |
− | २.३ शासन का स्वरूप
| + | ##* शासक जन्मजात होता है। जिसका जन्मजात स्वभाव शासक का है वही श्रेष्ठ शासक बन सकता है। इसलिये शासक को जन्म देने से लेकर शासक निर्माण के प्रयास करने चाहिये। शसक निर्माण की प्रक्रिया आनुवंशिक बनाने से शासक निर्माण की प्रक्रिया में सफलता की संभावनाएँ बहुत अधिक होतीं हैं। शासक स्वभाववाले पति-पत्नि, घर में शासक बनने के लिये पोषक वातावरण, गर्भधारणा के समय पति-पत्नि का श्रेष्ठ शासक को जन्म देने का संकल्प, शासक के लिये अनुकूल गर्भ संस्कार, बालक का स्वभाव शासक जैसा है या नहीं यह जाँचने के लिये निरंतर स्वभाव का निरीक्षण और परीक्षण, शैशव में भी शासक निर्माण के लिये अनुकूल वातावरण के साथ शासक बनने के लिये योग्य संस्कार, विद्यालय में भी बालक का स्वभाव शासक जैसा है या नहीं यह जाँचने के लिये निरंतर स्वभाव का निरीक्षण और परीक्षण, शिक्षण और प्रशिक्षण इन बातों की आश्वस्ति करने से कोई कारण नहीं कि अच्छा शासक निर्माण न हो। |
− | २.३.१ प्रजा के साथ पिता-संतान जैसा संबंध।
| + | ##* शासक के लिये अनिवार्य बातें : राजनीति, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र, तर्कशास्त्र, युद्धशास्त्र, इतिहास, भूगोल इन विषयों में बालक पारंगत हो। |
− | २.३.२ प्रांत, जनपद/जिला, महानगरपालिका, शहरपालिका, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, कुटुम्ब आदि में विकेंद्रित शासन व्यवस्था में जबतक कोई वर्धिष्णु समस्या की सम्भावना नहीं दिखाई देती हस्तक्षेप नहीं करना। लेकिन ऐसी संभावनाओं की दृष्टि से सदैव जागरूक और कार्यवाही के लिये तत्पर रहना।
| + | ##* राजसी स्वभाव की वरीयता लेकिन सात्विक स्वभाव के भी प्रखर गुणों से पूर्ण ऐसा व्यक्ति ही श्रेष्ठ शासक बन सकता है। |
− | २.३.३ राष्ट्र को वर्धिष्णु रखना यह भी शासक की सुरक्षा नीति का अनिवार्य हिस्सा होता है।
| + | ## मंत्रीमंडल : मंत्रीमंडल निर्माण की दृष्टि से महत्वपूर्ण बातें निम्न हैं: |
− | २.३.४ आदर्श के रूप में तो सर्वसहमति के लोकतंत्र से श्रेष्ठ अन्य कोई शासन व्यवस्था नहीं हो सकती। सामान्यत: जैसे जैसे आबादी और भौगोलिक क्षेत्र बढता जाता है लोकतंत्र की परिणामकारकता कम होती जाती है। फिर भी ग्राम स्तरपर ग्रामसभाओं जैसा सर्वसहमति का लोकतंत्र तो शीघ्रतासे शुरू किया जा सकता है। नगर और महानगरों में भी प्रभागों की रचना हो। प्रभागों की आबादी ५००० तक ही रहे। ग्राम की तरह ही प्रभागों में सर्वसहमति से पंचायत समिती सदस्य और प्रतिनिधि का चयन (निर्वाचन नहीं) हो।
| + | ##* मंत्रियों की संख्या में समाज के सभी महत्वपूर्ण सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिये। |
− | जनपद/नगर/महानगर जैसे बडे भौगोलिक/आबादीवाले क्षेत्र के लिये ग्रामसभाओं/प्रभागों द्वारा (सर्वसहमति से) चयनित (निर्वाचित नहीं) प्रतिनिधियों की समिती का शासन रहे। इस समिती का प्रमुख भी सर्वसहमति से ही तय हो। किसी ग्राम/प्रभाग से सर्वसहमति से प्रतिनिधि चयन नहीं होनेसे उस ग्राम/प्रभाग का प्रतिनिधित्व समिती में नहीं रहेगा। लेकिन समिती के निर्णय ग्राम/प्रभाग को लागू होंगे। समिती भी निर्णय करते समय जिस ग्राम का प्रतिनिधित्व नहीं है उसके हित को ध्यान में रखकर ही निर्णय करे। | + | ##* मंत्रियों की निष्ठा राष्ट्र के प्रति हो। शासक पर निष्ठा भी महत्वपूर्ण है। लेकिन प्राथमिकता राष्ट्र हित को देनेवाला मनुष्य ही मंत्री बनाया जाए। |
− | जनपद समितीयाँ प्रदेश के शासक का चयन करेंगी। ऐसा शासक भी सर्वसहमति से ही चयनित होगा। प्रदेशों के शासक फिर सर्वसहमतिसे राष्ट्र के प्रधान शासक का या सम्राट का चयन करेंगे। जनपद/नगर/ महानगर, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों के चयनित प्रमुख अपने अपने सलाहकार और सहयोगियों का चयन करेंगे। | + | ##* मंत्री के गुण : शास्त्रों का जानकार, सात्त्विक और राजसी स्वभाव का मिश्रण है ऐसा, विपरीत परिस्थिती में भी शांत रहनेवाला, राष्ट्रनिष्ठ, शासकनिष्ठ, संवादकुशल, सदैव जाग्रत, दूर की भी सोचनेवाला आदि हो। |
− | सर्वसहमति के अभाव में धर्म व्यवस्था याने विद्वानों की सभा जनमत को ध्यान में लेकर और शासक बनने की योग्यता और क्षमता को ध्यान में लेकर शासक कौन बनेगा इसका निर्णय करेगी। २.३.५ शासक निर्माण : श्रेष्ठ शासक निर्माण करने की दृष्टि से धर्मव्यवस्था अपनी व्यवस्था निर्माण करे। इस व्यवस्था द्वारा चयनित, संस्कारित, शिक्षित और प्रशिक्षित शासक अन्य किसी भी शासक से सामान्यत: श्रेष्ठ होगा। इस व्यवस्था के कारण समाज में प्रधान शासक बनने की क्षमता रखनेवाले लोगों का अभाव नहीं निर्माण होगा। | + | ## गुप्तचर : गुप्तचर की ऑंखों से शासक अपने राज्य और अन्य राज्यों को भी को देखता है। गुप्तचर विभाग का प्रभावी होना अच्छे शासक का लक्षण है। गुप्तचर संवादचतुर, भेष बदलने में माहिर, विविध कलाओं में पारंगत, राष्ट्रनिष्ठ, शासननिष्ठ, इंद्रियविजयी, खरीदा नहीं जानेवाला, उचितभाषी, बहुभाषी, प्रत्युत्पन्नमति आदि गुणों से संपन्न हो। मजहबी और आसुरी विस्तारवादी जनता और देशों की सूक्ष्मतम जानकारी होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। |
− | २.४ शासन का आधार : शासन के दो आधार हैं। पहला है राजधर्म का पालन (प्रजा को पुत्रवत मानकर व्यवहार करना) और दूसरा है कर-प्रणाली।
| + | ## सेना : राष्ट्र की सेना दो प्रकार की होनी चाहिये। पहली प्रकट सेना और दूसरी अप्रकट सेना। प्रकट सेना तो नित्य और वेतनभोग़ी होगी। लेकिन अप्रकट सेना यह जनता का रजोगुणी वर्ग है जिसमें दूसरे क्रमांक पर सात्विक गुण उपस्थित है। अप्रकट सेना के प्रशिक्षण की नियमित व्यवस्था आवश्यक है। |
− | २.४.१ लोकानुरंजन और धर्माचरण : शासन का आधार केवल भौतिक सत्ता नहीं तो धर्माचरण और लोकानुरंजन का आचरण होना चाहिये। सज्जन आश्वस्त रहें और दुर्जन दण्ड से नियंत्रित रहें यही शासन से अपेक्षा होती है। शिक्षा, धर्म (रिलीजन/मजहब/पंथों के नहीं)के काम जैसे धर्मशाला, अन्नछत्र, सड़कें बनाना आदि जो भी बातें समाज को धर्माचरण सिखानेवाली या करवानेवाली होंगी शासन का काम सरल करेंगी। इसलिये शासनने ऐसे सभी कामों को संरक्षण, समर्थन और आवश्यकतानुसार सहायता भी देनी चाहिये।
| + | ## दुर्ग : दुर्ग का महत्त्व आज भी बहुत अधिक है। दुर्ग से तात्पर्य सुरक्षित स्थान से है। वर्तमान में इस दृष्टि से भूमिगत बकर यह तुलना में सबसे सुरक्षित माना जा सकता है। दुर्ग से एक मतलब गूढ़ स्थान से भी है। ढूँढने में अत्यंत कठिन, मार्गदर्शन के बिना जहाँ पहुँचना अत्यंत कठिन और पेंचिदा हो ऐसा दुर्गम स्थान। |
− | जिस प्रकार से धर्माचरण करनेवाले लोगों को शासन की ओर से समर्थन, सहायता और संरक्षण मिलना चाहिये उसी प्रकार जो अधर्माचरणी हैं, अधर्मयुक्त कामनाएँ करनेवाले और/या अधर्मयुक्त धन, साधन संसाधनों का प्रयोग करनेवाले हैं, उन के लिये दण्डविधान की व्यवस्था चलाना भी शासन की जिम्मेदारी है। | + | ## धन : शासन कर के रूप में जनता से धन प्राप्त करे यह सर्वमान्य है। यह प्रमाण कितना हो यही विवाद का विषय बनता है। जब शिक्षा व्यवस्था अच्छी होती है तब शासन अधिक से अधिक १६ % कर ले। कर की वसूली ग्रामों से की जाए। परिवारों से नहीं। शासन व्यवस्था का खर्चा उचित होता है तो कर १६% से अधिक लेने की आवश्यकता नहीं होती। |
− | २.४.२ करप्राप्ति : शासकीय व्यय के लिये शासन को जनता से कर लेना चाहिये। कर के विषय में भारतीय विचार स्पष्ट हैं। जिस प्रकार से और प्रमाण में भूमीपर के जल के बाष्पीभवन से मेघ बनते हैं उसी प्रमाण में ‘कर’ लेना चाहिये। मेघ बनने के बाद जिस प्रकार से वह मेघ पूरी धरती को वह पानी फिर से लौटा देते हैं, उसी प्रकार से शासन अपने लिये उस कर से न्यूनतम व्यय कर बाकी सब जनता के हित के लिये व्यय करे यह अपेक्षा है। यह करते समय वह जनता में कोई भेदभाव नहीं करे। कर के संबंध में भ्रमर की भी उपमा दी गई है। भ्रमर फूल से उतना ही रस लेता है कि जिससे वह फूल मुरझा नहीं जाए। शासन भी जनता से इतना ही कर ले जिससे जनता को कर देने में कठिनाई अनुभव न हो। शासकों के अभोगी होने से शासन तंत्रपर होनेवाला व्यय कम होता है। शेष धन को शासन समाज हित के कार्यों में व्यय करे।
| + | ## मित्र : यहाँ मित्र से तात्पर्य प्रत्यक्ष जिनसे मित्रता है ऐसे लोग, हितचिंतक, सहानुभूति रखनेवाले, सज्जन आदि सभी से है। यह वर्ग जितना अधिक होगा शासन करना उतना ही सरल होगा। इसी प्रकार से यदि शासन अच्छा होगा तो यह वर्ग बहुत बडा होगा। अर्थात् यह अन्योन्याश्रित बातें हैं। इसका प्रारंभबिंदू हमेशा शासक ही होगा। वह कितना श्रेष्ठ शासन प्रजा को दे सकता है इस पर उसके मित्र-कुटुम्ब की संख्या और प्रभाव बढेगा। |
− | २.५ सत्ता सन्तुलन : सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्मव्यवस्था के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। सत्ता का इस प्रकार से विभाजन करने से शासन बिगडने से बचता है। इसमें भी धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज देता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है।
| + | # शासन का स्वरूप |
| + | ## प्रजा के साथ पिता-संतान जैसा संबंध। |
| + | ## प्रांत, जनपद/जिला, महानगरपालिका, शहरपालिका, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, कुटुम्ब आदि में विकेंद्रित शासन व्यवस्था में जबतक कोई वर्धिष्णु समस्या की सम्भावना नहीं दिखाई देती हस्तक्षेप नहीं करना। लेकिन ऐसी संभावनाओं की दृष्टि से सदैव जागरूक और कार्यवाही के लिये तत्पर रहना। |
| + | ## राष्ट्र को वर्धिष्णु रखना यह भी शासक की सुरक्षा नीति का अनिवार्य हिस्सा होता है। |
| + | ## आदर्श के रूप में तो सर्वसहमति के लोकतंत्र से श्रेष्ठ अन्य कोई शासन व्यवस्था नहीं हो सकती। सामान्यत: जैसे जैसे आबादी और भौगोलिक क्षेत्र बढता जाता है लोकतंत्र की परिणामकारकता कम होती जाती है। फिर भी ग्राम स्तरपर ग्रामसभाओं जैसा सर्वसहमति का लोकतंत्र तो शीघ्रतासे शुरू किया जा सकता है। नगर और महानगरों में भी प्रभागों की रचना हो। प्रभागों की आबादी ५००० तक ही रहे। ग्राम की तरह ही प्रभागों में सर्वसहमति से पंचायत समिति सदस्य और प्रतिनिधि का चयन (निर्वाचन नहीं) हो। जनपद/नगर/महानगर जैसे बडे भौगोलिक/आबादीवाले क्षेत्र के लिये ग्रामसभाओं/प्रभागों द्वारा (सर्वसहमति से) चयनित (निर्वाचित नहीं) प्रतिनिधियों की समिति का शासन रहे। इस समिति का प्रमुख भी सर्वसहमति से ही तय हो। किसी ग्राम/प्रभाग से सर्वसहमति से प्रतिनिधि चयन नहीं होनेसे उस ग्राम/प्रभाग का प्रतिनिधित्व समिति में नहीं रहेगा। लेकिन समिति के निर्णय ग्राम/प्रभाग को लागू होंगे। समिति भी निर्णय करते समय जिस ग्राम का प्रतिनिधित्व नहीं है उसके हित को ध्यान में रखकर ही निर्णय करे। जनपद समितियां प्रदेश के शासक का चयन करेंगी। ऐसा शासक भी सर्वसहमति से ही चयनित होगा। प्रदेशों के शासक फिर सर्वसहमति से राष्ट्र के प्रधान शासक का या सम्राट का चयन करेंगे। जनपद/नगर/ महानगर, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों के चयनित प्रमुख अपने अपने सलाहकार और सहयोगियों का चयन करेंगे। सर्वसहमति के अभाव में धर्म व्यवस्था याने विद्वानों की सभा जनमत को ध्यान में लेकर और शासक बनने की योग्यता और क्षमता को ध्यान में लेकर शासक कौन बनेगा इसका निर्णय करेगी। |
| + | ## शासक निर्माण : श्रेष्ठ शासक निर्माण करने की दृष्टि से धर्मव्यवस्था अपनी व्यवस्था निर्माण करे। इस व्यवस्था द्वारा चयनित, संस्कारित, शिक्षित और प्रशिक्षित शासक अन्य किसी भी शासक से सामान्यत: श्रेष्ठ होगा। इस व्यवस्था के कारण समाज में प्रधान शासक बनने की क्षमता रखनेवाले लोगों का अभाव नहीं निर्माण होगा। |
| + | # शासन का आधार : शासन के दो आधार हैं। पहला है राजधर्म का पालन (प्रजा को पुत्रवत मानकर व्यवहार करना) और दूसरा है कर-प्रणाली। |
| + | ## लोकानुरंजन और धर्माचरण : शासन का आधार केवल भौतिक सत्ता नहीं तो धर्माचरण और लोकानुरंजन का आचरण होना चाहिये। सज्जन आश्वस्त रहें और दुर्जन दण्ड से नियंत्रित रहें यही शासन से अपेक्षा होती है। शिक्षा, धर्म (रिलीजन/मजहब/पंथों के नहीं)के काम जैसे धर्मशाला, अन्नछत्र, सड़कें बनाना आदि जो भी बातें समाज को धर्माचरण सिखानेवाली या करवानेवाली होंगी शासन का काम सरल करेंगी। इसलिये शासनने ऐसे सभी कामों को संरक्षण, समर्थन और आवश्यकतानुसार सहायता भी देनी चाहिये। जिस प्रकार से धर्माचरण करनेवाले लोगों को शासन की ओर से समर्थन, सहायता और संरक्षण मिलना चाहिये उसी प्रकार जो अधर्माचरणी हैं, अधर्मयुक्त कामनाएँ करनेवाले और/या अधर्मयुक्त धन, साधन संसाधनों का प्रयोग करनेवाले हैं, उन के लिये दण्डविधान की व्यवस्था चलाना भी शासन की जिम्मेदारी है। |
| + | ## करप्राप्ति : शासकीय व्यय के लिये शासन को जनता से कर लेना चाहिये। कर के विषय में भारतीय विचार स्पष्ट हैं। जिस प्रकार से और प्रमाण में भूमीपर के जल के बाष्पीभवन से मेघ बनते हैं उसी प्रमाण में ‘कर’ लेना चाहिये। मेघ बनने के बाद जिस प्रकार से वह मेघ पूरी धरती को वह पानी फिर से लौटा देते हैं, उसी प्रकार से शासन अपने लिये उस कर से न्यूनतम व्यय कर बाकी सब जनता के हित के लिये व्यय करे यह अपेक्षा है। यह करते समय वह जनता में कोई भेदभाव नहीं करे। कर के संबंध में भ्रमर की भी उपमा दी गई है। भ्रमर फूल से उतना ही रस लेता है कि जिससे वह फूल मुरझा नहीं जाए। शासन भी जनता से इतना ही कर ले जिससे जनता को कर देने में कठिनाई अनुभव न हो। शासकों के अभोगी होने से शासन तंत्रपर होनेवाला व्यय कम होता है। शेष धन को शासन समाज हित के कार्यों में व्यय करे। |
| + | # सत्ता सन्तुलन: सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्मव्यवस्था के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। सत्ता का इस प्रकार से विभाजन करने से शासन बिगडने से बचता है। इसमें भी धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज देता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है। |
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| == समृद्धि व्यवस्था == | | == समृद्धि व्यवस्था == |
− | धर्मानुकूल सभी इच्छाओं की और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये याने समाज के पोषण के लिये समृद्धि व्यवस्था की आवश्यकता होती है। समृद्धि व्यवस्था की मूलभूत बातों की चर्चा हम समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि विषय में करेंगे। समृद्धि व्यवस्था के प्रमुख घटकों का अब हम विचार करेंगे। | + | धर्मानुकूल सभी इच्छाओं की और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये याने समाज के पोषण के लिये समृद्धि व्यवस्था की आवश्यकता होती है। समृद्धि व्यवस्था की मूलभूत बातों की चर्चा हम समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि विषय में करेंगे। समृद्धि व्यवस्था के प्रमुख घटकों का अब हम विचार करेंगे: |
− | ३.१ कौटुम्बिक व्यवसाय
| + | # कौटुम्बिक व्यवसाय: |
− | - कौटुम्बिक व्यवसाय का अर्थ है कुटुम्ब के लोगों की मदद से चलाया हुआ उद्योग। अनिवार्यता की स्थिति में ही सेवक होंगे। अन्यथा ऐसे उद्योग में सब मालिक ही होते हैं। नौकर कोई नहीं। | + | #* - कौटुम्बिक व्यवसाय का अर्थ है कुटुम्ब के लोगों की मदद से चलाया हुआ उद्योग। अनिवार्यता की स्थिति में ही सेवक होंगे। अन्यथा ऐसे उद्योग में सब मालिक ही होते हैं। नौकर कोई नहीं। - ऐसे व्यवसाय और संयुक्त कुटुम्ब ये अन्योन्याश्रित होते हैं। - कौटुम्बिक उद्योगों के आकार की और विस्तार की सीमा होती है। लोभ और मोह सामान्यत: नहीं होते। क्यों कि संयुक्त कुटुम्ब में लोभ और मोह का संयम सब सदस्य अपने आप सीख जाते हैं। - उद्योग व्यवसाय और उसके माध्यम से अधिकतम धन पैदा करना यह लक्ष्य नहीं होता। धर्मानुकूल जीने के एक साधन के रूप में व्यवसाय को देखा जाता है। - उत्पादन माँग के अनुसार होता है। - संक्षेप में कहें तो अर्थ पुरूषार्थ की शिक्षा में दिये लगभग सभी बिंदुओं को व्यवहार में लाने के लिये कौटुम्बिक व्यवसाय अनिवार्य ऐसा पहलू है। ३.२ कौशल समायोजन व्यवस्था : मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत सारी हैं। लेकिन एक मनुष्य की क्षमताएँ मर्यादित हैं। इसलिये परस्परावलंबन अनिवार्य होता है। हर मनुष्य की अपनी विशेषता होती है। इस विशेषता में किसी व्यावसायिक कौशल के विकास की सम्भावना भी आती है। कोई दिखने में सरल और लाभदायक व्यवसाय करने इच्छा होना तो सभी के लिये स्वाभाविक है। लेकिन ऐसा प्रत्यक्ष में होने से एक ओर तो जीवन के कई व्यावसायिक कौशलों की क्षमता होते हुए भी लोग उन का उपयोग नहीं करेंगे। दुसरी बात याने इससे समाज की उन आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं हो पाएगी। तीसरी बात याने किसी एक कौशल के क्षेत्र में अनावश्यक संख्या में लोग आने से स्पर्धा, संघर्ष, नैराश्य, लाचारी, बेरोजगारी आदि अनेक दोष समाज में निर्माण होंगे। समाज के प्रत्येक व्यक्ति की अंगभूत कौशल के विकास की संभावनाओं को समझकर उस व्यक्ति का विकास उस व्यावसायिक कौशल के क्षेत्र में होने से वह व्यक्ति और समाज दोनों लाभान्वित होंगे। ३.२.१ आनुवंशिकता : व्यावसायिक कौशलों का आनुवंशिकता से संबंध होता है। माता पिता (विशेषत: पिता) में यदि एक व्यावसायिक कौशल के विकास की संभावनाएँ या क्षमताएँ हैं तो उनके बच्चों में उस व्यावसायिक कुशलता का अवतरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। जब उनके बच्चे वही व्यवसाय अपनाते हैं तब उन्हें काम बोझ नहीं लगता। उन्हें अपने व्यावसायिक काम में आनंद आता है। यह आनंद उनके जीवन में भर जाता है। ऐसे लोग औरों को भी आनंद बाँटते हैं। इस दृष्टि से व्यावसायिक कौशलों के समायोजन के लिये निम्न बिंदुओं का विचार करना आवश्यक होगा। ऐसी व्यावसायिक कौशलों के समायोजन की व्यवस्था के लाभ हमने ‘कौशल्य समायोजन के विषय’ में जाने हैं। आनुवंशिकता के कुछ लाभ नीचे लिख रहे हैं। - पिता से स्वभाविक रूप में जो कौशल बेटे को प्राप्त हुए हैं उनका सदुपयोग। - कौशल की आवश्यकता और उपलब्धता का संतुलन। - बेरोजगारी का निर्मूलन - समाज आक्रमक नहीं बनता। सहिष्णू, सदाचारी बनता है। आदि ३.२.२ कौशल परिवर्तन : समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। उनके लिये रोजगार की आश्वस्ति बहुत महत्वपूर्ण होती है। कौशल विधा व्यवस्था को आनुवंशिक बनाने से बेरोजगारी की समस्या सुलझ जाती है। समाज में ५-१० प्रतिशत बच्चे प्रतिभाशाली भी रहते हैं। जो आनुवंशिकता से आए गुण-लक्षणोंपर मात कर सकते हैं। जिस भी विषय में वे चाहे अपनी प्रतिभा के आधारपर पराक्रम कर सकते हैं। ऐसे बच्चे वास्तव में समाज की बौध्दिक धरोहर होते हैं। इसलिये ऐसे बच्चों के लिये कौशल विधा में परिवर्तन की कोई व्यव्स्था होनी चाहिये। ऐसे बच्चों को अच्छी तरह से परखकर उनकी इच्छा और रुचि के व्यवसाय को स्वीकार करने की अनुमति देने की व्यवस्था ही कौशल परिवर्तन व्यवस्था है। ३.३ स्वभाव समायोजन : समाज सुचारू रूप से चलने के लिये परमात्मा भिन्न भिन्न स्वभाव के लोग निर्माण करता है। इन स्वभावों के अनुसार यदि उन्हें काम करने का अवसर मिलता है तो वे बहुत सहजता और आनंद से काम करते हैं। काम का उन्हें बोझ नहीं लगता। जब लोग आनंद से काम करते हैं सबसे श्रेष्ठ क्षमताओं का विकास होता है। इसलिये समाज में प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव जानकर, ठीक से परखकर उसे उसके स्वभाव के अनुसार काम करने का अवसर देना यह समाज के ही हित में है। इसलिये ऐसी व्यवस्था निर्माण करना यह समाज की जिम्मेदारी भी है। इससे काम की गुणवत्ता का स्तर भी ऊँचा रहता है। इस व्यवस्था के दो अनिवार्य स्तर हैं। एक नवजात बालक के स्वभाव को जानना। स्वभाव वैशिष्ट्य को जानकर उस स्वभाव के लिये पोषक ऐसे संस्कार उसे देना। यह काम कुटुम्ब के स्तरपर होगा। दूसरा स्तर है विद्यालय। माता पिता विद्यालय में प्रवेश के समय बच्चे के स्वभाव विशेष के बारे में जानकारी दें। विद्यालय भी मातापिता ने दी हुई जानकारी को फिर से ठीक से परखे। क्यों कि अब बालक के स्वभाव कि विशेषताएँ समझना अधिक सरल होता है। बालक के स्वभाव की आश्वस्ति के उपरांत उसे स्वभाव विशेष की शिक्षा का प्रबंध करना यह विद्यालय स्तर का काम है। ३.४ समृद्धिव्यवस्था का स्वरूप : समृद्धिव्यवस्था के ३ आधार होने चाहिये। ग्रामाधारित, गो-आधारित और कौटुम्बिक भावना आधारित। ग्रामाधारित का अर्थ है विकेंद्रितता। गो-आधारित का अर्थ है खेती में लगनेवाली ऊर्जा और बाहर से आवश्यक संसाधनों में गाय से उपलब्ध संसाधनों का यथा ऊर्जा के लिये बैल, खेती के आवश्यक (इनपुट्स्) कीटकनाशक, खत आदि गाय से प्राप्त गोबर और गोमुत्र में से बनाया हुआ हो। और कौटुम्बिक भावना आधारित का अर्थ है ग्राम की व्यवस्थाएँ और ग्राम में लोगों का परस्पर व्यवहार दोनों बडे संयुक्त कुटुम्ब जैसे हों। गो आधारित कृषि के संबंध में ढेर सारा साहित्य और प्रत्यक्ष प्रयोग की जानकारियाँ उपलब्ध है। ग्रामाधारित और कौटुम्बिक भावनापर आधारित व्यवस्था समझने के लिये कृपया ‘ग्रामकुल की अर्थव्यवस्था’ पढें। ३.५ हाटबाजार : हर गाँव लोगों की सभी आवश्यकताओं के लिये उत्पादन नहीं कर सकता। ऐसे उत्पादनों की प्राप्ति हाट-बाजार से हो सकती है। हाट बाजार में वही वस्तुएँ बिकेंगी जो गाँव की नित्य और आपातकालीन ऐसी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद अतिरिक्त होगा। साथ ही में पडोस के गाँवों के लोगों ने जो भौतिक विकास किया है उस की जानकारी प्राप्त करने और आपस में बांटने के लिये हाट-बाजार की व्यवस्था आवश्यक है। हाट-बाजार की व्यवस्थाएँ तीन प्रकार की हो सकतीं हैं। ३.५.१ भौगोलिक : ग्रामसंकुल केंद्र ३.५.२ नियतकालिक: दैनंदिन, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक आदि। ३.५.३ विशेष उत्पादन ३.६ विदेश व्यापार : विदेश व्यापार के सूत्र निम्न होंगे। - ऐसी किसी भी वस्तु का व्यापार नहीं होगा जिससे गाँवों की अर्थव्यवस्था को हानि हो। - विदेश व्यापार ऐसा नहीं हो कि कोई अन्य देश पूर्णत: अपने देश से होनेवाले व्यापारपर निर्भर (मण्डी) हो जाए। अपने देश को भी अन्य किसी भी देश की मण्डी पर निर्भर नहीं बनने देना। - जिस वस्तू की राष्ट्र के समाज को अनिवार्य रूप में आवश्यकता होगी उसी वस्तू की आयात की जाए। - व्यापार अपनी शर्तों के आधारपर ही चलेगा। परस्पर आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार होगा। - देश में आनेवाला और देश से बाहर जानेवाला सारा माल शासन के द्वारा जाँच होने के उपरांत ही देश में आए अथवा बाहर जाए। - मुद्रा विनिमय की दर क्रय-मूल्य-समानता (पर्चेस् प्राईस पॅरिटि)के आधारपर ही हो। ३.७ नियंत्रण : समृद्धिव्यवस्था पर नियंत्रण का स्वरूप विकेंद्रित होगा। जिस केंद्र से जुडा विषय होगा उस स्तर से ही नियंत्रण किया जाएगा। जैसे – ३.७.१ कुटुम्ब ३.७.२ ग्राम ३.७.३ कौशल विधा ३.७.४ न्यायालय (अंतिम केंद्र) |
− | - ऐसे व्यवसाय और संयुक्त कुटुम्ब ये अन्योन्याश्रित होते हैं। | |
− | - कौटुम्बिक उद्योगों के आकार की और विस्तार की सीमा होती है। लोभ और मोह सामान्यत: नहीं होते। क्यों कि संयुक्त कुटुम्ब में लोभ और मोह का संयम सब सदस्य अपने आप सीख जाते हैं। | |
− | - उद्योग व्यवसाय और उसके माध्यम से अधिकतम धन पैदा करना यह लक्ष्य नहीं होता। धर्मानुकूल जीने के एक साधन के रूप में व्यवसाय को देखा जाता है। | |
− | - उत्पादन माँग के अनुसार होता है। | |
− | - संक्षेप में कहें तो अर्थ पुरूषार्थ की शिक्षा में दिये लगभग सभी बिंदुओं को व्यवहार में लाने के लिये कौटुम्बिक व्यवसाय अनिवार्य ऐसा पहलू है। | |
− | ३.२ कौशल समायोजन व्यवस्था : मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत सारी हैं। लेकिन एक मनुष्य की क्षमताएँ मर्यादित हैं। इसलिये परस्परावलंबन अनिवार्य होता है। हर मनुष्य की अपनी विशेषता होती है। इस विशेषता में किसी व्यावसायिक कौशल के विकास की सम्भावना भी आती है। कोई दिखने में सरल और लाभदायक व्यवसाय करने इच्छा होना तो सभी के लिये स्वाभाविक है। लेकिन ऐसा प्रत्यक्ष में होने से एक ओर तो जीवन के कई व्यावसायिक कौशलों की क्षमता होते हुए भी लोग उन का उपयोग नहीं करेंगे। दुसरी बात याने इससे समाज की उन आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं हो पाएगी। तीसरी बात याने किसी एक कौशल के क्षेत्र में अनावश्यक संख्या में लोग आने से स्पर्धा, संघर्ष, नैराश्य, लाचारी, बेरोजगारी आदि अनेक दोष समाज में निर्माण होंगे। | |
− | समाज के प्रत्येक व्यक्ति की अंगभूत कौशल के विकास की संभावनाओं को समझकर उस व्यक्ति का विकास उस व्यावसायिक कौशल के क्षेत्र में होने से वह व्यक्ति और समाज दोनों लाभान्वित होंगे। | |
− | ३.२.१ आनुवंशिकता : व्यावसायिक कौशलों का आनुवंशिकता से संबंध होता है। माता पिता (विशेषत: पिता) में यदि एक व्यावसायिक कौशल के विकास की संभावनाएँ या क्षमताएँ हैं तो उनके बच्चों में उस व्यावसायिक कुशलता का अवतरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। जब उनके बच्चे वही व्यवसाय अपनाते हैं तब उन्हें काम बोझ नहीं लगता। उन्हें अपने व्यावसायिक काम में आनंद आता है। यह आनंद उनके जीवन में भर जाता है। ऐसे लोग औरों को भी आनंद बाँटते हैं। इस दृष्टि से व्यावसायिक कौशलों के समायोजन के लिये निम्न बिंदुओं का विचार करना आवश्यक होगा। | |
− | ऐसी व्यावसायिक कौशलों के समायोजन की व्यवस्था के लाभ हमने ‘कौशल्य समायोजन के विषय’ में जाने हैं। | |
− | आनुवंशिकता के कुछ लाभ नीचे लिख रहे हैं। | |
− | - पिता से स्वभाविक रूप में जो कौशल बेटे को प्राप्त हुए हैं उनका सदुपयोग। | |
− | - कौशल की आवश्यकता और उपलब्धता का संतुलन। | |
− | - बेरोजगारी का निर्मूलन | |
− | - समाज आक्रमक नहीं बनता। सहिष्णू, सदाचारी बनता है। आदि | |
− | ३.२.२ कौशल परिवर्तन : समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। उनके लिये रोजगार की आश्वस्ति बहुत महत्वपूर्ण होती है। कौशल विधा व्यवस्था को आनुवंशिक बनाने से बेरोजगारी की समस्या सुलझ जाती है। समाज में ५-१० प्रतिशत बच्चे प्रतिभाशाली भी रहते हैं। जो आनुवंशिकता से आए गुण-लक्षणोंपर मात कर सकते हैं। जिस भी विषय में वे चाहे अपनी प्रतिभा के आधारपर पराक्रम कर सकते हैं। ऐसे बच्चे वास्तव में समाज की बौध्दिक धरोहर होते हैं। इसलिये ऐसे बच्चों के लिये कौशल विधा में परिवर्तन की कोई व्यव्स्था होनी चाहिये। ऐसे बच्चों को अच्छी तरह से परखकर उनकी इच्छा और रुचि के व्यवसाय को स्वीकार करने की अनुमति देने की व्यवस्था ही कौशल परिवर्तन व्यवस्था है। | |
− | ३.३ स्वभाव समायोजन : समाज सुचारू रूप से चलने के लिये परमात्मा भिन्न भिन्न स्वभाव के लोग निर्माण करता है। इन स्वभावों के अनुसार यदि उन्हें काम करने का अवसर मिलता है तो वे बहुत सहजता और आनंद से काम करते हैं। काम का उन्हें बोझ नहीं लगता। जब लोग आनंद से काम करते हैं सबसे श्रेष्ठ क्षमताओं का विकास होता है। इसलिये समाज में प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव जानकर, ठीक से परखकर उसे उसके स्वभाव के अनुसार काम करने का अवसर देना यह समाज के ही हित में है। इसलिये ऐसी व्यवस्था निर्माण करना यह समाज की जिम्मेदारी भी है। इससे काम की गुणवत्ता का स्तर भी ऊँचा रहता है। | |
− | इस व्यवस्था के दो अनिवार्य स्तर हैं। एक नवजात बालक के स्वभाव को जानना। स्वभाव वैशिष्ट्य को जानकर उस स्वभाव के लिये पोषक ऐसे संस्कार उसे देना। यह काम कुटुम्ब के स्तरपर होगा। दूसरा स्तर है विद्यालय। माता पिता विद्यालय में प्रवेश के समय बच्चे के स्वभाव विशेष के बारे में जानकारी दें। विद्यालय भी मातापिता ने दी हुई जानकारी को फिर से ठीक से परखे। क्यों कि अब बालक के स्वभाव कि विशेषताएँ समझना अधिक सरल होता है। बालक के स्वभाव की आश्वस्ति के उपरांत उसे स्वभाव विशेष की शिक्षा का प्रबंध करना यह विद्यालय स्तर का काम है। | |
− | ३.४ समृद्धिव्यवस्था का स्वरूप : समृद्धिव्यवस्था के ३ आधार होने चाहिये। ग्रामाधारित, गो-आधारित और कौटुम्बिक भावना आधारित। ग्रामाधारित का अर्थ है विकेंद्रितता। गो-आधारित का अर्थ है खेती में लगनेवाली ऊर्जा और बाहर से आवश्यक संसाधनों में गाय से उपलब्ध संसाधनों का यथा ऊर्जा के लिये बैल, खेती के आवश्यक (इनपुट्स्) कीटकनाशक, खत आदि गाय से प्राप्त गोबर और गोमुत्र में से बनाया हुआ हो। और कौटुम्बिक भावना आधारित का अर्थ है ग्राम की व्यवस्थाएँ और ग्राम में लोगों का परस्पर व्यवहार दोनों बडे संयुक्त कुटुम्ब जैसे हों। गो आधारित कृषि के संबंध में ढेर सारा साहित्य और प्रत्यक्ष प्रयोग की जानकारियाँ उपलब्ध है। ग्रामाधारित और कौटुम्बिक भावनापर आधारित व्यवस्था समझने के लिये कृपया ‘ग्रामकुल की अर्थव्यवस्था’ पढें। | |
− | ३.५ हाटबाजार : हर गाँव लोगों की सभी आवश्यकताओं के लिये उत्पादन नहीं कर सकता। ऐसे उत्पादनों की प्राप्ति हाट-बाजार से हो सकती है। हाट बाजार में वही वस्तुएँ बिकेंगी जो गाँव की नित्य और आपातकालीन ऐसी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद अतिरिक्त होगा। साथ ही में पडोस के गाँवों के लोगों ने जो भौतिक विकास किया है उस की जानकारी प्राप्त करने और आपस में बांटने के लिये हाट-बाजार की व्यवस्था आवश्यक है। हाट-बाजार की व्यवस्थाएँ तीन प्रकार की हो सकतीं हैं। | |
− | ३.५.१ भौगोलिक : ग्रामसंकुल केंद्र ३.५.२ नियतकालिक: दैनंदिन, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक आदि। | |
− | ३.५.३ विशेष उत्पादन | |
− | ३.६ विदेश व्यापार : विदेश व्यापार के सूत्र निम्न होंगे। | |
− | - ऐसी किसी भी वस्तु का व्यापार नहीं होगा जिससे गाँवों की अर्थव्यवस्था को हानि हो। | |
− | - विदेश व्यापार ऐसा नहीं हो कि कोई अन्य देश पूर्णत: अपने देश से होनेवाले व्यापारपर निर्भर (मण्डी) हो जाए। अपने देश को भी अन्य किसी भी देश की मण्डी पर निर्भर नहीं बनने देना। | |
− | - जिस वस्तू की राष्ट्र के समाज को अनिवार्य रूप में आवश्यकता होगी उसी वस्तू की आयात की जाए। | |
− | - व्यापार अपनी शर्तों के आधारपर ही चलेगा। परस्पर आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार होगा। | |
− | - देश में आनेवाला और देश से बाहर जानेवाला सारा माल शासन के द्वारा जाँच होने के उपरांत ही देश में आए अथवा बाहर जाए। | |
− | - मुद्रा विनिमय की दर क्रय-मूल्य-समानता (पर्चेस् प्राईस पॅरिटि)के आधारपर ही हो। | |
− | ३.७ नियंत्रण : समृद्धिव्यवस्था पर नियंत्रण का स्वरूप विकेंद्रित होगा। जिस केंद्र से जुडा विषय होगा उस स्तर से ही नियंत्रण किया जाएगा। जैसे – | |
− | ३.७.१ कुटुम्ब ३.७.२ ग्राम ३.७.३ कौशल विधा ३.७.४ न्यायालय (अंतिम केंद्र) | |
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| == धर्म व्यवस्था == | | == धर्म व्यवस्था == |