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लेख सम्पादित किया
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   समाज का व्यवस्था समूह समाज के मूलगामी संगठन के साथ समायोजित होकर ही बनता है। इस दृष्टिसे सामाजिक प्रणालियाँ और व्यवस्था समूह का मिलाकर ढाँचा कैसा हो सकता है यह हम आगे देखेंगे|
 
   समाज का व्यवस्था समूह समाज के मूलगामी संगठन के साथ समायोजित होकर ही बनता है। इस दृष्टिसे सामाजिक प्रणालियाँ और व्यवस्था समूह का मिलाकर ढाँचा कैसा हो सकता है यह हम आगे देखेंगे|
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=== शिक्षा व्यवस्था ===
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== शिक्षा व्यवस्था ==
 
शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरणी बनाने का होता है। धर्माचरण सिखाने का अर्थ है पुरूषार्थ चतुष्टय की शिक्षा से। पुरूषार्थ चार होते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। त्रिवर्ग यह पुरूषार्थ चतुष्टय का ही हिस्सा है। इसमें मोक्ष की शिक्षा का समावेश अलगसे नहीं होता। त्रिवर्ग का पालन करने से मनुष्य सहज ही मोक्षगामी बन जाता है। त्रिवर्ग या चार पुरूषार्थों की शिक्षा में विशेषता यह है कि त्रिवर्ग के काम, अर्थ और धर्म तीनों ही समूचे मानव जीवन को व्यापते हैं। इनमें जीवन से जुडा कोई भी विषय अविषय नहीं रह जाता। यह एक ढँग से देखें तो श्रेष्ठ जीने की ही शिक्षा है।
 
शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरणी बनाने का होता है। धर्माचरण सिखाने का अर्थ है पुरूषार्थ चतुष्टय की शिक्षा से। पुरूषार्थ चार होते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। त्रिवर्ग यह पुरूषार्थ चतुष्टय का ही हिस्सा है। इसमें मोक्ष की शिक्षा का समावेश अलगसे नहीं होता। त्रिवर्ग का पालन करने से मनुष्य सहज ही मोक्षगामी बन जाता है। त्रिवर्ग या चार पुरूषार्थों की शिक्षा में विशेषता यह है कि त्रिवर्ग के काम, अर्थ और धर्म तीनों ही समूचे मानव जीवन को व्यापते हैं। इनमें जीवन से जुडा कोई भी विषय अविषय नहीं रह जाता। यह एक ढँग से देखें तो श्रेष्ठ जीने की ही शिक्षा है।
 
शिक्षा वास्तव में पूरे जीवन के प्रतिमान की शिक्षा ही होती है। जीवनदृष्टि, जीवनशैली, समाज का संगठन और समाज की व्यवस्थाओं का सब का मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है।
 
शिक्षा वास्तव में पूरे जीवन के प्रतिमान की शिक्षा ही होती है। जीवनदृष्टि, जीवनशैली, समाज का संगठन और समाज की व्यवस्थाओं का सब का मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है।
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दान और भीख में अन्तर होता है। दान स्वत: होकर दिया जाता है। भीख माँगी जाती है। वैसे तो भिक्षा भी माँगी ही जाती है। लेकिन भिक्षा माँगनेवाला और देनेवाला दोनों श्रेष्ठ काम कर रहे हैं ऐसा होने से उसमें गौरव अनुभव करते हैं। जब कि भीख में भीख देनेवाला दया या गौरव अनुभव करता है, और मांगनेवाला लाचारीका| देने की संस्कृति होने से भारत में सामान्यत: भीख माँगने की प्रथा नहीं थी। भोजन के समय आया हुआ अतिथी भोजन का आदरपात्र अधिकारी माना जाता था।       
 
दान और भीख में अन्तर होता है। दान स्वत: होकर दिया जाता है। भीख माँगी जाती है। वैसे तो भिक्षा भी माँगी ही जाती है। लेकिन भिक्षा माँगनेवाला और देनेवाला दोनों श्रेष्ठ काम कर रहे हैं ऐसा होने से उसमें गौरव अनुभव करते हैं। जब कि भीख में भीख देनेवाला दया या गौरव अनुभव करता है, और मांगनेवाला लाचारीका| देने की संस्कृति होने से भारत में सामान्यत: भीख माँगने की प्रथा नहीं थी। भोजन के समय आया हुआ अतिथी भोजन का आदरपात्र अधिकारी माना जाता था।       
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=== शासन व्यवस्था ===
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== शासन व्यवस्था ==
 
पूर्व में हमने देखा कि समाज में व्याप्त अनियंत्रित काम और मोह के नियंत्रण के लिये श्रेष्ठ शिक्षा और श्रेष्ठ शासन की आवश्यकता होती है। जब समाज में लोभ और मोह अनियंत्रित हो जाता है तब जो दुष्ट हैं और बलवान भी हैं ऐसे लोग सज्जनों का जीना हराम कर देते हैं। दुष्टों को दुर्बल शासन से लाभान्वित होते देखकर बलवान लेकिन जो दुर्बलात्मा हैं ऐसे सज्जन भी बिगडने लगते हैं। इससे शासन का काम और भी कठिन हो जाता है। शासन का काम दुर्बलोंकी दुष्ट बलवानों से रक्षा करनेका होता है। एक ओर शिक्षा का काम समाज के प्रत्येक घटक को कर्तव्यपथपर आगे बढाने का होता है। तब दूसरी ओर शासन का काम प्रजा के अधिकारों के रक्षण का होता है। इससे समाज में कर्तव्यों और अधिकारों का सन्तुलन बना रहता है।
 
पूर्व में हमने देखा कि समाज में व्याप्त अनियंत्रित काम और मोह के नियंत्रण के लिये श्रेष्ठ शिक्षा और श्रेष्ठ शासन की आवश्यकता होती है। जब समाज में लोभ और मोह अनियंत्रित हो जाता है तब जो दुष्ट हैं और बलवान भी हैं ऐसे लोग सज्जनों का जीना हराम कर देते हैं। दुष्टों को दुर्बल शासन से लाभान्वित होते देखकर बलवान लेकिन जो दुर्बलात्मा हैं ऐसे सज्जन भी बिगडने लगते हैं। इससे शासन का काम और भी कठिन हो जाता है। शासन का काम दुर्बलोंकी दुष्ट बलवानों से रक्षा करनेका होता है। एक ओर शिक्षा का काम समाज के प्रत्येक घटक को कर्तव्यपथपर आगे बढाने का होता है। तब दूसरी ओर शासन का काम प्रजा के अधिकारों के रक्षण का होता है। इससे समाज में कर्तव्यों और अधिकारों का सन्तुलन बना रहता है।
 
जब प्रजापर अन्याय होता है तब उसका कारण शासनकी अक्षमता होता है। जब शासन दुर्बल होता है तब न्याय माँगना पडता है। जब न्याय के लिये लडना पडता है शासन संवेदनाहीन होता है। और जब लडकर भी न्याय नहीं मिलता तब शासन होता ही नहीं है। अन्याय होने से पूर्व ही उसे रोकना यह प्रभावी शासन का लक्षण है। शासन के लिये लोगों में व्याप्त लोभ और मोह के नियंत्रण की भौगोलिक सीमा नहीं होती। शासित प्रदेश से बाहर रहनेवाले लोगों के भी लोभ और मोह के नियंत्रण की जिम्मेदारी शासन की ही होती है। इसे ही बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि अंतर्बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन की होती है।   
 
जब प्रजापर अन्याय होता है तब उसका कारण शासनकी अक्षमता होता है। जब शासन दुर्बल होता है तब न्याय माँगना पडता है। जब न्याय के लिये लडना पडता है शासन संवेदनाहीन होता है। और जब लडकर भी न्याय नहीं मिलता तब शासन होता ही नहीं है। अन्याय होने से पूर्व ही उसे रोकना यह प्रभावी शासन का लक्षण है। शासन के लिये लोगों में व्याप्त लोभ और मोह के नियंत्रण की भौगोलिक सीमा नहीं होती। शासित प्रदेश से बाहर रहनेवाले लोगों के भी लोभ और मोह के नियंत्रण की जिम्मेदारी शासन की ही होती है। इसे ही बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि अंतर्बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन की होती है।   
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   २.४.२ करप्राप्ति : शासकीय व्यय के लिये शासन को जनता से कर लेना चाहिये। कर के विषय में भारतीय विचार स्पष्ट हैं। जिस प्रकार से और प्रमाण में भूमीपर के जल के बाष्पीभवन से मेघ बनते हैं उसी प्रमाण में ‘कर’ लेना चाहिये। मेघ बनने के बाद जिस प्रकार से वह मेघ पूरी धरती को वह पानी फिर से लौटा देते हैं, उसी प्रकार से शासन अपने लिये उस कर से न्यूनतम व्यय कर बाकी सब जनता के हित के लिये व्यय करे यह अपेक्षा है। यह करते समय वह जनता में कोई भेदभाव नहीं करे। कर के संबंध में भ्रमर की भी उपमा दी गई है। भ्रमर फूल से उतना ही रस लेता है कि जिससे वह फूल मुरझा नहीं जाए। शासन भी जनता से इतना ही कर ले जिससे जनता को कर देने में कठिनाई अनुभव न हो। शासकों के अभोगी होने से शासन तंत्रपर होनेवाला व्यय कम होता है| शेष धन को शासन समाज हित के कार्यों में व्यय करे|                   
 
   २.४.२ करप्राप्ति : शासकीय व्यय के लिये शासन को जनता से कर लेना चाहिये। कर के विषय में भारतीय विचार स्पष्ट हैं। जिस प्रकार से और प्रमाण में भूमीपर के जल के बाष्पीभवन से मेघ बनते हैं उसी प्रमाण में ‘कर’ लेना चाहिये। मेघ बनने के बाद जिस प्रकार से वह मेघ पूरी धरती को वह पानी फिर से लौटा देते हैं, उसी प्रकार से शासन अपने लिये उस कर से न्यूनतम व्यय कर बाकी सब जनता के हित के लिये व्यय करे यह अपेक्षा है। यह करते समय वह जनता में कोई भेदभाव नहीं करे। कर के संबंध में भ्रमर की भी उपमा दी गई है। भ्रमर फूल से उतना ही रस लेता है कि जिससे वह फूल मुरझा नहीं जाए। शासन भी जनता से इतना ही कर ले जिससे जनता को कर देने में कठिनाई अनुभव न हो। शासकों के अभोगी होने से शासन तंत्रपर होनेवाला व्यय कम होता है| शेष धन को शासन समाज हित के कार्यों में व्यय करे|                   
 
२.५ सत्ता सन्तुलन  : सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्मव्यवस्था के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। सत्ता का इस प्रकार से विभाजन करने से शासन बिगडने से बचता है। इसमें भी धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज देता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है।  
 
२.५ सत्ता सन्तुलन  : सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्मव्यवस्था के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। सत्ता का इस प्रकार से विभाजन करने से शासन बिगडने से बचता है। इसमें भी धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज देता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है।  
३. समृद्धि व्यवस्था : धर्मानुकूल सभी इच्छाओं की और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये याने समाज के पोषण के लिये समृद्धि व्यवस्था की आवश्यकता होती है। समृद्धि व्यवस्था की मूलभूत बातों की चर्चा हम समृद्धि शास्त्रीय दृष्टी विषय में करेंगे| समृद्धि व्यवस्था के प्रमुख घटकों का अब हम विचार करेंगे।
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== समृद्धि व्यवस्था ==
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: धर्मानुकूल सभी इच्छाओं की और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये याने समाज के पोषण के लिये समृद्धि व्यवस्था की आवश्यकता होती है। समृद्धि व्यवस्था की मूलभूत बातों की चर्चा हम समृद्धि शास्त्रीय दृष्टी विषय में करेंगे| समृद्धि व्यवस्था के प्रमुख घटकों का अब हम विचार करेंगे।
 
   ३.१ कौटुम्बिक व्यवसाय  
 
   ३.१ कौटुम्बिक व्यवसाय  
 
     - कौटुम्बिक व्यवसाय का अर्थ है कुटुम्ब के लोगों की मदद से चलाया हुआ उद्योग। अनिवार्यता की स्थिति में ही सेवक होंगे। अन्यथा ऐसे उद्योग में सब मालिक ही होते हैं। नौकर कोई नहीं।
 
     - कौटुम्बिक व्यवसाय का अर्थ है कुटुम्ब के लोगों की मदद से चलाया हुआ उद्योग। अनिवार्यता की स्थिति में ही सेवक होंगे। अन्यथा ऐसे उद्योग में सब मालिक ही होते हैं। नौकर कोई नहीं।
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३.७ नियंत्रण  :  समृद्धिव्यवस्था पर नियंत्रण का स्वरूप विकेंद्रित होगा। जिस केंद्र से जुडा विषय होगा उस स्तर से ही नियंत्रण किया जाएगा। जैसे –
 
३.७ नियंत्रण  :  समृद्धिव्यवस्था पर नियंत्रण का स्वरूप विकेंद्रित होगा। जिस केंद्र से जुडा विषय होगा उस स्तर से ही नियंत्रण किया जाएगा। जैसे –
 
३.७.१ कुटुम्ब  ३.७.२ ग्राम ३.७.३ कौशल विधा ३.७.४ न्यायालय (अंतिम केंद्र)         
 
३.७.१ कुटुम्ब  ३.७.२ ग्राम ३.७.३ कौशल विधा ३.७.४ न्यायालय (अंतिम केंद्र)         
४. धर्म व्यवस्था  
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== धर्म व्यवस्था ==
 
समाज में व्याप्त धर्म और अधर्म से संबंधित भावनाओं और मान्यताओं के आधारपर धर्मव्यवस्था खडी होती है। इसका अलग से निर्माण नहीं किया जाता। धर्मव्यवस्था के प्रमुखत: पाँच काम होते हैं।                ४.१ धर्म की व्यापक रूप में कालानुकूल व्याख्या करना। व्याख्या करने से अर्थ है मार्गदर्शक सूत्रों की प्रस्तुति            करना। धर्म जीवनव्यापी होता है। इसलिये इस धर्म की व्याख्या का दायरा जीवनव्यापी होगा। इसमें समाज के    सभी संगठनों और व्यवस्थाओं के संबंध में तथा व्यक्तिगत और सामुहिक ऐसे दोनों स्तरों के लिये विधिनिषेध होंगे। बदलती परिस्थितियों के साथ समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर धर्म के व्यवहार पक्ष का निरंतर अवलोकन, परीक्षण और आवश्यक सुधार करना भी इसी का हिस्सा है।      
 
समाज में व्याप्त धर्म और अधर्म से संबंधित भावनाओं और मान्यताओं के आधारपर धर्मव्यवस्था खडी होती है। इसका अलग से निर्माण नहीं किया जाता। धर्मव्यवस्था के प्रमुखत: पाँच काम होते हैं।                ४.१ धर्म की व्यापक रूप में कालानुकूल व्याख्या करना। व्याख्या करने से अर्थ है मार्गदर्शक सूत्रों की प्रस्तुति            करना। धर्म जीवनव्यापी होता है। इसलिये इस धर्म की व्याख्या का दायरा जीवनव्यापी होगा। इसमें समाज के    सभी संगठनों और व्यवस्थाओं के संबंध में तथा व्यक्तिगत और सामुहिक ऐसे दोनों स्तरों के लिये विधिनिषेध होंगे। बदलती परिस्थितियों के साथ समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर धर्म के व्यवहार पक्ष का निरंतर अवलोकन, परीक्षण और आवश्यक सुधार करना भी इसी का हिस्सा है।      
 
४.२ धर्म के सार्वत्रिकीकरण के लिये, धर्म को समाजव्यापी बनाने के लिये श्रेष्ठ शिक्षकों का निर्माण करना। शिक्षक निर्माण का अर्थ है शिक्षा की जिम्मेदारी जो अपने कंधेपर सम्हालें और समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिये कटिबध्द हों ऐसे लोग निर्माण करना।              
 
४.२ धर्म के सार्वत्रिकीकरण के लिये, धर्म को समाजव्यापी बनाने के लिये श्रेष्ठ शिक्षकों का निर्माण करना। शिक्षक निर्माण का अर्थ है शिक्षा की जिम्मेदारी जो अपने कंधेपर सम्हालें और समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिये कटिबध्द हों ऐसे लोग निर्माण करना।              
 
४.३ धर्मविरोधी व्यवहार करनेवाले लोगों के लिये दण्डविधान की व्यवस्था बनाना। दण्डविधान बनाने का अर्थ है साथ में दण्डविधानमें वर्णित धर्म और अधर्म को समझनेवाले, विधिनिषेधों में निहित तत्त्व को समझनेवाले और न्याय करनेवाले लोग निर्माण करना।  
 
४.३ धर्मविरोधी व्यवहार करनेवाले लोगों के लिये दण्डविधान की व्यवस्था बनाना। दण्डविधान बनाने का अर्थ है साथ में दण्डविधानमें वर्णित धर्म और अधर्म को समझनेवाले, विधिनिषेधों में निहित तत्त्व को समझनेवाले और न्याय करनेवाले लोग निर्माण करना।  
 
४.४ दण्डविधान के अनुसार शासन चलानेवाले शासकों का निर्माण करना। ऐसे शासक नहीं होने से धर्म का आधार नष्ट हो जाता है। इसलिये अपने लोकहित के लिये समर्पण भाव, त्याग, तपस्या के आधारपर शासक को धर्माचरण के लिये बाध्य और अधर्माचरण के लिये दण्डित करने की नैतिक शक्ति निर्माण करना। यह बात भी श्रेष्ठ शासक निर्माण करने जितनी ही महत्त्वपूर्ण बात है।               ४.५ समाज पोषण के लिये प्रयत्नशील रहनेवाला जानकार, कौशल्यवान, सामर्थ्यवान वर्ग निर्माण करना।  
 
४.४ दण्डविधान के अनुसार शासन चलानेवाले शासकों का निर्माण करना। ऐसे शासक नहीं होने से धर्म का आधार नष्ट हो जाता है। इसलिये अपने लोकहित के लिये समर्पण भाव, त्याग, तपस्या के आधारपर शासक को धर्माचरण के लिये बाध्य और अधर्माचरण के लिये दण्डित करने की नैतिक शक्ति निर्माण करना। यह बात भी श्रेष्ठ शासक निर्माण करने जितनी ही महत्त्वपूर्ण बात है।               ४.५ समाज पोषण के लिये प्रयत्नशील रहनेवाला जानकार, कौशल्यवान, सामर्थ्यवान वर्ग निर्माण करना।  
५. व्यवस्था समूह का संभाव्य स्वरूप         ५.१ धर्मव्यवस्था : धर्मव्यवस्था भी एक मोटी मोटी व्यवस्था होती है। राष्ट्रीय धर्ममंडल, जनपदीय या/और तीर्थक्षेत्रीय धर्ममंडल, ग्राम/नगर/महानगर धर्ममंडल ऐसा इसका सामान्य स्वरूप होगा।      
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== व्यवस्था समूह का संभाव्य स्वरूप ==
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५.१ धर्मव्यवस्था : धर्मव्यवस्था भी एक मोटी मोटी व्यवस्था होती है। राष्ट्रीय धर्ममंडल, जनपदीय या/और तीर्थक्षेत्रीय धर्ममंडल, ग्राम/नगर/महानगर धर्ममंडल ऐसा इसका सामान्य स्वरूप होगा।      
 
५.२ शासन व्यवस्था      
 
५.२ शासन व्यवस्था      
 
५.३ समृद्धि व्यवस्था का ढाँचा : वैसे तो कठोरतासे बाँधी हुई कोई भी व्यवस्था किसी भी समाज के लिये अच्छी नहीं होती। इसलिये समृद्धि व्यवस्था का मोटा मोटा ढाँचा ही बताया जा सकता है। वह निम्न होगा।
 
५.३ समृद्धि व्यवस्था का ढाँचा : वैसे तो कठोरतासे बाँधी हुई कोई भी व्यवस्था किसी भी समाज के लिये अच्छी नहीं होती। इसलिये समृद्धि व्यवस्था का मोटा मोटा ढाँचा ही बताया जा सकता है। वह निम्न होगा।
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