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== प्रस्तावना ==
 
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राष्ट्रकी व्यवस्थाएँ
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व्यवस्थाओं की आवश्यकता
   
मनुष्य भी एक प्राणी है| उसके प्राणिक आवेगों के कारण उसे जीने के लिए कई बातों की अनिवार्य रूप में आवश्यकता होती है| जबतक जीवन चलता है आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक होती है| पशु, पक्षी, प्राणियों में बुद्धि का स्तर कम होता है| इस कारण उनके लिए आजीविका की प्राप्ति में अनिश्चितता रहती है| शेर जंगल का राजा होता है| लेकिन उसकी भी स्वाभाविक मृत्यू भुखमरी के कारण ही होती है| यौवनावस्था में अनिश्चितताएं कम होंगी लेकिन होती अवश्य हैं| बुरे समय, शैशव, बाल्य और बुढापे में यह अनिश्चितता बहुत अधिक होती है| इन अनिश्चितताओं से मुक्ति के लिए मनुष्य और मनुष्य समाज भिन्न भिन्न प्रकार की व्यवस्थाएं निर्माण करता है|  
 
मनुष्य भी एक प्राणी है| उसके प्राणिक आवेगों के कारण उसे जीने के लिए कई बातों की अनिवार्य रूप में आवश्यकता होती है| जबतक जीवन चलता है आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक होती है| पशु, पक्षी, प्राणियों में बुद्धि का स्तर कम होता है| इस कारण उनके लिए आजीविका की प्राप्ति में अनिश्चितता रहती है| शेर जंगल का राजा होता है| लेकिन उसकी भी स्वाभाविक मृत्यू भुखमरी के कारण ही होती है| यौवनावस्था में अनिश्चितताएं कम होंगी लेकिन होती अवश्य हैं| बुरे समय, शैशव, बाल्य और बुढापे में यह अनिश्चितता बहुत अधिक होती है| इन अनिश्चितताओं से मुक्ति के लिए मनुष्य और मनुष्य समाज भिन्न भिन्न प्रकार की व्यवस्थाएं निर्माण करता है|  
 
इसी तरह से उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की समाज के प्रत्येक घटक को समुचित उपलब्धता हो और साथ ही में प्रकृति का प्रदूषण न हो इस दृष्टी से भी व्यवस्थाओं की आवश्यकता होती है| मनुष्य में स्वार्थ भावना जन्म से ही होती है| मनुष्य को कर्म करने की स्वतन्त्रता भी होती है| इसलिए वह अन्यों का अहित नहीं करे इस के लिए भी कुछ व्यवस्था आवश्यक होती है|  
 
इसी तरह से उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की समाज के प्रत्येक घटक को समुचित उपलब्धता हो और साथ ही में प्रकृति का प्रदूषण न हो इस दृष्टी से भी व्यवस्थाओं की आवश्यकता होती है| मनुष्य में स्वार्थ भावना जन्म से ही होती है| मनुष्य को कर्म करने की स्वतन्त्रता भी होती है| इसलिए वह अन्यों का अहित नहीं करे इस के लिए भी कुछ व्यवस्था आवश्यक होती है|  
व्यवस्था धर्म  
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== व्यवस्था धर्म ==
 
जिस तरह हर अस्तित्व का एक धर्म होता है| इस धर्म के अनुपालन से वह अस्तित्व बना रहता है या सृष्टी में उसकी भूमिका को सहजता से निभा पाता है| धारयति इति धर्म: यह व्यवस्था के लिए भी लागू ऐसा सूत्र है| जिस के कारण व्यवस्था बनी रहती है, स्वस्थ रहती है, लचीली रहती है, तितिक्षावान रहती है उसे व्यवस्था धर्म कहते हैं| व्यवस्थाओं का निर्माण स्वतन्त्रता और सहानुभूति के सन्तुलन के लिए किया जाता है| और व्यापक स्तरपर कहें तो अभ्युदय और नि:श्रेयस दोनों की प्राप्ति का मार्ग व्यवस्था धर्म के अनुसार बनीं व्यवस्था है|  
 
जिस तरह हर अस्तित्व का एक धर्म होता है| इस धर्म के अनुपालन से वह अस्तित्व बना रहता है या सृष्टी में उसकी भूमिका को सहजता से निभा पाता है| धारयति इति धर्म: यह व्यवस्था के लिए भी लागू ऐसा सूत्र है| जिस के कारण व्यवस्था बनी रहती है, स्वस्थ रहती है, लचीली रहती है, तितिक्षावान रहती है उसे व्यवस्था धर्म कहते हैं| व्यवस्थाओं का निर्माण स्वतन्त्रता और सहानुभूति के सन्तुलन के लिए किया जाता है| और व्यापक स्तरपर कहें तो अभ्युदय और नि:श्रेयस दोनों की प्राप्ति का मार्ग व्यवस्था धर्म के अनुसार बनीं व्यवस्था है|  
 
स्वहित और सदाचार इन दोनों को साध्य करने के लिए व्यवस्था होती है| स्वहित के लिए स्वतन्त्रता और सदाचार ले लिए सहानुभूति आवश्यक होती है| इस तरह मनुष्य की स्वतन्त्रता और सहानुभूति दोनों का सन्तुलन बनाने के लिए व्यवस्थाएँ होती हैं| व्यवस्था धर्म के अनुसार व्यवस्थाएँ बनने से वे दीर्घकालतक और प्रभावी बनी रहतीं हैं| व्यवस्थाओं का प्रवर्तन चार तरीकों से किया जाता है| विनयाधान याने शिक्षा, आदेश, प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप तथा दंड व्यवस्था|
 
स्वहित और सदाचार इन दोनों को साध्य करने के लिए व्यवस्था होती है| स्वहित के लिए स्वतन्त्रता और सदाचार ले लिए सहानुभूति आवश्यक होती है| इस तरह मनुष्य की स्वतन्त्रता और सहानुभूति दोनों का सन्तुलन बनाने के लिए व्यवस्थाएँ होती हैं| व्यवस्था धर्म के अनुसार व्यवस्थाएँ बनने से वे दीर्घकालतक और प्रभावी बनी रहतीं हैं| व्यवस्थाओं का प्रवर्तन चार तरीकों से किया जाता है| विनयाधान याने शिक्षा, आदेश, प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप तथा दंड व्यवस्था|
 
व्यवस्था धर्म के नियमों के लक्षण निम्न हैं|
 
व्यवस्था धर्म के नियमों के लक्षण निम्न हैं|
 
- बुद्धिसंगत - सरल - अल्प संख्या - विद्वद्विलास रहित - वस्तुमूलक         - अपरिग्रही - विरलदंड - आप्तोप्त - समदर्शी  
 
- बुद्धिसंगत - सरल - अल्प संख्या - विद्वद्विलास रहित - वस्तुमूलक         - अपरिग्रही - विरलदंड - आप्तोप्त - समदर्शी  
व्यवस्था समूह  
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== व्यवस्था समूह ==
 
राष्ट्र अपने सुखी, समृद्ध और शांतिमय सहजीवन के लिए भिन्न भिन्न प्रकारकी व्यवस्थाएं निर्माण करता है| इन व्यवस्थाओं का उद्देश्य समाज के संगठन को बलवान बनाए रखते हुए समाज की रक्षण, पोषण और शिक्षण की आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है| सब से महत्त्वपूर्ण धर्म व्यवस्था होती है| शिक्षा व्यवस्था धर्म व्यवस्था की प्रतिनिधि होती है| शिक्षा के उपरांत भी जो समाज के घटक धर्माचरण नहीं सीखते उन्हें धर्म के नियंत्रण में रखने के लिए शासन व्यवस्था होती है| समाज के पोषण के लिए समृद्धि  व्यवस्था होती है|  
 
राष्ट्र अपने सुखी, समृद्ध और शांतिमय सहजीवन के लिए भिन्न भिन्न प्रकारकी व्यवस्थाएं निर्माण करता है| इन व्यवस्थाओं का उद्देश्य समाज के संगठन को बलवान बनाए रखते हुए समाज की रक्षण, पोषण और शिक्षण की आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है| सब से महत्त्वपूर्ण धर्म व्यवस्था होती है| शिक्षा व्यवस्था धर्म व्यवस्था की प्रतिनिधि होती है| शिक्षा के उपरांत भी जो समाज के घटक धर्माचरण नहीं सीखते उन्हें धर्म के नियंत्रण में रखने के लिए शासन व्यवस्था होती है| समाज के पोषण के लिए समृद्धि  व्यवस्था होती है|  
 
श्रेष्ठ समाज में व्यवस्थाएँ सामान्यत: कठोरतासे बाँधी नहीं जातीं। व्यवस्थाएँ समाज में व्याप्त भावनाओं और मान्यताओं के आधारपर स्वत: आकार लेतीं हैं। जैसे संयुक्त कुटुम्ब की व्यवस्था को स्थापित करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका संयुक्त कुटुम्ब की आवश्यकताओं, आनिवार्यताओं, तरीकों आदि को पूरे समाज में व्याप्त करने से है। ऐसी भावनाओं और मान्यताओं को व्यापक करना धर्म के जानकारों का, शिक्षकों का काम होता है। शिक्षा का काम होता है। इसमें आनेवाले अवरोधों को दूर करने का काम शासन व्यवस्था का होता है।
 
श्रेष्ठ समाज में व्यवस्थाएँ सामान्यत: कठोरतासे बाँधी नहीं जातीं। व्यवस्थाएँ समाज में व्याप्त भावनाओं और मान्यताओं के आधारपर स्वत: आकार लेतीं हैं। जैसे संयुक्त कुटुम्ब की व्यवस्था को स्थापित करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका संयुक्त कुटुम्ब की आवश्यकताओं, आनिवार्यताओं, तरीकों आदि को पूरे समाज में व्याप्त करने से है। ऐसी भावनाओं और मान्यताओं को व्यापक करना धर्म के जानकारों का, शिक्षकों का काम होता है। शिक्षा का काम होता है। इसमें आनेवाले अवरोधों को दूर करने का काम शासन व्यवस्था का होता है।
 
   समाज का व्यवस्था समूह समाज के मूलगामी संगठन के साथ समायोजित होकर ही बनता है। इस दृष्टिसे सामाजिक प्रणालियाँ और व्यवस्था समूह का मिलाकर ढाँचा कैसा हो सकता है यह हम आगे देखेंगे|
 
   समाज का व्यवस्था समूह समाज के मूलगामी संगठन के साथ समायोजित होकर ही बनता है। इस दृष्टिसे सामाजिक प्रणालियाँ और व्यवस्था समूह का मिलाकर ढाँचा कैसा हो सकता है यह हम आगे देखेंगे|
१. शिक्षा व्यवस्था
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=== शिक्षा व्यवस्था ===
 
शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरणी बनाने का होता है। धर्माचरण सिखाने का अर्थ है पुरूषार्थ चतुष्टय की शिक्षा से। पुरूषार्थ चार होते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। त्रिवर्ग यह पुरूषार्थ चतुष्टय का ही हिस्सा है। इसमें मोक्ष की शिक्षा का समावेश अलगसे नहीं होता। त्रिवर्ग का पालन करने से मनुष्य सहज ही मोक्षगामी बन जाता है। त्रिवर्ग या चार पुरूषार्थों की शिक्षा में विशेषता यह है कि त्रिवर्ग के काम, अर्थ और धर्म तीनों ही समूचे मानव जीवन को व्यापते हैं। इनमें जीवन से जुडा कोई भी विषय अविषय नहीं रह जाता। यह एक ढँग से देखें तो श्रेष्ठ जीने की ही शिक्षा है।
 
शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरणी बनाने का होता है। धर्माचरण सिखाने का अर्थ है पुरूषार्थ चतुष्टय की शिक्षा से। पुरूषार्थ चार होते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। त्रिवर्ग यह पुरूषार्थ चतुष्टय का ही हिस्सा है। इसमें मोक्ष की शिक्षा का समावेश अलगसे नहीं होता। त्रिवर्ग का पालन करने से मनुष्य सहज ही मोक्षगामी बन जाता है। त्रिवर्ग या चार पुरूषार्थों की शिक्षा में विशेषता यह है कि त्रिवर्ग के काम, अर्थ और धर्म तीनों ही समूचे मानव जीवन को व्यापते हैं। इनमें जीवन से जुडा कोई भी विषय अविषय नहीं रह जाता। यह एक ढँग से देखें तो श्रेष्ठ जीने की ही शिक्षा है।
 
शिक्षा वास्तव में पूरे जीवन के प्रतिमान की शिक्षा ही होती है। जीवनदृष्टि, जीवनशैली, समाज का संगठन और समाज की व्यवस्थाओं का सब का मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है।
 
शिक्षा वास्तव में पूरे जीवन के प्रतिमान की शिक्षा ही होती है। जीवनदृष्टि, जीवनशैली, समाज का संगठन और समाज की व्यवस्थाओं का सब का मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है।
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- गुरुदक्षिणा - सामाजिक दान - भिक्षा - अपने उत्पादन - पूर्व विद्यार्थी योगदान
 
- गुरुदक्षिणा - सामाजिक दान - भिक्षा - अपने उत्पादन - पूर्व विद्यार्थी योगदान
 
दान और भीख में अन्तर होता है। दान स्वत: होकर दिया जाता है। भीख माँगी जाती है। वैसे तो भिक्षा भी माँगी ही जाती है। लेकिन भिक्षा माँगनेवाला और देनेवाला दोनों श्रेष्ठ काम कर रहे हैं ऐसा होने से उसमें गौरव अनुभव करते हैं। जब कि भीख में भीख देनेवाला दया या गौरव अनुभव करता है, और मांगनेवाला लाचारीका| देने की संस्कृति होने से भारत में सामान्यत: भीख माँगने की प्रथा नहीं थी। भोजन के समय आया हुआ अतिथी भोजन का आदरपात्र अधिकारी माना जाता था।       
 
दान और भीख में अन्तर होता है। दान स्वत: होकर दिया जाता है। भीख माँगी जाती है। वैसे तो भिक्षा भी माँगी ही जाती है। लेकिन भिक्षा माँगनेवाला और देनेवाला दोनों श्रेष्ठ काम कर रहे हैं ऐसा होने से उसमें गौरव अनुभव करते हैं। जब कि भीख में भीख देनेवाला दया या गौरव अनुभव करता है, और मांगनेवाला लाचारीका| देने की संस्कृति होने से भारत में सामान्यत: भीख माँगने की प्रथा नहीं थी। भोजन के समय आया हुआ अतिथी भोजन का आदरपात्र अधिकारी माना जाता था।       
२. शासन व्यवस्था  
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पूर्व में हमने देखा कि समाज में व्याप्त अनियंत्रित काम और मोह के नियंत्रण के लिये श्रेष्ठ शिक्षा और श्रेष्ठ शासन की आवश्यकता होती है। जब समाज में लोभ और मोह अनियंत्रित हो जाता है तब जो दुष्ट हैं और बलवान भी हैं ऐसे लोग सज्जनों का जीना हराम कर देते हैं। दुष्टों को दुर्बल शासन से लाभान्वित होते देखकर बलवान लेकिन जो दुर्बलात्मा हैं ऐसे सज्जन भी बिगडने लगते हैं। इससे शासन का काम और भी कठिन हो जाता है। शासन का काम दुर्बलोंकी दुष्ट बलवानों से रक्षा करनेका होता है। एक ओर शिक्षा का काम समाज के प्रत्येक घटक को कर्तव्यपथपर आगे बढाने का होता है। तब दूसरी ओर शासन का काम प्रजा के अधिकारों के रक्षण का होता है। इससे समाज में कर्तव्यों और अधिकारों का सन्तुलन बना रहता है।
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=== शासन व्यवस्था ===
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पूर्व में हमने देखा कि समाज में व्याप्त अनियंत्रित काम और मोह के नियंत्रण के लिये श्रेष्ठ शिक्षा और श्रेष्ठ शासन की आवश्यकता होती है। जब समाज में लोभ और मोह अनियंत्रित हो जाता है तब जो दुष्ट हैं और बलवान भी हैं ऐसे लोग सज्जनों का जीना हराम कर देते हैं। दुष्टों को दुर्बल शासन से लाभान्वित होते देखकर बलवान लेकिन जो दुर्बलात्मा हैं ऐसे सज्जन भी बिगडने लगते हैं। इससे शासन का काम और भी कठिन हो जाता है। शासन का काम दुर्बलोंकी दुष्ट बलवानों से रक्षा करनेका होता है। एक ओर शिक्षा का काम समाज के प्रत्येक घटक को कर्तव्यपथपर आगे बढाने का होता है। तब दूसरी ओर शासन का काम प्रजा के अधिकारों के रक्षण का होता है। इससे समाज में कर्तव्यों और अधिकारों का सन्तुलन बना रहता है।
 
जब प्रजापर अन्याय होता है तब उसका कारण शासनकी अक्षमता होता है। जब शासन दुर्बल होता है तब न्याय माँगना पडता है। जब न्याय के लिये लडना पडता है शासन संवेदनाहीन होता है। और जब लडकर भी न्याय नहीं मिलता तब शासन होता ही नहीं है। अन्याय होने से पूर्व ही उसे रोकना यह प्रभावी शासन का लक्षण है। शासन के लिये लोगों में व्याप्त लोभ और मोह के नियंत्रण की भौगोलिक सीमा नहीं होती। शासित प्रदेश से बाहर रहनेवाले लोगों के भी लोभ और मोह के नियंत्रण की जिम्मेदारी शासन की ही होती है। इसे ही बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि अंतर्बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन की होती है।   
 
जब प्रजापर अन्याय होता है तब उसका कारण शासनकी अक्षमता होता है। जब शासन दुर्बल होता है तब न्याय माँगना पडता है। जब न्याय के लिये लडना पडता है शासन संवेदनाहीन होता है। और जब लडकर भी न्याय नहीं मिलता तब शासन होता ही नहीं है। अन्याय होने से पूर्व ही उसे रोकना यह प्रभावी शासन का लक्षण है। शासन के लिये लोगों में व्याप्त लोभ और मोह के नियंत्रण की भौगोलिक सीमा नहीं होती। शासित प्रदेश से बाहर रहनेवाले लोगों के भी लोभ और मोह के नियंत्रण की जिम्मेदारी शासन की ही होती है। इसे ही बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि अंतर्बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन की होती है।   
 
शासन का या न्यायदान का केन्द्र जितना दूर उतनी अन्याय की संभावनाएँ बढतीं हैं। इसलिये शासन विकेन्द्रित होना आवश्यक है। कुटुम्ब पंचायत, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, जनपद पंचायत आदि स्तरपर भी न्याय और शासन की व्यवस्था होने से अन्याय की संभावनाएँ न्यूनतम हो जातीं हैं।
 
शासन का या न्यायदान का केन्द्र जितना दूर उतनी अन्याय की संभावनाएँ बढतीं हैं। इसलिये शासन विकेन्द्रित होना आवश्यक है। कुटुम्ब पंचायत, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, जनपद पंचायत आदि स्तरपर भी न्याय और शासन की व्यवस्था होने से अन्याय की संभावनाएँ न्यूनतम हो जातीं हैं।
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