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== वर्णसंकर से जातियों की उत्पत्ति ==
 
== वर्णसंकर से जातियों की उत्पत्ति ==
वर्णों का संबंध मनुष्य के स्वाभाविक गुण और लक्षणों से होता है। इन गुण लक्षणों के अनुसार ही वह कर्म करता है, उस की कर्म करने की क्षमता और कुशलता विकसित होती है। यह क्षमता और कुशलता ही वास्तव में मनुष्य के, केवल अर्थार्जन ही नहीं व्यवसाय और काम का स्वरूप क्या होना चाहिये यह तय करती है।
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वर्णों का संबंध मनुष्य के स्वाभाविक गुण और लक्षणों से होता है। इन गुण लक्षणों के अनुसार ही वह कर्म करता है, उस की कर्म करने की क्षमता और कुशलता विकसित होती है। यह क्षमता और कुशलता ही वास्तव में मनुष्य के, केवल अर्थार्जन ही नहीं व्यवसाय और काम का स्वरूप क्या होना चाहिये यह तय करती है।  
जब जनसंख्या बढने लगी गुरूकुलों में प्रवेश लेनेवालों की संख्या का दबाव बढा, गुरूकुल चलाने वालों में भी कुछ शिथिलता आ गई तब गुरूकुलों में वर्ण को तय करने की प्रथा क्षीण हुयी और जिस कुल में बच्चे ने जन्म लिया है उस की आनुवांशिकता के आधारपर वर्ण तय होने लगे। वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से निकट का संबंध रखती है। वर्तमान गुणसूत्रों (डीएन्ए) के अध्ययन से भी इस बात की पुष्टी होती है। इस लियेआनुवांशिकता से जाति का तय होना तो शास्त्रीय ही है।  
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अब तक तो विवाह केवल सवर्णों में ही हों यही सभी की मान्यता थी। लेकिन आंतरवर्णीय विवाहों के कारण वृत्तियों के संस्कारों के स्तर में कमीं आयी । काम और मोह का प्रभाव बढा। आगे पुरूष के वर्ण से कम स्तर के वर्ण की स्त्री से विवाह को भी मान्यता दी गयी। जैसे ब्राह्मण पुरूष का क्षत्रिय या वैष्य स्त्री से विवाह। क्षत्रिय पुरूष का वैष्य स्त्री से विवाह। इसे अनुलोम विवाह कहते है । ऐसे विवाह से पैदा हुई संतति को पिता के वर्ण का ही माना जाता था। किन्तु इससे उलट विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे प्रतिलोम विवाह कहतेहै । ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से प्राप्त संतति को संकरित माना जाता था। ऐसे संकरों की संख्या बढनेपर नयी जाति का निर्माण होता था। ऐसे विवाहों को हेय माना जाता था। लेकिन मनुष्य के स्वभाव में जो काम और मोह है, उन के कारण विवाह के समय एक वर्ण का पुरूष दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह के लिये उद्यत हो जाता था। ऐसा विवाह वह बडी संख्या में करने लगा। तब वर्णों में बडी संख्या में संकर होने लगा। इस लिये वर्णों में से जातियाँ निर्माण होने लगीं।
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जब जनसंख्या बढने लगी गुरूकुलों में प्रवेश लेनेवालों की संख्या का दबाव बढा, गुरूकुल चलाने वालों में भी कुछ शिथिलता आ गई तब गुरूकुलों में वर्ण को तय करने की प्रथा क्षीण हुयी और जिस कुल में बच्चे ने जन्म लिया है उस की आनुवांशिकता के आधारपर वर्ण तय होने लगे। वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से निकट का संबंध रखती है। वर्तमान गुणसूत्रों (डीएन्ए) के अध्ययन से भी इस बात की पुष्टि होती है। इसलिये आनुवांशिकता से जाति का तय होना तो शास्त्रीय ही है।
यह ध्यान में रखकर और वृत्तियों और व्यावसायिक कुशलताओं में वृध्दि हो या विरलीकरण या मिलावट न हो इस लिये वर्ण के बाहर विवाह वर्जित माने जाते थे। ब्राह्मण वर्ण के युवक के साथ अन्य वर्ण की कन्या के विवाह ( अनुलोम विवाह ) से पैदा होनेवाली संतति में अपने पिता से कम ब्राह्मणत्व रहता है। कितु ब्राह्मण वर्ण की कन्या जब उससे कनिष्ठ वर्ण के युवक से विवाह करती है ( प्रतिलोम विवाह ) तब उन से पैदा होनेवाली संतति में ब्राह्मणत्व के गुण कम और अन्य वर्ण के गुण अधिक पाए जाते है। इसलिये अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह की संकल्पनाएं आगे आयी। अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह दोनों ही शास्त्र विरूध्द ही है। आग्रह तो सवर्ण वर या वधू के साथ विवाह का ही रहा किंतु मजबूरी में अनुलोम विवाह को स्वीकृति दी गई। फिर भी शास्त्र विरूध्द व्यवहार करने वाले लोगों के कारण प्रतिलोम विवाह भी होते ही रहे। ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से निर्माण हुई संतति को विशिष्ट जाति का नाम दिया गया। उस जाति का जातिधर्म भी तय किया गया। वर्ण तो युवक के जन्मगत स्वभाव के अनुसार ही होता है लेकिन जाति उस के माता पिता की कुशलताओं के योग से मिलती है। इस लिये विवाह अपनी जाति में होने सेव्यावसायिक कुशलताओं में वृध्दि होती है । और सवर्ण विवाह होने से वर्णगत आचार और संस्कारों की शुध्दि तथा वृध्दि होती है । इस लियेअपनी जाति में किया सवर्ण विवाह सर्वश्रेष्ठ होता है
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ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्टो नाम उच्यते ।
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अब तक तो विवाह केवल सवर्णों में ही हों यही सभी की मान्यता थी। लेकिन आंतरवर्णीय विवाहों के कारण वृत्तियों के संस्कारों के स्तर में कमी आयी । काम और मोह का प्रभाव बढा। आगे पुरूष के वर्ण से कम स्तर के वर्ण की स्त्री से विवाह को भी मान्यता दी गयी। जैसे ब्राह्मण पुरूष का क्षत्रिय या वैष्य स्त्री से विवाह। क्षत्रिय पुरूष का वैष्य स्त्री से विवाह। इसे अनुलोम विवाह कहते है । ऐसे विवाह से पैदा हुई संतति को पिता के वर्ण का ही माना जाता था। किन्तु इससे उलट विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे प्रतिलोम विवाह कहतेहै । ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से प्राप्त संतति को संकरित माना जाता था। ऐसे संकरों की संख्या बढने पर नयी जाति का निर्माण होता था। ऐसे विवाहों को हेय माना जाता था। लेकिन मनुष्य के स्वभाव में जो काम और मोह है, उन के कारण विवाह के समय एक वर्ण का पुरूष दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह के लिये उद्यत हो जाता था। ऐसा विवाह वह बडी संख्या में करने लगा। तब वर्णों में बडी संख्या में संकर होने लगा। इस लिये वर्णों में से जातियाँ निर्माण होने लगीं।  
निषाद: शूद्रकन्यायां य: पारशव उच्यते ॥ ( मनुस्मृति १०-८)
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ब्राह्मण पुरूष से वैष्य कन्या के संकर से जो जन्म लेता है उसे अंबष्ट जाति का और शूद्र कन्या को होनेवाली संतति को निषाद जाति का माना गया।  
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यह ध्यान में रखकर और वृत्तियों और व्यावसायिक कुशलताओं में वृध्दि हो या विरलीकरण या मिलावट न हो इस लिये वर्ण के बाहर विवाह वर्जित माने जाते थे। ब्राह्मण वर्ण के युवक के साथ अन्य वर्ण की कन्या के विवाह ( अनुलोम विवाह ) से पैदा होनेवाली संतति में अपने पिता से कम ब्राह्मणत्व रहता है। कितु ब्राह्मण वर्ण की कन्या जब उससे कनिष्ठ वर्ण के युवक से विवाह करती है ( प्रतिलोम विवाह ) तब उन से पैदा होनेवाली संतति में ब्राह्मणत्व के गुण कम और अन्य वर्ण के गुण अधिक पाए जाते है। इसलिये अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह की संकल्पनाएं आगे आयी। अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह दोनों ही शास्त्र विरूध्द ही है। आग्रह तो सवर्ण वर या वधू के साथ विवाह का ही रहा किंतु मजबूरी में अनुलोम विवाह को स्वीकृति दी गई। फिर भी शास्त्र विरूध्द व्यवहार करने वाले लोगों के कारण प्रतिलोम विवाह भी होते ही रहे। ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से निर्माण हुई संतति को विशिष्ट जाति का नाम दिया गया। उस जाति का जातिधर्म भी तय किया गया। वर्ण तो युवक के जन्मगत स्वभाव के अनुसार ही होता है लेकिन जाति उस के माता पिता की कुशलताओं के योग से मिलती है। इस लिये विवाह अपनी जाति में होने से व्यावसायिक कुशलताओं में वृध्दि होती है । और सवर्ण विवाह होने से वर्णगत आचार और संस्कारों की शुध्दि तथा वृध्दि होती है । इस लिये अपनी जाति में किया सवर्ण विवाह सर्वश्रेष्ठ होता है। कहा है<ref>मनुस्मृति 10-8 </ref>:  <blockquote>ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्टो नाम उच्यते ।</blockquote><blockquote>निषाद: शूद्रकन्यायां य: पारशव उच्यते ॥ 10-8 ॥</blockquote><blockquote>अर्थ: ब्राह्मण पुरूष से वैष्य कन्या के संकर से जो जन्म लेता है उसे अंबष्ट जाति का और शूद्र कन्या को होने वाली संतति को निषाद जाति का माना गया।</blockquote>इसी प्रकार मनुस्मृति में (अध्याय १० - ८ से १४) मनुस्मृति में लगभग १६-१७ जातियों के नाम दिये है। १५ से आगे ४१ तक के श्लोकों में संकरित जातियों में अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के कारण पैदा हुई दर्जनों नयी जातियों के नाम दिये है। किंतु हर पीढी में बढते संकर और प्रतिसंकरों के कारण जातियों की संख्या बढ गई और नाम, कर्म और जातिधर्म का निर्धारण करनेवाली व्यवस्था प्रभावहीन हो गयी होगी।  
इसी प्रकार मनुस्मृति में (अध्याय १० - ८ से १४) मनुस्मृति में लगभग १६-१७ जातियों के नाम दिये है। १५ से आगे ४१ तक के श्लोकों में संकरित जातियों में अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के कारण पैदा हुई दर्जनों नयी जातियों के नाम दिये है।  
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किंतु हर पीढी में बढते संकर और प्रतिसंकरों के कारण जातियों की संख्या बढ गई और नाम, कर्म और जातिधर्म का निर्धारण करनेवाली व्यवस्था प्रभावहीन हो गयी होगी।  
      
== जाति परिवर्तन ==
 
== जाति परिवर्तन ==
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== वर्णाश्रम और जाति का तानाबाना ==
 
== वर्णाश्रम और जाति का तानाबाना ==
कुछ लोग यह मानते है कि प्रारंभ में तो केवल एक ही वर्ण था। फिर दो हुए, फिर तीन और अंत में चार वर्ण बने । इन वर्णों में संकर यानी अनुलोम और प्रतिलोम विवाह होने के कारण वर्णसंकर निर्माण हुए। इन वर्नासंकारों को समाज में समाविष्ट करने के लिए जातियां निर्माण कीं गयी। जातियों में भी कुशलताओं, कुशलता के स्तरों और उत्पादनों की विविधता के अनुसार उपजातियां बनीं।
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कुछ लोग यह मानते है कि प्रारंभ में तो केवल एक ही वर्ण था। फिर दो हुए, फिर तीन और अंत में चार वर्ण बने । इन वर्णों में संकर यानी अनुलोम और प्रतिलोम विवाह होने के कारण वर्णसंकर निर्माण हुए। इन वर्णसंकरों को समाज में समाविष्ट करने के लिए जातियां निर्माण कीं गयी। जातियों में भी कुशलताओं, कुशलता के स्तरों और उत्पादनों की विविधता के अनुसार उपजातियां बनीं।
इस का अर्थ है कि समाज में ऐसी व्यवस्था थी जो नयी जातियों को मान्यता देती थी। यह व्यवस्था नयी जाति किन विशिष्ट गुण और लक्षणों के (और व्यावसायिक कौशलों के) संकर से निर्माण हुई है, यह देखकर उस जाति के नाम, जातिधर्म और व्यावसायिक काप्रशल को मान्यता देती होगी।
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समाज की व्यावसायिक कुशलताओं की आवश्यकताओं की भिन्नता कम होने के कारण किसी समय केवल चार वर्णों में ही उन की पूर्ति के लिये सभी व्यवसायों को बाँटना सरल था। कालांतर से समाज की आवश्यकताओं की भिन्नता में वृध्दि हुई। जातियों की संख्या बहुत बढ गई। बाँटने के लिये व्यवसाय के क्षेत्र कम पडने लगे। जब किसी संकर से निर्मित गुट के लिये कोई व्यवसाय निश्चित किया जाता होगा तब पहले से ही वह व्यवसाय करनेवालों पर अन्याय होता होगा । वह लोग इस को स्वीकार नही करते होंगे । दूसरी ओर उस व्यवसाय में स्पर्धा बढ जाती होगी । समाज के एक हिस्से में व्याप्त अव्यवस्था का परिणाम पुरे समाजपर होता होगा । इन समस्याओं के कारण धीरे धीरे जाति निर्धारण करने वाली व्यवस्था कुछ काल तक प्रभावहीन और बाद में नष्ट हो गई होगी।  ऐसा कोई वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य में नही मिलता। लेकिन के वल इसलिये ऐसी व्यवस्था के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी बात यानी आये दिन बडे पैमानेपर होनेवाले ऐसे वर्णसंकरों के लिये समाज की व्यवस्था में बारबार परिवर्तन करते रहना व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव हो गया होगा ।
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इस का अर्थ है कि समाज में ऐसी व्यवस्था थी जो नयी जातियों को मान्यता देती थी। यह व्यवस्था नयी जाति, किन विशिष्ट गुण और लक्षणों के (और व्यावसायिक कौशलों के) संकर से निर्माण हुई है, यह देखकर उस जाति के नाम, जातिधर्म और व्यावसायिक कौशल को मान्यता देती होगी।
हिन्दू समाज में आश्रम व्यवस्था भी प्रस्थापित थी । इस में केवल गृहस्थाश्रमी ( गृहिणियाँ नहीं ) अर्थार्जन का काम करते थे। खेती जैसे व्यवसायों में घर की महिलायें भी व्यवसाय में हाथ बंटाती थी । किंतु अर्थार्जन गृहस्थ करे और गृहिणि अर्थ का विनियोग करे, यही घरों की व्यवस्था थी। समाज में गृहस्थ पुरूषों की संख्या १२.५ प्रतिशत ही होती है। अर्थात् केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे। प्रत्यक्ष व्यवसाय करते थे। और फिर भी हम अत्यंत समृध्द देश  थे। केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे तो अन्य लोग क्या करते थे ? काम तो प्रत्येक व्यक्ति करता था। किंतु अर्थार्जन के लिये नहीं। हर जाति का ब्रह्मचारी वर्ग, जिसने अभी गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया है, अपने व्यक्तिगत उन्नयन के साथ ही समाज के हित में सार्थक योगदान देने की दृष्टि से ज्ञानार्जन, विद्यार्जन और काप्रशलार्जन में लगा रहता था। सभी वर्णों के लोग, और सभी ब्राह्मण भी संन्यासी नहीं बनते थे। किंतु अब मैंने अपने लिये नहीं समाज के लिये जीना है ऐसा मानने वाले वानप्रस्थी तो सभी वर्णों के और जातियों के लोग हुआ करते थे। ऐसे वानप्रस्थी और संन्यासी सभी अर्थार्जन की अपेक्षा के बगप्रर समाज के लिये काम करते थे। ब्राह्मण छोडकर अन्य वर्णों के वानप्रस्थी लोग क्या करते होंगे? सदाचार की शिक्षा देना, सामाजिक दृष्टि से जिन वर्णों के लोगों का अनुकरण करना चाहिये ऐसे लोगो का स्वत: अनुकरण करना और अन्यों को अनुकरण करने की प्रेरणा देना, ब्रह्मचर्य काल में हस्तगत किये और गृहस्थ जीवन में विकसित किये गये ज्ञान, विद्या और काप्रशलों को नयी पीढी को हस्तांतरित करना, भगवद्भक्ति में समय बिताना आदि काम ही तो करते होंगे। यह था वर्ण और आश्रम व्यवस्था का स्वरूप।   
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समाज की व्यावसायिक कुशलताओं की आवश्यकताओं की भिन्नता कम होने के कारण किसी समय केवल चार वर्णों में ही उन की पूर्ति के लिये सभी व्यवसायों को बाँटना सरल था। कालांतर से समाज की आवश्यकताओं की भिन्नता में वृध्दि हुई। जातियों की संख्या बहुत बढ गई। बाँटने के लिये व्यवसाय के क्षेत्र कम पडने लगे। जब किसी संकर से निर्मित गुट के लिये कोई व्यवसाय निश्चित किया जाता होगा तब पहले से ही वह व्यवसाय करनेवालों पर अन्याय होता होगा । वह लोग इस को स्वीकार नही करते होंगे । दूसरी ओर उस व्यवसाय में स्पर्धा बढ जाती होगी । समाज के एक हिस्से में व्याप्त अव्यवस्था का परिणाम पुरे समाजपर होता होगा । इन समस्याओं के कारण धीरे धीरे जाति निर्धारण करने वाली व्यवस्था कुछ काल तक प्रभावहीन और बाद में नष्ट हो गई होगी।  ऐसा कोई वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य में नही मिलता। लेकिन के वल इसलिये ऐसी व्यवस्था के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी बात यानी आये दिन बडे पैमानेपर होनेवाले ऐसे वर्णसंकरों के लिये समाज की व्यवस्था में बारबार परिवर्तन करते रहना व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव हो गया होगा ।  
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हिन्दू समाज में आश्रम व्यवस्था भी प्रस्थापित थी । इस में केवल गृहस्थाश्रमी ( गृहिणियाँ नहीं ) अर्थार्जन का काम करते थे। खेती जैसे व्यवसायों में घर की महिलायें भी व्यवसाय में हाथ बंटाती थी । किंतु अर्थार्जन गृहस्थ करे और गृहिणि अर्थ का विनियोग करे, यही घरों की व्यवस्था थी। समाज में गृहस्थ पुरूषों की संख्या १२.५ प्रतिशत ही होती है। अर्थात् केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे। प्रत्यक्ष व्यवसाय करते थे। और फिर भी हम अत्यंत समृध्द देश  थे। केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे तो अन्य लोग क्या करते थे ? काम तो प्रत्येक व्यक्ति करता था। किंतु अर्थार्जन के लिये नहीं। हर जाति का ब्रह्मचारी वर्ग, जिसने अभी गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया है, अपने व्यक्तिगत उन्नयन के साथ ही समाज के हित में सार्थक योगदान देने की दृष्टि से ज्ञानार्जन, विद्यार्जन और काप्रशलार्जन में लगा रहता था। सभी वर्णों के लोग, और सभी ब्राह्मण भी संन्यासी नहीं बनते थे। किंतु अब मैंने अपने लिये नहीं समाज के लिये जीना है ऐसा मानने वाले वानप्रस्थी तो सभी वर्णों के और जातियों के लोग हुआ करते थे। ऐसे वानप्रस्थी और संन्यासी सभी अर्थार्जन की अपेक्षा के बगैर समाज के लिये काम करते थे। ब्राह्मण छोडकर अन्य वर्णों के वानप्रस्थी लोग क्या करते होंगे? सदाचार की शिक्षा देना, सामाजिक दृष्टि से जिन वर्णों के लोगों का अनुकरण करना चाहिये ऐसे लोगो का स्वत: अनुकरण करना और अन्यों को अनुकरण करने की प्रेरणा देना, ब्रह्मचर्य काल में हस्तगत किये और गृहस्थ जीवन में विकसित किये गये ज्ञान, विद्या और काप्रशलों को नयी पीढी को हस्तांतरित करना, भगवद्भक्ति में समय बिताना आदि काम ही तो करते होंगे। यह था वर्ण और आश्रम व्यवस्था का स्वरूप।   
    
== हर जाति में चार वर्ण ==
 
== हर जाति में चार वर्ण ==
महाराष्ट्र में संतों की एक दीर्घ परंपरा है । हर जाति में बडे संत हुए है । जेसे गोरोबा कुम्हार थे । चोखोबा महार थे । नामदेव दर्जी थे । नरहरी सुनार थे । कान्होपात्रा वेश्या थीं । ज्ञानेश्वर, रामदास, एकनाथ ब्राह्मण थे । किन्तु इन संतों की एक विशेषता यह रही है की इन सभी ने एक ही वेदांत के तत्वज्ञान की प्रस्तुति की है । यह कैसे हुआ ? ये तो किसी गुरूकुल में नही जाते थे । फिर इन तक वेदांत की ज्ञानधारा कैसे पहुंची ? थोडा जातियों का अध्ययन करने से हमें ध्यान में आता है की हर जाति में जाति पुराण कहनेवाला एक वर्ग होता है । यह वर्ग उस जाति में सब से अधिक सम्मानित माना जाता है । यह वर्ग अर्थार्जन नही करता । यह उस जाति में नि:स्वार्थ भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान का ( ब्राह्मण का ) काम ही करता है। यह उस जाति के ब्राह्मण वर्ण के लोग ही होते है। ब्राह्मणजाति में भी जिनका ज्ञानार्जन और ज्ञानदान से दूर दूर तक कोई संबंध नही है ऐसे भोजन पकानेवाले महाराज होते है। यह ब्राह्मण जाति के शूद्र वर्ण के लोग होते है ।
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महाराष्ट्र में संतों की एक दीर्घ परंपरा है। हर जाति में बडे संत हुए है। जेसे गोरोबा कुम्हार थे। चोखोबा महार थे। नामदेव दर्जी थे। नरहरी सुनार थे। कान्होपात्रा वेश्या थीं। ज्ञानेश्वर, रामदास, एकनाथ ब्राह्मण थे । किन्तु इन संतों की एक विशेषता यह रही है कि इन सभी ने एक ही वेदांत के तत्वज्ञान की प्रस्तुति की है। यह कैसे हुआ? ये तो किसी गुरूकुल में नही जाते थे । फिर इन तक वेदांत की ज्ञानधारा कैसे पहुंची ? थोडा जातियों का अध्ययन करने से हमें ध्यान में आता है की हर जाति में जाति पुराण कहनेवाला एक वर्ग होता है । यह वर्ग उस जाति में सब से अधिक सम्मानित माना जाता है । यह वर्ग अर्थार्जन नही करता । यह उस जाति में नि:स्वार्थ भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान का ( ब्राह्मण का ) काम ही करता है। यह उस जाति के ब्राह्मण वर्ण के लोग ही होते है। ब्राह्मणजाति में भी जिनका ज्ञानार्जन और ज्ञानदान से दूर दूर तक कोई संबंध नही है ऐसे भोजन पकानेवाले महाराज होते है। यह ब्राह्मण जाति के शूद्र वर्ण के लोग होते है। 
महाभारत के युध्द के बाद निर्माण हुई सामाजिक अव्यवस्था को दूर करने के लिये जो विद्वत परिषद नप्रमिषारण्य में हुयी थी उस का नेतृत्व सूत मुनी ने किया था । वे सूत जाति के ज्ञानवान ( ब्राह्मणों के गुण और लक्षणों वाले ) मनुष्य थे । इस से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है की हर जाति में चार वर्ण होते है ।  
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‘भारतीय समाजशास्त्र’ इस पुस्तक में (वरदा प्रकाशन, सेनापति बापट मार्ग, पुणे 16) पृष्ठ 142 पर लेखक डॉ श्रीधर व्यंकटेश केतकर लिखते हैं - ब्राह्मणांचा सर्वत्र प्रचार होण्यापूर्वी समाजाला असे स्वरूप होते कि प्रत्येक जातीत चातुरर््वण्य होते म्हणजे शेतकरी, पुजारी, व्यापारी, आणि सेवक वर्ग होते'। अर्थात् ब्राह्मणों का सर्वत्र प्रचार होने से पूर्व प्रत्येक जाती में किसान, पुजारी, व्यापारी और सेवक ऐसे चार वर्ण थे।
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महाभारत के युध्द के बाद निर्माण हुई सामाजिक अव्यवस्था को दूर करने के लिये जो विद्वत परिषद नैमिषारण्य में हुयी थी उस का नेतृत्व सूत मुनि ने किया था। वे सूत जाति के ज्ञानवान ( ब्राह्मणों के गुण और लक्षणों वाले ) मनुष्य थे । इस से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है की हर जाति में चार वर्ण होते है।  
ऐसा कहते हैं कि १९११ की जन-गणना तक भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह जातियाँ ही नहीं थीं। जातियाँ तो थीं। लेकिन उन्हे वर्ण से जोडा हुआ नहीं था। हर जाति में चारों वर्णों के बच्चे पैदा होते थे और अपने जन्मगत स्वभाव (वर्ण) के अनुसार अपने परिवार के काम में सहायक बनते थे। इस जन-गणना में अंग्रेजों ने जतियों को वर्णों में बाँटा। कई जातियों ने उन का वर्गीकरण किस वर्ण में करना चाहिये इस के लिये जन-गणना अधिकारियों और अंग्रेज सरकार के साथ चर्चाएँ कीं तथा छुटपुट आंदोलन भी चलाये थे। तब से पूरी जाति ही किसी वर्ण की कहलाई जाने लग गयी थी। यह तो भारतीय वर्ण की मान्यता से पूर्णत: भिन्न व्यवस्था थी। अ-प्राकृतिक थी। अस्वीकार्य थी। किंतु इस विषय को संवेदनशील बना देने के कारण इस विषय पर कोई बहस होती है तो जाति व्यवस्था को गालियाँ देने के लिये ही होती है। जाति व्यवस्था के तत्त्व को या मर्म को समझने के लिये नहीं होती। इस कारण से जातियों का चार वर्णों में बँट जाना यह बात पिछली ५ पीढियों में सर्वमान्य बन गयी है। वास्तव में तो वर्ण की वास्तविक कल्पना के अनुसार शूद्र जाति होती ही नहीं है। पशू हत्या से जुडे कर्मों के कारण या अन्य कुछ कारणों से हो, कुछ जातियाँ अछूत कहलाईं। कितु वे शूद्र जातियाँ नहीं थीं। हर जाति में सेवक का काम करने वाले लोग शूद्र वर्ण के ही माने जाते थे। इन शूद्रों में कुछ तो जन्म से ही शूद्र के गुण-कर्म लेकर आते हैं इस लिये शूद्र होते हैं तो दूसरे मनुस्मृति में कहे अनुसार अपने कर्मों से शूद्र बन जाते हैं तो तीसरे कुछ लोग परिस्थिति के कारण शूद्र (सेवक कर्म) करने के लिये बाध्य हो जाते हैं। हालाँ कि समाज के त्रिवर्ण का कोई शूद्र (सेवक)कर्म करने को बाध्य हो जाये, यह नहीं तो उस व्यक्ति के और ना ही समाज के हित में होता है।
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भारत के इतिहास में कई बार ब्राह्मण जाति का मनुष्य राजा बना। सम्राट यशोधर्मा, पुष्यमित्र आदि ब्राह्मण जाति के  ही तो थे। शूद्र राजा भी कई हुए है। ये सब उन जातियों के क्षत्रिय वर्ण के लोग ही थे। क्षत्रिय राजा मनु द्वारा प्रस्तुत की गई 'मनुस्मृति’ हजारों वर्षोंतक भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त स्मृति रही है। क्या मनु को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? इसी तरह क्या बाबासाहब अंबेडकर को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है?
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डॉ श्रीधर व्यंकटेश केतकर लिखते हैं<ref>भारतीय समाजशास्त्र (वरदा प्रकाशन, सेनापति बापट मार्ग, पुणे 16) पृष्ठ 142</ref> - ब्राह्मणांचा सर्वत्र प्रचार होण्यापूर्वी समाजाला असे स्वरूप होते कि प्रत्येक जातीत चातुरर््वण्य होते म्हणजे शेतकरी, पुजारी, व्यापारी, आणि सेवक वर्ग होते'। अर्थात् ब्राह्मणों का सर्वत्र प्रचार होने से पूर्व प्रत्येक जाति में किसान, पुजारी, व्यापारी और सेवक ऐसे चार वर्ण थे।   
राजा के सलाहकार कैसे हों इस विषय में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की मदद से राज्य चलाना चाहिये। 3 ब्राह्मण, 8 क्षत्रिय, 21 वैष्य और 3 शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। मनुस्मृति के अनुसार यह मंत्री श्रेष्ठ परंपराओं के वाहक, शास्त्र को जाननेवाले, बहादुर, ध्येयवादी, अच्छे कुलों के ऐसे होने चाहिये। उपर्युक्त मंत्रियों में से जो तीन शूद्र मंत्री है क्या उन से ब्राह्मण मंत्री की तरह ही अपेक्षाएं नहीं थीं । मंत्री के लिये अपेक्षित इन गुणों की अपेक्षा तो केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैष्य जाति के ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के लोगों से ही की जा सकती है।   
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धर्मपालजी द्वारा लिखित ' रमणीय वृक्ष ' पुस्तक में बताया है कि सन 1800 के करीब भारत में 5 लाख से भी अधिक विद्यालय थे। इन विद्यालयों में शुल्क नहीं लिया जाता था। इन में अध्यापन करने वाले बहुत कम शिक्षक ब्राह्मण जातियों के थे। अन्य सभी जातियों के लोग शिक्षक का काम करते थे। किन्तु सभी नि:शुल्क शिक्षा ( ज्ञानदान ) ही देते थे । अर्थात् ब्राह्मण के गुण और लक्षण इन में थे। ये सब उन जातियों के ब्राह्मण वर्ण के लोग  तो हुए।
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बच्चे की, जन्मपत्री बनती है। जन्मस्थान और जन्म समय के अनुसार बनती है। बच्चा किसी भी जाति का हो, हर बच्चे की जन्मपत्री में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र में से एक वर्ण लिखा होता है । इस का अर्थ है की हर जाति में चार वर्ण के लोग होते ही है। ब्राह्मण जाति में या ब्राह्मण मातापिता के बच्चे का भी जन्मपत्री के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र में से कोई भी एक वर्ण होता है । इसी प्रकार, क्षत्रिय या वैष्य जाति में जन्म लिये बच्चे का जन्मपत्री के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र में से कोई भी एक वर्ण होता ही है ।
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इन सब से यह निष्कर्ष निकाले जा सकते है की -
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१.  मनुष्य समाज ठीक से जी सके, समाज में संतुलन बना रहे इसलिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगों को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है।
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२.  जनसंख्या के प्रमाण में पैदा होने वाले जन्मजात वर्णों की या प्रवृत्तियों ( गुण और लक्षणों ) की शुद्धता बनाए रखने के लिये और समाज में संतुलन बनाए रखने के लिये वर्ण व्यवस्था की रचना की गई थी। यह आनुवांशिकता से नहीं थी।
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३.  जन्मजात व्यावसायिक कुशलता ( जाति ) का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संतुलन बनाये रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने आनुवांशिकता से जाति व्यवस्था का निर्माण किया था । 
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४.  जातियों में भी चारों वर्णों के लोगों के ‘ स्व ‘भाव के अनुसार और व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुसार काम का    स्वरूप होता था। जैसे अपनी व्यावसायिक कुशलता (जाति) के जातिपुराण की कालानुरूप रचना और प्रस्तुति करना।
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इस के माध्यम से जातिधर्म को प्रतिष्ठापित करना। व्यावसायिक ज्ञान का अर्जन और ज्ञानदान करना। दान लेना और  
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दान देना या ज्ञान या व्यवसाय के उत्पादनों की सुरक्षा, आवास, उद्योगालय, खेती, भूमि, तालाब आदि संसाधनों की सुरक्षा और रखरखाव करना। आवश्यकता और प्रसंगोपात्त सैनिक कर्म करना। या ज्ञान का प्रसार या प्रत्त्यक्ष वस्तूओं का उत्पादन करना या लोगों की सेवा आदि करना।  
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ऐसा कहते हैं कि १९११ की जन-गणना तक भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह जातियाँ ही नहीं थीं। जातियाँ तो थीं। लेकिन उन्हे वर्ण से जोडा हुआ नहीं था। हर जाति में चारों वर्णों के बच्चे पैदा होते थे और अपने जन्मगत स्वभाव (वर्ण) के अनुसार अपने परिवार के काम में सहायक बनते थे। इस जन-गणना में अंग्रेजों ने जतियों को वर्णों में बाँटा। कई जातियों ने उन का वर्गीकरण किस वर्ण में करना चाहिये इस के लिये जन-गणना अधिकारियों और अंग्रेज सरकार के साथ चर्चाएँ कीं तथा छुटपुट आंदोलन भी चलाये थे। तब से पूरी जाति ही किसी वर्ण की कहलाई जाने लग गयी थी। यह तो भारतीय वर्ण की मान्यता से पूर्णत: भिन्न व्यवस्था थी। अप्राकृतिक थी। अस्वीकार्य थी। किंतु इस विषय को संवेदनशील बना देने के कारण इस विषय पर कोई बहस होती है तो जाति व्यवस्था को गालियाँ देने के लिये ही होती है। जाति व्यवस्था के तत्त्व को या मर्म को समझने के लिये नहीं होती। इस कारण से जातियों का चार वर्णों में बँट जाना यह बात पिछली ५ पीढियों में सर्वमान्य बन गयी है। वास्तव में तो वर्ण की वास्तविक कल्पना के अनुसार शूद्र जाति होती ही नहीं है। पशू हत्या से जुडे कर्मों के कारण या अन्य कुछ कारणों से हो, कुछ जातियाँ अछूत कहलाईं। कितु वे शूद्र जातियाँ नहीं थीं। हर जाति में सेवक का काम करने वाले लोग शूद्र वर्ण के ही माने जाते थे। इन शूद्रों में कुछ तो जन्म से ही शूद्र के गुण-कर्म लेकर आते हैं इस लिये शूद्र होते हैं तो दूसरे मनुस्मृति में कहे अनुसार अपने कर्मों से शूद्र बन जाते हैं तो तीसरे कुछ लोग परिस्थिति के कारण शूद्र (सेवक कर्म) करने के लिये बाध्य हो जाते हैं। हालाँकि समाज के त्रिवर्ण का कोई शूद्र (सेवक) कर्म करने को बाध्य हो जाये, यह नहीं तो उस व्यक्ति के और ना ही समाज के हित में होता है। 
५.  प्रत्येक जाति में चारों वर्णों के लोग होते है । जातियों में भी प्रवृत्तियों का संतुलन बनाए रखने का प्रयास वर्ण को भी आनुवांशिक बनाकर किया गया। यह प्रयास गुरूकुल या गुरूकुल जैसी अन्य वर्ण निर्धारण की व्यवस्था के अभाव में अधिक काल टिक नहीं पाया। यह प्रयास मूलत: दोषपूर्ण होने से इस में दोष निर्माण होने लगे।
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६.  इस सब के उपरांत भी कोई यदि अपना वर्ण बदलना चाहता था या जाति बदलना चाहता था तो इस की भी व्यवस्था की गई थी । इस बात में लचीलापन था । लेकिन इस वर्ण या जाति के परिवर्तन को कठिन बनाने के लिये कठोर तप के प्रावधान रखे गये थे। जिस से यह जन्मगत व्यवस्थाएं व्यक्ति के लिये ' मन:पूतं ' न बन सकें ।  
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भारत के इतिहास में कई बार ब्राह्मण जाति का मनुष्य राजा बना। सम्राट यशोधर्मा, पुष्यमित्र आदि ब्राह्मण जाति के ही तो थे। शूद्र राजा भी कई हुए है। ये सब उन जातियों के क्षत्रिय वर्ण के लोग ही थे। क्षत्रिय राजा मनु द्वारा प्रस्तुत की गई 'मनुस्मृति’ हजारों वर्षों तक भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त स्मृति रही है। क्या मनु का ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? इसी तरह क्या बाबासाहब अंबेडकर को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? 
७.  वर्तमान में वर्ण व्यवस्था नाम की, वास्तव में जातियों संबंधी सरकारी कानून के अलावा और कोई भी व्यवस्था समाज में नहीं है। समाज में भी बिगडी हुई जाति व्यवस्था ही अब शेष है। यह वर्तमान जाति व्यवस्था पुरानी वर्ण व्यवस्था और बाद में उसी से उभरी जाति व्यवस्था का एकीकृत विकृत रूप ही है।
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८.  शूद्र नाम की कोई जाति नहीं होती।  
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राजा के सलाहकार कैसे हों इस विषय में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की मदद से राज्य चलाना चाहिये। 3 ब्राह्मण, 8 क्षत्रिय, 21 वैष्य और 3 शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। मनुस्मृति के अनुसार यह मंत्री श्रेष्ठ परंपराओं के वाहक, शास्त्र को जाननेवाले, बहादुर, ध्येयवादी, अच्छे कुलों के ऐसे होने चाहिये। उपर्युक्त मंत्रियों में से जो तीन शूद्र मंत्री है क्या उन से ब्राह्मण मंत्री की तरह ही अपेक्षाएं नहीं थीं । मंत्री के लिये अपेक्षित इन गुणों की अपेक्षा तो केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैष्य जाति के ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के लोगों से ही की जा सकती है। 
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धर्मपालजी कहते हैं<ref>धर्मपाल, रमणीय वृक्ष </ref> कि सन 1800 के करीब भारत में 5 लाख से भी अधिक विद्यालय थे। इन विद्यालयों में शुल्क नहीं लिया जाता था। इन में अध्यापन करने वाले बहुत कम शिक्षक ब्राह्मण जातियों के थे। अन्य सभी जातियों के लोग शिक्षक का काम करते थे। किन्तु सभी नि:शुल्क शिक्षा ( ज्ञानदान ) ही देते थे । अर्थात् ब्राह्मण के गुण और लक्षण इन में थे। ये सब उन जातियों के ब्राह्मण वर्ण के लोग  तो हुए। 
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बच्चे की, जन्मपत्री बनती है। जन्मस्थान और जन्म समय के अनुसार बनती है। बच्चा किसी भी जाति का हो, हर बच्चे की जन्मपत्री में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र में से एक वर्ण लिखा होता है । इस का अर्थ है की हर जाति में चार वर्ण के लोग होते ही है। ब्राह्मण जाति में या ब्राह्मण मातापिता के बच्चे का भी जन्मपत्री के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र में से कोई भी एक वर्ण होता है । इसी प्रकार, क्षत्रिय या वैष्य जाति में जन्म लिये बच्चे का जन्मपत्री के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र में से कोई भी एक वर्ण होता ही है । 
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इन सब से यह निष्कर्ष निकाले जा सकते है कि: 
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# मनुष्य समाज ठीक से जी सके, समाज में संतुलन बना रहे इसलिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगों को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है 
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# जनसंख्या के प्रमाण में पैदा होने वाले जन्मजात वर्णों की या प्रवृत्तियों ( गुण और लक्षणों ) की शुद्धता बनाए रखने के लिये और समाज में संतुलन बनाए रखने के लिये वर्ण व्यवस्था की रचना की गई थी। यह आनुवांशिकता से नहीं थी। 
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# जन्मजात व्यावसायिक कुशलता ( जाति ) का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संतुलन बनाये रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने आनुवांशिकता से जाति व्यवस्था का निर्माण किया था । 
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# जातियों में भी चारों वर्णों के लोगों के ‘ स्व ‘भाव के अनुसार और व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुसार काम का स्वरूप होता था। जैसे अपनी व्यावसायिक कुशलता (जाति) के जातिपुराण की कालानुरूप रचना और प्रस्तुति करना। इस के माध्यम से जातिधर्म को प्रतिष्ठापित करना। व्यावसायिक ज्ञान का अर्जन और ज्ञानदान करना। दान लेना और दान देना या ज्ञान या व्यवसाय के उत्पादनों की सुरक्षा, आवास, उद्योगालय, खेती, भूमि, तालाब आदि संसाधनों की सुरक्षा और रखरखाव करना। आवश्यकता और प्रसंगोपात्त सैनिक कर्म करना। या ज्ञान का प्रसार या प्रत्त्यक्ष वस्तूओं का उत्पादन करना या लोगों की सेवा आदि करना।
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# प्रत्येक जाति में चारों वर्णों के लोग होते है । जातियों में भी प्रवृत्तियों का संतुलन बनाए रखने का प्रयास वर्ण को भी आनुवांशिक बनाकर किया गया। यह प्रयास गुरूकुल या गुरूकुल जैसी अन्य वर्ण निर्धारण की व्यवस्था के अभाव में अधिक काल टिक नहीं पाया। यह प्रयास मूलत: दोषपूर्ण होने से इस में दोष निर्माण होने लगे।
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# इस सब के उपरांत भी कोई यदि अपना वर्ण बदलना चाहता था या जाति बदलना चाहता था तो इस की भी व्यवस्था की गई थी । इस बात में लचीलापन था । लेकिन इस वर्ण या जाति के परिवर्तन को कठिन बनाने के लिये कठोर तप के प्रावधान रखे गये थे। जिस से यह जन्मगत व्यवस्थाएं व्यक्ति के लिये ' मन:पूतं ' न बन सकें।  
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# वर्तमान में वर्ण व्यवस्था नाम की, वास्तव में जातियों संबंधी सरकारी कानून के अलावा और कोई भी व्यवस्था समाज में नहीं है। समाज में भी बिगडी हुई जाति व्यवस्था ही अब शेष है। यह वर्तमान जाति व्यवस्था पुरानी वर्ण व्यवस्था और बाद में उसी से उभरी जाति व्यवस्था का एकीकृत विकृत रूप ही है।
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# शूद्र नाम की कोई जाति नहीं होती।
    
== जन्मना जाति और वर्ण व्यवस्था ==
 
== जन्मना जाति और वर्ण व्यवस्था ==
यह दोनों व्यवस्थाएं जन्मना हैं। लेकिन फिर भी दोनों की आनुवंशिकता में भिन्नता है। जन्मना वर्ण कर्मसिध्दांत से याने पूर्व कर्मों के फलों से संबंधित है, आनुवांशिकता से नहीं है। लेकिन इसे कठोर प्रयासों से आनुवंशिक बनाया जा सकता है। पूर्व जन्म के अंतिम क्षण को जीव के संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म उस के नये जन्म का वर्ण तय करते है। जिवात्मा जब एक शरीर त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है तब साथ में प्राण, मन, बुध्दि, चित्त आदि लेकर जाता है। ये सब बातें ही तो बच्चे का ‘ स्व ‘भाव याने वर्ण तय करतीं है। साथ ही में यही बातें बच्चे के पिता -माता भी तय करती है। पूर्व कर्मों के फलों के कारण ही बच्चा प्रारब्ध कर्म के भोग के लिये अनुकू ल पिता-माता को खोजता है। जन्मना जाति पूर्व कर्मों के फलों के साथ ही आनुवांशिकता के सिध्दांत से याने पिता से मिलनेवाली विरासत से याने कौटुंबिक व्यावसायिक कुशलताओं से ऐसी दोनों से भी संबंधित है।  
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यह दोनों व्यवस्थाएं जन्मना हैं। लेकिन फिर भी दोनों की आनुवंशिकता में भिन्नता है। जन्मना वर्ण कर्मसिध्दांत से याने पूर्व कर्मों के फलों से संबंधित है, आनुवांशिकता से नहीं है। लेकिन इसे कठोर प्रयासों से आनुवंशिक बनाया जा सकता है। पूर्व जन्म के अंतिम क्षण को जीव के संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म उस के नये जन्म का वर्ण तय करते है। जिवात्मा जब एक शरीर त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है तब साथ में प्राण, मन, बुध्दि, चित्त आदि लेकर जाता है। ये सब बातें ही तो बच्चे का ‘ स्व ‘भाव याने वर्ण तय करतीं है। साथ ही में यही बातें बच्चे के पिता-माता भी तय करती है। पूर्व कर्मों के फलों के कारण ही बच्चा प्रारब्ध कर्म के भोग के लिये अनुकूल पिता-माता को खोजता है। जन्मना जाति पूर्व कर्मों के फलों के साथ ही आनुवांशिकता के सिध्दांत से याने पिता से मिलनेवाली विरासत से याने कौटुंबिक व्यावसायिक कुशलताओं से ऐसी दोनों से भी संबंधित है।  
दोनों व्यवस्थाओं की निर्दोंष प्रस्तुति करना और उन्हे समाज के व्यवहार में स्थापित कै से करना यह चुनौति है।  
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दोनों व्यवस्थाओं की निर्दोंष प्रस्तुति करना और उन्हे समाज के व्यवहार में स्थापित कैसे करना यह चुनौती है।  
    
== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ शास्त्रसंमत ही हैं। यह हमें ठीक से समझना होगा । जिन्हें हिन्दू समाज फिर से विश्वगुरू बने ऐसी आकांक्षा है ऐसे लोगों को अपने अपने पूर्वाग्रह छोडकर गहराई से इस विषय का अध्ययन करना होगा । वर्ण और जाति व्यवस्था का शास्त्रीय हिस्सा कौनसा है और अशास्त्रीय कौनसा है यह तय करना होगा। अशास्त्रीय हिस्से को छोडना होगा। शास्त्रीय हिस्से को प्रासंगिक ढंग से पुनर्प्रस्तुत करना होगा।  
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वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ शास्त्रसम्मत ही हैं। यह हमें ठीक से समझना होगा । जिन्हें हिन्दू समाज फिर से विश्वगुरू बने ऐसी आकांक्षा है ऐसे लोगों को अपने अपने पूर्वाग्रह छोडकर गहराई से इस विषय का अध्ययन करना होगा। वर्ण और जाति व्यवस्था का शास्त्रीय हिस्सा कौन सा है और अशास्त्रीय कौनसा है यह तय करना होगा। अशास्त्रीय हिस्से को छोडना होगा। शास्त्रीय हिस्से को प्रासंगिक ढंग से पुनर्प्रस्तुत करना होगा।  
छुआछूत का चलन यह जाति व्यवस्था में निर्माण हुआ गंभीर दोष है। यदि जाति व्यवस्था को बनाए रखना हो तो छुआछूत विहीन जाति व्यवस्था का ही विकास करना होगा।  
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प्रकृति में पेड के दो पत्ते एक जैसे नहीं होते। दो मनुष्य भी एक जैसे नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता और कनिष्ठता तो रहेगी ही। यह प्राकृतिक ही है। किंतु मानव होने के नाते समानता आवश्यक है, इस तत्त्व का नयी जाति व्यवस्था में समावेष अनिवार्य है। जाति या वर्ण जो भी हो, मानवता का व्यवहार तो हर मानव से हो यह अनिवार्य है। समाज के प्रत्येक सदस्य को उस के कर्मों के आधारपर श्रेष्ठता या कनिष्ठता प्राप्त होगी। ऐसा होने से किसी के मन में कडवाहट नहीं रहेगी।
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छुआछूत का चलन यह जाति व्यवस्था में निर्माण हुआ गंभीर दोष है। यदि जाति व्यवस्था को बनाए रखना हो तो छुआछूत विहीन जाति व्यवस्था का ही विकास करना होगा।  
कुछ लोगों की पक्की धारणा है कि जाति व्यवस्था मूलत: ही दोषपूर्ण थी। इन में जो विचारशील लोग हैं उन्हें समझाना होगा। और नयी व्यवस्था के पक्ष में लाना होगा। जो लोग समझते हैं कि जाति व्यवस्था कभी ठीक रही होगी। लेकिन वर्तमान में तो यह अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वर्तमान जाति व्यवस्था को तोडने से पहले वे एक सशक्त वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति करें। वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग कर यह सिध्द करें कि उन के द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्थाओं के सभी लाभों को बनाए रखते हुए इस के दोषों का निवारण करती है। ऐसी परिस्थिति में उन के द्वारा प्रस्तुत व्यवस्था का स्वीकार करना हर्ष की ही बात होगी। किंतु ऐसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था की योजना के बगैर ही वर्तमान व्यवस्था को तोडने के प्रयास को बुध्दिमानी नहीं कहा जा सकता। ऐसा विकल्प जबतक नहीं मिल जाता, वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखते हुए उस के दोषों का निवारण करने के प्रयास करने होंगे।
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जिन्हें शास्त्र के अनुसार व्यवहार नही करना है उन का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में दिया है -
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प्रकृति में पेड के दो पत्ते एक जैसे नहीं होते। दो मनुष्य भी एक जैसे नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता और कनिष्ठता तो रहेगी ही। यह प्राकृतिक ही है। किंतु मानव होने के नाते समानता आवश्यक है, इस तत्त्व का नयी जाति व्यवस्था में समावेष अनिवार्य है। जाति या वर्ण जो भी हो, मानवता का व्यवहार तो हर मानव से हो यह अनिवार्य है। समाज के प्रत्येक सदस्य को उस के कर्मों के आधार पर श्रेष्ठता या कनिष्ठता प्राप्त होगी। ऐसा होने से किसी के मन में कडवाहट नहीं रहेगी।  
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ॥
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न स सिध्दिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥  (१६-२३)
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कुछ लोगों की पक्की धारणा है कि जाति व्यवस्था मूलत: ही दोषपूर्ण थी। इन में जो विचारशील लोग हैं उन्हें समझाना होगा। और नयी व्यवस्था के पक्ष में लाना होगा। जो लोग समझते हैं कि जाति व्यवस्था कभी ठीक रही होगी। लेकिन वर्तमान में तो यह अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वर्तमान जाति व्यवस्था को तोडने से पहले वे एक सशक्त वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति करें। वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग कर यह सिध्द करें कि उन के द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्थाओं के सभी लाभों को बनाए रखते हुए इस के दोषों का निवारण करती है। ऐसी परिस्थिति में उन के द्वारा प्रस्तुत व्यवस्था का स्वीकार करना हर्ष की ही बात होगी। किंतु ऐसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था की योजना के बगैर ही वर्तमान व्यवस्था को तोडने के प्रयास को बुध्दिमानी नहीं कहा जा सकता। ऐसा विकल्प जबतक नहीं मिल जाता, वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखते हुए उस के दोषों का निवारण करने के प्रयास करने होंगे।  
अर्थात् ऐसे लोगों को न सुख मिलता है न कोई सिध्दी प्राप्त होती है अर्थात् कोई ना तो ऐहिक लाभ मिलते हैं और ना ही कोई पारलौकिक ही । ऐसे लोगों को उन के हालपर छोड देना ही ठीक रहेगा । किन्तु जहाँ तत्वबोध की संभावनाएँ हैं वाद-संवाद तो करना होगा । विवाद और वितंडा वाद को टालकर ही आगे बढना होगा।
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एक और अत्यंत महत्व की बात की ओर भी ध्यान देना होगा। वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ  कितनी भी उपयुक्त  समझमें आती होगी, जबतक जीवन का वर्तमान प्रतिमान ( Paradigm ), जो पूरी तरह से अभारतीय बन गया है, इसे जडसे बदलकर जीवन के भारतीय प्रतिमान* के एक अंग की तरह वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं करते तब तक अलग से वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं कर सकते।
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वाचनीय साहित्य
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जिन्हें शास्त्र के अनुसार व्यवहार नही करना है उन का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में दिया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 16-23 </ref>: <blockquote>य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ॥</blockquote><blockquote>न स सिध्दिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ 16-23॥  </blockquote><blockquote>अर्थात् ऐसे लोगों को न सुख मिलता है न कोई सिध्दी प्राप्त होती है अर्थात् कोई ना तो ऐहिक लाभ मिलते हैं और ना ही कोई पारलौकिक ही । </blockquote>ऐसे लोगों को उन के हालपर छोड देना ही ठीक रहेगा । किन्तु जहाँ तत्वबोध की संभावनाएँ हैं वाद-संवाद तो करना होगा । विवाद और वितंडा वाद को टालकर ही आगे बढना होगा। एक और अत्यंत महत्व की बात की ओर भी ध्यान देना होगा। वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ  कितनी भी उपयुक्त  समझमें आती होगी, जबतक जीवन का वर्तमान प्रतिमान (Paradigm), जो पूरी तरह से अभारतीय बन गया है, इसे जडसे बदलकर जीवन के भारतीय प्रतिमान के एक अंग की तरह वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं करते तब तक अलग से वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं कर सकते।
    
==References==
 
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