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== जाति व्यवस्था पर किये गये दोषारोपों की वास्तविकता ==
 
== जाति व्यवस्था पर किये गये दोषारोपों की वास्तविकता ==
‘समाजशास्त्राची मूलतत्त्वे’ इस डॉ. भा. कि. खडसे द्वारा लिखी शासन द्वारा अधिकृत पुस्तक में निम्न दोष बताए गए हैं।
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‘समाजशास्त्राची मूलतत्त्वे’ इस डॉ. भा. कि. खडसे द्वारा लिखी शासन द्वारा अधिकृत पुस्तक में जाति व्यवस्था के निम्न दोष बताए गए हैं<ref>डॉ. भा. कि. खडसे, समाजशास्त्राची मूलतत्त्वे </ref>:
दोष १ : जाति व्यवस्था यह लोकतंत्र विरोधी है : वास्तव में लोकतंत्र विरोधी होने का अर्थ सर्वे भवन्तु सुखिन: का विरोधी लगाया जाता है। यह विपरीत शिक्षा के कारण है। विपरीत प्रतिमानात्मक सोच के कारण है। वास्तव में लोकतंत्र तो एक शासन व्यवस्था है। यह तो एक साधन मात्र है। साध्य है सर्वे भवन्तु सुखिन:। और जाति व्यवस्था सर्वे भवन्तु सुखिन: की विरोधक नहीं है।  
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# जाति व्यवस्था लोकतंत्र विरोधी है : वास्तव में लोकतंत्र विरोधी होने का अर्थ सर्वे भवन्तु सुखिन: का विरोधी लगाया जाता है। यह विपरीत शिक्षा के कारण है। विपरीत प्रतिमानात्मक सोच के कारण है। वास्तव में लोकतंत्र तो एक शासन व्यवस्था है। यह तो एक साधन मात्र है। साध्य है सर्वे भवन्तु सुखिन:। और जाति व्यवस्था सर्वे भवन्तु सुखिन: की विरोधक नहीं है।  
दोष २ : जाति व्यवस्था अस्पृष्यता को जन्म देती है :  मूल में जा कर देखें तो वर्ण या जाति व्यवस्था का अस्पृष्यता के साथ कोई संबंध नहीं है। हो सकता है की काल के प्रवाह में शुचिता, पवित्रता, स्वास्थ्य, शुद्धता आदि के अतिरेकी आग्रह के कारण यह दोष निर्माण हुए हों । किंतु इस अस्पृष्यता का आधार घृणा नहीं था। आज भी कई परिवारों में माहवारी के समय स्त्री का अलग बैठना, पूजा या यज्ञ करनेवाले को किसी ने नहीं छूना, अंत्ययात्रा में सहभागी व्यक्ति द्वारा घर आने पर अन्यों को और व्यक्ति को अन्यों द्वारा स्पर्श नही करना आदि बातों का पालन होता दिखाई देता है। इसे कोई बुरा नहीं मानता ।
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# जाति व्यवस्था अस्पृष्यता को जन्म देती है :  मूल में जा कर देखें तो वर्ण या जाति व्यवस्था का अस्पृष्यता के साथ कोई संबंध नहीं है। हो सकता है की काल के प्रवाह में शुचिता, पवित्रता, स्वास्थ्य, शुद्धता आदि के अतिरेकी आग्रह के कारण यह दोष निर्माण हुए हों । किंतु इस अस्पृष्यता का आधार घृणा नहीं था। आज भी कई परिवारों में माहवारी के समय स्त्री का अलग बैठना, पूजा या यज्ञ करनेवाले को किसी ने नहीं छूना, अंत्ययात्रा में सहभागी व्यक्ति द्वारा घर आने पर अन्यों को और व्यक्ति को अन्यों द्वारा स्पर्श नही करना आदि बातों का पालन होता दिखाई देता है। इसे कोई बुरा नहीं मानता । बाबासाहब आंबेडकर के अनुसार गाय के प्रति आदर रखनेवाले लोगोंने मरी गाय का मांस खानेवाले लोगों को अस्पृष्य माना। लेकिन उनमें आपस में घृणा की भावना नहीं थी। मूल जाति व्यवस्था में घृणावाली अस्पृष्यता को कोई स्थान नहीं है। यह भी संभव है कि वर्ण और जाति व्यवस्था के लाभ लेकर भी इस के कर्तव्य और जिम्मेदारियों का निर्वाह नहीं करनेवाले लोगों को या परिवारों को अस्पृष्य माना जाता होगा। ऐसे परिवारों की संख्या बढने से अस्पृष्य बस्तियाँ बनीं होंगी। इसी से अस्पृष्य जातियों का निर्माण हुआ होगा। हिंदू समाज सहिष्णू होने के कारण भी अस्पृष्य बस्तियों का निर्माण हुआ ऐसा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है। ईसाई या मुस्लिम समाजों में अस्पृष्यता नही दिखाई देती। इस का कारण वह बहुत प्रगतिशील हैं ऐसा दिया जाता है। किंतु यह सरासर गलत है। इन समाजों ने तो, जो उन की व्यवस्था को नहीं स्वीकारते उन्हें कत्ल ही कर दिया। इसलिये उन में अन्य समाजों के प्रति तीव्र घृणा की भावना रहते हुए भी अस्पृष्यता दिखाई नहीं देती। हिंदू समाज ने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करने वाले लोगों को अस्पृष्य माना किंतु उन्हें कत्ल नहीं किया। उन के भी जीने के अधिकार को स्वीकार किया। हिन्दू समाज के इस सहिष्णुता के व्यवहार का समर्थन और स्वागत करने के स्थान पर हिंदू समाज को गालियाँ देना ठीक नहीं है। समर्थन का अर्थ अस्पृष्यता जैसी कुरीतियों का भी समर्थन करना यह नहीं है।  
बाबासाहब आंबेडकर के अनुसार गाय के प्रति आदर रखनेवाले लोगोंने मरी गाय का मांस खानेवाले लोगों को अस्पृष्य माना। लेकिन उनमें आपसमें घृणा की भावना नहीं थी। मुल जाति व्यवस्था में घृणावाली अस्पृष्यता को कोई स्थान नहीं है।
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# जाति व्यवस्था आर्थिक विकास नहीं होने देती : भारत में गत दो हजार वर्षो से विदेशी आक्रमण हो रहे थे। ये आक्रमण जाति व्यवस्था के कारण निर्माण हुई भारत की संपदा लूटने के लिये हो रहे थे। गरीबी को लूटने के लिये नहीं।  
यह भी संभव हप्र कि वर्ण और जाति व्यवस्था के लाभ लेकर भी इस के कर्तव्य और जिम्मेदारियों का निर्वाह नहीं करनेवाले लोगों को या परिवारों को अस्पृष्य माना जाता होगा। ऐसे परिवारों की संख्या बढने से अस्पृष्य बस्तियाँ बनीं होंगी। इसी से अस्पृष्य जातियों का निर्माण हुवा होगा।
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# जाति व्यवस्था से जातिवाद पैदा होता है : जातिवाद अंग्रेजों का निर्माण किया हुआ दोष है। धर्मपाल कहते हैं कि हिंदुओं के ईसाईकरण में जाति व्यवस्था रोडा थी इसलिये अंग्रेजों ने इसे बदनाम किया। जातियों में दुष्मनी निर्माण की। ऐसे सुधारकों को समर्थन और प्रोत्साहन दिया।  
हिंदू समाज सहिष्णू होने के कारण भी अस्पृष्य बस्तियों का निर्माण हुवा ऐसा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है। ईसाई या मुस्लिम समाजों में अस्पृष्यता नही दिखाई देती। इस का कारण वह बहुत प्रगतिशील हैं ऐसा दिया जाता है। किंतु यह सरासर गलत है। इन समाजों ने तो, जो उन की व्यवस्था को नहीं स्वीकारते उन्हें कत्ल ही कर दिया। इसलिये उन में अन्य समाजों के प्रति तीव्र घृणा की भावना रहते हुए भी अस्पृष्यता दिखाई नहीं देती।  
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# जाति व्यवस्था गतिशीलता की विरोधी है : समाज में परिवर्तन की एक गति होती है। आज तकनीकी की गति के पीछे समाज घसीटा जा रहा है। समाज स्वास्थ्य नष्ट हो रहा है। समाज जीवन का साध्य गति है या सामाजिक सुख, स्वास्थ्य यह हम पहले तय करें। तब उसका स्वाभाविक उत्तर आएगा की यह ठीक नहीं हो रहा। एक जाति से दूसरी जाति में विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे भी समाज की गतिशीलता में रोडा माना जा रहा है। किंतु आज आर्थिक दृष्टि से, सैनिक पार्श्वभूमि के, व्यापारी, सरकारी अधिकारी आदि ऐसे वर्ग बन गये हैं जिन्हें बिरादरी कहते हैं। उन के बाहर विवाह नहीं हो ऐसा आग्रह होता है, उसका तो विरोध कोई करता दिखाई नहीं देता। लेकिन जो अत्यंत शास्त्रीय है ऐसे सवर्ण, सजातीय विवाह को गालियाँ दीं जातीं हैं। इसका कारण तो यही समझ में आता है कि वर्तमान समान वर्ग के विवाह यह पश्चिमी समाज का रिवाज है। ये तथाकथित गुलामी की मानसिकता वाले सुधारकों से या समाजशास्त्रियों से इसके विरोध की अपेक्षा करना भी ठीक नहीं है। सवर्ण, सजातीय और भिन्न गोत्र में विवाह यह तो शास्त्रों का कथन है। आधुनिक मानव वंशशास्त्र भी इस का समर्थन करता है। लेकिन विपरीत शिक्षा, विपरीत (अभारतीय) प्रतिमानीय सोच और वर्तमान में बन रहे चित्रपटों के कारण अत्यंत हानिकारक ऐसे प्रेम विवाह की प्रतिष्ठा हो रही है। पुरा चित्रपट क्षेत्र मानो प्रेमविवाह को प्रतिष्ठित करने के लिये ही निर्माण हुआ है।  
हिंदू समाज ने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करने वाले लोगों को अस्पृष्य माना किंतु उन्हें कत्ल नहीं किया। उन के भी जीने के अधिकार को स्वीकार किया। हिन्दू समाज के इस सहिष्णुता के व्यवहार का समर्थन और स्वागत करने के स्थान पर हिंदू समाज को गालियाँ देना ठीक नहीं है। समर्थन का अर्थ अस्पृष्यता जैसी कुरीतियों का भी समर्थन करना यह नहीं है।
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# राष्ट्रीय एकता में बाधक : इतिहास गवाह है कि जाति व्यवस्था कभी भी राष्ट्रीय एकता में बाधक नहीं बनीं। उलटे आज के लोकतंत्रीय राजनीति में ही ऐसे गुट (कम्यूनिस्टों जैसे, या नक्सलियों जैसे या मजहबों जैसे) निर्माण हुए हैं जिन्होने राष्ट्रीय एकता में सेंध लगाई है। विडम्बना तो यह है कि इस वर्तमान लोकतंत्र के कारण ‘राष्ट्र’ क्या होता है, यह स्पष्टता से कहने की कोई हिम्मत नहीं करता।  
दोष ३ : जाति व्यवस्था आर्थिक विकास नहीं हो ने देती : भारत में गत दो हजार वर्षोम से विदेशी आक्रमण हो रहे थे। ये आक्रमण जाति व्यवस्था के कारण निर्माण हुई भारत की संपदा लूटने के लिये हो रहे थे। गरीबी को लूटने के लिये नहीं।
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दोष ४ : जाति व्यवस्था से जातिवाद पैदा होता है : जातिवाद अंग्रेजों का निर्माण किया हुआ दोष है। धर्मपाल कहते हैं कि हिंदुओं के ईसाईकरण में जाति व्यवस्था रोडा थी इसलिये अंग्रेजों ने इसे बदनाम किया। जातियों में दुष्मनी निर्माण की। ऐसे सुधारकों को समर्थन और प्रोत्साहन दिया।
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दोष ५ : जाति व्यवस्था गतिशीलता की विरोधी है : समाज में परिवर्तन की एक गति होती है। आज तकनीकी की गति के पीछे समाज घसीटा जा रहा है। समाज स्वास्थ्य नष्ट हो रहा है। समाज जीवन का साध्य गति है या सामाजिक सुख, स्वास्थ्य यह हम पहले तय करें। तब उसका स्वाभाविक उत्तर आएगा की यह ठीक नहीं हो रहा। एक जाति से दूसरी जाति में विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे भी समाज की गतिशीलता में रोडा माना जा रहा है। किंतु आज आर्थिक दृष्टि से, सैनिक पार्श्वभूमि के, व्यापारी, सरकारी अधिकारी आदि ऐसे वर्ग बन गये हैं जिन्हें बिरादरी कहते हैं। उन के बाहर विवाह नहीं हो ऐसा आग्रह होता है, उसका तो विरोध कोई करता दिखाई नहीं देता। लेकिन जो अत्यंत शास्त्रीय है ऐसे सवर्ण, सजातीय विवाह को गालियाँ दीं जातीं हैं। इसका कारण तो यही समझ में आता है कि वर्तमान समान वर्ग के विवाह यह पश्चिमी समाज का रिवाज है। ये तथाकथित गुलामी की मानसिकता वाले सुधारकों से या समाजशास्त्रियों से इसके विरोध की अपेक्षा करना भी ठीक नहीं है।  
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सवर्ण, सजातीय और भिन्न गोत्र में विवाह यह तो शास्त्रों का कथन है। आधुनिक मानव वंशशास्त्र भी इस का समर्थन करता है। लेकिन विपरीत शिक्षा, विपरीत (अभारतीय) प्रतिमानीय सोच और वर्तमान में बन रहे चित्रपटों के कारण अत्यंत हानिकारक ऐसे प्रेम विवाह की प्रतिष्ठा हो रही है। पुरा चित्रपट क्षेत्र मानो प्रेमविवाह को प्रतिष्ठित करने के लिये ही निर्माण हुवा है।
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दोष ६ राष्ट्रीय एकता में बाधक : इतिहास गवाह है कि जाति व्यवस्था कभी भी राष्ट्रीय एकता में बाधक नहीं बनीं। उलटे आज के लोकतंत्रीय राजनीति में ही ऐसे गुट (कम्यूनिस्टों जैसे, या नक्सलियों जैसे या मजहबों जैसे) निर्माण हुए हैं जिन्होने राष्ट्रीय एकता में सेंध लगाई है। विडम्बना तो यह है कि इस वर्तमान लोकतंत्र के कारण ‘राष्ट्र’ क्या होता है, यह स्पष्टता से कहने की कोई हिम्मत नहीं करता।  
      
== वर्णसंकर से जातियों की उत्पत्ति ==
 
== वर्णसंकर से जातियों की उत्पत्ति ==
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इस का अर्थ है कि समाज में ऐसी व्यवस्था थी जो नयी जातियों को मान्यता देती थी। यह व्यवस्था नयी जाति किन विशिष्ट गुण और लक्षणों के (और व्यावसायिक कौशलों के) संकर से निर्माण हुई है, यह देखकर उस जाति के नाम, जातिधर्म और व्यावसायिक काप्रशल को मान्यता देती होगी।
 
इस का अर्थ है कि समाज में ऐसी व्यवस्था थी जो नयी जातियों को मान्यता देती थी। यह व्यवस्था नयी जाति किन विशिष्ट गुण और लक्षणों के (और व्यावसायिक कौशलों के) संकर से निर्माण हुई है, यह देखकर उस जाति के नाम, जातिधर्म और व्यावसायिक काप्रशल को मान्यता देती होगी।
 
समाज की व्यावसायिक कुशलताओं की आवश्यकताओं की भिन्नता कम होने के कारण किसी समय केवल चार वर्णों में ही उन की पूर्ति के लिये सभी व्यवसायों को बाँटना सरल था। कालांतर से समाज की आवश्यकताओं की भिन्नता में वृध्दि हुई। जातियों की संख्या बहुत बढ गई। बाँटने के लिये व्यवसाय के क्षेत्र कम पडने लगे। जब किसी संकर से निर्मित गुट के लिये कोई व्यवसाय निश्चित किया जाता होगा तब पहले से ही वह व्यवसाय करनेवालों पर अन्याय होता होगा । वह लोग इस को स्वीकार नही करते होंगे । दूसरी ओर उस व्यवसाय में स्पर्धा बढ जाती होगी । समाज के एक हिस्से में व्याप्त अव्यवस्था का परिणाम पुरे समाजपर होता होगा । इन समस्याओं के कारण धीरे धीरे जाति निर्धारण करने वाली व्यवस्था कुछ काल तक प्रभावहीन और बाद में नष्ट हो गई होगी।  ऐसा कोई वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य में नही मिलता। लेकिन के वल इसलिये ऐसी व्यवस्था के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी बात यानी आये दिन बडे पैमानेपर होनेवाले ऐसे वर्णसंकरों के लिये समाज की व्यवस्था में बारबार परिवर्तन करते रहना व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव हो गया होगा ।   
 
समाज की व्यावसायिक कुशलताओं की आवश्यकताओं की भिन्नता कम होने के कारण किसी समय केवल चार वर्णों में ही उन की पूर्ति के लिये सभी व्यवसायों को बाँटना सरल था। कालांतर से समाज की आवश्यकताओं की भिन्नता में वृध्दि हुई। जातियों की संख्या बहुत बढ गई। बाँटने के लिये व्यवसाय के क्षेत्र कम पडने लगे। जब किसी संकर से निर्मित गुट के लिये कोई व्यवसाय निश्चित किया जाता होगा तब पहले से ही वह व्यवसाय करनेवालों पर अन्याय होता होगा । वह लोग इस को स्वीकार नही करते होंगे । दूसरी ओर उस व्यवसाय में स्पर्धा बढ जाती होगी । समाज के एक हिस्से में व्याप्त अव्यवस्था का परिणाम पुरे समाजपर होता होगा । इन समस्याओं के कारण धीरे धीरे जाति निर्धारण करने वाली व्यवस्था कुछ काल तक प्रभावहीन और बाद में नष्ट हो गई होगी।  ऐसा कोई वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य में नही मिलता। लेकिन के वल इसलिये ऐसी व्यवस्था के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी बात यानी आये दिन बडे पैमानेपर होनेवाले ऐसे वर्णसंकरों के लिये समाज की व्यवस्था में बारबार परिवर्तन करते रहना व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव हो गया होगा ।   
हिन्दू समाज में आश्रम व्यवस्था भी प्रस्थापित थी । इस में केवल गृहस्थाश्रमी ( गृहिणियाँ नहीं ) अर्थार्जन का काम करते थे। खेती जैसे व्यवसायों में घर की महिलायें भी व्यवसाय में हाथ बंटाती थी । किंतु अर्थार्जन गृहस्थ करे और गृहिणि अर्थ का विनियोग करे, यही घरों की व्यवस्था थी। समाज में गृहस्थ पुरूषों की संख्या १२.५ प्रतिशत ही होती है। अर्थात् केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे। प्रत्यक्ष व्यवसाय करते थे। और फिर भी हम अत्यंत समृध्द देश  थे। केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे तो अन्य लोग क्या करते थे ? काम तो प्रत्येक व्यक्ति करता था। किंतु अर्थार्जन के लिये नहीं। हर जाति का ब्रह्मचारी वर्ग, जिसने अभी गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया है, अपने व्यक्तिगत उन्नयन के साथ ही समाज के हित में सार्थक योगदान देने की दृष्टि से ज्ञानार्जन, विद्यार्जन और काप्रशलार्जन में लगा रहता था। सभी वर्णों के लोग, और सभी ब्राह्मण भी संन्यासी नहीं बनते थे। किंतु अब मैंने अपने लिये नहीं समाज के लिये जीना है ऐसा मानने वाले वानप्रस्थी तो सभी वर्णों के और जातियों के लोग हुवा करते थे। ऐसे वानप्रस्थी और संन्यासी सभी अर्थार्जन की अपेक्षा के बगप्रर समाज के लिये काम करते थे। ब्राह्मण छोडकर अन्य वर्णों के वानप्रस्थी लोग क्या करते होंगे? सदाचार की शिक्षा देना, सामाजिक दृष्टि से जिन वर्णों के लोगों का अनुकरण करना चाहिये ऐसे लोगो का स्वत: अनुकरण करना और अन्यों को अनुकरण करने की प्रेरणा देना, ब्रह्मचर्य काल में हस्तगत किये और गृहस्थ जीवन में विकसित किये गये ज्ञान, विद्या और काप्रशलों को नयी पीढी को हस्तांतरित करना, भगवद्भक्ति में समय बिताना आदि काम ही तो करते होंगे। यह था वर्ण और आश्रम व्यवस्था का स्वरूप।   
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हिन्दू समाज में आश्रम व्यवस्था भी प्रस्थापित थी । इस में केवल गृहस्थाश्रमी ( गृहिणियाँ नहीं ) अर्थार्जन का काम करते थे। खेती जैसे व्यवसायों में घर की महिलायें भी व्यवसाय में हाथ बंटाती थी । किंतु अर्थार्जन गृहस्थ करे और गृहिणि अर्थ का विनियोग करे, यही घरों की व्यवस्था थी। समाज में गृहस्थ पुरूषों की संख्या १२.५ प्रतिशत ही होती है। अर्थात् केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे। प्रत्यक्ष व्यवसाय करते थे। और फिर भी हम अत्यंत समृध्द देश  थे। केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे तो अन्य लोग क्या करते थे ? काम तो प्रत्येक व्यक्ति करता था। किंतु अर्थार्जन के लिये नहीं। हर जाति का ब्रह्मचारी वर्ग, जिसने अभी गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया है, अपने व्यक्तिगत उन्नयन के साथ ही समाज के हित में सार्थक योगदान देने की दृष्टि से ज्ञानार्जन, विद्यार्जन और काप्रशलार्जन में लगा रहता था। सभी वर्णों के लोग, और सभी ब्राह्मण भी संन्यासी नहीं बनते थे। किंतु अब मैंने अपने लिये नहीं समाज के लिये जीना है ऐसा मानने वाले वानप्रस्थी तो सभी वर्णों के और जातियों के लोग हुआ करते थे। ऐसे वानप्रस्थी और संन्यासी सभी अर्थार्जन की अपेक्षा के बगप्रर समाज के लिये काम करते थे। ब्राह्मण छोडकर अन्य वर्णों के वानप्रस्थी लोग क्या करते होंगे? सदाचार की शिक्षा देना, सामाजिक दृष्टि से जिन वर्णों के लोगों का अनुकरण करना चाहिये ऐसे लोगो का स्वत: अनुकरण करना और अन्यों को अनुकरण करने की प्रेरणा देना, ब्रह्मचर्य काल में हस्तगत किये और गृहस्थ जीवन में विकसित किये गये ज्ञान, विद्या और काप्रशलों को नयी पीढी को हस्तांतरित करना, भगवद्भक्ति में समय बिताना आदि काम ही तो करते होंगे। यह था वर्ण और आश्रम व्यवस्था का स्वरूप।   
    
== हर जाति में चार वर्ण ==
 
== हर जाति में चार वर्ण ==
महाराष्ट्र में संतों की एक दीर्घ परंपरा है । हर जाति में बडे संत हुए है । जेसे गोरोबा कुम्हार थे । चोखोबा महार थे । नामदेव दर्जी थे । नरहरी सुनार थे । कान्होपात्रा वेश्या थीं । ज्ञानेश्वर, रामदास, एकनाथ ब्राह्मण थे । किन्तु इन संतों की एक विशेषता यह रही है की इन सभी ने एक ही वेदांत के तत्वज्ञान की प्रस्तुति की है । यह कैसे हुवा ? ये तो किसी गुरूकुल में नही जाते थे । फिर इन तक वेदांत की ज्ञानधारा कैसे पहुंची ? थोडा जातियों का अध्ययन करने से हमें ध्यान में आता है की हर जाति में जाति पुराण कहनेवाला एक वर्ग होता है । यह वर्ग उस जाति में सब से अधिक सम्मानित माना जाता है । यह वर्ग अर्थार्जन नही करता । यह उस जाति में नि:स्वार्थ भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान का ( ब्राह्मण का ) काम ही करता है। यह उस जाति के ब्राह्मण वर्ण के लोग ही होते है। ब्राह्मणजाति में भी जिनका ज्ञानार्जन और ज्ञानदान से दूर दूर तक कोई संबंध नही है ऐसे भोजन पकानेवाले महाराज होते है। यह ब्राह्मण जाति के शूद्र वर्ण के लोग होते है ।  
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महाराष्ट्र में संतों की एक दीर्घ परंपरा है । हर जाति में बडे संत हुए है । जेसे गोरोबा कुम्हार थे । चोखोबा महार थे । नामदेव दर्जी थे । नरहरी सुनार थे । कान्होपात्रा वेश्या थीं । ज्ञानेश्वर, रामदास, एकनाथ ब्राह्मण थे । किन्तु इन संतों की एक विशेषता यह रही है की इन सभी ने एक ही वेदांत के तत्वज्ञान की प्रस्तुति की है । यह कैसे हुआ ? ये तो किसी गुरूकुल में नही जाते थे । फिर इन तक वेदांत की ज्ञानधारा कैसे पहुंची ? थोडा जातियों का अध्ययन करने से हमें ध्यान में आता है की हर जाति में जाति पुराण कहनेवाला एक वर्ग होता है । यह वर्ग उस जाति में सब से अधिक सम्मानित माना जाता है । यह वर्ग अर्थार्जन नही करता । यह उस जाति में नि:स्वार्थ भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान का ( ब्राह्मण का ) काम ही करता है। यह उस जाति के ब्राह्मण वर्ण के लोग ही होते है। ब्राह्मणजाति में भी जिनका ज्ञानार्जन और ज्ञानदान से दूर दूर तक कोई संबंध नही है ऐसे भोजन पकानेवाले महाराज होते है। यह ब्राह्मण जाति के शूद्र वर्ण के लोग होते है ।  
 
महाभारत के युध्द के बाद निर्माण हुई सामाजिक अव्यवस्था को दूर करने के लिये जो विद्वत परिषद नप्रमिषारण्य में हुयी थी उस का नेतृत्व सूत मुनी ने किया था । वे सूत जाति के ज्ञानवान ( ब्राह्मणों के गुण और लक्षणों वाले ) मनुष्य थे । इस से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है की हर जाति में चार वर्ण होते है ।   
 
महाभारत के युध्द के बाद निर्माण हुई सामाजिक अव्यवस्था को दूर करने के लिये जो विद्वत परिषद नप्रमिषारण्य में हुयी थी उस का नेतृत्व सूत मुनी ने किया था । वे सूत जाति के ज्ञानवान ( ब्राह्मणों के गुण और लक्षणों वाले ) मनुष्य थे । इस से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है की हर जाति में चार वर्ण होते है ।   
 
‘भारतीय समाजशास्त्र’ इस पुस्तक में (वरदा प्रकाशन, सेनापति बापट मार्ग, पुणे 16) पृष्ठ 142 पर लेखक डॉ श्रीधर व्यंकटेश केतकर लिखते हैं - ब्राह्मणांचा सर्वत्र प्रचार होण्यापूर्वी समाजाला असे स्वरूप होते कि प्रत्येक जातीत चातुरर््वण्य होते म्हणजे शेतकरी, पुजारी, व्यापारी, आणि सेवक वर्ग होते'। अर्थात् ब्राह्मणों का सर्वत्र प्रचार होने से पूर्व प्रत्येक जाती में किसान, पुजारी, व्यापारी और सेवक ऐसे चार वर्ण थे।
 
‘भारतीय समाजशास्त्र’ इस पुस्तक में (वरदा प्रकाशन, सेनापति बापट मार्ग, पुणे 16) पृष्ठ 142 पर लेखक डॉ श्रीधर व्यंकटेश केतकर लिखते हैं - ब्राह्मणांचा सर्वत्र प्रचार होण्यापूर्वी समाजाला असे स्वरूप होते कि प्रत्येक जातीत चातुरर््वण्य होते म्हणजे शेतकरी, पुजारी, व्यापारी, आणि सेवक वर्ग होते'। अर्थात् ब्राह्मणों का सर्वत्र प्रचार होने से पूर्व प्रत्येक जाती में किसान, पुजारी, व्यापारी और सेवक ऐसे चार वर्ण थे।
ऐसा कहते हैं कि १९११ की जन-गणना तक भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह जातियाँ ही नहीं थीं। जातियाँ तो थीं। लेकिन उन्हे वर्ण से जोडा हुवा नहीं था। हर जाति में चारों वर्णों के बच्चे पैदा होते थे और अपने जन्मगत स्वभाव (वर्ण) के अनुसार अपने परिवार के काम में सहायक बनते थे। इस जन-गणना में अंग्रेजों ने जतियों को वर्णों में बाँटा। कई जातियों ने उन का वर्गीकरण किस वर्ण में करना चाहिये इस के लिये जन-गणना अधिकारियों और अंग्रेज सरकार के साथ चर्चाएँ कीं तथा छुटपुट आंदोलन भी चलाये थे। तब से पूरी जाति ही किसी वर्ण की कहलाई जाने लग गयी थी। यह तो भारतीय वर्ण की मान्यता से पूर्णत: भिन्न व्यवस्था थी। अ-प्राकृतिक थी। अस्वीकार्य थी। किंतु इस विषय को संवेदनशील बना देने के कारण इस विषय पर कोई बहस होती है तो जाति व्यवस्था को गालियाँ देने के लिये ही होती है। जाति व्यवस्था के तत्त्व को या मर्म को समझने के लिये नहीं होती। इस कारण से जातियों का चार वर्णों में बँट जाना यह बात पिछली ५ पीढियों में सर्वमान्य बन गयी है। वास्तव में तो वर्ण की वास्तविक कल्पना के अनुसार शूद्र जाति होती ही नहीं है। पशू हत्या से जुडे कर्मों के कारण या अन्य कुछ कारणों से हो, कुछ जातियाँ अछूत कहलाईं। कितु वे शूद्र जातियाँ नहीं थीं। हर जाति में सेवक का काम करने वाले लोग शूद्र वर्ण के ही माने जाते थे। इन शूद्रों में कुछ तो जन्म से ही शूद्र के गुण-कर्म लेकर आते हैं इस लिये शूद्र होते हैं तो दूसरे मनुस्मृति में कहे अनुसार अपने कर्मों से शूद्र बन जाते हैं तो तीसरे कुछ लोग परिस्थिति के कारण शूद्र (सेवक कर्म) करने के लिये बाध्य हो जाते हैं। हालाँ कि समाज के त्रिवर्ण का कोई शूद्र (सेवक)कर्म करने को बाध्य हो जाये, यह नहीं तो उस व्यक्ति के और ना ही समाज के हित में होता है।
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ऐसा कहते हैं कि १९११ की जन-गणना तक भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह जातियाँ ही नहीं थीं। जातियाँ तो थीं। लेकिन उन्हे वर्ण से जोडा हुआ नहीं था। हर जाति में चारों वर्णों के बच्चे पैदा होते थे और अपने जन्मगत स्वभाव (वर्ण) के अनुसार अपने परिवार के काम में सहायक बनते थे। इस जन-गणना में अंग्रेजों ने जतियों को वर्णों में बाँटा। कई जातियों ने उन का वर्गीकरण किस वर्ण में करना चाहिये इस के लिये जन-गणना अधिकारियों और अंग्रेज सरकार के साथ चर्चाएँ कीं तथा छुटपुट आंदोलन भी चलाये थे। तब से पूरी जाति ही किसी वर्ण की कहलाई जाने लग गयी थी। यह तो भारतीय वर्ण की मान्यता से पूर्णत: भिन्न व्यवस्था थी। अ-प्राकृतिक थी। अस्वीकार्य थी। किंतु इस विषय को संवेदनशील बना देने के कारण इस विषय पर कोई बहस होती है तो जाति व्यवस्था को गालियाँ देने के लिये ही होती है। जाति व्यवस्था के तत्त्व को या मर्म को समझने के लिये नहीं होती। इस कारण से जातियों का चार वर्णों में बँट जाना यह बात पिछली ५ पीढियों में सर्वमान्य बन गयी है। वास्तव में तो वर्ण की वास्तविक कल्पना के अनुसार शूद्र जाति होती ही नहीं है। पशू हत्या से जुडे कर्मों के कारण या अन्य कुछ कारणों से हो, कुछ जातियाँ अछूत कहलाईं। कितु वे शूद्र जातियाँ नहीं थीं। हर जाति में सेवक का काम करने वाले लोग शूद्र वर्ण के ही माने जाते थे। इन शूद्रों में कुछ तो जन्म से ही शूद्र के गुण-कर्म लेकर आते हैं इस लिये शूद्र होते हैं तो दूसरे मनुस्मृति में कहे अनुसार अपने कर्मों से शूद्र बन जाते हैं तो तीसरे कुछ लोग परिस्थिति के कारण शूद्र (सेवक कर्म) करने के लिये बाध्य हो जाते हैं। हालाँ कि समाज के त्रिवर्ण का कोई शूद्र (सेवक)कर्म करने को बाध्य हो जाये, यह नहीं तो उस व्यक्ति के और ना ही समाज के हित में होता है।
 
भारत के इतिहास में कई बार ब्राह्मण जाति का मनुष्य राजा बना। सम्राट यशोधर्मा, पुष्यमित्र आदि ब्राह्मण जाति के  ही तो थे। शूद्र राजा भी कई हुए है। ये सब उन जातियों के क्षत्रिय वर्ण के लोग ही थे। क्षत्रिय राजा मनु द्वारा प्रस्तुत की गई 'मनुस्मृति’ हजारों वर्षोंतक भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त स्मृति रही है। क्या मनु को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? इसी तरह क्या बाबासाहब अंबेडकर को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है?
 
भारत के इतिहास में कई बार ब्राह्मण जाति का मनुष्य राजा बना। सम्राट यशोधर्मा, पुष्यमित्र आदि ब्राह्मण जाति के  ही तो थे। शूद्र राजा भी कई हुए है। ये सब उन जातियों के क्षत्रिय वर्ण के लोग ही थे। क्षत्रिय राजा मनु द्वारा प्रस्तुत की गई 'मनुस्मृति’ हजारों वर्षोंतक भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त स्मृति रही है। क्या मनु को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? इसी तरह क्या बाबासाहब अंबेडकर को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है?
 
राजा के सलाहकार कैसे हों इस विषय में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की मदद से राज्य चलाना चाहिये। 3 ब्राह्मण, 8 क्षत्रिय, 21 वैष्य और 3 शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। मनुस्मृति के अनुसार यह मंत्री श्रेष्ठ परंपराओं के वाहक, शास्त्र को जाननेवाले, बहादुर, ध्येयवादी, अच्छे कुलों के ऐसे होने चाहिये। उपर्युक्त मंत्रियों में से जो तीन शूद्र मंत्री है क्या उन से ब्राह्मण मंत्री की तरह ही अपेक्षाएं नहीं थीं । मंत्री के लिये अपेक्षित इन गुणों की अपेक्षा तो केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैष्य जाति के ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के लोगों से ही की जा सकती है।     
 
राजा के सलाहकार कैसे हों इस विषय में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की मदद से राज्य चलाना चाहिये। 3 ब्राह्मण, 8 क्षत्रिय, 21 वैष्य और 3 शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। मनुस्मृति के अनुसार यह मंत्री श्रेष्ठ परंपराओं के वाहक, शास्त्र को जाननेवाले, बहादुर, ध्येयवादी, अच्छे कुलों के ऐसे होने चाहिये। उपर्युक्त मंत्रियों में से जो तीन शूद्र मंत्री है क्या उन से ब्राह्मण मंत्री की तरह ही अपेक्षाएं नहीं थीं । मंत्री के लिये अपेक्षित इन गुणों की अपेक्षा तो केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैष्य जाति के ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के लोगों से ही की जा सकती है।     
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== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
 
वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ शास्त्रसंमत ही हैं। यह हमें ठीक से समझना होगा । जिन्हें हिन्दू समाज फिर से विश्वगुरू बने ऐसी आकांक्षा है ऐसे लोगों को अपने अपने पूर्वाग्रह छोडकर गहराई से इस विषय का अध्ययन करना होगा । वर्ण और जाति व्यवस्था का शास्त्रीय हिस्सा कौनसा है और अशास्त्रीय कौनसा है यह तय करना होगा। अशास्त्रीय हिस्से को छोडना होगा। शास्त्रीय हिस्से को प्रासंगिक ढंग से पुनर्प्रस्तुत करना होगा।  
 
वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ शास्त्रसंमत ही हैं। यह हमें ठीक से समझना होगा । जिन्हें हिन्दू समाज फिर से विश्वगुरू बने ऐसी आकांक्षा है ऐसे लोगों को अपने अपने पूर्वाग्रह छोडकर गहराई से इस विषय का अध्ययन करना होगा । वर्ण और जाति व्यवस्था का शास्त्रीय हिस्सा कौनसा है और अशास्त्रीय कौनसा है यह तय करना होगा। अशास्त्रीय हिस्से को छोडना होगा। शास्त्रीय हिस्से को प्रासंगिक ढंग से पुनर्प्रस्तुत करना होगा।  
छुआछूत का चलन यह जाति व्यवस्था में निर्माण हुवा गंभीर दोष है। यदि जाति व्यवस्था को बनाए रखना हो तो छुआछूत विहीन जाति व्यवस्था का ही विकास करना होगा।  
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छुआछूत का चलन यह जाति व्यवस्था में निर्माण हुआ गंभीर दोष है। यदि जाति व्यवस्था को बनाए रखना हो तो छुआछूत विहीन जाति व्यवस्था का ही विकास करना होगा।  
 
प्रकृति में पेड के दो पत्ते एक जैसे नहीं होते। दो मनुष्य भी एक जैसे नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता और कनिष्ठता तो रहेगी ही। यह प्राकृतिक ही है। किंतु मानव होने के नाते समानता आवश्यक है, इस तत्त्व का नयी जाति व्यवस्था में समावेष अनिवार्य है। जाति या वर्ण जो भी हो, मानवता का व्यवहार तो हर मानव से हो यह अनिवार्य है। समाज के प्रत्येक सदस्य को उस के कर्मों के आधारपर श्रेष्ठता या कनिष्ठता प्राप्त होगी। ऐसा होने से किसी के मन में कडवाहट नहीं रहेगी।
 
प्रकृति में पेड के दो पत्ते एक जैसे नहीं होते। दो मनुष्य भी एक जैसे नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता और कनिष्ठता तो रहेगी ही। यह प्राकृतिक ही है। किंतु मानव होने के नाते समानता आवश्यक है, इस तत्त्व का नयी जाति व्यवस्था में समावेष अनिवार्य है। जाति या वर्ण जो भी हो, मानवता का व्यवहार तो हर मानव से हो यह अनिवार्य है। समाज के प्रत्येक सदस्य को उस के कर्मों के आधारपर श्रेष्ठता या कनिष्ठता प्राप्त होगी। ऐसा होने से किसी के मन में कडवाहट नहीं रहेगी।
 
कुछ लोगों की पक्की धारणा है कि जाति व्यवस्था मूलत: ही दोषपूर्ण थी। इन में जो विचारशील लोग हैं उन्हें समझाना होगा। और नयी व्यवस्था के पक्ष में लाना होगा। जो लोग समझते हैं कि जाति व्यवस्था कभी ठीक रही होगी। लेकिन वर्तमान में तो यह अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वर्तमान जाति व्यवस्था को तोडने से पहले वे एक सशक्त वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति करें। वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग कर यह सिध्द करें कि उन के द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्थाओं के सभी लाभों को बनाए रखते हुए इस के दोषों का निवारण करती है। ऐसी परिस्थिति में उन के द्वारा प्रस्तुत व्यवस्था का स्वीकार करना हर्ष की ही बात होगी। किंतु ऐसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था की योजना के बगैर ही वर्तमान व्यवस्था को तोडने के प्रयास को बुध्दिमानी नहीं कहा जा सकता। ऐसा विकल्प जबतक नहीं मिल जाता, वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखते हुए उस के दोषों का निवारण करने के प्रयास करने होंगे।
 
कुछ लोगों की पक्की धारणा है कि जाति व्यवस्था मूलत: ही दोषपूर्ण थी। इन में जो विचारशील लोग हैं उन्हें समझाना होगा। और नयी व्यवस्था के पक्ष में लाना होगा। जो लोग समझते हैं कि जाति व्यवस्था कभी ठीक रही होगी। लेकिन वर्तमान में तो यह अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वर्तमान जाति व्यवस्था को तोडने से पहले वे एक सशक्त वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति करें। वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग कर यह सिध्द करें कि उन के द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्थाओं के सभी लाभों को बनाए रखते हुए इस के दोषों का निवारण करती है। ऐसी परिस्थिति में उन के द्वारा प्रस्तुत व्यवस्था का स्वीकार करना हर्ष की ही बात होगी। किंतु ऐसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था की योजना के बगैर ही वर्तमान व्यवस्था को तोडने के प्रयास को बुध्दिमानी नहीं कहा जा सकता। ऐसा विकल्प जबतक नहीं मिल जाता, वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखते हुए उस के दोषों का निवारण करने के प्रयास करने होंगे।
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