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आनंदमय कोश के विकास का अर्थ है, चित्त का विकास । अपने शरीर में स्थित उस परमात्वतत्व को जैसा वह है वैसा ही जानने की क्षमता, सहजता, स्वतंत्रता, सौंदर्यबोध यह चित्त के विकास के लक्षण है ।   
 
आनंदमय कोश के विकास का अर्थ है, चित्त का विकास । अपने शरीर में स्थित उस परमात्वतत्व को जैसा वह है वैसा ही जानने की क्षमता, सहजता, स्वतंत्रता, सौंदर्यबोध यह चित्त के विकास के लक्षण है ।   
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मनुष्य और समाज  - इन का परस्पर संबंध अन्योन्याश्रित है । समाज के बिना मनुष्य जी नही सकता । इस समाज के संबंध में आत्मीयता की, एकात्मता की भावना का विकास ही समष्टिगत् विकास कहलाता है । समाज के हर घटक के दुख में दुख की अनुभूति होना इसका लक्षण है । इसी तरह मनुष्य और समाज सृष्टि के बिना जीवित नही रह सकते। इस चराचर सृष्टि के साथ आत्मीयता की, एकात्मता की भावना का विकास ही सृष्टिगत् विकास है । उपर्युक्त तीनों प्रकार से विकास होने से परमेष्ठिगत् विकास अपने आप हो जाता है ।  <blockquote>अहं ब्रह्मास्मि<ref>बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद</ref></blockquote><blockquote>तत् त्वं असि<ref>Chandogya Upanishad 6.8.7</ref> </blockquote><blockquote>सर्वं खल्विदं ब्रह्मं<ref>छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद</ref></blockquote>अर्थात् मैं ही वह परमात्मतत्व हूं, तुम भी वह परमात्वत्व ही हो और चराचर में वह परमात्मतत्व ही व्याप्त है इस की अनुभूति होना ही परमेष्ठिगत् विकास है । यही पूर्णत्व है । यही मोक्ष है । यही नर का नारायण बनाना है। यही अहंकार विजय है। यही मानव जीवन का लक्ष्य है ।   
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मनुष्य और समाज  - इन का परस्पर संबंध अन्योन्याश्रित है । समाज के बिना मनुष्य जी नही सकता । इस समाज के संबंध में आत्मीयता की, एकात्मता की भावना का विकास ही समष्टिगत् विकास कहलाता है । समाज के हर घटक के दुख में दुख की अनुभूति होना इसका लक्षण है । इसी तरह मनुष्य और समाज सृष्टि के बिना जीवित नही रह सकते। इस चराचर सृष्टि के साथ आत्मीयता की, एकात्मता की भावना का विकास ही सृष्टिगत् विकास है । उपर्युक्त तीनों प्रकार से विकास होने से परमेष्ठिगत् विकास अपने आप हो जाता है ।  <blockquote>अहं ब्रह्मास्मि<ref>बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद</ref></blockquote><blockquote>तत् त्वं असि<ref>छान्दोग्य उपनिषद 6.8.7</ref> </blockquote><blockquote>सर्वं खल्विदं ब्रह्मं<ref>छान्दोग्य उपनिषद 3.14.1- सामवेद</ref></blockquote>अर्थात् मैं ही वह परमात्मतत्व हूं, तुम भी वह परमात्वत्व ही हो और चराचर में वह परमात्मतत्व ही व्याप्त है इस की अनुभूति होना ही परमेष्ठिगत् विकास है । यही पूर्णत्व है । यही मोक्ष है । यही नर का नारायण बनाना है। यही अहंकार विजय है। यही मानव जीवन का लक्ष्य है ।   
    
== मानव जीवन का लक्ष्य ==
 
== मानव जीवन का लक्ष्य ==
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