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== मानव के व्यक्तित्व से संबंधित महत्वपूर्ण बातें ==
 
== मानव के व्यक्तित्व से संबंधित महत्वपूर्ण बातें ==
 
# मानव यह परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना है। सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। परमात्मा की सभी शक्तियाँ मनुष्य के पास विद्यमान होतीं हैं। केवल मात्रा का अंतर होता है। मानव की शक्तियाँ मर्यादित हैं। परमात्मा की अमर्याद हैं। किंतु भारतीय मान्यता और इतिहास के अनुसार नर करनी करे तो नारायण तक विकास कर सकता है।  
 
# मानव यह परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना है। सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। परमात्मा की सभी शक्तियाँ मनुष्य के पास विद्यमान होतीं हैं। केवल मात्रा का अंतर होता है। मानव की शक्तियाँ मर्यादित हैं। परमात्मा की अमर्याद हैं। किंतु भारतीय मान्यता और इतिहास के अनुसार नर करनी करे तो नारायण तक विकास कर सकता है।  
# मानव जीवन का नियमन उसके कर्म ही करते हैं। भारतीय मान्यता है कि जीवों की ८४ लक्ष योनियाँ हैं। इनमें केवल मानव योनि ही कर्मयोनि है। अन्य सभी प्राणियों की योनियाँ भोग योनियाँ हैं। प्राणि उन्हें कहते हैं जो प्राण के यानि आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीते हैं। इन अर्थों में मानव एक प्राणि भी है।  जन्म से तो मानव भी अन्य प्राणियों जैसा प्राण के स्तर पर जीनेवाला जीव ही होता है। संस्कार और शिक्षा से वह मन के स्तर पर जीने लगता है।  
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# मानव जीवन का नियमन उसके कर्म ही करते हैं। भारतीय मान्यता है कि जीवों की ८४ लक्ष योनियाँ हैं। इनमें केवल मानव योनि ही कर्मयोनि है। अन्य सभी प्राणियों की योनियाँ भोग योनियाँ हैं। प्राणि उन्हें कहते हैं जो प्राण के यानि आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीते हैं। इन अर्थों में मानव एक प्राणि भी है।  जन्म से तो मानव भी अन्य प्राणियों जैसा प्राण के स्तर पर जीनेवाला जीव ही होता है। संस्कार और शिक्षा से वह मन के स्तर पर जीने लगता है। '''मन के स्तर पर जीनेवाले को मानव कहते हैं'''। बुध्दि के स्तर पर जीनेवाले को महामानव और चित्त या आत्मिक स्तर पर जीनेवाले को और भी अधिक श्रेष्ठ मानव या नरोत्तम कहा जाता है।  
'''मन के स्तर पर जीनेवाले को मानव कहते हैं'''। बुध्दि के स्तर पर जीनेवाले को महामानव और चित्त या आत्मिक स्तर पर जीनेवाले को और भी अधिक श्रेष्ठ मानव या नरोत्तम कहा जाता है।
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# मानवेतर योनियों के प्राणियों को अपने स्वाभाविक प्राणिक आवेगों के अनुसार चलने मात्र की बुध्दि और मन मिला है। इसलिये सामान्यत: ये प्राणि स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकते। केवल मानव को विशेष मन, बुध्दि, स्मृति आदि मिले हैं इस कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न, प्राणिक आवेगों से भिन्न और प्राणिक आवेगों के विपरीत भी कर्म करने की स्वतंत्रता ले सकता है। मानव व्यवहार की इस स्वतंत्रता का नियमन उस के कर्मों से होता है। यह नियमन कर्मसिध्दांत के आधार पर होता है। कर्मसिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये ‘[[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|जीवनशैली के सूत्र]]‘ अध्याय में देखें। ऋणसिद्धांत का आधार भी कर्मसिद्धांत ही है।  
 
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# सृष्टि में मानव निर्माण तो सब से अंत में हुआ था। उससे पहले सृष्टि थी। सृष्टि के विलय की प्रक्रिया में भी मानव जाति नष्ट होने के उपरांत भी सृष्टि होगी।  सृष्टि को मानव की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मानव सृष्टि के बगैर जी नहीं सकता। इसलिये मानव के लिये यह अनिवार्य है कि वह सृष्टि के साथ अपने को समायोजित करे। अपने सभी व्यवहार प्रकृति सुसंगत रखे। प्रकृति का संतुलन नहीं बिगाडे। सृष्टि चक्र को अबाधित रखे। वैसे भी सृष्टि या प्रकृति के साथ जब मानव खिलवाड़ करता है, एक सीमा तक तो प्रकृति उसे सहन कर लेती है। इस सीमा को लाँघने के बाद प्रकृति भी उसकी प्रतिक्रया देती है। इस प्रतिक्रया से मानव का ही नुकसान होता है।  
मानवेतर योनियों के प्राणियों को अपने स्वाभाविक प्राणिक आवेगों के अनुसार चलने मात्र की बुध्दि और मन मिला है। इसलिये सामान्यत: ये प्राणि स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकते। केवल मानव को विशेष मन, बुध्दि, स्मृति आदि मिले हैं इस कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न, प्राणिक आवेगों से भिन्न और प्राणिक आवेगों के विपरीत भी कर्म करने की स्वतंत्रता ले सकता है। मानव व्यवहार की इस स्वतंत्रता का नियमन उस के कर्मों से होता है। यह नियमन कर्मसिध्दांत के आधार पर होता है। कर्मसिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये ‘[[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|जीवनशैली के सूत्र]]‘ अध्याय में देखें। ऋणसिद्धांत का आधार भी कर्मसिद्धांत ही है।
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# श्रेष्ठता के साथ दायित्व आता है। दायित्व बोध आना चाहिये। मानव को जो श्रेष्ठता परमात्मा से मिली है उस के कारण मानव का यह दायित्व बनता है कि वह विवेक से काम ले। प्रकृति नहीं बिगाडे। जीवश्रृंखला को नहीं तोडे। प्रकृति के साथ खिलवाड नहीं करे। दुर्बलों की सहायता करे। मानव को मिली श्रेष्ठ स्मृति के कारण ‘कृतज्ञता’, उपकार से उतराई होना यह मानव का अनिवार्य लक्षण है।  
 
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# भारतीय दृष्टि से मानव जीवन का लक्ष्य मोक्षप्राप्ति या मुक्ति है। व्यक्तिगत से ऊपर परमेष्ठीगत विकास है। इसी तरह मानव का सामाजिक स्तर पर लक्ष्य ‘स्वतंत्रता’ है। और सृष्टि के स्तरपर ‘धर्माचरण’ है। सृष्टि के नियमों के अनुकूल व्यवहार भी धर्म ही होता है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वैराचार नहीं होता। स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारियाँ आतीं हैं। दायित्व आते हैं। धर्म के विषय में अधिक जानकारी के लिये अध्याय ३ ‘[[Dharma: Bhartiya Jeevan Drishti (धर्म:भारतीय जीवन दृष्टि)|धर्म]]’ में देखें।  
३. सृष्टि में मानव निर्माण तो सब से अंत में हुआ था। उससे पहले सृष्टि थी। सृष्टि के विलय की प्रक्रिया में भी मानव जाति नष्ट होने के उपरांत भी सृष्टि होगी।  सृष्टि को मानव की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मानव सृष्टि के बगैर जी नहीं सकता। इसलिये मानव के लिये यह अनिवार्य है कि वह सृष्टि के साथ अपने को समायोजित करे। अपने सभी व्यवहार प्रकृति सुसंगत रखे। प्रकृति का संतुलन नहीं बिगाडे। सृष्टि चक्र को अबाधित रखे। वैसे भी सृष्टि या प्रकृति के साथ जब मानव खिलवाड़ करता है, एक सीमा तक तो प्रकृति उसे सहन कर लेती है। इस सीमा को लाँघने के बाद प्रकृति भी उसकी प्रतिक्रया देती है। इस प्रतिक्रया से मानव का ही नुकसान होता है।
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# मानव सदैव सुख की खोज करता रहता है। मानव के सारे प्रयास मूलत: सुखप्राप्ति के लिये होते हैं। सुख का अर्थ अनुकूल संवेदना है। सुख प्राप्ति के लिये निम्न बातें अनिवार्य होती है:
 
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#* सुसाध्य आजीविका  
४.  श्रेष्ठता के साथ दायित्व आता है। दायित्व बोध आना चाहिये। मानव को जो श्रेष्ठता परमात्मा से मिली है उस के कारण मानव का यह दायित्व बनता है कि वह विवेक से काम ले। प्रकृति नहीं बिगाडे। जीवश्रृंखला को नहीं तोडे। प्रकृति के साथ खिलवाड नहीं करे। दुर्बलों की सहायता करे। मानव को मिली श्रेष्ठ स्मृति के कारण ‘कृतज्ञता’, उपकार से उतराई होना यह मानव का अनिवार्य लक्षण है।  
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#* स्वतंत्रता  
 
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#* शांति  
५.  भारतीय दृष्टि से मानव जीवन का लक्ष्य मोक्षप्राप्ति या मुक्ति है। व्यक्तिगत से ऊपर परमेष्ठीगत विकास है। इसी तरह मानव का सामाजिक स्तर पर लक्ष्य ‘स्वतंत्रता’ है। और सृष्टि के स्तरपर ‘धर्माचरण’ है। सृष्टि के नियमों के अनुकूल व्यवहार भी धर्म ही होता है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वैराचार नहीं होता। स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारियाँ आतीं हैं। दायित्व आते हैं। धर्म के विषय में अधिक जानकारी के लिये अध्याय ३ ‘[[Dharma: Bhartiya Jeevan Drishti (धर्म:भारतीय जीवन दृष्टि)|धर्म]]’ में देखें।
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#* पौरुष  
 
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#* इन चारों बातों का समष्टीगत होना व्यक्ति के सुख के लिये आवश्यक है। जितने प्रमाण में ये समष्टिगत होंगी उतने प्रमाण में ही व्यक्ति को भी सुख मिल सकता है।  
६.  मानव सदैव सुख की खोज करता रहता है। मानव के सारे प्रयास मूलत: सुखप्राप्ति के लिये होते हैं। सुख का अर्थ अनुकूल संवेदना है। सुख प्राप्ति के लिये निम्न बातें अनिवार्य होती हैं:  
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# सुख के भी भिन्न भिन्न प्रकार होते हैं। '''दैवी, मानवी और पाशवी'''। दैवी सुख आत्मिक सुख को कहते हैं। इस में ममता, सहानुभूति, आत्मीयता, परोपकार, प्रेम आदि के कारण मिले सुखों का समावेश होता है। मानवी सुख मन का सुख होता है। यह मन को प्रसन्न करनेवाला सुख होता है। पाशवी सुख में शरीर और इंद्रियों का सुख आता है। यह स्तर प्राणिक आवेगों में अनुकूल अनुभवों का स्तर है। सुख के भिन्न भिन्न स्तर भी होते हैं। इंद्रिय सुख का स्तर सबसे नीचे होता है। मन का सुख उससे ऊपर, बुध्दि का सुख उससे ऊपर, चित्त का सुख या आनंद उससे ऊपर और परमानंद का या परम कल्याण का सुख (आत्मीय) सब से ऊपर होता है। इस परम सुख का नाम ही मोक्ष है। आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिये अन्य तीनों के न्यूनतम सुख की प्राप्ति की आवश्यकता होती है। यह मन-बुध्दि में स्थापित करने के लिये ही धर्मशिक्षा की व्यवस्था की जाती है।  
 
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# मानवेतर प्राणियों में नवजात बच्चे बहुत शीघ्र स्वावलंबी बन जाते हैं। मानव में व्यक्तित्व विकास यह लंबी चलनेवाली प्रक्रिया होती है। इसलिये मानव परिवार की रचना और पशूओं के परिवार की रचना में और प्रवर्तन में अंतर होता है।  
- सुसाध्य आजीविका
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# मानव का व्यक्तित्व पाँच पहलुओं से बना है। तैत्तिरीय उपनिषद् में इन्हें पञ्चविध पुरूष कहा है। आदि जगदगुरु शंकराचार्य इन पहलुओं को पंचकोश कहते हैं। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय - ऐसे उन पञ्चविध पुरूषों के या पाँच कोशों के नाम हैं। सामान्य लोगों की भाषा में इन्हें शरीर (इंद्रियाँ), प्राण, मन, बुध्दि और चित्त कहा जा सकता है। जन्म के समय इन सभी का स्वरूप अविकसित होता है। ये सब बातें वैसे तो हर प्राणि के पास भी होतीं ही हैं। किंतु मानवेतर प्राणियों में मन, बुध्दि और चित्त या तो अक्रिय होते हैं या अत्यंत निम्न स्तर के होते हैं।
 
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#* हर मानव के पंचकोशीय स्वरूप में से स्वयं परमात्मा अभिव्यक्त होता है इसीलिये मानव को व्यक्ति कहते हैं। इन कोशों के साथ तादात्म्य हो जाने से उस व्यक्ति में उपस्थित आत्म तत्व अपने को व्यक्ति मानने लग जाता है। जब मानव इन पंचकोशों के परे जाता है तब ही उस का साक्षात्कार परमात्मा से होता है। हर मानव का व्यक्तित्व अन्य मानवों से भिन्न होता है। इसलिये उसके विकास का रास्ता भी अन्यों से भिन्न होता है।  
- स्वतंत्रता
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# मानव व्यक्तित्व के पहलुओं का विकास भी एकसाथ नहीं होता। गर्भधारणा के बाद सर्वप्रथम चित्त सक्रिय होता है। इस काल में गर्भ अपनी माँ से भी कहीं अधिक संवेदनशील होता है। अब तक इंद्रियों का विकास नहीं होने से शब्द, स्पर्श, रूप रस और गंध के सूक्ष्म से सूक्ष्म संस्कार वह ग्रहण कर लेता है। जब इंद्रियों का निर्माण शुरू होता है तब फिर संस्कार क्षमता उस इंद्रिय की क्षमता जितनी कम हो जाती है।
 
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#* शिशू अवस्था में बालक के इंद्रियों के विकास का काल होता है। पूर्वबाल्यावस्था में मन का या विचार शक्ति का, उत्तर बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था में बुध्दि, तर्क आदि का और उत्तर किशोरवस्था में तथा यौवन में अहंकार का यानी 'मै' का यानी कर्ता भाव (मैं करता हूँ), ज्ञाता भाव (मैं जानता हूँ) और भोक्ता भाव (मैं उपभोग करता हूँ) का विकास होता है। इसलिये व्यक्तित्व विकास के लिये संस्कारों का और शिक्षा का स्वरूप आयु की अवस्था के अनुसार बदलता है।  
- शांति
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# हर मानव जन्म लेते समय अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार विकास की कुछ संभाव्य सीमाएँ लेकर जन्म लेता है। अच्छा संगोपन मिलने से वह पूरी संभावनाओं तक विकास कर सकता है। कुछ विशेष इच्छाशक्ति रखने वाले बच्चे अपनी संभावनाओं से भी अधिक विकास कर लेते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे अल्प संख्या में ही होते हैं। अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अपवाद स्वरूप बच्चों के विकास के लिये सामान्य बच्चों के नियम और पद्धतियाँ पर्याप्त नहीं होतीं। सामान्य बच्चों के साथ भी विशेष प्रतिभा रखनेवाले बच्चों जैसा व्यवहार करने से सामान्य बच्चों की हानि होती है। समाज के सभी लोग प्रतिभावान या जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ‘श्रेष्ठ’ कहती है या जिन्हें ‘महाजनो येन गत: स: पंथ:’ में ‘महाजन’ कहा गया है ऐसे नहीं होते हैं। इनका समाज में प्रमाण ५-१० प्रतिशत से अधिक नहीं होता है।  इसीलिये भारतीय समाज के पतन के कालखण्ड छोड दें तो सामान्यत: भारतीय न्याय व्यवस्था में एक ही प्रकार के अपराध के लिये ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक, क्षत्रिय को वैश्य से अधिक और वैश्य को शूद्र से अधिक दण्ड का विधान था। इस विषय में चीनी प्रवासी द्वारा लिखी विक्रमादित्य की कथा ध्यान देने योग्य है। कुछ स्मृतियों में ब्राह्मण को अवध्य कहा गया है। अवध्यता से तात्पर्य है शारीरिक अवध्यता। ब्राह्मण का अपराधी सिध्द होना उसके सम्मान की समाप्ति होती है। और  ब्राह्मण का सम्मान छिन जाना मृत्यू से अधिक बडा दंड माना जाता था। ब्राह्मणों में क्षत्रियों में और वैश्यों में भी महाजन होते हैं। इनका प्रमाण ५-१० % से कम ही होता है।  
 
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# आवश्यकता और इच्छा एक नहीं हैं। आवश्यकताएँ शरीर और प्राण के लिये होती हैं। इसलिये वे मर्यादित होतीं हैं। इच्छाएँ मन करता है। मन की शक्ति असीम होती है। इसीलिये इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। इच्छाओं की पूर्ति से मन तृप्त नहीं होता। वह और इच्छा करने लग जाता है। इसी का वर्णन किया है:  
- पौरुष
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<blockquote>न जातु काम: कामानाम् उपभोगेन शाम्यम् ।</blockquote><blockquote>हविषा कृष्णवर्त्वेम् भूयं एवाभिवर्धते ॥</blockquote>
 
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# प्रत्येक मानव को उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति का अधिकार और सामर्थ्य होती है। लेकिन साथ ही में इच्छाओं को नियंत्रण में रखने का दायित्व भी होता है। इसलिए मन के संयम की शिक्षा, शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पहलू है। स्वाद संयम, वाणी संयम ऐसे सभी इन्द्रियों की तन्मात्राओं याने स्पर्श, रूप, रस, गंध और शब्द इन के विषय में संयम रखना चाहिए । सामान्यत: बुद्धि, जब तक कि इन्द्रिय नियंत्रित मन उसे प्रभावित नहीं करता, ठीक ही काम करती है। इसलिए हम ऐसा भी कह सकते हैं कि इन्द्रियों को मन के नियंत्रण में रखने की और मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखने की शिक्षा भी शिक्षा का आवश्यक पहलू है।  
इन चारों बातों का समष्टीगत होना व्यक्ति के सुख के लिये आवश्यक है। जितने प्रमाण में ये समष्टिगत होंगी उतने प्रमाण में ही व्यक्ति को भी सुख मिल सकता है।  
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# मानव अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति में उपलब्ध पदार्थों से या तो सीधे या समाज के अन्य सदस्यों के माध्यम से करता है। इसलिये यह मानव के ही हित में है कि वह प्रकृति के साथ कोई खिलवाड नहीं करे।  
 
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# श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार चारों वर्ण परमात्मा द्वारा निर्मित हैं । इन में अंतर गुणों का और कर्मों का है। गुण का अर्थ है सत्व, रज और तम गुण। वैसे तो प्रत्येक मनुष्य में तीनों गुण कम अधिक मात्रा में होते ही हैं,  लेकिन जिस वर्ण की प्रधानता होगी उसी वर्ण का वह व्यक्ति माना जाता है। वर्णश: गुणों का संबंध निम्न है:  
सुख के भी भिन्न भिन्न प्रकार होते हैं। '''दैवी, मानवी और पाशवी'''। दैवी सुख आत्मिक सुख को कहते हैं। इस में ममता, सहानुभूति, आत्मीयता, परोपकार, प्रेम आदि के कारण मिले सुखों का समावेश होता है। मानवी सुख मन का सुख होता है। यह मन को प्रसन्न करनेवाला सुख होता है। पाशवी सुख में शरीर और इंद्रियों का सुख आता है। यह स्तर प्राणिक आवेगों में अनुकूल अनुभवों का स्तर है। सुख के भिन्न भिन्न स्तर भी होते हैं। इंद्रिय सुख का स्तर सबसे नीचे होता है। मन का सुख उससे ऊपर, बुध्दि का सुख उससे ऊपर, चित्त का सुख या आनंद उससे ऊपर और परमानंद का या परम कल्याण का सुख (आत्मीय) सब से ऊपर होता है। इस परम सुख का नाम ही मोक्ष है। आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिये अन्य तीनों के न्यूनतम सुख की प्राप्ति की आवश्यकता होती है। यह मन-बुध्दि में स्थापित करने के लिये ही धर्मशिक्षा की व्यवस्था की जाती है।
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* ब्राह्मण वर्ण- सत्व प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांक पर रज या तम
 
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* क्षत्रिय वर्ण- रज प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांक पर सत्व या तम
७.  मानवेतर प्राणियों में नवजात बच्चे बहुत शीघ्र स्वावलंबी बन जाते हैं। मानव में व्यक्तित्व विकास यह लंबी चलनेवाली प्रक्रिया होती है। इसलिये मानव परिवार की रचना और पशूओं के परिवार की रचना में और प्रवर्तन में अंतर होता है।  
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* वैश्य वर्ण- रज प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांक पर सत्व या तम
 
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* शूद्र वर्ण- तम प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांक पर सत्व या रज
८.  मानव का व्यक्तित्व पाँच पहलुओं से बना है। तैत्तिरीय उपनिषद् में इन्हें पञ्चविध पुरूष कहा है। आदि जगदगुरु शंकराचार्य इन पहलुओं को पंचकोश कहते हैं। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय - ऐसे उन पञ्चविध पुरूषों के या पाँच कोशों के नाम हैं। सामान्य लोगों की भाषा में इन्हें शरीर (इंद्रियाँ), प्राण, मन, बुध्दि और चित्त कहा जा सकता है। जन्म के समय इन सभी का स्वरूप अविकसित होता है। ये सब बातें वैसे तो हर प्राणि के पास भी होतीं ही हैं। किंतु मानवेतर प्राणियों में मन, बुध्दि और चित्त या तो अक्रिय होते हैं या अत्यंत निम्न स्तर के होते हैं।
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समाज सुखी बनें इसलिये विप्र वर्ण स्वतंत्रता के लिये, क्षत्रिय वर्ण सुरक्षा के लिये, वैश्य वर्ण सुसाध्य आजीविका के लिये और शूद्र वर्ण शांति के लिये जिम्मेदार है। ब्राह्मण वर्ण की जिम्मेदारी स्वाभाविक स्वतंत्रता की प्रस्थापना, क्षत्रिय वर्ण की जिम्मेदारी शासनिक स्वतंत्रता की प्रस्थापना, वैश्य वर्ण की जिम्मेदारी आर्थिक स्वतंत्रता की प्रस्थापना की है। देशिक शास्त्र इन स्वतंत्रताओं की व्याख्या निम्न रूप में करता है:
 
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हर मानव के पंचकोशीय स्वरूप में से स्वयं परमात्मा अभिव्यक्त होता है इसीलिये मानव को व्यक्ति कहते हैं। इन कोशों के साथ तादात्म्य हो जाने से उस व्यक्ति में उपस्थित आत्म तत्व अपने को व्यक्ति मानने लग जाता है। जब मानव इन पंचकोशों के परे जाता है तब ही उस का साक्षात्कार परमात्मा से होता है। हर मानव का व्यक्तित्व अन्य मानवों से भिन्न होता है। इसलिये उसके विकास का रास्ता भी अन्यों से भिन्न होता है।  
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९.  मानव व्यक्तित्व के पहलुओं का विकास भी एकसाथ नहीं होता। गर्भधारणा के बाद सर्वप्रथम चित्त सक्रिय होता है। इस काल में गर्भ अपनी माँ से भी कहीं अधिक संवेदनशील होता है। अब तक इंद्रियों का विकास नहीं होने से शब्द, स्पर्श, रूप रस और गंध के सूक्ष्म से सूक्ष्म संस्कार वह ग्रहण कर लेता है। जब इंद्रियों का निर्माण शुरू होता है तब फिर संस्कार क्षमता उस इंद्रिय की क्षमता जितनी कम हो जाती है।
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शिशू अवस्था में बालक के इंद्रियों के विकास का काल होता है। पूर्वबाल्यावस्था में मन का या विचार शक्ति का, उत्तर बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था में बुध्दि, तर्क आदि का और उत्तर किशोरवस्था में तथा यौवन में अहंकार का यानी 'मै' का यानी कर्ता भाव (मैं करता हूँ), ज्ञाता भाव (मैं जानता हूँ) और भोक्ता भाव (मैं उपभोग करता हूँ) का विकास होता है। इसलिये व्यक्तित्व विकास के लिये संस्कारों का और शिक्षा का स्वरूप आयु की अवस्था के अनुसार बदलता है।  
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१०. हर मानव जन्म लेते समय अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार विकास की कुछ संभाव्य सीमाएँ लेकर जन्म लेता है। अच्छा संगोपन मिलने से वह पूरी संभावनाओं तक विकास कर सकता है। कुछ विशेष इच्छाशक्ति रखने वाले बच्चे अपनी संभावनाओं से भी अधिक विकास कर लेते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे अल्प संख्या में ही होते हैं। अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अपवाद स्वरूप बच्चों के विकास के लिये सामान्य बच्चों के नियम और पद्धतियाँ पर्याप्त नहीं होतीं। सामान्य बच्चों के साथ भी विशेष प्रतिभा रखनेवाले बच्चों जैसा व्यवहार करने से सामान्य बच्चों की हानि होती है। समाज के सभी लोग प्रतिभावान या जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ‘श्रेष्ठ’ कहती है या जिन्हें ‘महाजनो येन गत: स: पंथ:’ में ‘महाजन’ कहा गया है ऐसे नहीं होते हैं। इनका समाज में प्रमाण ५-१० प्रतिशत से अधिक नहीं होता है।  इसीलिये भारतीय समाज के पतन के कालखण्ड छोड दें तो सामान्यत: भारतीय न्याय व्यवस्था में एक ही प्रकार के अपराध के लिये ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक, क्षत्रिय को वैश्य से अधिक और वैश्य को शूद्र से अधिक दण्ड का विधान था। इस विषय में चीनी प्रवासी द्वारा लिखी विक्रमादित्य की कथा ध्यान देने योग्य है। कुछ स्मृतियों में ब्राह्मण को अवध्य कहा गया है। अवध्यता से तात्पर्य है शारीरिक अवध्यता। ब्राह्मण का अपराधी सिध्द होना उसके सम्मान की समाप्ति होती है। और  ब्राह्मण का सम्मान छिन जाना मृत्यू से अधिक बडा दंड माना जाता था। ब्राह्मणों में क्षत्रियों में और वैश्यों में भी महाजन होते हैं। इनका प्रमाण ५-१० % से कम ही होता है।  
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११. आवश्यकता और इच्छा एक नहीं हैं। आवश्यकताएँ शरीर और प्राण के लिये होती हैं। इसलिये वे मर्यादित होतीं हैं। इच्छाएँ मन करता है। मन की शक्ति असीम होती है। इसीलिये इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। इच्छाओं की पूर्ति से मन तृप्त नहीं होता। वह और इच्छा करने लग जाता है। इसी का वर्णन किया है:<blockquote>न जातु काम: कामानाम् उपभोगेन शाम्यम् ।</blockquote><blockquote>हविषा कृष्णवर्त्वेम् भूयं एवाभिवर्धते ॥ </blockquote>प्रत्येक मानव को उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति का अधिकार और सामर्थ्य होती है। लेकिन साथ ही में इच्छाओं को नियंत्रण में रखने का दायित्व भी होता है। इसलिए मन के संयम की शिक्षा, शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पहलू है। स्वाद संयम, वाणी संयम ऐसे सभी इन्द्रियों की तन्मात्राओं याने स्पर्श, रूप, रस, गंध और शब्द इन के विषय में संयम रखना चाहिए । सामान्यत: बुद्धि, जब तक कि इन्द्रिय नियंत्रित मन उसे प्रभावित नहीं करता, ठीक ही काम करती है। इसलिए हम ऐसा भी कह सकते हैं कि इन्द्रियों को मन के नियंत्रण में रखने की और मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखने की शिक्षा भी शिक्षा का आवश्यक पहलू है।
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१२. मानव अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति में उपलब्ध पदार्थों से या तो सीधे या समाज के अन्य सदस्यों के माध्यम से करता है। इसलिये यह मानव के ही हित में है कि वह प्रकृति के साथ कोई खिलवाड नहीं करे।  
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१३. श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार चारों वर्ण परमात्मा द्वारा निर्मित हैं । इन में अंतर गुणों का और कर्मों का है। गुण का अर्थ है सत्व, रज और तम गुण। वैसे तो प्रत्येक मनुष्य में तीनों गुण कम अधिक मात्रा में होते ही हैं,  लेकिन जिस वर्ण की प्रधानता होगी उसी वर्ण का वह व्यक्ति माना जाता है। वर्णश: गुणों का संबंध निम्न है:<blockquote>ब्राह्मण वर्ण - सत्व प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांक पर रज या तम</blockquote><blockquote>क्षत्रिय वर्ण - रज प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांक पर सत्व या तम</blockquote><blockquote>वैश्य वर्ण - रज प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांक पर सत्व या तम</blockquote><blockquote>शूद्र वर्ण - तम प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांक पर सत्व या रज</blockquote>समाज सुखी बनें इसलिये विप्र वर्ण स्वतंत्रता के लिये, क्षत्रिय वर्ण सुरक्षा के लिये, वैश्य वर्ण सुसाध्य आजीविका के लिये और शूद्र वर्ण शांति के लिये जिम्मेदार है। ब्राह्मण वर्ण की जिम्मेदारी स्वाभाविक स्वतंत्रता की प्रस्थापना, क्षत्रिय वर्ण की जिम्मेदारी शासनिक स्वतंत्रता की प्रस्थापना, वैश्य वर्ण की जिम्मेदारी आर्थिक स्वतंत्रता की प्रस्थापना की है। देशिक शास्त्र इन स्वतंत्रताओं की व्याख्या निम्न रूप में करता है:
      
१३.१ स्वाभाविक स्वतंत्रता : जो काम किसी के प्राकृतिक हित के प्रतिकूल नहीं हो उस काम को करने में किसी का और किसी भी प्रकारका हस्तक्षेप नहीं होने को स्वाभाविक स्वतंत्रता कहते हैं। शासनिक और आर्थिक स्वतंत्रता स्वाभाविक स्वतंत्रता में साविष्ट हैं।  
 
१३.१ स्वाभाविक स्वतंत्रता : जो काम किसी के प्राकृतिक हित के प्रतिकूल नहीं हो उस काम को करने में किसी का और किसी भी प्रकारका हस्तक्षेप नहीं होने को स्वाभाविक स्वतंत्रता कहते हैं। शासनिक और आर्थिक स्वतंत्रता स्वाभाविक स्वतंत्रता में साविष्ट हैं।  
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