Line 17: |
Line 17: |
| धर्म का अर्थ कर्तव्य भी होता है । कर्तव्य के भी दो हिस्से है । एक है सामासिक धर्म या समाज के प्रत्येक घटक द्वारा अपेक्षित कर्तव्य और दूसरा हिस्सा है व्यक्तिगत स्तर के कर्तव्य । | | धर्म का अर्थ कर्तव्य भी होता है । कर्तव्य के भी दो हिस्से है । एक है सामासिक धर्म या समाज के प्रत्येक घटक द्वारा अपेक्षित कर्तव्य और दूसरा हिस्सा है व्यक्तिगत स्तर के कर्तव्य । |
| | | |
− | सामान्य धर्म के विषय में मनुस्मृति में कहा है<ref>मनुस्मृति </ref>: | + | सामान्य धर्म के विषय में मनुस्मृति में कहा है<ref>मनुस्मृति 10-163 </ref>:<blockquote>अहिंसा सत्य अस्तेयं शाप्रचमिन्द्रियनिग्रह: ।</blockquote><blockquote>एतं सामासिकं धर्मं चातुरर््वण्येऽब्रवीन्मनु: ॥10-163॥</blockquote>'''भावार्थ''' : अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, अंतर्बाह्य स्वच्छता और इंन्द्रिय संयम यह समाज के प्रत्येक घटक के सभी वर्णों के हर व्यक्ति के कर्तव्य है । |
− | | |
− | अहिंसा सत्य अस्तेयं शाप्रचमिन्द्रियनिग्रह: । | |
− | | |
− | एतं सामासिकं धर्मं चातुरर््वण्येऽब्रवीन्मनु: ॥ ( मनुस्मृति १० - १६३) | |
− | | |
− | '''भावार्थ''' : अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, अंतर्बाह्य स्वच्छता और इंन्द्रिय संयम यह समाज के प्रत्येक घटक के सभी वर्णों के हर व्यक्ति के कर्तव्य है । | |
| | | |
| व्यक्ति के भी समाज के अन्य घटकों के साथ जो परस्पर संबंध है उन के अनुसार व्यक्तिगत कर्तव्य भी होते है । जैसे पत्नी से संबंधित पति के कर्तव्यों को पतिधर्म कहा जाता है । पडोसी से संबंधित कर्तव्यों को पडोसीधर्म कहा जाता है । बेटे-बेटी के अपने मातापिता के प्रति कर्तव्य को पुत्रधर्म कहा जाता है । व्यापारी के ग्राहक के प्रति कर्तव्यों को व्यापारी धर्म कहा जाता है । सैनिक के अपने देश के प्रति कर्तव्यों को सैनिकधर्म कहा जाता है। | | व्यक्ति के भी समाज के अन्य घटकों के साथ जो परस्पर संबंध है उन के अनुसार व्यक्तिगत कर्तव्य भी होते है । जैसे पत्नी से संबंधित पति के कर्तव्यों को पतिधर्म कहा जाता है । पडोसी से संबंधित कर्तव्यों को पडोसीधर्म कहा जाता है । बेटे-बेटी के अपने मातापिता के प्रति कर्तव्य को पुत्रधर्म कहा जाता है । व्यापारी के ग्राहक के प्रति कर्तव्यों को व्यापारी धर्म कहा जाता है । सैनिक के अपने देश के प्रति कर्तव्यों को सैनिकधर्म कहा जाता है। |
| | | |
− | इस मे एक बात महत्वपूर्ण है । कोई भी व्यक्तिगत स्तर का कर्तव्य सामासिक धर्म अर्थात् अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, अंतर्बाह्य स्वच्छता और इंन्द्रिय संयम आदि कर्तव्यों के विपरीत नही होना चाहिये । इसी कर्तव्य संबंधों का एक पहलू नीचे दिया है: | + | इस मे एक बात महत्वपूर्ण है । कोई भी व्यक्तिगत स्तर का कर्तव्य सामासिक धर्म अर्थात् अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, अंतर्बाह्य स्वच्छता और इंन्द्रिय संयम आदि कर्तव्यों के विपरीत नही होना चाहिये । इसी कर्तव्य संबंधों का एक पहलू नीचे दिया है<ref>चाणक्य नीति 3-10</ref>: <blockquote>त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।</blockquote><blockquote>ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥3-10 ॥</blockquote>'''भावार्थ''' : जब कुल पर संकट हो तो व्यक्ति को कुल के हित में त्याग करना चाहिये । अर्थात कुल के लिए व्यक्तिगत हित को तिलांजली देनी चाहिये। कुल का हित और ग्राम का हित इन में चयन की स्थिति में ग्राम के हित को प्राधान्य देना चाहिये । जनपद के हित में ग्रामहित को तिलांजली देनी चाहिये । और जिस कारण आत्मा का हनन होता है, ऐसे समय अन्य सभी बातों का त्याग करना चाहिये । |
− | | |
− | त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् । | |
− | | |
− | ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ | |
− | | |
− | '''भावार्थ''' : जब कुल पर संकट हो तो व्यक्ति को कुल के हित में त्याग करना चाहिये । अर्थात कुल के लिए व्यक्तिगत हित को तिलांजली देनी चाहिये। कुल का हित और ग्राम का हित इन में चयन की स्थिति में ग्राम के हित को प्राधान्य देना चाहिये । जनपद के हित में ग्रामहित को तिलांजली देनी चाहिये । और जिस कारण आत्मा का हनन होता है, ऐसे समय अन्य सभी बातों का त्याग करना चाहिये । | |
| | | |
| === धर्म: मानव और पशु में अंतर === | | === धर्म: मानव और पशु में अंतर === |
− | आहार, निद्रा, डर और विषयवासना यह चार मूलभूत भावनाएं मानव और पशु में समान है । मानव की विशेषता इसी में है कि वह धर्म का पालन करता है। मानव के लिये नियोजित धर्म का जो पालन नही करता उसे पशु ही माना जाता है । इसी का वर्णन नीचे किया है: | + | आहार, निद्रा, डर और विषयवासना यह चार मूलभूत भावनाएं मानव और पशु में समान है । मानव की विशेषता इसी में है कि वह धर्म का पालन करता है। मानव के लिये नियोजित धर्म का जो पालन नही करता उसे पशु ही माना जाता है । इसी का वर्णन नीचे किया है: <blockquote>आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।</blockquote><blockquote>धर्मोऽहितेषामधिकोविशेषो धर्मेण हीन: पशुभि:समान: ।</blockquote>रामायण में बाली ने जब राम से पूछा कि आप से तो मेरी कोई शत्रुता नही थी । फिर आपने मुझे क्यों मारा ? राम ने बाली को याद दिलाया की उसका व्यवहार मानव धर्म के विपरित रहा था । पशु को आखेट में मारना यह क्षत्रिय का धर्म है । इसलिये मैने तुम्हें मारा है । |
− | | |
− | आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । | |
− | | |
− | धर्मोऽहितेषामधिकोविशेषो धर्मेण हीन: पशुभि:समान: । | |
− | | |
− | रामायण में बाली ने जब राम से पूछा कि आप से तो मेरी कोई शत्रुता नही थी । फिर आपने मुझे क्यों मारा ? राम ने बाली को याद दिलाया की उसका व्यवहार मानव धर्म के विपरित रहा था । पशु को आखेट में मारना यह क्षत्रिय का धर्म है । इसलिये मैने तुम्हें मारा है । | |
| | | |
| === दशलक्षण धर्म === | | === दशलक्षण धर्म === |
− | धर्म की मनुस्मृति में दी गई दशलक्षण धर्म की व्याख्या भी बडे प्रमाण में ग्राह्य मानी जाती है । वह है: | + | धर्म की मनुस्मृति में दी गई दशलक्षण धर्म की व्याख्या भी बडे प्रमाण में ग्राह्य मानी जाती है । |
− | धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय्निग्रह: ।
| |
− | | |
− | धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणं ॥
| |
| | | |
− | भावार्थ : धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रियनिग्रह, विवेक, ज्ञान, सत्य और अक्रोध यह धर्म के दस लक्षण है। | + | वह है<ref>मनुस्मृति 6-92</ref>: <blockquote>धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय्निग्रह: ।</blockquote><blockquote>धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणं ॥</blockquote>भावार्थ : धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रियनिग्रह, विवेक, ज्ञान, सत्य और अक्रोध यह धर्म के दस लक्षण है। |
| | | |
| इन के अर्थ भी समझना महत्वपूर्ण है । '''धैर्य''' का अर्थ है विपरीत स्थिति में भी संयमित व्यवहार करना । सामान्य शब्दों में धीरज से काम लेना । | | इन के अर्थ भी समझना महत्वपूर्ण है । '''धैर्य''' का अर्थ है विपरीत स्थिति में भी संयमित व्यवहार करना । सामान्य शब्दों में धीरज से काम लेना । |
Line 58: |
Line 37: |
| '''दम''' का अर्थ है तप । सातत्य से एक बात की आस लेकर प्रयत्नों की पराकाष्ठा करते हुए भी उसे प्राप्त करने को दम कहते है । '''अस्तेय''' का अर्थ है अचौर्य । चोरी नही करना । किसी की अनुमति के बिना उस की वस्तू लेना या उस का उपयोग करना चोरी कहा जाता है । अर्थात् जो मेरे परिश्रम की कमाई का नही है और मै उस का उपभोग करता हूं तो मैं चोरी करता हूं । '''शौच''' का अर्थ है शरीर (बाहर की), मन, बुध्दि और चित्त इन सब की अर्थात् (अंत:करण की) ऐसी अंतर्बाह्य स्वच्छता।'''धी''' का अर्थ है विवेक । योग्य अयोग्य, सत्य असत्य, करणीय अकरणीय, सर्वहितकारी क्या है और क्या नही है और क्या कितना सर्वहितकारी है यह समझना, इनमे अंतर समझने की क्षमता को और उस के अनुरूप जो योग्य है, सत्य के पक्ष में है, सर्वहितकारी है उस के अनुसार व्यवहार करने को धी कहते है । | | '''दम''' का अर्थ है तप । सातत्य से एक बात की आस लेकर प्रयत्नों की पराकाष्ठा करते हुए भी उसे प्राप्त करने को दम कहते है । '''अस्तेय''' का अर्थ है अचौर्य । चोरी नही करना । किसी की अनुमति के बिना उस की वस्तू लेना या उस का उपयोग करना चोरी कहा जाता है । अर्थात् जो मेरे परिश्रम की कमाई का नही है और मै उस का उपभोग करता हूं तो मैं चोरी करता हूं । '''शौच''' का अर्थ है शरीर (बाहर की), मन, बुध्दि और चित्त इन सब की अर्थात् (अंत:करण की) ऐसी अंतर्बाह्य स्वच्छता।'''धी''' का अर्थ है विवेक । योग्य अयोग्य, सत्य असत्य, करणीय अकरणीय, सर्वहितकारी क्या है और क्या नही है और क्या कितना सर्वहितकारी है यह समझना, इनमे अंतर समझने की क्षमता को और उस के अनुरूप जो योग्य है, सत्य के पक्ष में है, सर्वहितकारी है उस के अनुसार व्यवहार करने को धी कहते है । |
| | | |
− | '''ज्ञान''' अर्थात् योग्य जानकारी प्राप्त करना और उस का सर्वहितकारी पध्दति से उपयोग करने की कला को विद्या कहते है । यह विद्या ही है जो मनुष्य को मोक्ष मार्गपर आगे बढाती है । इसीलिये कहा गया है: | + | '''ज्ञान''' अर्थात् योग्य जानकारी प्राप्त करना और उस का सर्वहितकारी पध्दति से उपयोग करने की कला को विद्या कहते है । यह विद्या ही है जो मनुष्य को मोक्ष मार्गपर आगे बढाती है । इसीलिये कहा गया है<ref>विष्णुपुराण 1-19-41</ref>: <blockquote>सा विद्या या विमुक्तये ।</blockquote>'''सत्य''' का अर्थ है मनसा, वाचा और कर्मणा सत्य व्यवहार करना । मन में भी असत्य का साथ देने की इच्छा नही जगना । वाणी से असत्य भाषण नही करना और कृति से असत्य का साथ ना देना इन सब का मिलाकर अर्थ है सत्य धर्म का पालन करना । सत्य की कसौटी तो तब ही लगती है जब सत्य व्यवहार के कारण मेरा नुकसान होगा यह निश्चित होते हुए भी मै सत्य का व्यवहार करूं । |
− | | |
− | सा विद्या या विमुक्तये । | |
− | | |
− | '''सत्य''' का अर्थ है मनसा, वाचा और कर्मणा सत्य व्यवहार करना । मन में भी असत्य का साथ देने की इच्छा नही जगना । वाणी से असत्य भाषण नही करना और कृति से असत्य का साथ ना देना इन सब का मिलाकर अर्थ है सत्य धर्म का पालन करना । सत्य की कसौटी तो तब ही लगती है जब सत्य व्यवहार के कारण मेरा नुकसान होगा यह निश्चित होते हुए भी मै सत्य का व्यवहार करूं । | |
| | | |
| '''अक्रोध''' का अर्थ है किसी भी परिस्थिति में गुस्से में आकर कोई कृति नही करना । | | '''अक्रोध''' का अर्थ है किसी भी परिस्थिति में गुस्से में आकर कोई कृति नही करना । |
| | | |
− | श्रीमद्भगवद्गीता<ref>श्रीमद् भगवद्गीता | + | श्रीमद्भगवद्गीता में भी उपदेश है कि 'युध्दस्व विगत ज्वर:’ अर्थात् युध्द भी करो तो क्रोध में आकर ना करो। असुरों का संहार तो करो किन्तु विवेक से करो । गुस्से में आकर नहीं। गीता में श्रीकृष्ण क्रोध का परिणाम अंत में सर्वनाश में कैसे होता है, इस का वर्णन करते है<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 2.63 |
− | </ref> में भी उपदेश है कि 'युध्दस्य विगत ज्वर:’ अर्थात् युध्द भी करो तो क्रोध में आकर ना करो। असुरों का संहार तो करो किन्तु विवेक से करो । गुस्से में आकर नहीं। गीता में श्रीकृष्ण क्रोध का परिणाम अंत में सर्वनाश में कैसे होता है, इस का वर्णन करते है:
| + | </ref>: <blockquote>क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।</blockquote><blockquote>स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। 2.63 ।।</blockquote> |
− | | |
− | क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। | |
− | स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।। | |
| | | |
| === धर्म का अर्थ कानून === | | === धर्म का अर्थ कानून === |
− | महाभारत में राज्य के निर्माण की आवश्यकता कैसे हुई इस बात का विवरण करते समय बताते हैं: | + | महाभारत में राज्य के निर्माण की आवश्यकता कैसे हुई इस बात का विवरण करते समय बताते हैं: <blockquote>न राज्यं न राजासित न दंण्डयो न च दाण्डिका: ।</blockquote><blockquote>धर्मेणप्रव प्रजास्सर्वं रक्षति स्म परस्परम् ।</blockquote>अर्थ : किसी समय पहले न कोई राजा था, न कोई दंडशक्ति थी । सारी प्रजा धर्मानुकूल जीवन जीती थी और परस्पर सुख सौहार्द्र से रहती थी। |
− | | |
− | न राज्यं न राजासित न दंण्डयो न च दाण्डिका: । | |
− | | |
− | धर्मेणप्रव प्रजास्सर्वं रक्षति स्म परस्परम् । | |
− | | |
− | अर्थ : किसी समय पहले न कोई राजा था, न कोई दंडशक्ति थी । सारी प्रजा धर्मानुकूल जीवन जीती थी और परस्पर सुख साप्रहार्द से रहती थी। | |
| | | |
| यहाँ धर्म का अर्थ सामाजिक व्यवहार के नियमों से अर्थात आज की भाषा में कानून से ही है । | | यहाँ धर्म का अर्थ सामाजिक व्यवहार के नियमों से अर्थात आज की भाषा में कानून से ही है । |
| | | |
| === यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म: === | | === यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म: === |
− | धर्म की एक और मान्यताप्राप्त व्याख्या है: | + | धर्म की एक और मान्यताप्राप्त व्याख्या है<ref>वैशेषिक दर्शन (1 1/2)</ref>: <blockquote>यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म:</blockquote>अर्थ: जिस के पालन से इहलोक में अभ्युदय होता है और परलोक में श्रेष्ठ गति प्राप्त होती है । सर्वप्रथम जिस के आचरण से इस जन्म में हर प्रकार की भौतिक उन्नति होती है, अभ्युदय होता है, और दूसरे जिस के कारण अगला जन्म अधिक श्रेष्ठ होता है । मोक्ष की दिशा में, मोक्ष के और समीप ले जाने वाला होता है । ऐसी दोनों बातों की आश्वस्ति जिस व्यवहार में है वह है धर्म । |
− | | |
− | यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म: | |
− | | |
− | अर्थ: जिस के पालन से इहलोक में अभ्युदय होता है और परलोक में श्रेष्ठ गति प्राप्त होती है । सर्वप्रथम जिस के आचरण से इस जन्म में हर प्रकार की भौतिक उन्नति होती है, अभ्युदय होता है, और दूसरे जिस के कारण अगला जन्म अधिक श्रेष्ठ होता है । मोक्ष की दिशा में, मोक्ष के और समीप ले जाने वाला होता है । ऐसी दोनों बातों की आश्वस्ति जिस व्यवहार में है वह है धर्म । | |
| | | |
| === धर्म का अर्थ है सत्यनिष्ठा === | | === धर्म का अर्थ है सत्यनिष्ठा === |