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− | व्यावसायिक कुशलताओं के आधारपर समाज की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती करने की आनुवंशिक व्यवस्था को ही जाति नाम से जाना जाता है। | + | व्यावसायिक कुशलताओं के आधार पर समाज की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की आनुवंशिक व्यवस्था को ही जाति नाम से जाना जाता है। |
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− | श्रीमद्भगवद्गीता में महायुद्ध के परिणामों को बताते समय अर्जुन ने कहा है - उत्साद्यंते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: । (अध्याय १-४३) | + | श्रीमद्भगवद्गीता में महायुद्ध के परिणामों को बताते समय अर्जुन ने कहा है - <blockquote>उत्साद्यंते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: । (अध्याय १-४३)</blockquote>गीता में अर्जुन ने कई बातें कहीं हैं जो ठीक नहीं थीं । कुछ बातें गलत होने के कारण भगवान ने अर्जुन को उलाहना दी है, डाँटा है, जैसे अध्याय २ श्लोक ३ में या अध्याय २ श्लोक ११ में। भगवान ने अर्जुन की कही बातों की उपेक्षा नहीं की है । किन्तु अर्जुन के उपर्युक्त कथन पर भगवान कुछ नहीं कहते । अर्थात् अर्जुन के ‘जातिधर्म शाश्वत हैं’ इस कथन को मान्य करते हैं। जो शाश्वत है वह परमेश्वर निर्मित है। मीमांसा दर्शन के अनुसार भी ‘अनिषिध्दमनुमताम्’ अर्थात् जिसका निषेध नहीं किया गया उसकी अनुमति मानी जाती है। इसका यही अर्थ होता है कि जातिधर्म शाश्वत हैं। अर्जुन के कथन का भगवान जब निषेध नहीं करते, इस का अर्थ है कि भगवान अर्जुन के ‘जातिधर्म (इस लिये जाति भी) शाश्वत हैं’ इस कथन को मान्य करते हैं। |
− | गीता में अर्जुन ने कई बातें कहीं हैं जो ठीक नहीं थीं । कुछ बातें गलत होने के कारण भगवान ने अर्जुन को उलाहना दी है, डाँटा है, जैसे अध्याय २ श्लोक ३ में या अध्याय २ श्लोक ११ में। भगवान ने अर्जुन की कही बातों की उपेक्षा नहीं की है । किन्तु अर्जुन के उपर्युक्त कथन पर भगवान कुछ नहीं कहते । अर्थात् अर्जुन के ‘जातिधर्म शाश्वत हैं’ इस कथन को मान्य करते हैं। जो शाश्वत है वह परमेश्वर निर्मित है। मीमांसा दर्शन के अनुसार भी ‘अनिषिध्दमनुमताम्’ अर्थात् जिसका निषेध नहीं किया गया उसकी अनुमति मानी जाती है। इसका यही अर्थ होता है कि जातिधर्म शाश्वत हैं। अर्जुन के कथन का भगवान जब निषेध नहीं करते, इस का अर्थ है कि भगवान अर्जुन के ‘जातिधर्म (इस लिये जाति भी) शाश्वत हैं’ इस कथन को मान्य करते हैं। | + | |
− | वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था ये दोनों हजारों वर्षों से भारतीय समाज में विद्यमान हैं। महाभारत काल ५००० वर्षों से अधिक पुराना है। भारतीय कालगणना के अनुसार त्रेता युग का रामायण काल तो शायद १७ लाख वर्ष पुराना (रामसेतु की आयु) है। इन दोनों में जातियों के संदर्भ हैं। अर्थात् वर्ण और जाति व्यवस्था दोनों बहुत प्राचीन हैं इसे तो जो रामायण और महाभरत के यहाँ बताए काल से सहमत नहीं हैं वे भी मान्य करेंगे। कई दश-सहस्राब्दियों के इस सामाजिक जीवन में हमने कई उतार चढाव देखें हैं। जैसे पतन के काल में जाति व्यवस्था थी उसी प्रकार उत्थान के समय भी थी । इस जाति व्यवस्था के होते हुवे भी वह हजारों वर्षोंतक ज्ञान और समृध्दि के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। उन्नत अवस्थाओं में भी जाति व्यवस्था का कभी अवरोध रहा ऐसा कहीं भी दूरदूरतक उल्लेख हमारे ३०० वर्षों से अधिक पुराने किसी भी भारतीय साहित्य में नहीं है। किसी भी भारतीय चिंतक ने इन व्यवस्थाओं को नकारा नहीं है। | + | वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था ये दोनों हजारों वर्षों से भारतीय समाज में विद्यमान हैं। महाभारत काल ५००० वर्षों से अधिक पुराना है। भारतीय कालगणना के अनुसार त्रेता युग का रामायण काल तो शायद १७ लाख वर्ष पुराना (रामसेतु की आयु) है। इन दोनों में जातियों के संदर्भ हैं। अर्थात् वर्ण और जाति व्यवस्था दोनों बहुत प्राचीन हैं इसे तो जो रामायण और महाभरत के यहाँ बताए काल से सहमत नहीं हैं वे भी मान्य करेंगे। कई दश-सहस्राब्दियों के इस सामाजिक जीवन में हमने कई उतार चढाव देखें हैं। जैसे पतन के काल में जाति व्यवस्था थी उसी प्रकार उत्थान के समय भी थी । इस जाति व्यवस्था के होते हुए भी वह हजारों वर्षों तक ज्ञान और समृध्दि के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। उन्नत अवस्थाओं में भी जाति व्यवस्था का कभी अवरोध रहा ऐसा कहीं भी दूरदूर तक उल्लेख हमारे ३०० वर्षों से अधिक पुराने किसी भी भारतीय साहित्य में नहीं है। किसी भी भारतीय चिंतक ने इन व्यवस्थाओं को नकारा नहीं है। |
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| == व्यावसायिक कुशलताओं के समायोजन (जाति व्यवस्था) के लाभ == | | == व्यावसायिक कुशलताओं के समायोजन (जाति व्यवस्था) के लाभ == |
− | जाति व्यवस्था के अनेकानेक लाभों की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का हम अब विचार करेंगे । | + | जाति व्यवस्था के अनेकानेक लाभों की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का हम अब विचार करेंगे । परमात्मा ने सृष्टि निर्माण करते समय इसे संतुलन के साथ ही निर्माण किया है । समाज में इस संतुलन के लिये मनुष्य में उस प्रकार की वृत्तियाँ भीं निर्माण कीं । भारतीय हो या अभारतीय हर समाज में चार वर्णों के लोग होते ही हैं। समाज को नि:स्वार्थ भाव से समाजहित के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक वर्ग समाज में होता है । जिस समाज में नि:स्पृह, नि:स्वार्थी, समाजहित के लिये समर्पित भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान (बिक्री नहीं) करने वाला एक वर्ग प्रभावी होता है , वह समाज विश्व में श्रेष्ठ बन जाता है। इस वर्ग को ब्राह्मण कहा गया। |
− | परमात्मा ने सृष्टि निर्माण करते समय इसे संतुलन के साथ ही निर्माण किया है । समाज में इस संतुलन के लिये मनुष्य में उस प्रकार की वृत्तियाँ भीं निर्माण कीं । भारतीय हो या अभारतीय हर समाज में चार वर्णों के लोग होते ही हैं। समाज को नि:स्वार्थ भाव से समाजहित के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक वर्ग समाज में होता है । जिस समाज में नि:स्पृह, नि:स्वार्थी, समाजहित के लिये समर्पित भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान (बिक्रि नहीं) करनेवाला एक वर्ग प्रभावी होता है , वह समाज विश्व में श्रेष्ठ बन जाता है। इस वर्ग को ब्राह्मण कहा गया । समाज में जान की बाजी लगाकर भी दुष्टों, दुर्जनों और मूर्खों का नियंत्रण करनेवाला एक क्षत्रिय वर्ग, समाज का पोषण करने हेतु कृषि, गोरक्षण और व्यापार-उद्योग-उत्पादन करनेवाला वैश्य वर्ग और ऐसे सभी लोगों की सेवा करनेवाला शूद्र वर्ग ऐसे नाम दिये गये । इन चार वृत्तियों की हर समाज को आवश्यकता होती ही है । इन का समाज में अनुपात महत्वपूर्ण होता है । इस अनुपात के कारण समाज में संतुलन बना रहता है। यह अनुपात बिगडने से समाज व्याधिग्रस्त हो जाता है । हमारे पूर्वजों की श्रेष्ठता यह है की इस प्रकार से परमात्मा ने निर्माण किये अर्थात् जन्मगत वर्णों को उन्हों ने ठीक से समझा और उन्हें एक व्यवस्था में बांधा । पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार मनुष्य का स्वभाव होता है । और स्वभाव के अनुसार वर्तमान जन्म के गुण और कर्म होते हैं। गुण और कर्म जन्मगत वर्णों के परिणाम स्वरूप ही होते हैं। स्वभाव को कठोर तप के बिना वर्तमान जन्म में सामान्यत: बदला नहीं जा सकता । वर्ण तो परमात्मा ने जन्मगत (आनुवांशिक नहीं) निर्माण किये हैं, किन्तु वर्ण की व्यवस्था यानि वर्णों को आनुवंशिक बनाने की व्यवस्था हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों द्वारा निर्माण की हुई है। इन वर्णों का अनुपात और वर्णों की शुध्दता समाज में बनाए रखने की यह व्यवस्था है । समाज का संतुलन बनाए रखने की यह व्यवस्था है । इन वर्णों के आचार से धर्माचरण का संवर्धन होता है । समाज श्रेष्ठ बनता है । वर्ण व्यवस्था प्रभावी रहने से समाज चिरंजीवी भी बनता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है - | + | |
− | स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:। (3-35) | + | समाज में जान की बाजी लगाकर भी दुष्टों, दुर्जनों और मूर्खों का नियंत्रण करनेवाला एक क्षत्रिय वर्ग, समाज का पोषण करने हेतु कृषि, गोरक्षण और व्यापार-उद्योग-उत्पादन करनेवाला वैश्य वर्ग और ऐसे सभी लोगों की सेवा करनेवाला शूद्र वर्ग ऐसे नाम दिये गये । इन चार वृत्तियों की हर समाज को आवश्यकता होती ही है । इन का समाज में अनुपात महत्वपूर्ण होता है । इस अनुपात के कारण समाज में संतुलन बना रहता है। यह अनुपात बिगडने से समाज व्याधिग्रस्त हो जाता है। |
− | यानि अपने स्वभाव के अनुरूप धर्म का सदैव पालन करना चाहिये। अपने धर्म का पालन करते हुए आया मृत्यू भी कल्याणकारी है। अन्य किसी का धर्म अधिक श्रेष्ठ दिखाई देनेपर भी हमारे लिये वह अनिष्टकारी होने से उस से हमें परहेज करना चाहिये। | + | |
− | मनुष्य को जब परमात्मा ने इच्छाएँ दीं, आवश्यकताएँ निर्माण कीं, तो उन की पूर्ति के लिये भी परमात्मा ने व्यवस्था की है । इस पूर्ति के लिये दो बातें आवश्यक हैं। पहली बात है प्राकृतिक संसाधन । परमात्मा ने प्रचूर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन निर्माण किये हैं। दूसरी बात है क्षमताएँ और कुशलताएँ । इन कुशलताओं के अपेक्षित और आवश्यक विकास की संभावनाएँ हैं ऐसे लोगों को भी परमात्मा ने मनुष्य समाज में निर्माण किया है । इन कुशलताओं में समाज की आवश्यकताओं के अनुसार संतुलन बना रहे इस हेतु से यह कुशलताएं जिन में जन्म से ही हैं ऐसे लोगों को भी परमात्मा ने योग्य अनुपात में पैदा किया । और करता रहता है । इन कुशलताओं का नाम है जाति । इन वर्णों और जातियों (व्यावसायिक कुशलताओं)का अनुपात बिगडने से समाज की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती । वर्णों का भी संतुलन बनाए रखने के लिये हमारे दृष्टा पूर्वजों ने वर्णों को भी जातियों अर्थात् कुशलताओं के साथ जन्मजात व्यवस्था में बांधा । वर्णों को और जातियों को जन्मगत बनाया । जन्मगत जाति बनाने से समाज के लिये आवश्यक कुशलताओं का संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था बनीं। जाति व्यवस्था के नाम से समाज को चिरंजीवी बनाने के लिये एक और व्यवस्था निर्माण की गई। जातिगत व्यवसायों के माध्यम से समाज समृध्द भी बनता है । | + | हमारे पूर्वजों की श्रेष्ठता यह है कि इस प्रकार से परमात्मा ने निर्माण किये अर्थात् जन्मगत वर्णों को उन्होंने ठीक से समझा और उन्हें एक व्यवस्था में बांधा । पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार मनुष्य का स्वभाव होता है । और स्वभाव के अनुसार वर्तमान जन्म के गुण और कर्म होते हैं। गुण और कर्म जन्मगत वर्णों के परिणाम स्वरूप ही होते हैं। स्वभाव को कठोर तप के बिना वर्तमान जन्म में सामान्यत: बदला नहीं जा सकता । वर्ण तो परमात्मा ने जन्मगत (आनुवांशिक नहीं) निर्माण किये हैं, किन्तु वर्ण की व्यवस्था यानि वर्णों को आनुवंशिक बनाने की व्यवस्था हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों द्वारा निर्माण की हुई है। इन वर्णों का अनुपात और वर्णों की शुद्धता समाज में बनाए रखने की यह व्यवस्था है । समाज का संतुलन बनाए रखने की यह व्यवस्था है । इन वर्णों के आचार से धर्माचरण का संवर्धन होता है । समाज श्रेष्ठ बनता है । वर्ण व्यवस्था प्रभावी रहने से समाज चिरंजीवी भी बनता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है <blockquote>स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:। (3-35)</blockquote>यानि अपने स्वभाव के अनुरूप धर्म का सदैव पालन करना चाहिये। अपने धर्म का पालन करते हुए आया मृत्यु भी कल्याणकारी है। अन्य किसी का धर्म अधिक श्रेष्ठ दिखाई देनेपर भी हमारे लिये वह अनिष्टकारी होने से उस से हमें परहेज करना चाहिये। |
− | जन्मगत कुशलताएँ कुछ भी हों व्यवसाय का चयन दो पध्दति से किया जा सकता है । एक है व्यक्तिगत इच्छा के आधारपर व्यवसाय का चयन। यह अस्वाभाविक भी हो सकता है । दूसरा है जाति व्यवस्था या आनुवंशिकता के या जन्मजात कुशलताओं के आधारपर व्यवसाय का चयन । वर्तमान व्यक्तिकेंद्रित और स्वार्थप्रेरित शिक्षा और विकृत लोकतंत्र के कारण सामान्यत: बहुतेरे लोग व्यक्तिगत इच्छा के आधारपर ही व्यवसायों के चयन के पक्ष में दिखाई देते हैं। महाभारत में सत्य की दी हुई व्याख्या है ‘यद्भूत हितं अत्यंत एतत्सत्यमभिधीयते ’। अर्थात् जो सब के हित में है, वही सत्य है। बहुमत से सत्य सिध्द नहीं होता है । वह होता है किस प्रकार के व्यवसाय के चयन से सभी को लाभ होता है इस बात के तथ्यों से। इस विषय में सत्य या तथ्य क्या हैं ? सब का हित किस में है, यह हम आगे दिये बिंदुओं के आधारपर देखेंगे। | + | |
− | १. शिक्षक और शासक यह दो वर्ग समाज को बहुत प्रभावित करते हैं। इन का समाज में संतुलन और उन के श्रेष्ठ गुणों को बनाए रखना समाज के चिरंजीवी बनने के लिये आवश्यक होता है । जातिगत और वर्णगत वंश परंपरा से यह श्रेष्ठता बनाई और बढ़ाई जा सकती है। व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की पध्दति में ऐसी परंपराएँ बन ही नहीं पातीं।
| + | मनुष्य को जब परमात्मा ने इच्छाएँ दीं, आवश्यकताएँ निर्माण कीं, तो उन की पूर्ति के लिये भी परमात्मा ने व्यवस्था की है । इस पूर्ति के लिये दो बातें आवश्यक हैं। पहली बात है प्राकृतिक संसाधन । परमात्मा ने प्रचूर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन निर्माण किये हैं। दूसरी बात है क्षमताएँ और कुशलताएँ । इन कुशलताओं के अपेक्षित और आवश्यक विकास की संभावनाएँ हैं ऐसे लोगों को भी परमात्मा ने मनुष्य समाज में निर्माण किया है । इन कुशलताओं में समाज की आवश्यकताओं के अनुसार संतुलन बना रहे इस हेतु से यह कुशलताएं जिन में जन्म से ही हैं ऐसे लोगों को भी परमात्मा ने योग्य अनुपात में पैदा किया । और करता रहता है । इन कुशलताओं का नाम है जाति । इन वर्णों और जातियों (व्यावसायिक कुशलताओं) का अनुपात बिगडने से समाज की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती । वर्णों का भी संतुलन बनाए रखने के लिये हमारे दृष्टा पूर्वजों ने वर्णों को भी जातियों अर्थात् कुशलताओं के साथ जन्मजात व्यवस्था में बांधा । वर्णों को और जातियों को जन्मगत बनाया । जन्मगत जाति बनाने से समाज के लिये आवश्यक कुशलताओं का संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था बनीं। जाति व्यवस्था के नाम से समाज को चिरंजीवी बनाने के लिये एक और व्यवस्था निर्माण की गई। |
− | २. व्यक्तिगत व्यवसाय का चयन जब होता है तब समाज में असंतुलन निर्माण होता है । अधिक लाभ और कम परिश्रम जिस व्यवसाय में है, उन का सभी लोग यथासंभव चयन करते हैं। किन्तु ऐसा करने से बेरोजगारी निर्माण होती है । समाज की कई आवश्यकताओं की पूर्ति खतरे में पड जाती है। वर्तमान का उदाहरण लें । वर्तमान शिक्षा और शासकीय नीतियों के कारण आज किसान नहीं चाहता की उसका बच्चा किसान बने । अन्य व्यावसायिकों का तो दूर रहा किसान भी नहीं चाहता की उस की बेटी किसान के घर की बहू बने । जाति और जातिधर्म की भावना नष्ट करने के कारण अन्न का उत्पादन करने को आज किसान अपना जातिधर्म नहीं मानता । इस के कारण हमारा देश अन्नसंकट की दिशा में तेजी से बढ रहा दिखाई दे रहा है। | + | |
− | ३. व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि में प्रत्येक व्यक्ति की आजीविका या रोजगार की आश्वस्ति नहीं दी जा सकती । जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में यह आश्वस्ति जन्म से ही मिल जाती है। | + | जातिगत व्यवसायों के माध्यम से समाज समृध्द भी बनता है । जन्मगत कुशलताएँ कुछ भी हों व्यवसाय का चयन दो पध्दति से किया जा सकता है । एक है व्यक्तिगत इच्छा के आधार पर व्यवसाय का चयन। यह अस्वाभाविक भी हो सकता है । दूसरा है जाति व्यवस्था या आनुवंशिकता के या जन्मजात कुशलताओं के आधार पर व्यवसाय का चयन । वर्तमान व्यक्ति केंद्रित और स्वार्थ प्रेरित शिक्षा और विकृत लोकतंत्र के कारण सामान्यत: बहुतेरे लोग व्यक्तिगत इच्छा के आधार पर ही व्यवसायों के चयन के पक्ष में दिखाई देते हैं। महाभारत में सत्य की दी हुई व्याख्या है ‘यद्भूत हितं अत्यंत एतत्सत्यमभिधीयते ’। अर्थात् जो सब के हित में है, वही सत्य है। बहुमत से सत्य सिध्द नहीं होता है । वह होता है किस प्रकार के व्यवसाय के चयन से सभी को लाभ होता है इस बात के तथ्यों से। इस विषय में सत्य या तथ्य क्या हैं ? सब का हित किस में है, यह हम आगे दिये बिंदुओं के आधार पर देखेंगे: |
− | ४. व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि जिन समाजों की अर्थव्यवस्था में मान्यता पाती है, वे समाज किसी ना किसी कमी के शिकार बनते हैं। इस कमी को पूरा करने के लिये उन के पास अन्य समाजपर आक्रमण कर, उस समाज का शोषण करने का एकमात्र उपाय शेष रह जाता है। ऐसे समाज आक्रमणकारी बन जाते हैं । विश्व में जो भी समाज बलवान बनें, उन्होंने अन्य समाजों पर आक्रमण किये, उन को लूटा, शोषित किया यह इतिहास का वास्तव है। केवल भारत ही इस में अपवाद है। और इस का सब से प्रबल कारण भारतीय वर्ण और जाति व्यवस्था रहा है। ये व्यवस्थाएँ आवश्यकताओं की पूर्ति की आश्वस्ति देती है। | + | # शिक्षक और शासक यह दो वर्ग समाज को बहुत प्रभावित करते हैं। इन का समाज में संतुलन और उन के श्रेष्ठ गुणों को बनाए रखना समाज के चिरंजीवी बनने के लिये आवश्यक होता है । जातिगत और वर्णगत वंश परंपरा से यह श्रेष्ठता बनाई और बढ़ाई जा सकती है। व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की पध्दति में ऐसी परंपराएँ बन ही नहीं पातीं। २. व्यक्तिगत व्यवसाय का चयन जब होता है तब समाज में असंतुलन निर्माण होता है । अधिक लाभ और कम परिश्रम जिस व्यवसाय में है, उन का सभी लोग यथासंभव चयन करते हैं। किन्तु ऐसा करने से बेरोजगारी निर्माण होती है । समाज की कई आवश्यकताओं की पूर्ति खतरे में पड जाती है। वर्तमान का उदाहरण लें । वर्तमान शिक्षा और शासकीय नीतियों के कारण आज किसान नहीं चाहता की उसका बच्चा किसान बने । अन्य व्यावसायिकों का तो दूर रहा किसान भी नहीं चाहता की उस की बेटी किसान के घर की बहू बने । जाति और जातिधर्म की भावना नष्ट करने के कारण अन्न का उत्पादन करने को आज किसान अपना जातिधर्म नहीं मानता । इस के कारण हमारा देश अन्नसंकट की दिशा में तेजी से बढ रहा दिखाई दे रहा है। ३. व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि में प्रत्येक व्यक्ति की आजीविका या रोजगार की आश्वस्ति नहीं दी जा सकती । जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में यह आश्वस्ति जन्म से ही मिल जाती है। ४. व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि जिन समाजों की अर्थव्यवस्था में मान्यता पाती है, वे समाज किसी ना किसी कमी के शिकार बनते हैं। इस कमी को पूरा करने के लिये उन के पास अन्य समाजपर आक्रमण कर, उस समाज का शोषण करने का एकमात्र उपाय शेष रह जाता है। ऐसे समाज आक्रमणकारी बन जाते हैं । विश्व में जो भी समाज बलवान बनें, उन्होंने अन्य समाजों पर आक्रमण किये, उन को लूटा, शोषित किया यह इतिहास का वास्तव है। केवल भारत ही इस में अपवाद है। और इस का सब से प्रबल कारण भारतीय वर्ण और जाति व्यवस्था रहा है। ये व्यवस्थाएँ आवश्यकताओं की पूर्ति की आश्वस्ति देती है। ५. व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि में हर पीढी में व्यवसाय बदलने के कारण हर पीढी को नये सिरे से कुशलताओं को सीखना होता है। इस से सामान्यत: कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने की संभावना होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने की संभावनाएँ बहुत अधिक होतीं हैं। ६. व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि में कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय भी बढता जाता है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग न्यूनतम होता जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय नहीं होता। बचत होती है। ७. व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि में व्यक्ति का महत्व बढता है। सामाजिकता की भावना कम होती है । परिवार बिखर जाते हैं । जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में संयुक्त कुटुंब का महत्व बढता है। कुटुंब भावना ही वास्तव में सामाजिकता की जड होती है। पारिवारिक व्यावसायिक परंपराएं बनतीं हैं । सामाजिकता की भावना बढती है। परिवार समृध्द बनते हैं। वर्तमान सामाजिक समस्याओं में से शायद 50 प्रतिशत से अधिक समस्याओं का निराकरण तो संयुक्त परिवारों की प्रतिष्ठापना से ही हो सकता है। कृपया परिशिष्ट 4 देखें। और जातिगत व्यवसाय चयन के लिये संयुक्त परिवार व्यवस्था पूरक और पोषक ही नहीं आवश्यक भी होती है। ८. यह सामान्य निरीक्षण और ज्ञान की बात है की बुध्दिमान वर्ग समाज में प्रतिष्ठा की ऊपर की पायदानपर जाने का प्रयास करता रहता है। सम्मानप्राप्त बुध्दिमान वर्ग अल्पप्रसवा भी होता है। सम्मानप्राप्त बुध्दिमान वर्ग की जनन क्षमता अन्य समाज से कम होती है। इस तरह से हर समाज में बुध्दिमान वर्ग का प्रमाण कम होता जाता है। और जब यह प्रमाण एक विशेष सीमा से कम हो जाता है अर्थात् जब वह समाज बुध्दिहीनों का हो जाता है, वह समाज नष्ट हो जाता है। महान सभ्यताएँ विकसित करनेवाले कई समाज इसी कारण नष्ट हो गये हैं। जातिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में हर जाति में बुध्दिमान वर्ग को ऊपर के स्तरपर जाने के लिये पर्याप्त अवसर होते हैं। क्यों की यह प्रक्रिया हर जाति में चलती है। प्रत्येक जाति में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की, ऐसी हजारों जातियों की मिलाकर कु ल संख्या जातिहीन समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। उन्नत होकर प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग में जाने के अवसर विपुल प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । इसी तरह सामाजिक उन्नयन की प्रक्रिया भी जातिहीन समाज की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। जब की व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में ऐसे अवसर बहुत अल्प प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । जाति बदलने के लिये 12 वर्षतक उस जाति के जातिधर्म का पालन और साथ में व्यवसाय करने के उपरांत जाति बदलने की प्रथा आज भी कहीं कहीं अस्तित्व में है। वर्ण में परिवर्तन के लिये भी ऐसी ही 24 वर्षों की तपश्चर्या करनी पडती है (जैसी राजर्षि विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि बनने के लिये करनी पडी थी ) । समाज के हित के व्यवहार की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ व्यवहार करने वाली जातियों को विशेष सम्मान मिलना स्वाभाविक है। ऐसा होने से सामान्य लोग और कम महत्व वाली जातियों के लोग महत्वपूर्ण जातियों के लोगों जैसा व्यवहार करने की प्रेरणा पाते हैं । किन्तु कम सम्मान प्राप्त जातियों में जो बुध्दिमान वर्ग है उस की जननक्षमता अन्य सामान्य लोगों जितनी ही यानी अधिक रहती है। इस कारण समाज में बुध्दिमानों की कभी भी कमी नहीं होती । समाज चिरंजीवी बनने में यह व्यवस्था भी योगदान देती है। ९. सुख प्राप्ति यह हर मानव की चाहत होती है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिये चार बातों की आवश्यकता होती है। - सुसाध्य आजीविका - शांति - स्वतंत्रता - पुरूषार्थ व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि में व्यक्ति केवल अपने पुरूषार्थ के बल पर बडा होता है। किन्तु ऐसा करते समय वह कितना सुख पाता है यह विवाद का विषय नही है। सब सुखों का त्याग करने के उपरांत ही उसे सफलता प्राप्त होती है। उस की आजीविका सुसाध्य नहीं रहती । व्यावसायिक गलाकाट स्पर्धा का उसे सामना करना पडता है । इस स्पर्धा का सामना करना है तो शांति कैसे मिल सकती है ? किन्तु जातिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि में व्यक्ति को अपनी जाति के अंदर ही स्पर्धा का सामना करना पडता है। जातियाँ हजारों होने से इस स्पर्धा की तीव्रता का स्तर हर जाति में तो बहुत ही कम होता है। जातिगत व्यवस्था में परस्परावलंबन होता है। फिर जातिगत अनुशासन भी होता है, जो गलाकाट स्पर्धा होने नहीं देता। इसलिये व्यक्ति के लिये सुखप्राप्ति की संभावनाएं कई गुना बढ जाती हैं। १०. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में ‘मुझे अधिक से अधिक सुख प्राप्ति के लिये अधिक से अधिक धन प्राप्त करना है। और अधिक से अधिक धन प्राप्ति के लिये के लिये उत्पादन करना है’ इस भावना से व्यक्ति काम करता है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में व्यक्ति 'मैं मेरा कर्तव्य कर रहा हूँ’, मैं परोपकार के लिये उत्पादन कर रहा हूँ, ‘मैं मेरे जातिधर्म का पालन कर रहा हूँ’ इस भावना से उत्पादन करता है। स्वार्थत्याग में मनुष्य कमियों को सहन कर लेता है। किंतु जब वह स्वार्थ के (व्यक्तिगत चयन) लिये काम करता है तो वह कमियों को सहन नहीं कर पाता। वह या तो लाचार हो जाता है या अपराधी बन जाता है। ११. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में नौकरों (गैर या अल्प जिम्मेदार, लाचार और आत्मविश्वासहीन ) की संख्या बहुत अधिक होती हप्रै। मालिकों (जिम्मेदार, स्वाभिमानयुक्त और आत्मविश्वासयुक्त ) की संख्या अत्यल्प होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में मालिकों की संख्या बहुत अधिक और नौकरों की संख्या कम रहती है। इस कारण सारा समाज जिम्मेदार, स्वाभिमानी और आत्मविश्वासयुक्त बनता है। १२. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में लाभ (जितना अधिक से अधिक संभव है उतना) पर आधारित अर्थशास्त्र जन्म लेता है। इसलिये फिर विज्ञापनबाजी, झूठ, फरेब का उपयोग किया जाना सामान्य बन जाता है। सामान्य जन को इस से बचाने के लिये (मँहंगे) न्यायालय का दिखावा होता है। लेकिन वह मुश्किल से शायद एकाध प्रतिशत लोगों को ही न्याय दिला पाता है। केवल व्यक्तिगत चयन आधारित व्यवसाय पर आधारित अर्थव्यवस्था में निम्न प्रकारों से सामाजिक हानी होती हप्रै। क) पूरे समाज के लिये मैं अकेला ही उत्पादन करूँगा, उस से मिलनेवाले लाभ का मैं एकमात्र हकदार बनूँं ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सारे समाज में व्याप्त हो जाती है। इस वातावरण और उपजी स्पर्धा में समाज का एक बहुत छोटा वर्ग ही सफल होता है। बाकी सब लोग चूहे की मानसिकता वाले बन जाते हैं। जो अपने से दुर्बल और निश्चेष्ट किसी को भी खाते जाते हैं । ख) व्यवसाय व्यक्तिगत और विशालतम बनते जाते हैं। जैसे मायक्रोसॉफ्ट या फोर्ड आदि। आर्थिक दृष्टि से कुछ लोग बहुत बडे बन जाते हैं । अन्य कुछ लोगों की जो बडे बन रहे हैं ऐसे लोगों की एक सीढी बनीं दिखाई देती है। किंतु इस सीढी पर बहुत कम लोग होते हैं। बहुजन तो चींटियों की तरह रेंगने लग जाते हैं । समाज में आर्थिक विषमता बढती है। ग) आर्थिक सत्ता के केंद्रीकरण के कारण पैसे का प्रभाव दिखाई देने लगता है। इस से गुण्डागर्दि, झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी की मदद से भी आर्थिक विकास की सीढी पर शीघ्रातिशीघ्र ऊपर चढने की मानसिकता बनने लगती है। संचार माध्यमों के दुरूपयोग के लिये निमित्त बन जाता है। घ) ज्ञान तो व्यक्ति में अंतर्निहीत ही होता है। उस का विकास वह कर सकता है। ज्ञानप्राप्ति का अधिकार हर व्यक्ति को है। किंतु कुशलता यह हर व्यक्ति की भिन्न होती है। हर व्यक्ति उस की विशिष्ट व्यावसायिक कौशल की विधा और उस विधा के विकास की संभावनाएँ लेकर ही जन्म लेता है। जन्म के उपरांत उस में परिवर्तन की संभावनाएँ बहुत कम होतीं है। परिवर्तन बहुत लम्बे और कठिन तप से ही हो सकता है। यह तप करने की तैयारी सामान्य मनुष्य की नहीं होने से वह असफल हो जाता है। दौड में पीछे रह जाता है। फिर व्यावसायिक तरीके नहीं अन्य हथकंडे अपनाने लग जाता है। लाचार बन जाता है या निराश हो जाता है। च) हर बच्चे के कुशलताओं के विकास के स्तर की मर्यादा भिन्न भिन्न होती हैं। जन्मजात कुशलताओं से भिन्न व्यवसाय के चयन के कारण अपने विकास के उच्चतम संभाव्य स्तर तक पहुँचने के लिये व्यक्तिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में अवसर ही नहीं होता। यह अवसर जातिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में सहज ही प्राप्त हो जाता है। छ) जातिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में माँग के अनुसार उत्पादन होता है। ग्राहक को परमात्मा मानकर ही उत्पादन होता है। झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी से निर्माण की जानेवाली आभासी आवश्यकताओं की संभावना नहीं रहती॥ १३. जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि सर्व सहमति का लोकतंत्र छोडकर अन्य शासन व्यवस्थाओं में चल नहीं सकती। कम से कम वर्तमान अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र की प्रणालि में तो संभव ही नहीं है। छोटे भौगोलिक क्षेत्र में सर्वसहमति का लोकतंत्र अन्य किसी भी शासन व्यवस्था से ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये अधिक उपयुक्त होता है। अल्पमत और बहुमत के लोकतंत्र में जातिगत व्यवसाय चयन पध्दति कभी नहीं रह सकती। अल्पमत और बहुमत का लोकतंत्र हर एक मनुष्य को व्यक्तिवादी यानि स्वार्थी बनाता है, सामाजिकता को पनपने नहीं देता है और इस जातिगत व्यवसाय चयन पध्दति को उस के पूरे लाभाप्त के साथ नष्ट कर देता है, जैसे वर्तमान में हो रहा है। जातिगत व्यवसाय चयन पध्दति ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये अधिक उपयुक्त समझमें आती है। १४. अमर्याद व्यक्तिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में अधिक पैसा मिलने की संभावना होनेवाला व्यवसाय करने का प्रयास सब लोग करते हैं । ऐसी स्थिती में बहुत बडे प्रमाण में लोगों की जन्मगत व्यावसायिक कुशलताओं का मेल उन्होंने स्वीकार किये हुए (अधिक लाभ देनेवाले) व्यावसायिक कुशलता से नहीं बैठ पाता। व्यवसाय उन्हें बोझ लगने लग जाता है। वे आप भी दुखी रहते हैं और औरों में दुख और निराशा संक्रमित करते हैं । जिन लोगों के चयनित व्यावसायिक कुशलता के साथ उन की जन्मगत व्यावसायिक कुशलताएँ मेल खातीं हैं उन्हें व्यवसाय बोझ नहीं लगता। उस व्यवसाय के करने में उन्हें आनंद प्राप्त होता है। ऐसे व्यावसायिक खुद भी आनंद से जीते हैं और औरों को भी आनंद बाँटते रहते हैं। १५. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में कुशलताओं के विकास के लिये बडे पैमाने पर औपचारिक ढंग से खर्चिले व्यावसायिक शिक्षा के विद्यालय चलाना अनिवार्य हो जाता है। विद्यार्थी को कुशलताओं की प्राप्ति के लिये स्वतंत्र रूप से समय देना पडता है। इन कुशलताओं की प्राप्ति का सीधा संबंध अर्थार्जन से होता है। पेट पालन से होता है। इसलिये प्राथमिकता इस व्यावसायिक कुशलता प्राप्ति को ही देनी पडती है। इस के कारण अच्छा मानव बनने की या सामाजिकता की शिक्षा से व्यक्ति वंचित रह जाता है। इस का नुकसान पूरे समाज को भुगतना पडता है। जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में बच्चा अपने पारिवारिक व्यावसायिक उद्योग में अनायास ही कुशलता संपादित कर लेता है। इस के कारण बचे हुए समय में उसपर अच्छे संस्कार करने की गुंजाईश रहती है। १६. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में अधिक पैसा देने वाले पाठयक्रमों के कारण एक और समस्या निर्माण होती है। लोग अधिकतम पैसा प्राप्त होनेवाले व्यवसायों का चयन करते हैं । वर्तमान में पढाए जाने वाले समाजशास्त्र, राज्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि पाठयक्रम कोई सार्थक हैं ऐसी बात नहीं है। लेकिन वे सार्थक होते तब भी इन पाठयक्रमों के लिये विद्यार्थी उपलब्ध नहीं होते। और जो होते हैं वे बहुत ही सामान्य बुध्दि रखनेवाले होते हैं । सब से अधिक हानी शिक्षा के क्षेत्र की होती है। निम्न स्तर की क्षमता और बुध्दि रखनेवाले लोग शिक्षक बनते हैं और समाज का पीढी दर पीढी पतन होता जाता है। सामाजिकता के क्षेत्र में प्रतिभा का संकट निर्माण होता है और राजनीति में चालाक लोग घुसकर बुध्दिमानोंपर शासन करते हैं । १७. जातिगत व्यवसाय चयन के अनुसार जब सेना में या सुरक्षा बलों में क्षत्रिय वृत्ति के लोग काम करते हैं तब वे उस व्यवस्था को श्रेष्ठ बनाते हैं । क्षत्रियों की मानसिकता, उन का प्राण की बाजी लगाने का स्वभाव, उन की शारीरिक बलोपासना स्वास्थ्य रक्षण और युध्द आदि कार्यों के अनुरूप होते हैं । कितु जब बलपूर्वक सेना में भरती होती है तब सैनिक की उस काम में अनास्था होती है। उस का मन ठीक से सहयोग नहीं करता। दूसरी ओर कुछ लोग अन्य कुछ भी काम नहीं आता इसलिये सेना और रक्षा बलों में भरती होते हैं । इन में क्षत्रिय के गुण और लक्षण नहीं होने के कारण इन महत्वपूर्ण सामाजिक आवश्यकता की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। उन का स्तर घट जाता है। यह संकट वर्तमान में सभी शिक्षा, सैनिक / पुलिस / अर्धसैनिक सामाजिक सुरक्षा और राजनीति जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अनुभव किया जा सकता है। १८. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि पारिवारिक भावना और परिवार व्यवस्था को सेन्ध लगाती है। पारिवारिक व्यवसायों को तोडती है। पारिवारिक अर्थव्यवस्था को हटाकर आर्थिक बकासुरी (कारपोरेट) कारखानों और नौकरशाही की अर्थव्यवस्था स्थापित होती है। करोडों परिवारों में सुवितरित संपत्ति उन से छीनकर चंद बकासुरी (कारपोरेट) कारखानों तक ले जाती है। समाज पारिवारिक व्यवसायों को सामाजिक आवश्यकता के अनुसार समाज नियन्त्रित करता है। जब की बकासुरी (कारपोरेट) कारखाने अपनी आर्थिक आसुरी सत्ता के जरिये, नौकरशाही के माध्यम से अनैतिक, आक्रमक, भ्रामक, विज्ञापनबाजी से समाज का नियन्त्रण और शोषण करते हैं । १९. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि समाज को पगढीला बनाती है। पगढीले लोगों की संख्या एक प्रमाण से अधिक बढने से समाज की संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। जिस तरह शीत जल के पात्र में रखा मेंढक जल धीरे धीरे गरम करनप्र से मर जाता है लेकिन बाहर निकलने के प्रयास नहीं करता या कर पाता। उसी तरह संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है और पता भी नहीं चलता। २०. जातिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में पूरे समाज की जातियों के लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अन्य जातियोंपर निर्भर रहते हैं। इस तरह परस्परावलंबन, के कारण समाज संगठित हो जाता है। समाज के विरोध में या राष्ट्र विरोधी गुट इस प्रणालि में पनप नहीं सकते। २१. जिस समाज की प्रजा ओजस्वी और तेजस्वी होती है वह समाज अन्यों से श्रेष्ठ होता है। जब स्त्री और पुरूष विवाह में कोइ बंधन नहीं रहता तब स्वैराचार पनपता है। हर सुन्दर लड़की की चाहत हर युवक को और हर सुन्दर और सुडौल युवक की चाहत हर लड़की को होती है। इसमें लडके और लड़की का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं भी बनता तब भी इस चाहत के कारण होनेवाले चिंतन के कारण दोनों के ब्रह्मचर्य की हानी तो होती ही है। संयम के लिए कुछ मात्रा में लोकलाज ही बंधन रह जाता है। वर्त्तमान के मुक्त वातावरण के कारण लडकों और लड़कियों के सम्बन्ध भी मुक्त होने लग गए हैं। ब्रह्मचर्य पालन यह मजाक का विषय बन गया है। लेकिन जब विवाहों को जातियों का बंधन होता है तो युवक और युवातियों की दिलफेंकू वृत्ती को लगाम लग जाती है। इससे युवा वर्ग शारीरिक और मानसिक दृष्टी से अधिक संयमी बनाता है। समाज का स्वास्थ्य सुधरता है। समाज सुसंस्कृत बनता है। २२. भारत अब भी भारत है, इस का एकमात्र कारण है की भारत में हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है। लगभग ३०० वर्षों के मुस्लिम और १९० वर्षों के अंग्रेजी शासन के उपरांत भी हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है, इस का एक कारण है, हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था। धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र.१४ पर लिखते हैं, ‘अंग्रेजों के लिये जाति एक बडा प्रश्न था। … इसलिये नहीं कि वे जातिरहित या वर्गव्यवस्था के अभाववाली पध्दति में मानते थे, किन्तु इसलिये कि यह जाति व्यवस्था उन के भारतीय समाज को तोडने के कार्य में विघ्नस्वरूप थी’। भारत के अलावा अन्य किसी भी देश में जब मुस्लिम शासन रहा उसने २५-५० वर्षों में स्थानीय समाज को पूरा का पूरा मुसलमान बना दिया था । ५०० वर्षों के मुस्लिम शासन के उपरांत भी हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है। हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था इस का मुख्य कारण है। जाति व्यवस्था के ढेर सारे लाभ हैं । काल के प्रवाह में जाति व्यवस्था में दोष भी निर्माण हुए हैं। उन्हें दूर करना ही होगा। इस के ढेर सारे लाभ दुर्लक्षित नहीं किये जा सकते* धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र.१४ पर और लिखते हैं ‘आज के जातिप्रथा के विरूध्द आक्रोश के मूल में अंग्रेजी शासन ही है’* |
− | ५. व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि में हर पीढी में व्यवसाय बदलने के कारण हर पीढी को नये सिरे से कुशलताओं को सीखना होता है। इस से सामान्यत: कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने की संभावना होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने की संभावनाएँ बहुत अधिक होतीं हैं। | |
− | ६. व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि में कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय भी बढता जाता है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग न्यूनतम होता जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय नहीं होता। बचत होती है। | |
− | ७. व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि में व्यक्ति का महत्व बढता है। सामाजिकता की भावना कम होती है । परिवार बिखर जाते हैं । जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में संयुक्त कुटुंब का महत्व बढता है। कुटुंब भावना ही वास्तव में सामाजिकता की जड होती है। पारिवारिक व्यावसायिक परंपराएं बनतीं हैं । सामाजिकता की भावना बढती है। परिवार समृध्द बनते हैं। वर्तमान सामाजिक समस्याओं में से शायद 50 प्रतिशत से अधिक समस्याओं का निराकरण तो संयुक्त परिवारों की प्रतिष्ठापना से ही हो सकता है। कृपया परिशिष्ट 4 देखें। और जातिगत व्यवसाय चयन के लिये संयुक्त परिवार व्यवस्था पूरक और पोषक ही नहीं आवश्यक भी होती है। | |
− | ८. यह सामान्य निरीक्षण और ज्ञान की बात है की बुध्दिमान वर्ग समाज में प्रतिष्ठा की ऊपर की पायदानपर जाने का प्रयास करता रहता है। सम्मानप्राप्त बुध्दिमान वर्ग अल्पप्रसवा भी होता है। सम्मानप्राप्त बुध्दिमान वर्ग की जनन क्षमता अन्य समाज से कम होती है। इस तरह से हर समाज में बुध्दिमान वर्ग का प्रमाण कम होता जाता है। और जब यह प्रमाण एक विशेष सीमा से कम हो जाता है अर्थात् जब वह समाज बुध्दिहीनों का हो जाता है, वह समाज नष्ट हो जाता है। महान सभ्यताएँ विकसित करनेवाले कई समाज इसी कारण नष्ट हो गये हैं। जातिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में हर जाति में बुध्दिमान वर्ग को ऊपर के स्तरपर जाने के लिये पर्याप्त अवसर होते हैं। क्यों की यह प्रक्रिया हर जाति में चलती है। प्रत्येक जाति में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की, ऐसी हजारों जातियों की मिलाकर कु ल संख्या जातिहीन समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। उन्नत होकर प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग में जाने के अवसर विपुल प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । इसी तरह सामाजिक उन्नयन की प्रक्रिया भी जातिहीन समाज की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। जब की व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में ऐसे अवसर बहुत अल्प प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । जाति बदलने के लिये 12 वर्षतक उस जाति के जातिधर्म का पालन और साथ में व्यवसाय करने के उपरांत जाति बदलने की प्रथा आज भी कहीं कहीं अस्तित्व में है। वर्ण में परिवर्तन के लिये भी ऐसी ही 24 वर्षों की तपश्चर्या करनी पडती है (जैसी राजर्षि विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि बनने के लिये करनी पडी थी ) । समाज के हित के व्यवहार की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ व्यवहार करने वाली जातियों को विशेष सम्मान मिलना स्वाभाविक है। ऐसा होने से सामान्य लोग और कम महत्व वाली जातियों के लोग महत्वपूर्ण जातियों के लोगों जैसा व्यवहार करने की प्रेरणा पाते हैं । किन्तु कम सम्मान प्राप्त जातियों में जो बुध्दिमान वर्ग है उस की जननक्षमता अन्य सामान्य लोगों जितनी ही यानी अधिक रहती है। इस कारण समाज में बुध्दिमानों की कभी भी कमी नहीं होती । समाज चिरंजीवी बनने में यह व्यवस्था भी योगदान देती है। | |
− | ९. सुख प्राप्ति यह हर मानव की चाहत होती है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिये चार बातों की आवश्यकता होती है। | |
− | - सुसाध्य आजीविका - शांति - स्वतंत्रता - पुरूषार्थ | |
− | व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि में व्यक्ति केवल अपने पुरूषार्थ के बल पर बडा होता है। किन्तु ऐसा करते समय वह कितना सुख पाता है यह विवाद का विषय नही है। सब सुखों का त्याग करने के उपरांत ही उसे सफलता प्राप्त होती है। उस की आजीविका सुसाध्य नहीं रहती । व्यावसायिक गलाकाट स्पर्धा का उसे सामना करना पडता है । इस स्पर्धा का सामना करना है तो शांति कैसे मिल सकती है ? किन्तु जातिगत व्यवसाय के चयन की प्रणालि में व्यक्ति को अपनी जाति के अंदर ही स्पर्धा का सामना करना पडता है। जातियाँ हजारों होने से इस स्पर्धा की तीव्रता का स्तर हर जाति में तो बहुत ही कम होता है। जातिगत व्यवस्था में परस्परावलंबन होता है। फिर जातिगत अनुशासन भी होता है, जो गलाकाट स्पर्धा होने नहीं देता। इसलिये व्यक्ति के लिये सुखप्राप्ति की संभावनाएं कई गुना बढ जाती हैं। | |
− | १०. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में ‘मुझे अधिक से अधिक सुख प्राप्ति के लिये अधिक से अधिक धन प्राप्त करना है। और अधिक से अधिक धन प्राप्ति के लिये के लिये उत्पादन करना है’ इस भावना से व्यक्ति काम करता है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में व्यक्ति 'मैं मेरा कर्तव्य कर रहा हूँ’, मैं परोपकार के लिये उत्पादन कर रहा हूँ, ‘मैं मेरे जातिधर्म का पालन कर रहा हूँ’ इस भावना से उत्पादन करता है। स्वार्थत्याग में मनुष्य कमियों को सहन कर लेता है। किंतु जब वह स्वार्थ के (व्यक्तिगत चयन) लिये काम करता है तो वह कमियों को सहन नहीं कर पाता। वह या तो लाचार हो जाता है या अपराधी बन जाता है। | |
− | ११. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में नौकरों (गैर या अल्प जिम्मेदार, लाचार और आत्मविश्वासहीन ) की संख्या बहुत अधिक होती हप्रै। मालिकों (जिम्मेदार, स्वाभिमानयुक्त और आत्मविश्वासयुक्त ) की संख्या अत्यल्प होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में मालिकों की संख्या बहुत अधिक और नौकरों की संख्या कम रहती है। इस कारण सारा समाज जिम्मेदार, स्वाभिमानी और आत्मविश्वासयुक्त बनता है। | |
− | १२. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में लाभ (जितना अधिक से अधिक संभव है उतना) पर आधारित अर्थशास्त्र जन्म लेता है। इसलिये फिर विज्ञापनबाजी, झूठ, फरेब का उपयोग किया जाना सामान्य बन जाता है। सामान्य जन को इस से बचाने के लिये (मँहंगे) न्यायालय का दिखावा होता है। लेकिन वह मुश्किल से शायद एकाध प्रतिशत लोगों को ही न्याय दिला पाता है। केवल व्यक्तिगत चयन आधारित व्यवसाय पर आधारित अर्थव्यवस्था में निम्न प्रकारों से सामाजिक हानी होती हप्रै। | |
− | क) पूरे समाज के लिये मैं अकेला ही उत्पादन करूँगा, उस से मिलनेवाले लाभ का मैं एकमात्र हकदार बनूँं ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सारे समाज में व्याप्त हो जाती है। इस वातावरण और उपजी स्पर्धा में समाज का एक बहुत छोटा वर्ग ही सफल होता है। बाकी सब लोग चूहे की मानसिकता वाले बन जाते हैं। जो अपने से दुर्बल और निश्चेष्ट किसी को भी खाते जाते हैं । | |
− | ख) व्यवसाय व्यक्तिगत और विशालतम बनते जाते हैं। जैसे मायक्रोसॉफ्ट या फोर्ड आदि। आर्थिक दृष्टि से कुछ लोग बहुत बडे बन जाते हैं । अन्य कुछ लोगों की जो बडे बन रहे हैं ऐसे लोगों की एक सीढी बनीं दिखाई देती है। किंतु इस सीढी पर बहुत कम लोग होते हैं। बहुजन तो चींटियों की तरह रेंगने लग जाते हैं । समाज में आर्थिक विषमता बढती है। | |
− | ग) आर्थिक सत्ता के केंद्रीकरण के कारण पैसे का प्रभाव दिखाई देने लगता है। इस से गुण्डागर्दि, झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी की मदद से भी आर्थिक विकास की सीढी पर शीघ्रातिशीघ्र ऊपर चढने की मानसिकता बनने लगती है। संचार माध्यमों के दुरूपयोग के लिये निमित्त बन जाता है। | |
− | घ) ज्ञान तो व्यक्ति में अंतर्निहीत ही होता है। उस का विकास वह कर सकता है। ज्ञानप्राप्ति का अधिकार हर व्यक्ति को है। किंतु कुशलता यह हर व्यक्ति की भिन्न होती है। हर व्यक्ति उस की विशिष्ट व्यावसायिक कौशल की विधा और उस विधा के विकास की संभावनाएँ लेकर ही जन्म लेता है। जन्म के उपरांत उस में परिवर्तन की संभावनाएँ बहुत कम होतीं है। परिवर्तन बहुत लम्बे और कठिन तप से ही हो सकता है। यह तप करने की तैयारी सामान्य मनुष्य की नहीं होने से वह असफल हो जाता है। दौड में पीछे रह जाता है। फिर व्यावसायिक तरीके नहीं अन्य हथकंडे अपनाने लग जाता है। लाचार बन जाता है या निराश हो जाता है। | |
− | च) हर बच्चे के कुशलताओं के विकास के स्तर की मर्यादा भिन्न भिन्न होती हैं। जन्मजात कुशलताओं से भिन्न व्यवसाय के चयन के कारण अपने विकास के उच्चतम संभाव्य स्तर तक पहुँचने के लिये व्यक्तिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में अवसर ही नहीं होता। यह अवसर जातिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में सहज ही प्राप्त हो जाता है। | |
− | छ) जातिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में माँग के अनुसार उत्पादन होता है। ग्राहक को परमात्मा मानकर ही उत्पादन होता है। झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी से निर्माण की जानेवाली आभासी आवश्यकताओं की संभावना नहीं रहती॥ | |
− | १३. जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि सर्व सहमति का लोकतंत्र छोडकर अन्य शासन व्यवस्थाओं में चल नहीं सकती। कम से कम वर्तमान अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र की प्रणालि में तो संभव ही नहीं है। छोटे भौगोलिक क्षेत्र में सर्वसहमति का लोकतंत्र अन्य किसी भी शासन व्यवस्था से ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये अधिक उपयुक्त होता है। अल्पमत और बहुमत के लोकतंत्र में जातिगत व्यवसाय चयन पध्दति कभी नहीं रह सकती। अल्पमत और बहुमत का लोकतंत्र हर एक मनुष्य को व्यक्तिवादी यानि स्वार्थी बनाता है, सामाजिकता को पनपने नहीं देता है और इस जातिगत व्यवसाय चयन पध्दति को उस के पूरे लाभाप्त के साथ नष्ट कर देता है, जैसे वर्तमान में हो रहा है। जातिगत व्यवसाय चयन पध्दति ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये अधिक उपयुक्त समझमें आती है। | |
− | १४. अमर्याद व्यक्तिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में अधिक पैसा मिलने की संभावना होनेवाला व्यवसाय करने का प्रयास सब लोग करते हैं । ऐसी स्थिती में बहुत बडे प्रमाण में लोगों की जन्मगत व्यावसायिक कुशलताओं का मेल उन्होंने स्वीकार किये हुए (अधिक लाभ देनेवाले) व्यावसायिक कुशलता से नहीं बैठ पाता। व्यवसाय उन्हें बोझ लगने लग जाता है। वे आप भी दुखी रहते हैं और औरों में दुख और निराशा संक्रमित करते हैं । जिन लोगों के चयनित व्यावसायिक कुशलता के साथ उन की जन्मगत व्यावसायिक कुशलताएँ मेल खातीं हैं उन्हें व्यवसाय बोझ नहीं लगता। उस व्यवसाय के करने में उन्हें आनंद प्राप्त होता है। ऐसे व्यावसायिक खुद भी आनंद से जीते हैं और औरों को भी आनंद बाँटते रहते हैं। | |
− | १५. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में कुशलताओं के विकास के लिये बडे पैमाने पर औपचारिक ढंग से खर्चिले व्यावसायिक शिक्षा के विद्यालय चलाना अनिवार्य हो जाता है। विद्यार्थी को कुशलताओं की प्राप्ति के लिये स्वतंत्र रूप से समय देना पडता है। इन कुशलताओं की प्राप्ति का सीधा संबंध अर्थार्जन से होता है। पेट पालन से होता है। इसलिये प्राथमिकता इस व्यावसायिक कुशलता प्राप्ति को ही देनी पडती है। इस के कारण अच्छा मानव बनने की या सामाजिकता की शिक्षा से व्यक्ति वंचित रह जाता है। इस का नुकसान पूरे समाज को भुगतना पडता है। जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में बच्चा अपने पारिवारिक व्यावसायिक उद्योग में अनायास ही कुशलता संपादित कर लेता है। इस के कारण बचे हुए समय में उसपर अच्छे संस्कार करने की गुंजाईश रहती है। | |
− | १६. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि में अधिक पैसा देने वाले पाठयक्रमों के कारण एक और समस्या निर्माण होती है। लोग अधिकतम पैसा प्राप्त होनेवाले व्यवसायों का चयन करते हैं । वर्तमान में पढाए जाने वाले समाजशास्त्र, राज्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि पाठयक्रम कोई सार्थक हैं ऐसी बात नहीं है। लेकिन वे सार्थक होते तब भी इन पाठयक्रमों के लिये विद्यार्थी उपलब्ध नहीं होते। और जो होते हैं वे बहुत ही सामान्य बुध्दि रखनेवाले होते हैं । सब से अधिक हानी शिक्षा के क्षेत्र की होती है। निम्न स्तर की क्षमता और बुध्दि रखनेवाले लोग शिक्षक बनते हैं और समाज का पीढी दर पीढी पतन होता जाता है। सामाजिकता के क्षेत्र में प्रतिभा का संकट निर्माण होता है और राजनीति में चालाक लोग घुसकर बुध्दिमानोंपर शासन करते हैं । | |
− | १७. जातिगत व्यवसाय चयन के अनुसार जब सेना में या सुरक्षा बलों में क्षत्रिय वृत्ति के लोग काम करते हैं तब वे उस व्यवस्था को श्रेष्ठ बनाते हैं । क्षत्रियों की मानसिकता, उन का प्राण की बाजी लगाने का स्वभाव, उन की शारीरिक बलोपासना स्वास्थ्य रक्षण और युध्द आदि कार्यों के अनुरूप होते हैं । कितु जब बलपूर्वक सेना में भरती होती है तब सैनिक की उस काम में अनास्था होती है। उस का मन ठीक से सहयोग नहीं करता। दूसरी ओर कुछ लोग अन्य कुछ भी काम नहीं आता इसलिये सेना और रक्षा बलों में भरती होते हैं । इन में क्षत्रिय के गुण और लक्षण नहीं होने के कारण इन महत्वपूर्ण सामाजिक आवश्यकता की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। उन का स्तर घट जाता है। यह संकट वर्तमान में सभी शिक्षा, सैनिक / पुलिस / अर्धसैनिक सामाजिक सुरक्षा और राजनीति जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अनुभव किया जा सकता है। | |
− | १८. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि पारिवारिक भावना और परिवार व्यवस्था को सेन्ध लगाती है। पारिवारिक व्यवसायों को तोडती है। पारिवारिक अर्थव्यवस्था को हटाकर आर्थिक बकासुरी (कारपोरेट) कारखानों और नौकरशाही की अर्थव्यवस्था स्थापित होती है। करोडों परिवारों में सुवितरित संपत्ति उन से छीनकर चंद बकासुरी (कारपोरेट) कारखानों तक ले जाती है। समाज पारिवारिक व्यवसायों को सामाजिक आवश्यकता के अनुसार समाज नियन्त्रित करता है। जब की बकासुरी (कारपोरेट) कारखाने अपनी आर्थिक आसुरी सत्ता के जरिये, नौकरशाही के माध्यम से अनैतिक, आक्रमक, भ्रामक, विज्ञापनबाजी से समाज का नियन्त्रण और शोषण करते हैं । | |
− | १९. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि समाज को पगढीला बनाती है। पगढीले लोगों की संख्या एक प्रमाण से अधिक बढने से समाज की संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। जिस तरह शीत जल के पात्र में रखा मेंढक जल धीरे धीरे गरम करनप्र से मर जाता है लेकिन बाहर निकलने के प्रयास नहीं करता या कर पाता। उसी तरह संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है और पता भी नहीं चलता। | |
− | २०. जातिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में पूरे समाज की जातियों के लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अन्य जातियोंपर निर्भर रहते हैं। इस तरह परस्परावलंबन, के कारण समाज संगठित हो जाता है। समाज के विरोध में या राष्ट्र विरोधी गुट इस प्रणालि में पनप नहीं सकते। | |
− | २१. जिस समाज की प्रजा ओजस्वी और तेजस्वी होती है वह समाज अन्यों से श्रेष्ठ होता है। जब स्त्री और पुरूष विवाह में कोइ बंधन नहीं रहता तब स्वैराचार पनपता है। हर सुन्दर लड़की की चाहत हर युवक को और हर सुन्दर और सुडौल युवक की चाहत हर लड़की को होती है। इसमें लडके और लड़की का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं भी बनता तब भी इस चाहत के कारण होनेवाले चिंतन के कारण दोनों के ब्रह्मचर्य की हानी तो होती ही है। संयम के लिए कुछ मात्रा में लोकलाज ही बंधन रह जाता है। वर्त्तमान के मुक्त वातावरण के कारण लडकों और लड़कियों के सम्बन्ध भी मुक्त होने लग गए हैं। ब्रह्मचर्य पालन यह मजाक का विषय बन गया है। लेकिन जब विवाहों को जातियों का बंधन होता है तो युवक और युवातियों की दिलफेंकू वृत्ती को लगाम लग जाती है। इससे युवा वर्ग शारीरिक और मानसिक दृष्टी से अधिक संयमी बनाता है। समाज का स्वास्थ्य सुधरता है। समाज सुसंस्कृत बनता है। | |
− | २२. भारत अब भी भारत है, इस का एकमात्र कारण है की भारत में हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है। लगभग ३०० वर्षों के मुस्लिम और १९० वर्षों के अंग्रेजी शासन के उपरांत भी हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है, इस का एक कारण है, हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था। धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र.१४ पर लिखते हैं, ‘अंग्रेजों के लिये जाति एक बडा प्रश्न था। … इसलिये नहीं कि वे जातिरहित या वर्गव्यवस्था के अभाववाली पध्दति में मानते थे, किन्तु इसलिये कि यह जाति व्यवस्था उन के भारतीय समाज को तोडने के कार्य में विघ्नस्वरूप थी’। भारत के अलावा अन्य किसी भी देश में जब मुस्लिम शासन रहा उसने २५-५० वर्षों में स्थानीय समाज को पूरा का पूरा मुसलमान बना दिया था । ५०० वर्षों के मुस्लिम शासन के उपरांत भी हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है। हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था इस का मुख्य कारण है। | |
− | जाति व्यवस्था के ढेर सारे लाभ हैं । काल के प्रवाह में जाति व्यवस्था में दोष भी निर्माण हुवे हैं। उन्हें दूर करना ही होगा। इस के ढेर सारे लाभ दुर्लक्षित नहीं किये जा सकते* धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र.१४ पर और लिखते हैं ‘आज के जातिप्रथा के विरूध्द आक्रोश के मूल में अंग्रेजी शासन ही है’* | |
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| == जाति व्यवस्था पर किये गये दोषारोपों की वास्तविकता == | | == जाति व्यवस्था पर किये गये दोषारोपों की वास्तविकता == |
| ‘समाजशास्त्राची मूलतत्त्वे’ इस डॉ. भा. कि. खडसे द्वारा लिखी शासन द्वारा अधिकृत पुस्तक में निम्न दोष बताए गए हैं। | | ‘समाजशास्त्राची मूलतत्त्वे’ इस डॉ. भा. कि. खडसे द्वारा लिखी शासन द्वारा अधिकृत पुस्तक में निम्न दोष बताए गए हैं। |
| दोष १ : जाति व्यवस्था यह लोकतंत्र विरोधी है : वास्तव में लोकतंत्र विरोधी होने का अर्थ सर्वे भवन्तु सुखिन: का विरोधी लगाया जाता है। यह विपरीत शिक्षा के कारण है। विपरीत प्रतिमानात्मक सोच के कारण है। वास्तव में लोकतंत्र तो एक शासन व्यवस्था है। यह तो एक साधन मात्र है। साध्य है सर्वे भवन्तु सुखिन:। और जाति व्यवस्था सर्वे भवन्तु सुखिन: की विरोधक नहीं है। | | दोष १ : जाति व्यवस्था यह लोकतंत्र विरोधी है : वास्तव में लोकतंत्र विरोधी होने का अर्थ सर्वे भवन्तु सुखिन: का विरोधी लगाया जाता है। यह विपरीत शिक्षा के कारण है। विपरीत प्रतिमानात्मक सोच के कारण है। वास्तव में लोकतंत्र तो एक शासन व्यवस्था है। यह तो एक साधन मात्र है। साध्य है सर्वे भवन्तु सुखिन:। और जाति व्यवस्था सर्वे भवन्तु सुखिन: की विरोधक नहीं है। |
− | दोष २ : जाति व्यवस्था अस्पृष्यता को जन्म देती है : मूल में जा कर देखें तो वर्ण या जाति व्यवस्था का अस्पृष्यता के साथ कोई संबंध नहीं है। हो सकता है की काल के प्रवाह में शुचिता, पवित्रता, स्वास्थ्य, शुध्दता आदि के अतिरेकी आग्रह के कारण यह दोष निर्माण हुए हों । किंतु इस अस्पृष्यता का आधार घृणा नहीं था। आज भी कई परिवारों में माहवारी के समय स्त्री का अलग बैठना, पूजा या यज्ञ करनेवाले को किसी ने नहीं छूना, अंत्ययात्रा में सहभागी व्यक्ति द्वारा घर आने पर अन्यों को और व्यक्ति को अन्यों द्वारा स्पर्श नही करना आदि बातों का पालन होता दिखाई देता है। इसे कोई बुरा नहीं मानता । | + | दोष २ : जाति व्यवस्था अस्पृष्यता को जन्म देती है : मूल में जा कर देखें तो वर्ण या जाति व्यवस्था का अस्पृष्यता के साथ कोई संबंध नहीं है। हो सकता है की काल के प्रवाह में शुचिता, पवित्रता, स्वास्थ्य, शुद्धता आदि के अतिरेकी आग्रह के कारण यह दोष निर्माण हुए हों । किंतु इस अस्पृष्यता का आधार घृणा नहीं था। आज भी कई परिवारों में माहवारी के समय स्त्री का अलग बैठना, पूजा या यज्ञ करनेवाले को किसी ने नहीं छूना, अंत्ययात्रा में सहभागी व्यक्ति द्वारा घर आने पर अन्यों को और व्यक्ति को अन्यों द्वारा स्पर्श नही करना आदि बातों का पालन होता दिखाई देता है। इसे कोई बुरा नहीं मानता । |
| बाबासाहब आंबेडकर के अनुसार गाय के प्रति आदर रखनेवाले लोगोंने मरी गाय का मांस खानेवाले लोगों को अस्पृष्य माना। लेकिन उनमें आपसमें घृणा की भावना नहीं थी। मुल जाति व्यवस्था में घृणावाली अस्पृष्यता को कोई स्थान नहीं है। | | बाबासाहब आंबेडकर के अनुसार गाय के प्रति आदर रखनेवाले लोगोंने मरी गाय का मांस खानेवाले लोगों को अस्पृष्य माना। लेकिन उनमें आपसमें घृणा की भावना नहीं थी। मुल जाति व्यवस्था में घृणावाली अस्पृष्यता को कोई स्थान नहीं है। |
| यह भी संभव हप्र कि वर्ण और जाति व्यवस्था के लाभ लेकर भी इस के कर्तव्य और जिम्मेदारियों का निर्वाह नहीं करनेवाले लोगों को या परिवारों को अस्पृष्य माना जाता होगा। ऐसे परिवारों की संख्या बढने से अस्पृष्य बस्तियाँ बनीं होंगी। इसी से अस्पृष्य जातियों का निर्माण हुवा होगा। | | यह भी संभव हप्र कि वर्ण और जाति व्यवस्था के लाभ लेकर भी इस के कर्तव्य और जिम्मेदारियों का निर्वाह नहीं करनेवाले लोगों को या परिवारों को अस्पृष्य माना जाता होगा। ऐसे परिवारों की संख्या बढने से अस्पृष्य बस्तियाँ बनीं होंगी। इसी से अस्पृष्य जातियों का निर्माण हुवा होगा। |
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| == वर्णाश्रम और जाति का तानाबाना == | | == वर्णाश्रम और जाति का तानाबाना == |
− | कुछ लोग यह मानते है कि प्रारंभ में तो केवल एक ही वर्ण था। फिर दो हुवे, फिर तीन और अंत में चार वर्ण बने । इन वर्णों में संकर यानी अनुलोम और प्रतिलोम विवाह होने के कारण वर्णसंकर निर्माण हुए। इन वर्नासंकारों को समाज में समाविष्ट करने के लिए जातियां निर्माण कीं गयी। जातियों में भी कुशलताओं, कुशलता के स्तरों और उत्पादनों की विविधता के अनुसार उपजातियां बनीं। | + | कुछ लोग यह मानते है कि प्रारंभ में तो केवल एक ही वर्ण था। फिर दो हुए, फिर तीन और अंत में चार वर्ण बने । इन वर्णों में संकर यानी अनुलोम और प्रतिलोम विवाह होने के कारण वर्णसंकर निर्माण हुए। इन वर्नासंकारों को समाज में समाविष्ट करने के लिए जातियां निर्माण कीं गयी। जातियों में भी कुशलताओं, कुशलता के स्तरों और उत्पादनों की विविधता के अनुसार उपजातियां बनीं। |
| इस का अर्थ है कि समाज में ऐसी व्यवस्था थी जो नयी जातियों को मान्यता देती थी। यह व्यवस्था नयी जाति किन विशिष्ट गुण और लक्षणों के (और व्यावसायिक कौशलों के) संकर से निर्माण हुई है, यह देखकर उस जाति के नाम, जातिधर्म और व्यावसायिक काप्रशल को मान्यता देती होगी। | | इस का अर्थ है कि समाज में ऐसी व्यवस्था थी जो नयी जातियों को मान्यता देती थी। यह व्यवस्था नयी जाति किन विशिष्ट गुण और लक्षणों के (और व्यावसायिक कौशलों के) संकर से निर्माण हुई है, यह देखकर उस जाति के नाम, जातिधर्म और व्यावसायिक काप्रशल को मान्यता देती होगी। |
| समाज की व्यावसायिक कुशलताओं की आवश्यकताओं की भिन्नता कम होने के कारण किसी समय केवल चार वर्णों में ही उन की पूर्ति के लिये सभी व्यवसायों को बाँटना सरल था। कालांतर से समाज की आवश्यकताओं की भिन्नता में वृध्दि हुई। जातियों की संख्या बहुत बढ गई। बाँटने के लिये व्यवसाय के क्षेत्र कम पडने लगे। जब किसी संकर से निर्मित गुट के लिये कोई व्यवसाय निश्चित किया जाता होगा तब पहले से ही वह व्यवसाय करनेवालों पर अन्याय होता होगा । वह लोग इस को स्वीकार नही करते होंगे । दूसरी ओर उस व्यवसाय में स्पर्धा बढ जाती होगी । समाज के एक हिस्से में व्याप्त अव्यवस्था का परिणाम पुरे समाजपर होता होगा । इन समस्याओं के कारण धीरे धीरे जाति निर्धारण करने वाली व्यवस्था कुछ काल तक प्रभावहीन और बाद में नष्ट हो गई होगी। ऐसा कोई वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य में नही मिलता। लेकिन के वल इसलिये ऐसी व्यवस्था के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी बात यानी आये दिन बडे पैमानेपर होनेवाले ऐसे वर्णसंकरों के लिये समाज की व्यवस्था में बारबार परिवर्तन करते रहना व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव हो गया होगा । | | समाज की व्यावसायिक कुशलताओं की आवश्यकताओं की भिन्नता कम होने के कारण किसी समय केवल चार वर्णों में ही उन की पूर्ति के लिये सभी व्यवसायों को बाँटना सरल था। कालांतर से समाज की आवश्यकताओं की भिन्नता में वृध्दि हुई। जातियों की संख्या बहुत बढ गई। बाँटने के लिये व्यवसाय के क्षेत्र कम पडने लगे। जब किसी संकर से निर्मित गुट के लिये कोई व्यवसाय निश्चित किया जाता होगा तब पहले से ही वह व्यवसाय करनेवालों पर अन्याय होता होगा । वह लोग इस को स्वीकार नही करते होंगे । दूसरी ओर उस व्यवसाय में स्पर्धा बढ जाती होगी । समाज के एक हिस्से में व्याप्त अव्यवस्था का परिणाम पुरे समाजपर होता होगा । इन समस्याओं के कारण धीरे धीरे जाति निर्धारण करने वाली व्यवस्था कुछ काल तक प्रभावहीन और बाद में नष्ट हो गई होगी। ऐसा कोई वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य में नही मिलता। लेकिन के वल इसलिये ऐसी व्यवस्था के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी बात यानी आये दिन बडे पैमानेपर होनेवाले ऐसे वर्णसंकरों के लिये समाज की व्यवस्था में बारबार परिवर्तन करते रहना व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव हो गया होगा । |
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| == हर जाति में चार वर्ण == | | == हर जाति में चार वर्ण == |
− | महाराष्ट्र में संतों की एक दीर्घ परंपरा है । हर जाति में बडे संत हुवे है । जेसे गोरोबा कुम्हार थे । चोखोबा महार थे । नामदेव दर्जी थे । नरहरी सुनार थे । कान्होपात्रा वेश्या थीं । ज्ञानेश्वर, रामदास, एकनाथ ब्राह्मण थे । किन्तु इन संतों की एक विशेषता यह रही है की इन सभी ने एक ही वेदांत के तत्वज्ञान की प्रस्तुति की है । यह कैसे हुवा ? ये तो किसी गुरूकुल में नही जाते थे । फिर इन तक वेदांत की ज्ञानधारा कैसे पहुंची ? थोडा जातियों का अध्ययन करने से हमें ध्यान में आता है की हर जाति में जाति पुराण कहनेवाला एक वर्ग होता है । यह वर्ग उस जाति में सब से अधिक सम्मानित माना जाता है । यह वर्ग अर्थार्जन नही करता । यह उस जाति में नि:स्वार्थ भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान का ( ब्राह्मण का ) काम ही करता है। यह उस जाति के ब्राह्मण वर्ण के लोग ही होते है। ब्राह्मणजाति में भी जिनका ज्ञानार्जन और ज्ञानदान से दूर दूर तक कोई संबंध नही है ऐसे भोजन पकानेवाले महाराज होते है। यह ब्राह्मण जाति के शूद्र वर्ण के लोग होते है । | + | महाराष्ट्र में संतों की एक दीर्घ परंपरा है । हर जाति में बडे संत हुए है । जेसे गोरोबा कुम्हार थे । चोखोबा महार थे । नामदेव दर्जी थे । नरहरी सुनार थे । कान्होपात्रा वेश्या थीं । ज्ञानेश्वर, रामदास, एकनाथ ब्राह्मण थे । किन्तु इन संतों की एक विशेषता यह रही है की इन सभी ने एक ही वेदांत के तत्वज्ञान की प्रस्तुति की है । यह कैसे हुवा ? ये तो किसी गुरूकुल में नही जाते थे । फिर इन तक वेदांत की ज्ञानधारा कैसे पहुंची ? थोडा जातियों का अध्ययन करने से हमें ध्यान में आता है की हर जाति में जाति पुराण कहनेवाला एक वर्ग होता है । यह वर्ग उस जाति में सब से अधिक सम्मानित माना जाता है । यह वर्ग अर्थार्जन नही करता । यह उस जाति में नि:स्वार्थ भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान का ( ब्राह्मण का ) काम ही करता है। यह उस जाति के ब्राह्मण वर्ण के लोग ही होते है। ब्राह्मणजाति में भी जिनका ज्ञानार्जन और ज्ञानदान से दूर दूर तक कोई संबंध नही है ऐसे भोजन पकानेवाले महाराज होते है। यह ब्राह्मण जाति के शूद्र वर्ण के लोग होते है । |
| महाभारत के युध्द के बाद निर्माण हुई सामाजिक अव्यवस्था को दूर करने के लिये जो विद्वत परिषद नप्रमिषारण्य में हुयी थी उस का नेतृत्व सूत मुनी ने किया था । वे सूत जाति के ज्ञानवान ( ब्राह्मणों के गुण और लक्षणों वाले ) मनुष्य थे । इस से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है की हर जाति में चार वर्ण होते है । | | महाभारत के युध्द के बाद निर्माण हुई सामाजिक अव्यवस्था को दूर करने के लिये जो विद्वत परिषद नप्रमिषारण्य में हुयी थी उस का नेतृत्व सूत मुनी ने किया था । वे सूत जाति के ज्ञानवान ( ब्राह्मणों के गुण और लक्षणों वाले ) मनुष्य थे । इस से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है की हर जाति में चार वर्ण होते है । |
| ‘भारतीय समाजशास्त्र’ इस पुस्तक में (वरदा प्रकाशन, सेनापति बापट मार्ग, पुणे 16) पृष्ठ 142 पर लेखक डॉ श्रीधर व्यंकटेश केतकर लिखते हैं - ब्राह्मणांचा सर्वत्र प्रचार होण्यापूर्वी समाजाला असे स्वरूप होते कि प्रत्येक जातीत चातुरर््वण्य होते म्हणजे शेतकरी, पुजारी, व्यापारी, आणि सेवक वर्ग होते'। अर्थात् ब्राह्मणों का सर्वत्र प्रचार होने से पूर्व प्रत्येक जाती में किसान, पुजारी, व्यापारी और सेवक ऐसे चार वर्ण थे। | | ‘भारतीय समाजशास्त्र’ इस पुस्तक में (वरदा प्रकाशन, सेनापति बापट मार्ग, पुणे 16) पृष्ठ 142 पर लेखक डॉ श्रीधर व्यंकटेश केतकर लिखते हैं - ब्राह्मणांचा सर्वत्र प्रचार होण्यापूर्वी समाजाला असे स्वरूप होते कि प्रत्येक जातीत चातुरर््वण्य होते म्हणजे शेतकरी, पुजारी, व्यापारी, आणि सेवक वर्ग होते'। अर्थात् ब्राह्मणों का सर्वत्र प्रचार होने से पूर्व प्रत्येक जाती में किसान, पुजारी, व्यापारी और सेवक ऐसे चार वर्ण थे। |
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| इन सब से यह निष्कर्ष निकाले जा सकते है की - | | इन सब से यह निष्कर्ष निकाले जा सकते है की - |
| १. मनुष्य समाज ठीक से जी सके, समाज में संतुलन बना रहे इसलिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगों को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है। | | १. मनुष्य समाज ठीक से जी सके, समाज में संतुलन बना रहे इसलिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगों को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है। |
− | २. जनसंख्या के प्रमाण में पैदा होने वाले जन्मजात वर्णों की या प्रवृत्तियों ( गुण और लक्षणों ) की शुध्दता बनाए रखने के लिये और समाज में संतुलन बनाए रखने के लिये वर्ण व्यवस्था की रचना की गई थी। यह आनुवांशिकता से नहीं थी। | + | २. जनसंख्या के प्रमाण में पैदा होने वाले जन्मजात वर्णों की या प्रवृत्तियों ( गुण और लक्षणों ) की शुद्धता बनाए रखने के लिये और समाज में संतुलन बनाए रखने के लिये वर्ण व्यवस्था की रचना की गई थी। यह आनुवांशिकता से नहीं थी। |
| ३. जन्मजात व्यावसायिक कुशलता ( जाति ) का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संतुलन बनाये रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने आनुवांशिकता से जाति व्यवस्था का निर्माण किया था । | | ३. जन्मजात व्यावसायिक कुशलता ( जाति ) का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संतुलन बनाये रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने आनुवांशिकता से जाति व्यवस्था का निर्माण किया था । |
| ४. जातियों में भी चारों वर्णों के लोगों के ‘ स्व ‘भाव के अनुसार और व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुसार काम का स्वरूप होता था। जैसे अपनी व्यावसायिक कुशलता (जाति) के जातिपुराण की कालानुरूप रचना और प्रस्तुति करना। | | ४. जातियों में भी चारों वर्णों के लोगों के ‘ स्व ‘भाव के अनुसार और व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुसार काम का स्वरूप होता था। जैसे अपनी व्यावसायिक कुशलता (जाति) के जातिपुराण की कालानुरूप रचना और प्रस्तुति करना। |
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| छुआछूत का चलन यह जाति व्यवस्था में निर्माण हुवा गंभीर दोष है। यदि जाति व्यवस्था को बनाए रखना हो तो छुआछूत विहीन जाति व्यवस्था का ही विकास करना होगा। | | छुआछूत का चलन यह जाति व्यवस्था में निर्माण हुवा गंभीर दोष है। यदि जाति व्यवस्था को बनाए रखना हो तो छुआछूत विहीन जाति व्यवस्था का ही विकास करना होगा। |
| प्रकृति में पेड के दो पत्ते एक जैसे नहीं होते। दो मनुष्य भी एक जैसे नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता और कनिष्ठता तो रहेगी ही। यह प्राकृतिक ही है। किंतु मानव होने के नाते समानता आवश्यक है, इस तत्त्व का नयी जाति व्यवस्था में समावेष अनिवार्य है। जाति या वर्ण जो भी हो, मानवता का व्यवहार तो हर मानव से हो यह अनिवार्य है। समाज के प्रत्येक सदस्य को उस के कर्मों के आधारपर श्रेष्ठता या कनिष्ठता प्राप्त होगी। ऐसा होने से किसी के मन में कडवाहट नहीं रहेगी। | | प्रकृति में पेड के दो पत्ते एक जैसे नहीं होते। दो मनुष्य भी एक जैसे नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता और कनिष्ठता तो रहेगी ही। यह प्राकृतिक ही है। किंतु मानव होने के नाते समानता आवश्यक है, इस तत्त्व का नयी जाति व्यवस्था में समावेष अनिवार्य है। जाति या वर्ण जो भी हो, मानवता का व्यवहार तो हर मानव से हो यह अनिवार्य है। समाज के प्रत्येक सदस्य को उस के कर्मों के आधारपर श्रेष्ठता या कनिष्ठता प्राप्त होगी। ऐसा होने से किसी के मन में कडवाहट नहीं रहेगी। |
− | कुछ लोगों की पक्की धारणा है कि जाति व्यवस्था मूलत: ही दोषपूर्ण थी। इन में जो विचारशील लोग हैं उन्हें समझाना होगा। और नयी व्यवस्था के पक्ष में लाना होगा। जो लोग समझते हैं कि जाति व्यवस्था कभी ठीक रही होगी। लेकिन वर्तमान में तो यह अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वर्तमान जाति व्यवस्था को तोडने से पहले वे एक सशक्त वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति करें। वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग कर यह सिध्द करें कि उन के द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्थाओं के सभी लाभों को बनाए रखते हुवे इस के दोषों का निवारण करती है। ऐसी परिस्थिती में उन के द्वारा प्रस्तुत व्यवस्था का स्वीकार करना हर्ष की ही बात होगी। किंतु ऐसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था की योजना के बगैर ही वर्तमान व्यवस्था को तोडने के प्रयास को बुध्दिमानी नहीं कहा जा सकता। ऐसा विकल्प जबतक नहीं मिल जाता, वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखते हुवे उस के दोषों का निवारण करने के प्रयास करने होंगे। | + | कुछ लोगों की पक्की धारणा है कि जाति व्यवस्था मूलत: ही दोषपूर्ण थी। इन में जो विचारशील लोग हैं उन्हें समझाना होगा। और नयी व्यवस्था के पक्ष में लाना होगा। जो लोग समझते हैं कि जाति व्यवस्था कभी ठीक रही होगी। लेकिन वर्तमान में तो यह अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वर्तमान जाति व्यवस्था को तोडने से पहले वे एक सशक्त वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति करें। वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग कर यह सिध्द करें कि उन के द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्थाओं के सभी लाभों को बनाए रखते हुए इस के दोषों का निवारण करती है। ऐसी परिस्थिती में उन के द्वारा प्रस्तुत व्यवस्था का स्वीकार करना हर्ष की ही बात होगी। किंतु ऐसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था की योजना के बगैर ही वर्तमान व्यवस्था को तोडने के प्रयास को बुध्दिमानी नहीं कहा जा सकता। ऐसा विकल्प जबतक नहीं मिल जाता, वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखते हुए उस के दोषों का निवारण करने के प्रयास करने होंगे। |
| जिन्हें शास्त्र के अनुसार व्यवहार नही करना है उन का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में दिया है - | | जिन्हें शास्त्र के अनुसार व्यवहार नही करना है उन का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में दिया है - |
| य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ॥ | | य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ॥ |