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व्यावसायिक कुशलताओं के आधारपर समाज की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती करने की आनुवंशिक व्यवस्था को ही जाति नाम से जाना जाता है|
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व्यावसायिक कुशलताओं के आधारपर समाज की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती करने की आनुवंशिक व्यवस्था को ही जाति नाम से जाना जाता है।
    
श्रीमद्भगवद्गीता में महायुद्ध के परिणामों को बताते समय अर्जुन ने कहा है - उत्साद्यंते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: ।  (अध्याय १-४३)
 
श्रीमद्भगवद्गीता में महायुद्ध के परिणामों को बताते समय अर्जुन ने कहा है - उत्साद्यंते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: ।  (अध्याय १-४३)
 
गीता में अर्जुन ने कई बातें कहीं हैं जो ठीक नहीं थीं । कुछ बातें गलत होने के कारण भगवान ने अर्जुन को उलाहना दी है, डाँटा है, जैसे अध्याय २ श्लोक ३ में या अध्याय २ श्लोक ११ में। भगवान ने अर्जुन की कही बातों की उपेक्षा नहीं की है । किन्तु अर्जुन के  उपर्युक्त कथन पर भगवान कुछ नहीं कहते । अर्थात् अर्जुन के  ‘जातिधर्म शाश्वत हैं’  इस कथन को मान्य करते हैं। जो शाश्वत है वह परमेश्वर निर्मित है। मीमांसा दर्शन के  अनुसार भी ‘अनिषिध्दमनुमताम्’  अर्थात् जिसका निषेध नहीं किया गया उसकी अनुमति मानी जाती है। इसका यही अर्थ होता है कि जातिधर्म शाश्वत हैं। अर्जुन के  कथन का भगवान जब निषेध नहीं करते, इस का अर्थ है कि भगवान अर्जुन के  ‘जातिधर्म (इस लिये जाति भी) शाश्वत हैं’ इस कथन को मान्य करते हैं।  
 
गीता में अर्जुन ने कई बातें कहीं हैं जो ठीक नहीं थीं । कुछ बातें गलत होने के कारण भगवान ने अर्जुन को उलाहना दी है, डाँटा है, जैसे अध्याय २ श्लोक ३ में या अध्याय २ श्लोक ११ में। भगवान ने अर्जुन की कही बातों की उपेक्षा नहीं की है । किन्तु अर्जुन के  उपर्युक्त कथन पर भगवान कुछ नहीं कहते । अर्थात् अर्जुन के  ‘जातिधर्म शाश्वत हैं’  इस कथन को मान्य करते हैं। जो शाश्वत है वह परमेश्वर निर्मित है। मीमांसा दर्शन के  अनुसार भी ‘अनिषिध्दमनुमताम्’  अर्थात् जिसका निषेध नहीं किया गया उसकी अनुमति मानी जाती है। इसका यही अर्थ होता है कि जातिधर्म शाश्वत हैं। अर्जुन के  कथन का भगवान जब निषेध नहीं करते, इस का अर्थ है कि भगवान अर्जुन के  ‘जातिधर्म (इस लिये जाति भी) शाश्वत हैं’ इस कथन को मान्य करते हैं।  
वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था ये दोनों हजारों वर्षों से भारतीय समाज में विद्यमान हैं। महाभारत काल ५०००  वर्षों से अधिक पुराना है। भारतीय कालगणना के अनुसार त्रेता युग का रामायण काल तो शायद १७ लाख वर्ष पुराना (रामसेतु की आयु) है। इन दोनों में जातियों के संदर्भ हैं। अर्थात् वर्ण और जाति व्यवस्था दोनों बहुत प्राचीन हैं इसे तो जो रामायण और महाभरत के यहाँ बताए काल से सहमत नहीं हैं वे भी मान्य करेंगे। कई दश-सहस्राब्दियों के इस सामाजिक जीवन में हमने कई उतार चढाव देखें हैं। जैसे पतन के काल में जाति व्यवस्था थी उसी प्रकार उत्थान के समय भी थी । इस जाति व्यवस्था के होते हुवे भी वह हजारों वर्षोंतक ज्ञान और समृध्दि के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। उन्नत अवस्थाओं में भी जाति व्यवस्था का कभी अवरोध रहा ऐसा कहीं भी दूरदूरतक उल्लेख हमारे ३०० वर्षों से अधिक पुराने किसी भी भारतीय साहित्य में नहीं है। किसी भी भारतीय चिंतक ने इन व्यवस्थाओं को नकारा नहीं है।  
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वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था ये दोनों हजारों वर्षों से भारतीय समाज में विद्यमान हैं। महाभारत काल ५०००  वर्षों से अधिक पुराना है। भारतीय कालगणना के अनुसार त्रेता युग का रामायण काल तो शायद १७ लाख वर्ष पुराना (रामसेतु की आयु) है। इन दोनों में जातियों के संदर्भ हैं। अर्थात् वर्ण और जाति व्यवस्था दोनों बहुत प्राचीन हैं इसे तो जो रामायण और महाभरत के यहाँ बताए काल से सहमत नहीं हैं वे भी मान्य करेंगे। कई दश-सहस्राब्दियों के इस सामाजिक जीवन में हमने कई उतार चढाव देखें हैं। जैसे पतन के काल में जाति व्यवस्था थी उसी प्रकार उत्थान के समय भी थी । इस जाति व्यवस्था के होते हुवे भी वह हजारों वर्षोंतक ज्ञान और समृध्दि के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। उन्नत अवस्थाओं में भी जाति व्यवस्था का कभी अवरोध रहा ऐसा कहीं भी दूरदूरतक उल्लेख हमारे ३०० वर्षों से अधिक पुराने किसी भी भारतीय साहित्य में नहीं है। किसी भी भारतीय चिंतक ने इन व्यवस्थाओं को नकारा नहीं है।
व्यावसायिक कुशलताओं के समायोजन (जाति व्यवस्था) के लाभ  
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== व्यावसायिक कुशलताओं के समायोजन (जाति व्यवस्था) के लाभ ==
 
जाति व्यवस्था के अनेकानेक लाभों की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का हम अब विचार करेंगे ।  
 
जाति व्यवस्था के अनेकानेक लाभों की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का हम अब विचार करेंगे ।  
 
परमात्मा ने सृष्टि निर्माण करते समय इसे संतुलन के साथ ही निर्माण किया है । समाज में इस संतुलन के लिये मनुष्य में उस प्रकार की वृत्तियाँ भीं निर्माण कीं । भारतीय हो या अभारतीय हर समाज में चार वर्णों के लोग होते ही हैं। समाज को नि:स्वार्थ भाव से समाजहित के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक वर्ग समाज में होता है । जिस समाज में नि:स्पृह, नि:स्वार्थी, समाजहित के लिये समर्पित भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान (बिक्रि नहीं) करनेवाला एक वर्ग प्रभावी होता है , वह समाज विश्व में श्रेष्ठ बन जाता है। इस वर्ग को ब्राह्मण कहा गया । समाज में जान की बाजी लगाकर भी दुष्टों, दुर्जनों और मूर्खों का नियंत्रण करनेवाला एक क्षत्रिय वर्ग, समाज का पोषण करने हेतु कृषि, गोरक्षण और व्यापार-उद्योग-उत्पादन करनेवाला वैश्य वर्ग और ऐसे सभी लोगों की सेवा करनेवाला शूद्र वर्ग ऐसे नाम दिये गये । इन चार वृत्तियों की हर समाज को आवश्यकता होती ही है । इन का समाज में अनुपात महत्वपूर्ण होता है । इस अनुपात के कारण समाज में संतुलन बना रहता है। यह अनुपात बिगडने से समाज व्याधिग्रस्त हो जाता है । हमारे पूर्वजों की श्रेष्ठता यह है की इस प्रकार से परमात्मा ने निर्माण किये अर्थात् जन्मगत वर्णों को उन्हों ने ठीक से समझा और उन्हें एक व्यवस्था में बांधा । पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार मनुष्य का स्वभाव होता है । और स्वभाव के अनुसार वर्तमान जन्म के गुण और कर्म होते हैं। गुण और कर्म जन्मगत वर्णों के परिणाम स्वरूप ही होते हैं। स्वभाव को कठोर तप के बिना वर्तमान जन्म में सामान्यत: बदला नहीं जा सकता । वर्ण तो परमात्मा ने जन्मगत (आनुवांशिक नहीं) निर्माण किये हैं, किन्तु वर्ण की व्यवस्था यानि वर्णों को आनुवंशिक बनाने की व्यवस्था हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों द्वारा निर्माण की हुई है। इन वर्णों का अनुपात और वर्णों की शुध्दता समाज में बनाए रखने की यह व्यवस्था है । समाज का संतुलन बनाए रखने की यह व्यवस्था है । इन वर्णों के आचार से धर्माचरण का संवर्धन होता है । समाज श्रेष्ठ बनता है । वर्ण व्यवस्था प्रभावी रहने से समाज चिरंजीवी भी बनता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है -
 
परमात्मा ने सृष्टि निर्माण करते समय इसे संतुलन के साथ ही निर्माण किया है । समाज में इस संतुलन के लिये मनुष्य में उस प्रकार की वृत्तियाँ भीं निर्माण कीं । भारतीय हो या अभारतीय हर समाज में चार वर्णों के लोग होते ही हैं। समाज को नि:स्वार्थ भाव से समाजहित के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक वर्ग समाज में होता है । जिस समाज में नि:स्पृह, नि:स्वार्थी, समाजहित के लिये समर्पित भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान (बिक्रि नहीं) करनेवाला एक वर्ग प्रभावी होता है , वह समाज विश्व में श्रेष्ठ बन जाता है। इस वर्ग को ब्राह्मण कहा गया । समाज में जान की बाजी लगाकर भी दुष्टों, दुर्जनों और मूर्खों का नियंत्रण करनेवाला एक क्षत्रिय वर्ग, समाज का पोषण करने हेतु कृषि, गोरक्षण और व्यापार-उद्योग-उत्पादन करनेवाला वैश्य वर्ग और ऐसे सभी लोगों की सेवा करनेवाला शूद्र वर्ग ऐसे नाम दिये गये । इन चार वृत्तियों की हर समाज को आवश्यकता होती ही है । इन का समाज में अनुपात महत्वपूर्ण होता है । इस अनुपात के कारण समाज में संतुलन बना रहता है। यह अनुपात बिगडने से समाज व्याधिग्रस्त हो जाता है । हमारे पूर्वजों की श्रेष्ठता यह है की इस प्रकार से परमात्मा ने निर्माण किये अर्थात् जन्मगत वर्णों को उन्हों ने ठीक से समझा और उन्हें एक व्यवस्था में बांधा । पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार मनुष्य का स्वभाव होता है । और स्वभाव के अनुसार वर्तमान जन्म के गुण और कर्म होते हैं। गुण और कर्म जन्मगत वर्णों के परिणाम स्वरूप ही होते हैं। स्वभाव को कठोर तप के बिना वर्तमान जन्म में सामान्यत: बदला नहीं जा सकता । वर्ण तो परमात्मा ने जन्मगत (आनुवांशिक नहीं) निर्माण किये हैं, किन्तु वर्ण की व्यवस्था यानि वर्णों को आनुवंशिक बनाने की व्यवस्था हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों द्वारा निर्माण की हुई है। इन वर्णों का अनुपात और वर्णों की शुध्दता समाज में बनाए रखने की यह व्यवस्था है । समाज का संतुलन बनाए रखने की यह व्यवस्था है । इन वर्णों के आचार से धर्माचरण का संवर्धन होता है । समाज श्रेष्ठ बनता है । वर्ण व्यवस्था प्रभावी रहने से समाज चिरंजीवी भी बनता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है -
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यानि अपने स्वभाव के अनुरूप धर्म का सदैव पालन करना चाहिये। अपने धर्म का पालन करते हुए आया मृत्यू भी कल्याणकारी है। अन्य किसी का धर्म अधिक श्रेष्ठ दिखाई देनेपर भी हमारे लिये वह अनिष्टकारी होने से उस से हमें परहेज करना चाहिये।
 
यानि अपने स्वभाव के अनुरूप धर्म का सदैव पालन करना चाहिये। अपने धर्म का पालन करते हुए आया मृत्यू भी कल्याणकारी है। अन्य किसी का धर्म अधिक श्रेष्ठ दिखाई देनेपर भी हमारे लिये वह अनिष्टकारी होने से उस से हमें परहेज करना चाहिये।
 
मनुष्य को जब परमात्मा ने इच्छाएँ दीं, आवश्यकताएँ निर्माण कीं, तो उन की पूर्ति के लिये भी परमात्मा ने व्यवस्था की है । इस पूर्ति के लिये दो बातें आवश्यक हैं। पहली बात है प्राकृतिक संसाधन । परमात्मा ने प्रचूर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन निर्माण किये हैं। दूसरी बात है क्षमताएँ और कुशलताएँ । इन कुशलताओं के अपेक्षित और आवश्यक विकास की संभावनाएँ हैं ऐसे लोगों को भी परमात्मा ने मनुष्य समाज में निर्माण किया है । इन कुशलताओं में समाज की आवश्यकताओं के अनुसार संतुलन बना रहे इस हेतु से यह कुशलताएं जिन में जन्म से ही हैं ऐसे लोगों को भी परमात्मा ने योग्य अनुपात में पैदा किया । और करता रहता है । इन कुशलताओं का नाम है जाति । इन वर्णों और जातियों (व्यावसायिक कुशलताओं)का अनुपात बिगडने से समाज की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती । वर्णों का भी संतुलन बनाए रखने के लिये हमारे दृष्टा पूर्वजों ने वर्णों को भी जातियों अर्थात् कुशलताओं के साथ जन्मजात व्यवस्था में बांधा । वर्णों को और जातियों को जन्मगत बनाया । जन्मगत जाति बनाने से समाज के लिये आवश्यक कुशलताओं का संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था बनीं। जाति व्यवस्था के नाम से समाज को चिरंजीवी बनाने के लिये एक और व्यवस्था निर्माण की गई। जातिगत व्यवसायों के माध्यम से समाज समृध्द भी बनता है ।  
 
मनुष्य को जब परमात्मा ने इच्छाएँ दीं, आवश्यकताएँ निर्माण कीं, तो उन की पूर्ति के लिये भी परमात्मा ने व्यवस्था की है । इस पूर्ति के लिये दो बातें आवश्यक हैं। पहली बात है प्राकृतिक संसाधन । परमात्मा ने प्रचूर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन निर्माण किये हैं। दूसरी बात है क्षमताएँ और कुशलताएँ । इन कुशलताओं के अपेक्षित और आवश्यक विकास की संभावनाएँ हैं ऐसे लोगों को भी परमात्मा ने मनुष्य समाज में निर्माण किया है । इन कुशलताओं में समाज की आवश्यकताओं के अनुसार संतुलन बना रहे इस हेतु से यह कुशलताएं जिन में जन्म से ही हैं ऐसे लोगों को भी परमात्मा ने योग्य अनुपात में पैदा किया । और करता रहता है । इन कुशलताओं का नाम है जाति । इन वर्णों और जातियों (व्यावसायिक कुशलताओं)का अनुपात बिगडने से समाज की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती । वर्णों का भी संतुलन बनाए रखने के लिये हमारे दृष्टा पूर्वजों ने वर्णों को भी जातियों अर्थात् कुशलताओं के साथ जन्मजात व्यवस्था में बांधा । वर्णों को और जातियों को जन्मगत बनाया । जन्मगत जाति बनाने से समाज के लिये आवश्यक कुशलताओं का संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था बनीं। जाति व्यवस्था के नाम से समाज को चिरंजीवी बनाने के लिये एक और व्यवस्था निर्माण की गई। जातिगत व्यवसायों के माध्यम से समाज समृध्द भी बनता है ।  
जन्मगत कुशलताएँ कुछ भी हों व्यवसाय का चयन दो पध्दति से किया जा सकता है । एक है व्यक्तिगत इच्छा के आधारपर व्यवसाय का चयन। यह अस्वाभाविक भी हो सकता है । दूसरा है जाति व्यवस्था या आनुवंशिकता के या जन्मजात कुशलताओं के आधारपर व्यवसाय का चयन । वर्तमान व्यक्तिकेंद्रित और स्वार्थप्रेरित शिक्षा और विकृत लोकतंत्र के कारण सामान्यत: बहुतेरे लोग व्यक्तिगत इच्छा के आधारपर ही व्यवसायों के चयन के पक्ष में दिखाई देते हैं। महाभारत में सत्य की दी हुई व्याख्या है ‘यद्भूत हितं अत्यंत एतत्सत्यमभिधीयते ’| अर्थात् जो सब के हित में है, वही सत्य है। बहुमत से सत्य सिध्द नहीं होता है । वह होता है किस प्रकार के व्यवसाय के चयन से सभी को लाभ होता है इस बात के तथ्यों से। इस विषय में सत्य या तथ्य क्या हैं ? सब का हित किस में है, यह हम आगे दिये बिंदुओं के आधारपर देखेंगे।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                     
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जन्मगत कुशलताएँ कुछ भी हों व्यवसाय का चयन दो पध्दति से किया जा सकता है । एक है व्यक्तिगत इच्छा के आधारपर व्यवसाय का चयन। यह अस्वाभाविक भी हो सकता है । दूसरा है जाति व्यवस्था या आनुवंशिकता के या जन्मजात कुशलताओं के आधारपर व्यवसाय का चयन । वर्तमान व्यक्तिकेंद्रित और स्वार्थप्रेरित शिक्षा और विकृत लोकतंत्र के कारण सामान्यत: बहुतेरे लोग व्यक्तिगत इच्छा के आधारपर ही व्यवसायों के चयन के पक्ष में दिखाई देते हैं। महाभारत में सत्य की दी हुई व्याख्या है ‘यद्भूत हितं अत्यंत एतत्सत्यमभिधीयते ’। अर्थात् जो सब के हित में है, वही सत्य है। बहुमत से सत्य सिध्द नहीं होता है । वह होता है किस प्रकार के व्यवसाय के चयन से सभी को लाभ होता है इस बात के तथ्यों से। इस विषय में सत्य या तथ्य क्या हैं ? सब का हित किस में है, यह हम आगे दिये बिंदुओं के आधारपर देखेंगे।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                     
 
१.  शिक्षक और शासक यह दो वर्ग समाज को बहुत प्रभावित करते हैं। इन का समाज में संतुलन और उन के श्रेष्ठ गुणों को  बनाए रखना समाज के चिरंजीवी बनने के लिये आवश्यक होता है । जातिगत और वर्णगत वंश परंपरा से यह श्रेष्ठता बनाई और बढ़ाई जा सकती है। व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की पध्दति में ऐसी परंपराएँ बन ही नहीं पातीं।
 
१.  शिक्षक और शासक यह दो वर्ग समाज को बहुत प्रभावित करते हैं। इन का समाज में संतुलन और उन के श्रेष्ठ गुणों को  बनाए रखना समाज के चिरंजीवी बनने के लिये आवश्यक होता है । जातिगत और वर्णगत वंश परंपरा से यह श्रेष्ठता बनाई और बढ़ाई जा सकती है। व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की पध्दति में ऐसी परंपराएँ बन ही नहीं पातीं।
 
२.  व्यक्तिगत व्यवसाय का चयन जब होता है तब समाज में असंतुलन निर्माण होता है । अधिक लाभ और कम परिश्रम जिस व्यवसाय में है, उन का सभी लोग यथासंभव चयन करते हैं। किन्तु ऐसा करने से बेरोजगारी निर्माण होती है । समाज की कई आवश्यकताओं की पूर्ति खतरे में पड जाती है। वर्तमान का उदाहरण लें । वर्तमान शिक्षा और शासकीय नीतियों के कारण आज किसान नहीं चाहता की उसका बच्चा किसान बने । अन्य व्यावसायिकों का तो दूर रहा किसान भी नहीं चाहता की उस की बेटी किसान के घर की बहू बने । जाति और जातिधर्म की भावना नष्ट करने के कारण अन्न का उत्पादन करने को आज किसान अपना जातिधर्म नहीं मानता । इस के कारण हमारा देश अन्नसंकट की दिशा में तेजी से बढ रहा दिखाई दे रहा है।
 
२.  व्यक्तिगत व्यवसाय का चयन जब होता है तब समाज में असंतुलन निर्माण होता है । अधिक लाभ और कम परिश्रम जिस व्यवसाय में है, उन का सभी लोग यथासंभव चयन करते हैं। किन्तु ऐसा करने से बेरोजगारी निर्माण होती है । समाज की कई आवश्यकताओं की पूर्ति खतरे में पड जाती है। वर्तमान का उदाहरण लें । वर्तमान शिक्षा और शासकीय नीतियों के कारण आज किसान नहीं चाहता की उसका बच्चा किसान बने । अन्य व्यावसायिकों का तो दूर रहा किसान भी नहीं चाहता की उस की बेटी किसान के घर की बहू बने । जाति और जातिधर्म की भावना नष्ट करने के कारण अन्न का उत्पादन करने को आज किसान अपना जातिधर्म नहीं मानता । इस के कारण हमारा देश अन्नसंकट की दिशा में तेजी से बढ रहा दिखाई दे रहा है।
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१९. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि समाज को पगढीला बनाती है। पगढीले लोगों की संख्या एक प्रमाण से अधिक बढने से समाज की संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। जिस तरह शीत जल के पात्र में रखा मेंढक जल धीरे धीरे गरम करनप्र से मर जाता है लेकिन बाहर निकलने के प्रयास नहीं करता या कर पाता। उसी तरह संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है और पता भी नहीं चलता।   
 
१९. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणालि समाज को पगढीला बनाती है। पगढीले लोगों की संख्या एक प्रमाण से अधिक बढने से समाज की संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। जिस तरह शीत जल के पात्र में रखा मेंढक जल धीरे धीरे गरम करनप्र से मर जाता है लेकिन बाहर निकलने के प्रयास नहीं करता या कर पाता। उसी तरह संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है और पता भी नहीं चलता।   
 
२०. जातिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में पूरे समाज की जातियों के लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अन्य जातियोंपर निर्भर रहते हैं। इस तरह परस्परावलंबन, के कारण समाज संगठित हो जाता है। समाज के विरोध में या राष्ट्र विरोधी गुट इस प्रणालि में पनप नहीं सकते।
 
२०. जातिगत व्यवसाय चयन प्रणालि में पूरे समाज की जातियों के लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अन्य जातियोंपर निर्भर रहते हैं। इस तरह परस्परावलंबन, के कारण समाज संगठित हो जाता है। समाज के विरोध में या राष्ट्र विरोधी गुट इस प्रणालि में पनप नहीं सकते।
२१. जिस समाज की प्रजा ओजस्वी और तेजस्वी होती है वह समाज अन्यों से श्रेष्ठ होता है| जब स्त्री और पुरूष विवाह में कोइ बंधन नहीं रहता तब स्वैराचार पनपता है| हर सुन्दर लड़की की चाहत हर युवक को और हर सुन्दर और सुडौल युवक की चाहत हर लड़की को होती है| इसमें लडके और लड़की का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं भी बनता तब भी इस चाहत के कारण होनेवाले चिंतन के कारण दोनों के ब्रह्मचर्य की हानी तो होती ही है| संयम के लिए कुछ मात्रा में लोकलाज ही बंधन रह जाता है| वर्त्तमान के मुक्त वातावरण के कारण लडकों और लड़कियों के सम्बन्ध भी मुक्त होने लग गए हैं| ब्रह्मचर्य पालन यह मजाक का विषय बन गया है| लेकिन जब विवाहों को जातियों का बंधन होता है तो युवक और युवातियों की दिलफेंकू वृत्ती को लगाम लग जाती है| इससे युवा वर्ग शारीरिक और मानसिक दृष्टी से अधिक संयमी बनाता है| समाज का स्वास्थ्य सुधरता है| समाज सुसंस्कृत बनता है|
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२१. जिस समाज की प्रजा ओजस्वी और तेजस्वी होती है वह समाज अन्यों से श्रेष्ठ होता है। जब स्त्री और पुरूष विवाह में कोइ बंधन नहीं रहता तब स्वैराचार पनपता है। हर सुन्दर लड़की की चाहत हर युवक को और हर सुन्दर और सुडौल युवक की चाहत हर लड़की को होती है। इसमें लडके और लड़की का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं भी बनता तब भी इस चाहत के कारण होनेवाले चिंतन के कारण दोनों के ब्रह्मचर्य की हानी तो होती ही है। संयम के लिए कुछ मात्रा में लोकलाज ही बंधन रह जाता है। वर्त्तमान के मुक्त वातावरण के कारण लडकों और लड़कियों के सम्बन्ध भी मुक्त होने लग गए हैं। ब्रह्मचर्य पालन यह मजाक का विषय बन गया है। लेकिन जब विवाहों को जातियों का बंधन होता है तो युवक और युवातियों की दिलफेंकू वृत्ती को लगाम लग जाती है। इससे युवा वर्ग शारीरिक और मानसिक दृष्टी से अधिक संयमी बनाता है। समाज का स्वास्थ्य सुधरता है। समाज सुसंस्कृत बनता है।
 
२२. भारत अब भी भारत है, इस का एकमात्र कारण है की भारत में हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है। लगभग ३०० वर्षों के मुस्लिम और १९० वर्षों के अंग्रेजी शासन के उपरांत भी हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है, इस का एक  कारण है, हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था।  धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र.१४ पर लिखते हैं, ‘अंग्रेजों के लिये जाति एक  बडा प्रश्न था। … इसलिये नहीं कि वे जातिरहित या वर्गव्यवस्था के अभाववाली पध्दति में मानते थे, किन्तु इसलिये कि यह जाति व्यवस्था उन के भारतीय समाज को तोडने के कार्य में विघ्नस्वरूप थी’। भारत के अलावा अन्य किसी भी देश में जब मुस्लिम शासन रहा उसने २५-५० वर्षों में स्थानीय समाज को पूरा का पूरा मुसलमान बना दिया था । ५०० वर्षों के मुस्लिम शासन के उपरांत भी हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है। हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था इस का मुख्य कारण है।
 
२२. भारत अब भी भारत है, इस का एकमात्र कारण है की भारत में हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है। लगभग ३०० वर्षों के मुस्लिम और १९० वर्षों के अंग्रेजी शासन के उपरांत भी हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है, इस का एक  कारण है, हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था।  धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र.१४ पर लिखते हैं, ‘अंग्रेजों के लिये जाति एक  बडा प्रश्न था। … इसलिये नहीं कि वे जातिरहित या वर्गव्यवस्था के अभाववाली पध्दति में मानते थे, किन्तु इसलिये कि यह जाति व्यवस्था उन के भारतीय समाज को तोडने के कार्य में विघ्नस्वरूप थी’। भारत के अलावा अन्य किसी भी देश में जब मुस्लिम शासन रहा उसने २५-५० वर्षों में स्थानीय समाज को पूरा का पूरा मुसलमान बना दिया था । ५०० वर्षों के मुस्लिम शासन के उपरांत भी हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है। हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था इस का मुख्य कारण है।
जाति व्यवस्था के ढेर सारे लाभ हैं । काल के प्रवाह में जाति व्यवस्था में दोष भी निर्माण हुवे हैं। उन्हें दूर करना ही होगा। इस के ढेर सारे लाभ दुर्लक्षित नहीं किये जा सकते* धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र.१४ पर और लिखते हैं ‘आज के जातिप्रथा के विरूध्द आक्रोश के मूल में अंग्रेजी शासन ही है’*
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जाति व्यवस्था के ढेर सारे लाभ हैं । काल के प्रवाह में जाति व्यवस्था में दोष भी निर्माण हुवे हैं। उन्हें दूर करना ही होगा। इस के ढेर सारे लाभ दुर्लक्षित नहीं किये जा सकते* धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र.१४ पर और लिखते हैं ‘आज के जातिप्रथा के विरूध्द आक्रोश के मूल में अंग्रेजी शासन ही है’*  
जाति व्यवस्था पर किये गये दोषारोपों की वास्तविकता
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== जाति व्यवस्था पर किये गये दोषारोपों की वास्तविकता ==
 
‘समाजशास्त्राची मूलतत्त्वे’ इस डॉ. भा. कि. खडसे द्वारा लिखी शासन द्वारा अधिकृत पुस्तक में निम्न दोष बताए गए हैं।
 
‘समाजशास्त्राची मूलतत्त्वे’ इस डॉ. भा. कि. खडसे द्वारा लिखी शासन द्वारा अधिकृत पुस्तक में निम्न दोष बताए गए हैं।
 
दोष १ : जाति व्यवस्था यह लोकतंत्र विरोधी है : वास्तव में लोकतंत्र विरोधी होने का अर्थ सर्वे भवन्तु सुखिन: का विरोधी लगाया जाता है। यह विपरीत शिक्षा के कारण है। विपरीत प्रतिमानात्मक सोच के कारण है। वास्तव में लोकतंत्र तो एक शासन व्यवस्था है। यह तो एक साधन मात्र है। साध्य है सर्वे भवन्तु सुखिन:। और जाति व्यवस्था सर्वे भवन्तु सुखिन: की विरोधक नहीं है।  
 
दोष १ : जाति व्यवस्था यह लोकतंत्र विरोधी है : वास्तव में लोकतंत्र विरोधी होने का अर्थ सर्वे भवन्तु सुखिन: का विरोधी लगाया जाता है। यह विपरीत शिक्षा के कारण है। विपरीत प्रतिमानात्मक सोच के कारण है। वास्तव में लोकतंत्र तो एक शासन व्यवस्था है। यह तो एक साधन मात्र है। साध्य है सर्वे भवन्तु सुखिन:। और जाति व्यवस्था सर्वे भवन्तु सुखिन: की विरोधक नहीं है।  
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दोष ५ : जाति व्यवस्था गतिशीलता की विरोधी है : समाज में परिवर्तन की एक गति होती है। आज तकनीकी की गति के पीछे समाज घसीटा जा रहा है। समाज स्वास्थ्य नष्ट हो रहा है। समाज जीवन का साध्य गति है या सामाजिक सुख, स्वास्थ्य यह हम पहले तय करें। तब उसका स्वाभाविक उत्तर आएगा की यह ठीक नहीं हो रहा। एक जाति से दूसरी जाति में विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे भी समाज की गतिशीलता में रोडा माना जा रहा है। किंतु आज आर्थिक दृष्टि से, सैनिक पार्श्वभूमि के, व्यापारी, सरकारी अधिकारी आदि ऐसे वर्ग बन गये हैं जिन्हें बिरादरी कहते हैं। उन के बाहर विवाह नहीं हो ऐसा आग्रह होता है, उसका तो विरोध कोई करता दिखाई नहीं देता। लेकिन जो अत्यंत शास्त्रीय है ऐसे सवर्ण, सजातीय विवाह को गालियाँ दीं जातीं हैं। इसका कारण तो यही समझ में आता है कि वर्तमान समान वर्ग के विवाह यह पश्चिमी समाज का रिवाज है। ये तथाकथित गुलामी की मानसिकता वाले सुधारकों से या समाजशास्त्रियों से इसके विरोध की अपेक्षा करना भी ठीक नहीं है।  
 
दोष ५ : जाति व्यवस्था गतिशीलता की विरोधी है : समाज में परिवर्तन की एक गति होती है। आज तकनीकी की गति के पीछे समाज घसीटा जा रहा है। समाज स्वास्थ्य नष्ट हो रहा है। समाज जीवन का साध्य गति है या सामाजिक सुख, स्वास्थ्य यह हम पहले तय करें। तब उसका स्वाभाविक उत्तर आएगा की यह ठीक नहीं हो रहा। एक जाति से दूसरी जाति में विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे भी समाज की गतिशीलता में रोडा माना जा रहा है। किंतु आज आर्थिक दृष्टि से, सैनिक पार्श्वभूमि के, व्यापारी, सरकारी अधिकारी आदि ऐसे वर्ग बन गये हैं जिन्हें बिरादरी कहते हैं। उन के बाहर विवाह नहीं हो ऐसा आग्रह होता है, उसका तो विरोध कोई करता दिखाई नहीं देता। लेकिन जो अत्यंत शास्त्रीय है ऐसे सवर्ण, सजातीय विवाह को गालियाँ दीं जातीं हैं। इसका कारण तो यही समझ में आता है कि वर्तमान समान वर्ग के विवाह यह पश्चिमी समाज का रिवाज है। ये तथाकथित गुलामी की मानसिकता वाले सुधारकों से या समाजशास्त्रियों से इसके विरोध की अपेक्षा करना भी ठीक नहीं है।  
 
सवर्ण, सजातीय और भिन्न गोत्र में विवाह यह तो शास्त्रों का कथन है। आधुनिक मानव वंशशास्त्र भी इस का समर्थन करता है। लेकिन विपरीत शिक्षा, विपरीत (अभारतीय) प्रतिमानीय सोच और वर्तमान में बन रहे चित्रपटों के कारण अत्यंत हानीकारक ऐसे प्रेम विवाह की प्रतिष्ठा हो रही है। पुरा चित्रपट क्षेत्र मानो प्रेमविवाह को प्रतिष्ठित करने के लिये ही निर्माण हुवा है।   
 
सवर्ण, सजातीय और भिन्न गोत्र में विवाह यह तो शास्त्रों का कथन है। आधुनिक मानव वंशशास्त्र भी इस का समर्थन करता है। लेकिन विपरीत शिक्षा, विपरीत (अभारतीय) प्रतिमानीय सोच और वर्तमान में बन रहे चित्रपटों के कारण अत्यंत हानीकारक ऐसे प्रेम विवाह की प्रतिष्ठा हो रही है। पुरा चित्रपट क्षेत्र मानो प्रेमविवाह को प्रतिष्ठित करने के लिये ही निर्माण हुवा है।   
दोष ६ राष्ट्रीय एकता में बाधक : इतिहास गवाह है कि जाति व्यवस्था कभी भी राष्ट्रीय एकता में बाधक नहीं बनीं। उलटे आज के लोकतंत्रीय राजनीति में ही ऐसे गुट (कम्यूनिस्टों जैसे, या नक्सलियों जैसे या मजहबों जैसे) निर्माण हुए हैं जिन्होने राष्ट्रीय एकता में सेंध लगाई है। विडम्बना तो यह है कि इस वर्तमान लोकतंत्र के कारण ‘राष्ट्र’ क्या होता है, यह स्पष्टता से कहने की कोई हिम्मत नहीं करता।
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दोष ६ राष्ट्रीय एकता में बाधक : इतिहास गवाह है कि जाति व्यवस्था कभी भी राष्ट्रीय एकता में बाधक नहीं बनीं। उलटे आज के लोकतंत्रीय राजनीति में ही ऐसे गुट (कम्यूनिस्टों जैसे, या नक्सलियों जैसे या मजहबों जैसे) निर्माण हुए हैं जिन्होने राष्ट्रीय एकता में सेंध लगाई है। विडम्बना तो यह है कि इस वर्तमान लोकतंत्र के कारण ‘राष्ट्र’ क्या होता है, यह स्पष्टता से कहने की कोई हिम्मत नहीं करता।  
वर्णसंकर से जातियों की उत्पत्ति
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वर्णों का संबंध मनुष्य के स्वाभाविक गुण और लक्षणों से होता है। इन गुण लक्षणों के अनुसार ही वह कर्म करता है, उस की कर्म करने की क्षमता और कुशलता विकसित होती है। यह क्षमता और कुशलता ही वास्तव में मनुष्य के, केवल अर्थार्जन ही नहीं व्यवसाय और काम का स्वरूप क्या होना चाहिये यह तय करती है।   
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== वर्णसंकर से जातियों की उत्पत्ति ==
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वर्णों का संबंध मनुष्य के स्वाभाविक गुण और लक्षणों से होता है। इन गुण लक्षणों के अनुसार ही वह कर्म करता है, उस की कर्म करने की क्षमता और कुशलता विकसित होती है। यह क्षमता और कुशलता ही वास्तव में मनुष्य के, केवल अर्थार्जन ही नहीं व्यवसाय और काम का स्वरूप क्या होना चाहिये यह तय करती है।   
 
जब जनसंख्या बढने लगी गुरूकुलों में प्रवेश लेनेवालों की संख्या का दबाव बढा, गुरूकुल चलाने वालों में भी कुछ शिथिलता आ गई तब गुरूकुलों में वर्ण को तय करने की प्रथा क्षीण हुयी और जिस कुल में बच्चे ने जन्म लिया है उस की आनुवांशिकता के आधारपर वर्ण तय होने लगे। वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से निकट का संबंध रखती है। वर्तमान गुणसूत्रों (डीएन्ए) के अध्ययन से भी इस बात की पुष्टी होती है। इस लियेआनुवांशिकता से जाति का तय होना तो शास्त्रीय ही है।  
 
जब जनसंख्या बढने लगी गुरूकुलों में प्रवेश लेनेवालों की संख्या का दबाव बढा, गुरूकुल चलाने वालों में भी कुछ शिथिलता आ गई तब गुरूकुलों में वर्ण को तय करने की प्रथा क्षीण हुयी और जिस कुल में बच्चे ने जन्म लिया है उस की आनुवांशिकता के आधारपर वर्ण तय होने लगे। वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से निकट का संबंध रखती है। वर्तमान गुणसूत्रों (डीएन्ए) के अध्ययन से भी इस बात की पुष्टी होती है। इस लियेआनुवांशिकता से जाति का तय होना तो शास्त्रीय ही है।  
 
अब तक तो विवाह केवल सवर्णों में ही हों यही सभी की मान्यता थी। लेकिन आंतरवर्णीय विवाहों के कारण वृत्तियों के संस्कारों के स्तर में कमीं आयी । काम और मोह का प्रभाव बढा। आगे पुरूष के वर्ण से कम स्तर के वर्ण की स्त्री से विवाह को भी मान्यता दी गयी। जैसे ब्राह्मण पुरूष का क्षत्रिय या वैष्य स्त्री से विवाह। क्षत्रिय पुरूष का वैष्य स्त्री से विवाह। इसे अनुलोम विवाह कहते है । ऐसे विवाह से पैदा हुई संतति को पिता के वर्ण का ही माना जाता था। किन्तु इससे उलट विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे प्रतिलोम विवाह कहतेहै । ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से प्राप्त संतति को संकरित माना जाता था। ऐसे संकरों की संख्या बढनेपर नयी जाति का निर्माण होता था। ऐसे विवाहों को हेय माना जाता था। लेकिन मनुष्य के स्वभाव में जो काम और मोह है, उन के कारण विवाह के समय एक वर्ण का पुरूष दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह के लिये उद्यत हो जाता था। ऐसा विवाह वह बडी संख्या में करने लगा। तब वर्णों में बडी संख्या में संकर होने लगा। इस लिये वर्णों में से जातियाँ निर्माण होने लगीं।   
 
अब तक तो विवाह केवल सवर्णों में ही हों यही सभी की मान्यता थी। लेकिन आंतरवर्णीय विवाहों के कारण वृत्तियों के संस्कारों के स्तर में कमीं आयी । काम और मोह का प्रभाव बढा। आगे पुरूष के वर्ण से कम स्तर के वर्ण की स्त्री से विवाह को भी मान्यता दी गयी। जैसे ब्राह्मण पुरूष का क्षत्रिय या वैष्य स्त्री से विवाह। क्षत्रिय पुरूष का वैष्य स्त्री से विवाह। इसे अनुलोम विवाह कहते है । ऐसे विवाह से पैदा हुई संतति को पिता के वर्ण का ही माना जाता था। किन्तु इससे उलट विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे प्रतिलोम विवाह कहतेहै । ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से प्राप्त संतति को संकरित माना जाता था। ऐसे संकरों की संख्या बढनेपर नयी जाति का निर्माण होता था। ऐसे विवाहों को हेय माना जाता था। लेकिन मनुष्य के स्वभाव में जो काम और मोह है, उन के कारण विवाह के समय एक वर्ण का पुरूष दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह के लिये उद्यत हो जाता था। ऐसा विवाह वह बडी संख्या में करने लगा। तब वर्णों में बडी संख्या में संकर होने लगा। इस लिये वर्णों में से जातियाँ निर्माण होने लगीं।   
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ब्राह्मण पुरूष से वैष्य कन्या के संकर से जो जन्म लेता है उसे अंबष्ट जाति का और शूद्र कन्या को होनेवाली संतति को निषाद जाति का माना गया।  
 
ब्राह्मण पुरूष से वैष्य कन्या के संकर से जो जन्म लेता है उसे अंबष्ट जाति का और शूद्र कन्या को होनेवाली संतति को निषाद जाति का माना गया।  
 
इसी प्रकार मनुस्मृति में (अध्याय १० - ८ से १४) मनुस्मृति में लगभग १६-१७ जातियों के नाम दिये है। १५ से आगे ४१ तक के श्लोकों में संकरित जातियों में अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के कारण पैदा हुई दर्जनों नयी जातियों के नाम दिये है।  
 
इसी प्रकार मनुस्मृति में (अध्याय १० - ८ से १४) मनुस्मृति में लगभग १६-१७ जातियों के नाम दिये है। १५ से आगे ४१ तक के श्लोकों में संकरित जातियों में अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के कारण पैदा हुई दर्जनों नयी जातियों के नाम दिये है।  
किंतु हर पीढी में बढते संकर और प्रतिसंकरों के कारण जातियों की संख्या बढ गई और नाम, कर्म और जातिधर्म का निर्धारण करनेवाली व्यवस्था प्रभावहीन हो गयी होगी।
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किंतु हर पीढी में बढते संकर और प्रतिसंकरों के कारण जातियों की संख्या बढ गई और नाम, कर्म और जातिधर्म का निर्धारण करनेवाली व्यवस्था प्रभावहीन हो गयी होगी।  
जाति परिवर्तन
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जिस तरह वर्ण परिवर्तन को कठिन बनाने के लिये कठोर तप के प्रावधान रखे गये थे । उसी तरह जाति परिवर्तन को कठिन बनाने के लिये भी कठोर तप के प्रावधान रखे गये थे । बहुत कम मात्रा में लेकिन जाति परिवर्तन आज भी होते है । पहली जाति और परिवर्तन करने के बाद जिस जाति में जाना है ऐसी दोनों जातियों की जाति पंचायतें मिलकर यह तय करती है कि जाति परिवर्तन की माँग करनेवाले की नयी जाति में समाने की वास्तविक इच्छा है या नहीं ? और योग्यता है या नहीं ? जाति परिवर्तन की माँग करनेवाले की नयी जाति के जाति-धर्म का पालन करने की मानसिकता है या नहीं ? और जाति-धर्म का पालन करने की क्षमता है या नहीं ? ऐसा होने पर १२ वर्ष तक इच्छुक को नयी जाति के जाति-धर्म का पालन करने के लिये कहा जाता है । इन १२ वर्षों में उस का निरीक्षण किया जाता है । इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उसे नयी जाति में सम्मिलित किया जाता है ।
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== जाति परिवर्तन ==
वर्णाश्रम और जाति का तानाबाना  
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जिस तरह वर्ण परिवर्तन को कठिन बनाने के लिये कठोर तप के प्रावधान रखे गये थे । उसी तरह जाति परिवर्तन को कठिन बनाने के लिये भी कठोर तप के प्रावधान रखे गये थे । बहुत कम मात्रा में लेकिन जाति परिवर्तन आज भी होते है । पहली जाति और परिवर्तन करने के बाद जिस जाति में जाना है ऐसी दोनों जातियों की जाति पंचायतें मिलकर यह तय करती है कि जाति परिवर्तन की माँग करनेवाले की नयी जाति में समाने की वास्तविक इच्छा है या नहीं ? और योग्यता है या नहीं ? जाति परिवर्तन की माँग करनेवाले की नयी जाति के जाति-धर्म का पालन करने की मानसिकता है या नहीं ? और जाति-धर्म का पालन करने की क्षमता है या नहीं ? ऐसा होने पर १२ वर्ष तक इच्छुक को नयी जाति के जाति-धर्म का पालन करने के लिये कहा जाता है । इन १२ वर्षों में उस का निरीक्षण किया जाता है । इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उसे नयी जाति में सम्मिलित किया जाता है ।  
कुछ लोग यह मानते है कि प्रारंभ में तो केवल एक ही वर्ण था। फिर दो हुवे, फिर तीन और अंत में चार वर्ण बने । इन वर्णों में संकर यानी अनुलोम और प्रतिलोम विवाह होने के कारण वर्णसंकर निर्माण हुए| इन वर्नासंकारों को समाज में समाविष्ट करने के लिए जातियां निर्माण कीं गयी| जातियों में भी कुशलताओं, कुशलता के स्तरों और उत्पादनों की विविधता के अनुसार उपजातियां बनीं|
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== वर्णाश्रम और जाति का तानाबाना ==
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कुछ लोग यह मानते है कि प्रारंभ में तो केवल एक ही वर्ण था। फिर दो हुवे, फिर तीन और अंत में चार वर्ण बने । इन वर्णों में संकर यानी अनुलोम और प्रतिलोम विवाह होने के कारण वर्णसंकर निर्माण हुए। इन वर्नासंकारों को समाज में समाविष्ट करने के लिए जातियां निर्माण कीं गयी। जातियों में भी कुशलताओं, कुशलता के स्तरों और उत्पादनों की विविधता के अनुसार उपजातियां बनीं।
 
इस का अर्थ है कि समाज में ऐसी व्यवस्था थी जो नयी जातियों को मान्यता देती थी। यह व्यवस्था नयी जाति किन विशिष्ट गुण और लक्षणों के (और व्यावसायिक कौशलों के) संकर से निर्माण हुई है, यह देखकर उस जाति के नाम, जातिधर्म और व्यावसायिक काप्रशल को मान्यता देती होगी।
 
इस का अर्थ है कि समाज में ऐसी व्यवस्था थी जो नयी जातियों को मान्यता देती थी। यह व्यवस्था नयी जाति किन विशिष्ट गुण और लक्षणों के (और व्यावसायिक कौशलों के) संकर से निर्माण हुई है, यह देखकर उस जाति के नाम, जातिधर्म और व्यावसायिक काप्रशल को मान्यता देती होगी।
 
समाज की व्यावसायिक कुशलताओं की आवश्यकताओं की भिन्नता कम होने के कारण किसी समय केवल चार वर्णों में ही उन की पूर्ति के लिये सभी व्यवसायों को बाँटना सरल था। कालांतर से समाज की आवश्यकताओं की भिन्नता में वृध्दि हुई। जातियों की संख्या बहुत बढ गई। बाँटने के लिये व्यवसाय के क्षेत्र कम पडने लगे। जब किसी संकर से निर्मित गुट के लिये कोई व्यवसाय निश्चित किया जाता होगा तब पहले से ही वह व्यवसाय करनेवालों पर अन्याय होता होगा । वह लोग इस को स्वीकार नही करते होंगे । दूसरी ओर उस व्यवसाय में स्पर्धा बढ जाती होगी । समाज के एक हिस्से में व्याप्त अव्यवस्था का परिणाम पुरे समाजपर होता होगा । इन समस्याओं के कारण धीरे धीरे जाति निर्धारण करने वाली व्यवस्था कुछ काल तक प्रभावहीन और बाद में नष्ट हो गई होगी।  ऐसा कोई वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य में नही मिलता। लेकिन के वल इसलिये ऐसी व्यवस्था के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी बात यानी आये दिन बडे पैमानेपर होनेवाले ऐसे वर्णसंकरों के लिये समाज की व्यवस्था में बारबार परिवर्तन करते रहना व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव हो गया होगा ।   
 
समाज की व्यावसायिक कुशलताओं की आवश्यकताओं की भिन्नता कम होने के कारण किसी समय केवल चार वर्णों में ही उन की पूर्ति के लिये सभी व्यवसायों को बाँटना सरल था। कालांतर से समाज की आवश्यकताओं की भिन्नता में वृध्दि हुई। जातियों की संख्या बहुत बढ गई। बाँटने के लिये व्यवसाय के क्षेत्र कम पडने लगे। जब किसी संकर से निर्मित गुट के लिये कोई व्यवसाय निश्चित किया जाता होगा तब पहले से ही वह व्यवसाय करनेवालों पर अन्याय होता होगा । वह लोग इस को स्वीकार नही करते होंगे । दूसरी ओर उस व्यवसाय में स्पर्धा बढ जाती होगी । समाज के एक हिस्से में व्याप्त अव्यवस्था का परिणाम पुरे समाजपर होता होगा । इन समस्याओं के कारण धीरे धीरे जाति निर्धारण करने वाली व्यवस्था कुछ काल तक प्रभावहीन और बाद में नष्ट हो गई होगी।  ऐसा कोई वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य में नही मिलता। लेकिन के वल इसलिये ऐसी व्यवस्था के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी बात यानी आये दिन बडे पैमानेपर होनेवाले ऐसे वर्णसंकरों के लिये समाज की व्यवस्था में बारबार परिवर्तन करते रहना व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव हो गया होगा ।   
हिन्दू समाज में आश्रम व्यवस्था भी प्रस्थापित थी । इस में केवल गृहस्थाश्रमी ( गृहिणियाँ नहीं ) अर्थार्जन का काम करते थे। खेती जैसे व्यवसायों में घर की महिलायें भी व्यवसाय में हाथ बंटाती थी । किंतु अर्थार्जन गृहस्थ करे और गृहिणि अर्थ का विनियोग करे, यही घरों की व्यवस्था थी। समाज में गृहस्थ पुरूषों की संख्या १२.५ प्रतिशत ही होती है। अर्थात् केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे। प्रत्यक्ष व्यवसाय करते थे। और फिर भी हम अत्यंत समृध्द देश  थे। केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे तो अन्य लोग क्या करते थे ? काम तो प्रत्येक व्यक्ति करता था। किंतु अर्थार्जन के लिये नहीं। हर जाति का ब्रह्मचारी वर्ग, जिसने अभी गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया है, अपने व्यक्तिगत उन्नयन के साथ ही समाज के हित में सार्थक योगदान देने की दृष्टि से ज्ञानार्जन, विद्यार्जन और काप्रशलार्जन में लगा रहता था। सभी वर्णों के लोग, और सभी ब्राह्मण भी संन्यासी नहीं बनते थे। किंतु अब मैंने अपने लिये नहीं समाज के लिये जीना है ऐसा मानने वाले वानप्रस्थी तो सभी वर्णों के और जातियों के लोग हुवा करते थे। ऐसे वानप्रस्थी और संन्यासी सभी अर्थार्जन की अपेक्षा के बगप्रर समाज के लिये काम करते थे। ब्राह्मण छोडकर अन्य वर्णों के वानप्रस्थी लोग क्या करते होंगे? सदाचार की शिक्षा देना, सामाजिक दृष्टि से जिन वर्णों के लोगों का अनुकरण करना चाहिये ऐसे लोगो का स्वत: अनुकरण करना और अन्यों को अनुकरण करने की प्रेरणा देना, ब्रह्मचर्य काल में हस्तगत किये और गृहस्थ जीवन में विकसित किये गये ज्ञान, विद्या और काप्रशलों को नयी पीढी को हस्तांतरित करना, भगवद्भक्ति में समय बिताना आदि काम ही तो करते होंगे। यह था वर्ण और आश्रम व्यवस्था का स्वरूप।  
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हिन्दू समाज में आश्रम व्यवस्था भी प्रस्थापित थी । इस में केवल गृहस्थाश्रमी ( गृहिणियाँ नहीं ) अर्थार्जन का काम करते थे। खेती जैसे व्यवसायों में घर की महिलायें भी व्यवसाय में हाथ बंटाती थी । किंतु अर्थार्जन गृहस्थ करे और गृहिणि अर्थ का विनियोग करे, यही घरों की व्यवस्था थी। समाज में गृहस्थ पुरूषों की संख्या १२.५ प्रतिशत ही होती है। अर्थात् केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे। प्रत्यक्ष व्यवसाय करते थे। और फिर भी हम अत्यंत समृध्द देश  थे। केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे तो अन्य लोग क्या करते थे ? काम तो प्रत्येक व्यक्ति करता था। किंतु अर्थार्जन के लिये नहीं। हर जाति का ब्रह्मचारी वर्ग, जिसने अभी गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया है, अपने व्यक्तिगत उन्नयन के साथ ही समाज के हित में सार्थक योगदान देने की दृष्टि से ज्ञानार्जन, विद्यार्जन और काप्रशलार्जन में लगा रहता था। सभी वर्णों के लोग, और सभी ब्राह्मण भी संन्यासी नहीं बनते थे। किंतु अब मैंने अपने लिये नहीं समाज के लिये जीना है ऐसा मानने वाले वानप्रस्थी तो सभी वर्णों के और जातियों के लोग हुवा करते थे। ऐसे वानप्रस्थी और संन्यासी सभी अर्थार्जन की अपेक्षा के बगप्रर समाज के लिये काम करते थे। ब्राह्मण छोडकर अन्य वर्णों के वानप्रस्थी लोग क्या करते होंगे? सदाचार की शिक्षा देना, सामाजिक दृष्टि से जिन वर्णों के लोगों का अनुकरण करना चाहिये ऐसे लोगो का स्वत: अनुकरण करना और अन्यों को अनुकरण करने की प्रेरणा देना, ब्रह्मचर्य काल में हस्तगत किये और गृहस्थ जीवन में विकसित किये गये ज्ञान, विद्या और काप्रशलों को नयी पीढी को हस्तांतरित करना, भगवद्भक्ति में समय बिताना आदि काम ही तो करते होंगे। यह था वर्ण और आश्रम व्यवस्था का स्वरूप।
हर जाति में चार वर्णं
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महाराष्ट्र में संतों की एक दीर्घ परंपरा है । हर जाति में बडे संत हुवे है । जेसे गोरोबा कुम्हार थे । चोखोबा महार थे । नामदेव दर्जी थे । नरहरी सुनार थे । कान्होपात्रा वेश्या थीं । ज्ञानेश्वर, रामदास, एकनाथ ब्राह्मण थे । किन्तु इन संतों की एक विशेषता यह रही है की इन सभी ने एक ही वेदांत के तत्वज्ञान की प्रस्तुति की है । यह कैसे हुवा ? ये तो किसी गुरूकुल में नही जाते थे । फिर इन तक वेदांत की ज्ञानधारा कैसे पहुंची ? थोडा जातियों का अध्ययन करने से हमें ध्यान में आता है की हर जाति में जाति पुराण कहनेवाला एक वर्ग होता है । यह वर्ग उस जाति में सब से अधिक सम्मानित माना जाता है । यह वर्ग अर्थार्जन नही करता । यह उस जाति में नि:स्वार्थ भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान का ( ब्राह्मण का ) काम ही करता है। यह उस जाति के ब्राह्मण वर्ण के लोग ही होते है। ब्राह्मणजाति में भी जिनका ज्ञानार्जन और ज्ञानदान से दूर दूर तक कोई संबंध नही है ऐसे भोजन पकानेवाले महाराज होते है। यह ब्राह्मण जाति के शूद्र वर्ण के लोग होते है ।  
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== हर जाति में चार वर्ण ==
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महाराष्ट्र में संतों की एक दीर्घ परंपरा है । हर जाति में बडे संत हुवे है । जेसे गोरोबा कुम्हार थे । चोखोबा महार थे । नामदेव दर्जी थे । नरहरी सुनार थे । कान्होपात्रा वेश्या थीं । ज्ञानेश्वर, रामदास, एकनाथ ब्राह्मण थे । किन्तु इन संतों की एक विशेषता यह रही है की इन सभी ने एक ही वेदांत के तत्वज्ञान की प्रस्तुति की है । यह कैसे हुवा ? ये तो किसी गुरूकुल में नही जाते थे । फिर इन तक वेदांत की ज्ञानधारा कैसे पहुंची ? थोडा जातियों का अध्ययन करने से हमें ध्यान में आता है की हर जाति में जाति पुराण कहनेवाला एक वर्ग होता है । यह वर्ग उस जाति में सब से अधिक सम्मानित माना जाता है । यह वर्ग अर्थार्जन नही करता । यह उस जाति में नि:स्वार्थ भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान का ( ब्राह्मण का ) काम ही करता है। यह उस जाति के ब्राह्मण वर्ण के लोग ही होते है। ब्राह्मणजाति में भी जिनका ज्ञानार्जन और ज्ञानदान से दूर दूर तक कोई संबंध नही है ऐसे भोजन पकानेवाले महाराज होते है। यह ब्राह्मण जाति के शूद्र वर्ण के लोग होते है ।  
 
महाभारत के युध्द के बाद निर्माण हुई सामाजिक अव्यवस्था को दूर करने के लिये जो विद्वत परिषद नप्रमिषारण्य में हुयी थी उस का नेतृत्व सूत मुनी ने किया था । वे सूत जाति के ज्ञानवान ( ब्राह्मणों के गुण और लक्षणों वाले ) मनुष्य थे । इस से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है की हर जाति में चार वर्ण होते है ।   
 
महाभारत के युध्द के बाद निर्माण हुई सामाजिक अव्यवस्था को दूर करने के लिये जो विद्वत परिषद नप्रमिषारण्य में हुयी थी उस का नेतृत्व सूत मुनी ने किया था । वे सूत जाति के ज्ञानवान ( ब्राह्मणों के गुण और लक्षणों वाले ) मनुष्य थे । इस से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है की हर जाति में चार वर्ण होते है ।   
 
‘भारतीय समाजशास्त्र’ इस पुस्तक में (वरदा प्रकाशन, सेनापति बापट मार्ग, पुणे 16) पृष्ठ 142 पर लेखक डॉ श्रीधर व्यंकटेश केतकर लिखते हैं - ब्राह्मणांचा सर्वत्र प्रचार होण्यापूर्वी समाजाला असे स्वरूप होते कि प्रत्येक जातीत चातुरर््वण्य होते म्हणजे शेतकरी, पुजारी, व्यापारी, आणि सेवक वर्ग होते'। अर्थात् ब्राह्मणों का सर्वत्र प्रचार होने से पूर्व प्रत्येक जाती में किसान, पुजारी, व्यापारी और सेवक ऐसे चार वर्ण थे।
 
‘भारतीय समाजशास्त्र’ इस पुस्तक में (वरदा प्रकाशन, सेनापति बापट मार्ग, पुणे 16) पृष्ठ 142 पर लेखक डॉ श्रीधर व्यंकटेश केतकर लिखते हैं - ब्राह्मणांचा सर्वत्र प्रचार होण्यापूर्वी समाजाला असे स्वरूप होते कि प्रत्येक जातीत चातुरर््वण्य होते म्हणजे शेतकरी, पुजारी, व्यापारी, आणि सेवक वर्ग होते'। अर्थात् ब्राह्मणों का सर्वत्र प्रचार होने से पूर्व प्रत्येक जाती में किसान, पुजारी, व्यापारी और सेवक ऐसे चार वर्ण थे।
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२.  जनसंख्या के प्रमाण में पैदा होने वाले जन्मजात वर्णों की या प्रवृत्तियों ( गुण और लक्षणों ) की शुध्दता बनाए रखने के लिये और समाज में संतुलन बनाए रखने के लिये वर्ण व्यवस्था की रचना की गई थी। यह आनुवांशिकता से नहीं थी।
 
२.  जनसंख्या के प्रमाण में पैदा होने वाले जन्मजात वर्णों की या प्रवृत्तियों ( गुण और लक्षणों ) की शुध्दता बनाए रखने के लिये और समाज में संतुलन बनाए रखने के लिये वर्ण व्यवस्था की रचना की गई थी। यह आनुवांशिकता से नहीं थी।
 
३.  जन्मजात व्यावसायिक कुशलता ( जाति ) का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संतुलन बनाये रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने आनुवांशिकता से जाति व्यवस्था का निर्माण किया था ।   
 
३.  जन्मजात व्यावसायिक कुशलता ( जाति ) का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संतुलन बनाये रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने आनुवांशिकता से जाति व्यवस्था का निर्माण किया था ।   
४.  जातियों में भी चारों वर्णों के लोगों के ‘ स्व ‘भाव के अनुसार और व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुसार काम का  
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४.  जातियों में भी चारों वर्णों के लोगों के ‘ स्व ‘भाव के अनुसार और व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुसार काम का   स्वरूप होता था। जैसे अपनी व्यावसायिक कुशलता (जाति) के जातिपुराण की कालानुरूप रचना और प्रस्तुति करना।  
    स्वरूप होता था। जैसे अपनी व्यावसायिक कुशलता (जाति) के जातिपुराण की कालानुरूप रचना और प्रस्तुति करना।  
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इस के माध्यम से जातिधर्म को प्रतिष्ठापित करना। व्यावसायिक ज्ञान का अर्जन और ज्ञानदान करना। दान लेना और
    इस के माध्यम से जातिधर्म को प्रतिष्ठापित करना। व्यावसायिक ज्ञान का अर्जन और ज्ञानदान करना। दान लेना और  
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दान देना या ज्ञान या व्यवसाय के उत्पादनों की सुरक्षा, आवास, उद्योगालय, खेती, भूमि, तालाब आदि संसाधनों की सुरक्षा और रखरखाव करना। आवश्यकता और प्रसंगोपात्त सैनिक कर्म करना। या ज्ञान का प्रसार या प्रत्त्यक्ष वस्तूओं का उत्पादन करना या लोगों की सेवा आदि करना।     
 
दान देना या ज्ञान या व्यवसाय के उत्पादनों की सुरक्षा, आवास, उद्योगालय, खेती, भूमि, तालाब आदि संसाधनों की सुरक्षा और रखरखाव करना। आवश्यकता और प्रसंगोपात्त सैनिक कर्म करना। या ज्ञान का प्रसार या प्रत्त्यक्ष वस्तूओं का उत्पादन करना या लोगों की सेवा आदि करना।     
 
५.  प्रत्येक जाति में चारों वर्णों के लोग होते है । जातियों में भी प्रवृत्तियों का संतुलन बनाए रखने का प्रयास वर्ण को भी आनुवांशिक बनाकर किया गया। यह प्रयास गुरूकुल या गुरूकुल जैसी अन्य वर्ण निर्धारण की व्यवस्था के अभाव में अधिक काल टिक नहीं पाया। यह प्रयास मूलत: दोषपूर्ण होने से इस में दोष निर्माण होने लगे।
 
५.  प्रत्येक जाति में चारों वर्णों के लोग होते है । जातियों में भी प्रवृत्तियों का संतुलन बनाए रखने का प्रयास वर्ण को भी आनुवांशिक बनाकर किया गया। यह प्रयास गुरूकुल या गुरूकुल जैसी अन्य वर्ण निर्धारण की व्यवस्था के अभाव में अधिक काल टिक नहीं पाया। यह प्रयास मूलत: दोषपूर्ण होने से इस में दोष निर्माण होने लगे।
 
६.  इस सब के उपरांत भी कोई यदि अपना वर्ण बदलना चाहता था या जाति बदलना चाहता था तो इस की भी व्यवस्था की गई थी । इस बात में लचीलापन था । लेकिन इस वर्ण या जाति के परिवर्तन को कठिन बनाने के लिये कठोर तप के प्रावधान रखे गये थे। जिस से यह जन्मगत व्यवस्थाएं व्यक्ति के लिये ' मन:पूतं ' न बन सकें ।   
 
६.  इस सब के उपरांत भी कोई यदि अपना वर्ण बदलना चाहता था या जाति बदलना चाहता था तो इस की भी व्यवस्था की गई थी । इस बात में लचीलापन था । लेकिन इस वर्ण या जाति के परिवर्तन को कठिन बनाने के लिये कठोर तप के प्रावधान रखे गये थे। जिस से यह जन्मगत व्यवस्थाएं व्यक्ति के लिये ' मन:पूतं ' न बन सकें ।   
 
७.  वर्तमान में वर्ण व्यवस्था नाम की, वास्तव में जातियों संबंधी सरकारी कानून के अलावा और कोई भी व्यवस्था समाज में नहीं है। समाज में भी बिगडी हुई जाति व्यवस्था ही अब शेष है। यह वर्तमान जाति व्यवस्था पुरानी वर्ण व्यवस्था और बाद में उसी से उभरी जाति व्यवस्था का एकीकृत विकृत रूप ही है।
 
७.  वर्तमान में वर्ण व्यवस्था नाम की, वास्तव में जातियों संबंधी सरकारी कानून के अलावा और कोई भी व्यवस्था समाज में नहीं है। समाज में भी बिगडी हुई जाति व्यवस्था ही अब शेष है। यह वर्तमान जाति व्यवस्था पुरानी वर्ण व्यवस्था और बाद में उसी से उभरी जाति व्यवस्था का एकीकृत विकृत रूप ही है।
८.  शूद्र नाम की कोई जाति नहीं होती|
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८.  शूद्र नाम की कोई जाति नहीं होती।
जन्मना जाति और वर्ण व्यवस्था
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यह दोनों व्यवस्थाएं जन्मना हैं| लेकिन फिर भी दोनों की आनुवंशिकता में भिन्नता है| जन्मना वर्ण कर्मसिध्दांत से याने पूर्व कर्मों के फलों से संबंधित है, आनुवांशिकता से नहीं है। लेकिन इसे कठोर प्रयासों से आनुवंशिक बनाया जा सकता है| पूर्व जन्म के अंतिम क्षण को जीव के संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म उस के नये जन्म का वर्ण तय करते है। जिवात्मा जब एक शरीर त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है तब साथ में प्राण, मन, बुध्दि, चित्त आदि लेकर जाता है। ये सब बातें ही तो बच्चे का ‘ स्व ‘भाव याने वर्ण तय करतीं है। साथ ही में यही बातें बच्चे के पिता -माता भी तय करती है। पूर्व कर्मों के फलों के कारण ही बच्चा प्रारब्ध कर्म के भोग के लिये अनुकू ल पिता-माता को खोजता है। जन्मना जाति पूर्व कर्मों के फलों के साथ ही आनुवांशिकता के सिध्दांत से याने पिता से मिलनेवाली विरासत से याने कौटुंबिक व्यावसायिक कुशलताओं से ऐसी दोनों से भी संबंधित है।  
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== जन्मना जाति और वर्ण व्यवस्था ==
दोनों व्यवस्थाओं की निर्दोंष प्रस्तुति करना और उन्हे समाज के व्यवहार में स्थापित कै से करना यह चुनौति है।
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यह दोनों व्यवस्थाएं जन्मना हैं। लेकिन फिर भी दोनों की आनुवंशिकता में भिन्नता है। जन्मना वर्ण कर्मसिध्दांत से याने पूर्व कर्मों के फलों से संबंधित है, आनुवांशिकता से नहीं है। लेकिन इसे कठोर प्रयासों से आनुवंशिक बनाया जा सकता है। पूर्व जन्म के अंतिम क्षण को जीव के संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म उस के नये जन्म का वर्ण तय करते है। जिवात्मा जब एक शरीर त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है तब साथ में प्राण, मन, बुध्दि, चित्त आदि लेकर जाता है। ये सब बातें ही तो बच्चे का ‘ स्व ‘भाव याने वर्ण तय करतीं है। साथ ही में यही बातें बच्चे के पिता -माता भी तय करती है। पूर्व कर्मों के फलों के कारण ही बच्चा प्रारब्ध कर्म के भोग के लिये अनुकू ल पिता-माता को खोजता है। जन्मना जाति पूर्व कर्मों के फलों के साथ ही आनुवांशिकता के सिध्दांत से याने पिता से मिलनेवाली विरासत से याने कौटुंबिक व्यावसायिक कुशलताओं से ऐसी दोनों से भी संबंधित है।  
उपसंहार  
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दोनों व्यवस्थाओं की निर्दोंष प्रस्तुति करना और उन्हे समाज के व्यवहार में स्थापित कै से करना यह चुनौति है।  
वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ शास्त्रसंमत ही हैं। यह हमें ठीक से समझना होगा । जिन्हें हिन्दू समाज फिर से विश्वगुरू बने ऐसी आकांक्षा है ऐसे लोगों को अपने अपने पूर्वाग्रह छोडकर गहराई से इस विषय का अध्ययन करना होगा । वर्ण और जाति व्यवस्था का शास्त्रीय हिस्सा कौनसा है और अशास्त्रीय कौनसा है यह तय करना होगा। अशास्त्रीय हिस्से को छोडना होगा। शास्त्रीय हिस्से को प्रासंगिक ढंग से पुनर्प्रस्तुत करना होगा।  
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== उपसंहार ==
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वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ शास्त्रसंमत ही हैं। यह हमें ठीक से समझना होगा । जिन्हें हिन्दू समाज फिर से विश्वगुरू बने ऐसी आकांक्षा है ऐसे लोगों को अपने अपने पूर्वाग्रह छोडकर गहराई से इस विषय का अध्ययन करना होगा । वर्ण और जाति व्यवस्था का शास्त्रीय हिस्सा कौनसा है और अशास्त्रीय कौनसा है यह तय करना होगा। अशास्त्रीय हिस्से को छोडना होगा। शास्त्रीय हिस्से को प्रासंगिक ढंग से पुनर्प्रस्तुत करना होगा।  
 
छुआछूत का चलन यह जाति व्यवस्था में निर्माण हुवा गंभीर दोष है। यदि जाति व्यवस्था को बनाए रखना हो तो छुआछूत विहीन जाति व्यवस्था का ही विकास करना होगा।  
 
छुआछूत का चलन यह जाति व्यवस्था में निर्माण हुवा गंभीर दोष है। यदि जाति व्यवस्था को बनाए रखना हो तो छुआछूत विहीन जाति व्यवस्था का ही विकास करना होगा।  
 
प्रकृति में पेड के दो पत्ते एक जैसे नहीं होते। दो मनुष्य भी एक जैसे नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता और कनिष्ठता तो रहेगी ही। यह प्राकृतिक ही है। किंतु मानव होने के नाते समानता आवश्यक है, इस तत्त्व का नयी जाति व्यवस्था में समावेष अनिवार्य है। जाति या वर्ण जो भी हो, मानवता का व्यवहार तो हर मानव से हो यह अनिवार्य है। समाज के प्रत्येक सदस्य को उस के कर्मों के आधारपर श्रेष्ठता या कनिष्ठता प्राप्त होगी। ऐसा होने से किसी के मन में कडवाहट नहीं रहेगी।
 
प्रकृति में पेड के दो पत्ते एक जैसे नहीं होते। दो मनुष्य भी एक जैसे नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता और कनिष्ठता तो रहेगी ही। यह प्राकृतिक ही है। किंतु मानव होने के नाते समानता आवश्यक है, इस तत्त्व का नयी जाति व्यवस्था में समावेष अनिवार्य है। जाति या वर्ण जो भी हो, मानवता का व्यवहार तो हर मानव से हो यह अनिवार्य है। समाज के प्रत्येक सदस्य को उस के कर्मों के आधारपर श्रेष्ठता या कनिष्ठता प्राप्त होगी। ऐसा होने से किसी के मन में कडवाहट नहीं रहेगी।
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==References==
 
==References==
 
मनुस्मृति
 
मनुस्मृति
प्रजातंत्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था, लेखक गुरुदत्त, प्रकाशक हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली
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हिंदूंचे समाज रचना शास्त्र, लेखक गोविन्द महादेव जोशी  
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प्रजातंत्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था, लेखक गुरुदत्त, प्रकाशक हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली
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हिंदूंचे समाज रचना शास्त्र, लेखक गोविन्द महादेव जोशी
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हिंदूंचे अर्थशास्त्र भाग १, लेखक गोविन्द महादेव जोशी
 
हिंदूंचे अर्थशास्त्र भाग १, लेखक गोविन्द महादेव जोशी
 
<references />
 
<references />
    
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
 
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