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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
१९६ में अंग्रेजी पार्लियामेंट ने यह स्पष्ट कर दिया कि अंग्रेज १९४८ के बाद भारत में शासक नहीं रहेंगे । भारत स्वाधीन होगा । तब गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा था । पत्र में कहा था कि अब स्वतंत्रता सामने दिख रही है । अब समय आ गया है, हम तय करें कि भारत की अर्थव्यवस्था कैसी होगी । नेहरूजीने उन्हें पत्र लिखकर यह कहा था कि, ‘आपने १९३० में हिन्द स्वराज लिखकर भारतीय अर्थव्यवस्था की एक कल्पना प्रस्तुत की थी । मैं उस समय भी आपसे सहमत नहीं था और आज भी सहमत नहीं हूँ । इस पर गांधीजी ने नेहरूजी को दूसरा पत्र लिखकर कहा था कि इस विषय पर जनता में बहस छेड़ी जाए। और जनता यह तय करे कि हमारी अर्थव्यवस्था का स्वरूप कैसा होना चाहिए । इसपर नेहरूजीने फिर एक पत्र लिखकर कहा कि स्वाधीन भारत की संसद को यह तय करने के लिए हम छोड़ दें । इसके साथ यह विनती भी की कि कृपया अभी ऐसी कोई बहस न छेड़ें । गांधीजी शायद मन गए । उन्होंने फिर नेहरूजी को आगे कुछ नहीं कहा । लेकिन ऐसी कोई बहस स्वाधीनता के बाद नहीं छेडी गई । नेहरूजी पर सोव्हियत रशिया का बहुत प्रभाव था। नेहरूजी ने अपनी चलाई । और जब भारत स्वाधीन हुआ तब हमने समाजवादी और पूँजीवादी की एक मिली-जुली अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया था । यह एक नया प्रयोग था । इस प्रयोग का अनुभव न तो नेहरूजी को और उनके सहयोगी नेताओं को था और न ही अन्य किसी देश ने ऐसा कोई सफल प्रयोग कर दिखाया था । नेहरूजी का भारतीय इतिहास का और ऐतिहासिक भारतीय अर्थव्यवस्था का ज्ञान नहीं के बराबर था । वे और उनके सहयोगी नेता यह शायद जानते नहीं थे कि भारत में वेद पूर्व काल से एक समर्थ राष्ट्र था । इसकी अर्थव्यवस्था अत्यंत श्रेष्ठ थी । इसी अर्थव्यवस्था से निर्माण हुए धन को लूटने के लिए ही भारत पर बारबार विदेशी आक्रमण हुए थे । उनके दिमाग में ‘वी आर ए नेशन इन द मेकिंग’ हम राष्ट्र निर्माता हैं, ऐसा भ्रम था । इस कारण इतने बड़े देश को उन्होंने एक अनिश्चित अर्थव्यवस्था में झोंक दिया । इसी अर्थव्यवस्था के चलते भारत दुनिया में एक अविकसित और विकासशील देश बना रहा । वर्तमान में हम जिस अर्थव्यवस्था में जी रहे हैं उसे मुक्त बाजार अर्थ व्यवस्था कहते हैं । हम इस व्यवस्था के भी निर्माता नहीं हैं । हम केवल यूरोअमरीकी देशों की नक़ल करने का प्रयास कर रहे हैं । आज भी यदि हम कुछ ठीक स्थिति में हैं तो उसका कारण यह तथाकथित आधुनिक अर्थव्यवस्था नहीं है । हमारे सैंकड़ों वर्षों से चले आ रहे, बर्बर आक्रान्ताओं से जूझते हुए भी हम जो संस्कार, आदतें और जीवनदृष्टि आदि बचा पाए हैं, वे हैं ।
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१९६ में अंग्रेजी पार्लियामेंट ने यह स्पष्ट कर दिया कि अंग्रेज १९४८ के बाद भारत में शासक नहीं रहेंगे। भारत स्वाधीन होगा। तब गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा था। पत्र में कहा था कि अब स्वतंत्रता सामने दिख रही है। अब समय आ गया है, हम तय करें कि भारत की अर्थव्यवस्था कैसी होगी। नेहरूजीने उन्हें पत्र लिखकर यह कहा था कि, ‘आपने १९३० में हिन्द स्वराज लिखकर भारतीय अर्थव्यवस्था की एक कल्पना प्रस्तुत की थी। मैं उस समय भी आपसे सहमत नहीं था और आज भी सहमत नहीं हूँ। इस पर गांधीजी ने नेहरूजी को दूसरा पत्र लिखकर कहा था कि इस विषय पर जनता में बहस छेड़ी जाए। और जनता यह तय करे कि हमारी अर्थव्यवस्था का स्वरूप कैसा होना चाहिए। इसपर नेहरूजीने फिर एक पत्र लिखकर कहा कि स्वाधीन भारत की संसद को यह तय करने के लिए हम छोड़ दें। इसके साथ यह विनती भी की कि कृपया अभी ऐसी कोई बहस न छेड़ें। गांधीजी शायद मन गए। उन्होंने फिर नेहरूजी को आगे कुछ नहीं कहा। लेकिन ऐसी कोई बहस स्वाधीनता के बाद नहीं छेडी गई। नेहरूजी पर सोव्हियत रशिया का बहुत प्रभाव था। नेहरूजी ने अपनी चलाई। और जब भारत स्वाधीन हुआ तब हमने समाजवादी और पूँजीवादी की एक मिली-जुली अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया था। यह एक नया प्रयोग था। इस प्रयोग का अनुभव न तो नेहरूजी को और उनके सहयोगी नेताओं को था और न ही अन्य किसी देश ने ऐसा कोई सफल प्रयोग कर दिखाया था। नेहरूजी का भारतीय इतिहास का और ऐतिहासिक भारतीय अर्थव्यवस्था का ज्ञान नहीं के बराबर था। वे और उनके सहयोगी नेता यह शायद जानते नहीं थे कि भारत में वेद पूर्व काल से एक समर्थ राष्ट्र था। इसकी अर्थव्यवस्था अत्यंत श्रेष्ठ थी। इसी अर्थव्यवस्था से निर्माण हुए धन को लूटने के लिए ही भारत पर बारबार विदेशी आक्रमण हुए थे। उनके दिमाग में ‘वी आर ए नेशन इन द मेकिंग’ हम राष्ट्र निर्माता हैं, ऐसा भ्रम था। इस कारण इतने बड़े देश को उन्होंने एक अनिश्चित अर्थव्यवस्था में झोंक दिया। इसी अर्थव्यवस्था के चलते भारत दुनिया में एक अविकसित और विकासशील देश बना रहा। वर्तमान में हम जिस अर्थव्यवस्था में जी रहे हैं उसे मुक्त बाजार अर्थ व्यवस्था कहते हैं। हम इस व्यवस्था के भी निर्माता नहीं हैं। हम केवल यूरोअमरीकी देशों की नक़ल करने का प्रयास कर रहे हैं। आज भी यदि हम कुछ ठीक स्थिति में हैं तो उसका कारण यह तथाकथित आधुनिक अर्थव्यवस्था नहीं है। हमारे सैंकड़ों वर्षों से चले आ रहे, बर्बर आक्रान्ताओं से जूझते हुए भी हम जो संस्कार, आदतें और जीवनदृष्टि आदि बचा पाए हैं, वे हैं।
    
== वर्तमान अर्थव्यवस्था के अनिष्ट ==
 
== वर्तमान अर्थव्यवस्था के अनिष्ट ==
वर्तमान में दुनिया के लगभग सभी देशों में मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था है । जिन देशों ने इसे स्वीकार करने से इनकार किया था उनपर विश्व व्यापार संगठन के बलवान देशों ने इसे बलपूर्वक लादा है । इस की स्थिति जैसी भारत में है उसी प्रकार से विश्व के अन्य देशों में भी है । अंतर केवल १९-२१ का है । इसके लक्षण और परिणाम अब देखेंगे । इनकी सूची काफी बड़ी है । उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का ही हम विचार करेंगे
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वर्तमान में दुनिया के लगभग सभी देशों में मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था है। जिन देशों ने इसे स्वीकार करने से इनकार किया था उन पर विश्व व्यापार संगठन के बलवान देशों ने इसे बलपूर्वक लादा है। इस की स्थिति जैसी भारत में है उसी प्रकार से विश्व के अन्य देशों में भी है। अंतर केवल १९-२१ का है। इसके लक्षण और परिणाम अब देखेंगे। इनकी सूची काफी बड़ी है। उनमें से कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का ही हम विचार करेंगे:
१. बेरोजगारी : यह व्यक्ति की समस्या है । लेकिन इसके साथ समाज का स्वास्थ्य, समाज की सुरक्षा व्यवस्था, समाज की संस्कृति आदि का भी निकट का संबंध है । बेरोजगारी की समस्या केवल भारत की ही नहीं अमरीका की भी समस्या है । अमरीका भी इअसका समाधान नहीं ढूंढ सका है ।
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# बेरोजगारी : यह व्यक्ति की समस्या है। लेकिन इसके साथ समाज का स्वास्थ्य, समाज की सुरक्षा व्यवस्था, समाज की संस्कृति आदि का भी निकट का संबंध है। बेरोजगारी की समस्या केवल भारत की ही नहीं अमरीका की भी समस्या है। अमरीका भी इसका समाधान नहीं ढूंढ सका है।
२. आर्थिक विषमता : हाल ही में भारतीय अर्थव्यवस्था की जानकारी वृत्तापत्रों में छपी थी । भारत के केवल १ % लोगों का स्वामित्व भारत की ७२ % सम्पत्तीपर है । इस विषमता के कारण परस्पर द्वेष भावना, ईर्षा, गलाकाट स्पर्धा, अशांति, धोखाधड़ी, शीघ्रातिशीघ्र अमीर बनने की लालसा और उसके कारण होनेवाला भ्रष्ट आचार आदि कई सामाजिक रोगों का शिकार समाज बन रहा है ।
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# आर्थिक विषमता : हाल ही में भारतीय अर्थव्यवस्था की जानकारी वृत्तपत्रों में छपी थी। भारत के केवल १ % लोगों का स्वामित्व भारत की ७२ % सम्पत्ति पर है। इस विषमता के कारण परस्पर द्वेष भावना, ईर्ष्या गलाकाट स्पर्धा, अशांति, धोखाधड़ी, शीघ्रातिशीघ्र अमीर बनने की लालसा और उसके कारण होनेवाला भ्रष्ट आचार आदि कई सामाजिक रोगों का शिकार समाज बन रहा है।
३. अर्थ का अभाव और प्रभाव: पैसा यह ऐसी वस्तू है कि संस्कारहीन लोगोंपर वह अपना प्रभाव छोड़ता ही है । धन का बल मनुष्य में अहंकार निर्माण कर देता है । धन अपने हाथ से निकल न जाए इस भय से मनुष्य हिंसा, अपराध, अप्रामाणिकता पर उतारू हो जाता है । इसी के साथ ही पैसे का अभाव निर्माण होने से मनुष्य लाचार, दीं हो जाता है । सच्चाई के साथ समझौते करने को बाध्य हो जाता है ।
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# अर्थ का अभाव और प्रभाव: पैसा यह ऐसी वस्तु है कि संस्कारहीन लोगों पर वह अपना प्रभाव छोड़ता ही है। धन का बल मनुष्य में अहंकार निर्माण कर देता है। धन अपने हाथ से निकल न जाए इस भय से मनुष्य हिंसा, अपराध, अप्रामाणिकता पर उतारू हो जाता है। इसी के साथ ही पैसे का अभाव निर्माण होने से मनुष्य लाचार और दीन हो जाता है। सच्चाई के साथ समझौते करने को बाध्य हो जाता है।
४. सामाजिकता से व्यक्तिवादिता की ओर : यह अर्थव्यवस्था मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्ति व्यक्ति में बांटता है । सिंह बलवान होते हैं । सिंहोंपर शासन करना कठिन होता है । संगठित समाज बलवान होता है । व्यक्ति दुर्बल होता है । इसलिए इस शासनाधिष्ठीत अर्थव्यवस्था का लक्ष्य समाज की सामाजिकता या संगठन तोड़कर इसे व्यक्ति व्यक्ति के रूप में विभाजित करने का होता है । ऐसे व्यक्तियों के झुण्ड पर शासन करना सरल होता है । इसलिए हमारी शिक्षा भी व्यक्तिवादिता या स्वार्थ को बढ़ावा देनेवाली है । नि:स्वार्थ भाव से समाज के हित का विचार करनेवाले लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं । अन्न, औषधी और शिक्षा जैसी पवित्र बातें बिकाऊ बन गयीं हैं ।
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# सामाजिकता से व्यक्तिवादिता की ओर : यह अर्थव्यवस्था मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्ति व्यक्ति में बांटता है। सिंह बलवान होते हैं। सिंहों पर शासन करना कठिन होता है। संगठित समाज बलवान होता है। व्यक्ति दुर्बल होता है। इसलिए इस शासनाधिष्ठीत अर्थव्यवस्था का लक्ष्य समाज की सामाजिकता या संगठन तोड़कर इसे व्यक्ति व्यक्ति के रूप में विभाजित करने का होता है। ऐसे व्यक्तियों के झुण्ड पर शासन करना सरल होता है। इसलिए हमारी शिक्षा भी व्यक्तिवादिता या स्वार्थ को बढ़ावा देनेवाली है। नि:स्वार्थ भाव से समाज के हित का विचार करनेवाले लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं। अन्न, औषधि और शिक्षा जैसी पवित्र बातें बिकाऊ बन गयीं हैं।
५. पगढ़ीलापन इस अर्थव्यवस्था ने पूरे विश्व के समाजों को पगढ़ीला बना दिया है । मनुष्य का जन्म कहीं होता है, प्राथमिक शिक्षा कहीं होती है, महाविद्यालयीन शिक्षा ओर कहीं होती है, नौकरी के निमित्त पता नहीं कितनी स्थानोंपर रहना होता है । निवृत्ति के उपरांत भी कहीं अन्य ही जगह वह अपना डेरा जमाता है । यह बात अब अनिवार्य बन गयी है । इसके चलते संसार भरमें सभी संस्कृतियों का नाश हो रहा है । संस्कृति के विकास के लिए समाज जीवन की जो इष्ट गति है उससे कहीं अधिक गति जीवन को मिल रही है । फलस्वरूप संस्कृति नष्ट होकर प्रकृति याने पशुता और विकृति में वृद्धि होती दिखाई दे रही है ।
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# पगढ़ीलापन इस अर्थव्यवस्था ने पूरे विश्व के समाजों को पगढ़ीला बना दिया है। मनुष्य का जन्म कहीं होता है, प्राथमिक शिक्षा कहीं होती है, महाविद्यालयीन शिक्षा ओर कहीं होती है, नौकरी के निमित्त पता नहीं कितनी स्थानों पर रहना होता है। निवृत्ति के उपरांत भी कहीं अन्य ही वह अपना डेरा जमाता है। यह बात अब अनिवार्य बन गयी है। इसके चलते संसार भर में सभी संस्कृतियों का नाश हो रहा है। संस्कृति के विकास के लिए समाज जीवन की जो इष्ट गति है उससे कहीं अधिक गति जीवन को मिल रही है। फलस्वरूप संस्कृति नष्ट होकर प्रकृति याने पशुता और विकृति में वृद्धि होती दिखाई दे रही है।
६. कुटुंब का और कुटुंब भावना का क्षरण : यह अर्थव्यवस्था कुटुंब व्यवस्था को तोड़नेवाली है । इसी के चलते हम कुटुंब से फेमिली और फेमिली से आगे स्वेच्छा सहनिवास (लिव्ह इन रिलेशनशिप) की ओर बढ़ रहे हैं । स्वेच्छा सहनिवास तो समाज को नष्ट करने का निश्चित और अत्यंत बलवान सूत्र है ।
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# कुटुंब का और कुटुंब भावना का क्षरण : यह अर्थव्यवस्था कुटुंब व्यवस्था को तोड़नेवाली है। इसी के चलते हम कुटुंब से फेमिली और फेमिली से आगे स्वेच्छा सहनिवास (लिव्ह इन रिलेशनशिप) की ओर बढ़ रहे हैं। स्वेच्छा सहनिवास तो समाज को नष्ट करने का निश्चित और अत्यंत बलवान सूत्र है।
७. प्रकृति का शोषण और प्रदूषण : जिस प्रकार से और जिस प्रमाण में प्रकृति का शोषण हो रहा है उस के कारण संसाधनों की कमी निर्माण हो गयी है । यह कमी दुनिया में अशांति फैला रही है । इंधन तेल जैसे संसाधन विश्वयुद्ध के कारण बन गए हैं । प्रकृति के प्रदूषण के कारण भी मनुष्य का जीना दूभर हो गया है । स्वास्थ्य की समस्याएँ बढ़ रहीं हैं ।
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# प्रकृति का शोषण और प्रदूषण : जिस प्रकार से और जिस प्रमाण में प्रकृति का शोषण हो रहा है उस के कारण संसाधनों की कमी निर्माण हो गयी है। यह कमी दुनिया में अशांति फैला रही है। इंधन तेल जैसे संसाधन विश्वयुद्ध के कारण बन गए हैं। प्रकृति के प्रदूषण के कारण भी मनुष्य का जीना दूभर हो गया है। स्वास्थ्य की समस्याएँ बढ़ रहीं हैं।
इन समस्याओं की सूची और बढाई जा सकती है । जिन्हें विक्सित देश माना जाता है उनकी समस्याएँ हमसे भी गंभीर हैं । भारत छोड़कर विश्व के अन्य देशों के सामने अर्थव्यवस्था का वर्तमान अर्थव्यवस्था से श्रेष्ठ अन्य कोई नमूना नहीं हैं । ओ बलवान देश हैं वे अन्य गरीब देशों के शोषण से लाभ उठाने के लिए इस अर्थव्यवस्था को बनाए हुए हैं । और अन्य देश इसे नकार नईं सकते क्यों कि उन के पास इस नाशकारी अर्थव्यवस्था को स्वीकार करने के सिवाय अन्य रास्ता नहीं है, शक्ति भी नहीं है । लेकिन भारत की स्थिति ऐसी नहीं है । भारत को एक श्रेष्ठतम  अर्थव्यवस्था का इतिहास है और साथ ही में दुनियां कि लगभग २० % आबादी के कारण भारत अपने आप में एक विश्व है । इसलिए यह तो हमारे नेतृत्व का अज्ञान, दूरदृष्टि और हिम्मत की कमी है कि हम ऐतिहासिक भारतीय अर्थव्यवस्था से कुछ सीखने का प्रयास नहीं कर रहे
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इन समस्याओं की सूची और बढाई जा सकती है। जिन्हें विकसित देश माना जाता है उनकी समस्याएँ हमसे भी गंभीर हैं। भारत छोड़कर विश्व के अन्य देशों के सामने अर्थव्यवस्था का वर्तमान अर्थव्यवस्था से श्रेष्ठ अन्य कोई नमूना नहीं हैं। जो बलवान देश हैं वे अन्य गरीब देशों के शोषण से लाभ उठाने के लिए इस अर्थव्यवस्था को बनाए हुए हैं। और अन्य देश इसे नकार नहीं सकते क्यों कि उन के पास इस नाशकारी अर्थव्यवस्था को स्वीकार करने के सिवाय अन्य रास्ता नहीं है, शक्ति भी नहीं है। लेकिन भारत की स्थिति ऐसी नहीं है। भारत को एक श्रेष्ठतम  अर्थव्यवस्था का इतिहास है और साथ ही में दुनिया की लगभग २० % आबादी के कारण भारत अपने आप में एक विश्व है। इसलिए यह तो हमारे नेतृत्व का अज्ञान, दूरदृष्टि और हिम्मत की कमी है कि हम ऐतिहासिक भारतीय अर्थव्यवस्था से कुछ सीखने का प्रयास नहीं कर रहे
भारतीय अर्थव्यवस्था में कौटुंबिक उद्योग का स्थान :
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भारतीय कुटुंब, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था और ग्राम व्यवस्था ये बातें भारतीय पोषणव्यवस्था के अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटक हैं । ये सब परस्पर पूरक और पोषक हैं । इनमें से एक को भी नकारने से अन्य घटक भी दुर्बल बन जाते हैं ।
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== भारतीय अर्थव्यवस्था में कौटुंबिक उद्योग का स्थान ==
इसमें भारतीय कुटुंब व्यवस्था के विषय में, वर्ण व्यवस्था के विषय में, जाति व्यवस्था के विषय में और भारतीय ग्रामकुल की अर्थव्यवस्था के विषय में हम अलग अध्यायों में जानने का प्रयास करेंगे । इसलिए यहाँ हम केवल कुटुंब उद्योगों के विषय में ही विचार करेंगे ।
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भारतीय कुटुंब व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था और ग्राम व्यवस्था, ये बातें भारतीय पोषण व्यवस्था के अत्यंत महत्वपूर्ण घटक हैं। ये सब परस्पर पूरक और पोषक हैं। इनमें से एक को भी नकारने से अन्य घटक भी दुर्बल बन जाते हैं। इसमें भारतीय [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]] के विषय में, [[Varna System (वर्ण व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]] के विषय में, [[Jaati System (जाति व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] के विषय में और [[Grama Kul (ग्रामकुल)|ग्राम व्यवस्था]] की अर्थव्यवस्था के विषय में अलग अलग लेख देखें। यहाँ हम केवल कुटुंब उद्योगों के विषय में ही विचार करेंगे।
कौटुम्बिक उद्योगों के लाभ :
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भारतीय संयुक्त परिवारों में ही पारिवारिक उद्योग फलते फूलते हैं । पारिवारिक उद्योगों के मोटे मोटे लाभ निम्न हैं ।
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=== कौटुम्बिक उद्योगों के लाभ ===
१. प्रत्येक व्यक्ति के लिए रोजगार की आश्वस्ति  
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भारतीय संयुक्त परिवारों में ही पारिवारिक उद्योग फलते फूलते हैं। पारिवारिक उद्योगों के मोटे मोटे लाभ निम्न हैं।
२. स्थानिक प्राकृतिक संसाधनोंपर निर्भरता के सस्ते, अनिश्चितता नहीं, जब चाहो तब उपलब्ध जैसे लाभ ।
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# प्रत्येक व्यक्ति के लिए रोजगार की आश्वस्ति
३. सभी मालिक हैं । आत्मविश्वासयुक्त, जिम्मेदार, मेहनती, चुनौतियोंपर मात करने की हिम्मत रखनेवाला मालिकों की मानसिकतावाला समाज बनता है ।
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# स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता के लाभ: सस्ते, अनिश्चितता नहीं, जब चाहो तब उपलब्ध जैसे लाभ।
४. बचपन से ही सहज और सीखने के लिए अनुकूल वातावरण के कारण पीढी दर पीढी कुशलताओं का विकास होता है ।
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# सभी मालिक हैं। आत्मविश्वासयुक्त, जिम्मेदार, मेहनती, चुनौतियों पर मात करने की हिम्मत रखनेवाला मालिकों की मानसिकता वाला समाज बनता है।
५. बढ़ती हुई कुशलताओं और अनुभवों के कारण पीढी दर पीढी कच्चे माल की बचत होती जाती है ।
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# बचपन से ही सहज और सीखने के लिए अनुकूल वातावरण के कारण पीढी दर पीढी कुशलताओं का विकास होता है।
६. कुशलता में वृद्धि के कारण पीढी दर पीढी समय की बचत होती है ।
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# बढ़ती हुई कुशलताओं और अनुभवों के कारण पीढी दर पीढी कच्चे माल की बचत होती जाती है।
७. उत्पादित वस्तू के साथ कुटुंब का गौरव(ब्रैंड) जुड़ता है । इससे गुणवत्ता की आश्वस्ति मिलाती है ।
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# कुशलता में वृद्धि के कारण पीढी दर पीढी समय की बचत होती है।
८. ग्राहक की विशेष माँग या पसंद के अनुसार उत्पादन होता है । ग्राहक की रूचि के अनुसार विविधता रहती है ।
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# उत्पादित वस्तु के साथ कुटुंब का गौरव(ब्रैंड) जुड़ता है। इससे गुणवत्ता की आश्वस्ति मिलाती है।
९. कुटुंब के सभी सदस्यों के कौशल, उपलब्ध समय, अनुभव आदि के अनुसार उत्पादन का समायोजन होता है ।
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# ग्राहक की विशेष माँग या पसंद के अनुसार उत्पादन होता है। ग्राहक की रूचि के अनुसार विविधता रहती है।
१०. सातों दिन २४ घंटे उत्पादन संभव होता है । अप्राकृतिक साप्ताहिक छुट्टी (प्रकृति में कोई भी घटक छुट्टी नहीं लेता) की छुट्टी हो जाती है ।
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# कुटुंब के सभी सदस्यों के कौशल, उपलब्ध समय, अनुभव आदि के अनुसार उत्पादन का समायोजन होता है।
११. आवश्यकतानुसार कुटुंब के स्त्री, पुरूष, आबाल-वृद्ध ऐसे प्रत्येक सदस्य का उद्योग में योगदान संभव होता है ।
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# सातों दिन २४ घंटे उत्पादन संभव होता है। अप्राकृतिक साप्ताहिक छुट्टी (प्रकृति में कोई भी घटक छुट्टी नहीं लेता) की छुट्टी हो जाती है।
१२. महँगी तकनीकी या व्यवस्थापन की शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती । इस के लिए वर्तमान में अनिवार्य ऐसे तकनीकी और व्यवस्थापन के महाविद्यालयों की आवश्यकता न्यूनतम हो जाती है ।
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# आवश्यकतानुसार कुटुंब के स्त्री, पुरूष, आबाल-वृद्ध ऐसे प्रत्येक सदस्य का उद्योग में योगदान संभव होता है।
१३. तंत्रज्ञान, उत्पादन, व्यवस्थापन आदि सीखने के लिए युवावस्था के वर्षों का अलग समय निकालना नहीं पड़ता । यह बचा हुआ समय बच्चा सामाजिकता, नैतिकता की शिक्षा के लिए लगा सकता है ।
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# महँगी तकनीकी या व्यवस्थापन की शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। इस के लिए वर्तमान में अनिवार्य तकनीकी और व्यवस्थापन के महाविद्यालयों की आवश्यकता न्यूनतम हो जाती है।
१४. कौटुम्बिक उद्योगों को समाज अपने हिसाब से अपने हित के लिए समायोजित करता है । जब कि वर्तमान के विशालकाय उद्योग समाज को अपने हित में प्रभावित करते हैं । पहले माँग से अधिक या माँग के बगैर भी उत्पादन बनाकर उसे झूठे, अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनों के माध्यम से बेचते हैं । इस तरह बड़े उद्योग विभक्त परिवारों का शोषण करते हैं । संयुक्त कुटुम्बों को तोड़ने के प्रयास करते हैं । अर्थ का अभाव और प्रभाव दोनों को निरस्त करनेवाली यह अर्थव्यवस्था है । सर्वप्रथम तो बहुत अधिक अतिरिक्त धन इसमें एक कुटुंब के हाथ में संचय नहीं हो पाता । दूसरे अतिरिक्त धन को दान में देने की प्रवृत्ति भी अभाव और प्रभाव की स्थिति निर्माण नहीं होने देती । भारतीय सोच के अनुसार धन के तीन ही अंत हैं । दान, भोग या नाश । अपने न्यूनतम उपभोग से बहुत अधिक संचय किये धन का कोई उपयोग नहीं है । इसे यदि दान में नहीं दिया गया यह नष्ट होनेवाला है । समाज में धन का केन्द्रीकरण नहीं हो इस के लिए दान देने की मानसिकता का घर घर में और विद्यालयों में संस्कार । इसके अनुरूप समाज में दान का वातावरण बनाए रखना । ऐआ वातावरण लोगों को दान के लिए प्रवृत्त करता है । तैत्तीरीय उपनिषद् में दान देने का आदेश और उपदेश है । कहा है – श्रद्धया देयम्, अश्रद्धया अदेयम्, श्रिया देयम्, भिया देयम्, संविदा देयम् । अर्थ अहै – श्रद्धा से दान दो, आर्थिक शिति के अनुसार दान दो, लज्जावश दान दो, विवेकपूर्वक दान दो । लेकिन दान देते रहो । इसी से अर्थ के अभाव और प्रभाव की स्थिति निर्माण नहीं हो पाती ।
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# तंत्रज्ञान, उत्पादन, व्यवस्थापन आदि सीखने के लिए युवावस्था के वर्षों का अलग समय निकालना नहीं पड़ता। यह बचा हुआ समय बच्चा सामाजिकता, नैतिकता की शिक्षा के लिए लगा सकता है।
१५. कौटुम्बिक उद्योगों के कारण कुटुंब भावना को बल मिलता है । इसी के विस्तार से ग्राम ग्रामकुल बन जाता है और वसुधा या विश्व वसुधैव कुटुम्बकम् बनता है । जैसी व्यवस्थाएँ और व्यवस्था ठीक से चलाने के लिए मानसिकता कुटुंब उद्योग में आवश्यक होती है वैसी ही मानसिकता राष्ट्रकुटुंब और वसुधैव कुटुम्बकम् के लिए आवश्यक होती हैं । कौटुम्बिक उद्योग इस तरह एक वैश्विकता की पाठशाला के रूप में काम करता है ।
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# कौटुम्बिक उद्योगों को समाज अपने हिसाब से अपने हित के लिए समायोजित करता है। जब कि वर्तमान के विशालकाय उद्योग समाज को अपने हित में प्रभावित करते हैं। पहले माँग से अधिक या माँग के बगैर भी उत्पादन बनाकर उसे झूठे, अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनों के माध्यम से बेचते हैं। इस तरह बड़े उद्योग विभक्त परिवारों का शोषण करते हैं। संयुक्त कुटुम्बों को तोड़ने के प्रयास करते हैं। अर्थ का अभाव और प्रभाव दोनों को निरस्त करनेवाली यह अर्थव्यवस्था है। सर्वप्रथम तो बहुत अधिक अतिरिक्त धन इसमें एक कुटुंब के हाथ में संचय नहीं हो पाता। दूसरे अतिरिक्त धन को दान में देने की प्रवृत्ति भी अभाव और प्रभाव की स्थिति निर्माण नहीं होने देती। भारतीय सोच के अनुसार धन के तीन ही अंत हैं। दान, भोग या नाश। अपने न्यूनतम उपभोग से बहुत अधिक संचय किये धन का कोई उपयोग नहीं है। इसे यदि दान में नहीं दिया गया यह नष्ट होनेवाला है। समाज में धन का केन्द्रीकरण नहीं हो इस के लिए दान देने की मानसिकता का घर घर में और विद्यालयों में संस्कार। इसके अनुरूप समाज में दान का वातावरण बनाए रखना। ऐआ वातावरण लोगों को दान के लिए प्रवृत्त करता है। तैत्तीरीय उपनिषद् में दान देने का आदेश और उपदेश है। कहा है – श्रद्धया देयम्, अश्रद्धया अदेयम्, श्रिया देयम्, भिया देयम्, संविदा देयम्। अर्थ अहै – श्रद्धा से दान दो, आर्थिक स्थिति के अनुसार दान दो, लज्जावश दान दो, विवेकपूर्वक दान दो। लेकिन दान देते रहो। इसी से अर्थ के अभाव और प्रभाव की स्थिति निर्माण नहीं हो पाती।
१६. स्त्रियों को अपने शील और शरीर को खतरे में डाले बिना ही अपने गुणों के विकास और उपयोग की दृष्टि से इससे अच्छा अन्य मार्ग नहीं है । अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देने की इससे अच्छी सुविधा अन्य अर्थव्यवस्थाओं में नहीं है । कुटुंब में रहने से स्त्री अपने बच्चों को ‘मातृवत् परदारेषु’ के संस्कार दे सकती है । संस्कारहीन पुरुषों की संख्या घट जाने से स्त्री जाति को संस्कारहीन पुरूषों के शोषण से मुक्त करने का इससे बेहतर अन्य विकल्प नहीं है ।
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# कौटुम्बिक उद्योगों के कारण कुटुंब भावना को बल मिलता है। इसी के विस्तार से ग्राम ग्रामकुल बन जाता है और वसुधा या विश्व वसुधैव कुटुम्बकम् बनता है। जैसी व्यवस्थाएँ और व्यवस्था ठीक से चलाने के लिए मानसिकता कुटुंब उद्योग में आवश्यक होती है वैसी ही मानसिकता राष्ट्रकुटुंब और वसुधैव कुटुम्बकम् के लिए आवश्यक होती हैं। कौटुम्बिक उद्योग इस तरह एक वैश्विकता की पाठशाला के रूप में काम करता है।
कौटुंबिक उद्योग : व्याख्या  
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# स्त्रियों को अपने शील और शरीर को खतरे में डाले बिना ही अपने गुणों के विकास और उपयोग की दृष्टि से इससे अच्छा अन्य मार्ग नहीं है। अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देने की इससे अच्छी सुविधा अन्य अर्थव्यवस्थाओं में नहीं है। कुटुंब में रहने से स्त्री अपने बच्चों को ‘मातृवत् परदारेषु’ के संस्कार दे सकती है। संस्कारहीन पुरुषों की संख्या घट जाने से स्त्री जाति को संस्कारहीन पुरूषों के शोषण से मुक्त करने का इससे बेहतर अन्य विकल्प नहीं है।
ग्राम के लोगों की किसी आवश्यकता की पूर्ती के लिए लोगों की माँग और रूचि के अनुसार कुटुंब के सदस्यों के साझे प्रयासोंद्वारा स्थानिक और निकटस्थ संसाधनों के माध्यम से उपयोगी उत्पाद के गुणवत्तापूर्ण निर्माण की रचना को कौटुम्बिक उद्योग कहते हैं ।
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कौटुम्बिक उद्योग की विशेषताएं  
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=== कौटुंबिक उद्योग : व्याख्या ===
क्षमताओंपर आधारित कर्तव्य और कर्तव्योंपर आधारित कार्यविभाजन ।
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ग्राम के लोगों की किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए लोगों की माँग और रूचि के अनुसार कुटुंब के सदस्यों के साझे प्रयासों द्वारा स्थानिक और निकटस्थ संसाधनों के माध्यम से उपयोगी उत्पाद के गुणवत्तापूर्ण निर्माण की रचना को कौटुम्बिक उद्योग कहते हैं।
आत्मीयतापर, सहानुभूतिपर आधारित परस्पर व्यवहार ।
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कच्चा माल / संसाधन : यथासंभव स्थानिक संसाधनों का उपयोग ।
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कौटुम्बिक उद्योग की विशेषताएं:
उत्पादन : सामान्यत: केवल आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए । इसके बाद में ही मनोरंजन या स्वान्त सुखाय के लिए ।
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* क्षमताओंपर आधारित कर्तव्य और कर्तव्यों पर आधारित कार्यविभाजन।
उत्पादन की मात्रा और प्रकार – माँग या आवश्यकता के अनुसार (उतनाही और उसी प्रकार का)
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* आत्मीयतापर, सहानुभूतिपर आधारित परस्पर व्यवहार।
कार्य विभाजन – उपलब्ध समय, हस्तगत कौशल और आवश्यक शारीरिक बल के आधारपर स्त्रियाँ, बच्चे, ज्येष्ठ लोग सभी के लिए काम करने के अवसर । बड़ों के अनुभवों का लाभ और छोटे बच्चों का शिक्षण और प्रशिक्षण ।
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* कच्चा माल / संसाधन : यथासंभव स्थानिक संसाधनों का उपयोग।
कुशलता/कौटुम्बिक योगदान का अभिमान/आनुवांशिकता से और सहनिवास से kushalataaकुशलता का अगली पीढी को अंतरण ।
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* उत्पादन : सामान्यत: केवल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए। इसके बाद में ही मनोरंजन या स्वान्त सुखाय के लिए।
अनुसंधान/ज्ञान, कौशल, आजीविका अर्जन ।
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* उत्पादन की मात्रा और प्रकार – माँग या आवश्यकता के अनुसार (उतना ही और उसी प्रकार का)
प्रकृति सुसंगतता : सभी प्रकार का कच्चा माल, उत्पादन की प्रक्रियाएँ, प्रत्यक्ष उत्पादन आदि सभी में यथासंभव पुनर्नवीकरणीय पदार्थों का उपयोग ।
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* कार्य विभाजन – उपलब्ध समय, हस्तगत कौशल और आवश्यक शारीरिक बल के आधार पर स्त्रियाँ, बच्चे, ज्येष्ठ लोग सभी के लिए काम करने के अवसर। बड़ों के अनुभवों का लाभ और छोटे बच्चों का शिक्षण और प्रशिक्षण।
विज्ञापन बाजी की गुन्जाइश न होने से लोगों को बेवकूफ बनाने की संभावनाएं नहीं । समाज द्वारा नियमित, नियंत्रित । लोगों की रूचि या पसंद और माँग के अनुसार उत्पादन होगा ।
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* कुशलता/कौटुम्बिक योगदान का अभिमान/आनुवांशिकता से और सहनिवास से कुशलता का अगली पीढी को अंतरण।
मालिकों की मानसिकता:आत्मविश्वासयुक्त, जिम्मेदार, मेहनती, चुनौतियोंपर मात करने की हिम्मत रखनेवाला मनुष्य ।
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* अनुसंधान/ज्ञान, कौशल, आजीविका अर्जन।
ग्राम स्तर आधारित नियोजन । परस्परावलंबनपर आधारित स्वावलंबी ग्राम का एक हिस्सा ।
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* प्रकृति सुसंगतता : सभी प्रकार का कच्चा माल, उत्पादन की प्रक्रियाएँ, प्रत्यक्ष उत्पादन आदि सभी में यथासंभव पुनर्नवीकरणीय पदार्थों का उपयोग।
बाजार/ग्राहक – भौगोलिक सीमा अतिरिक्त उत्पादन (मुख्यत: अन्न)  
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* विज्ञापन बाजी की गुन्जाइश न होने से लोगों को बेवकूफ बनाने की संभावनाएं नहीं। समाज द्वारा नियमित, नियंत्रित। लोगों की रूचि या पसंद और माँग के अनुसार उत्पादन होगा।
परिवर्तन की योजना  
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* मालिकों की मानसिकता:आत्मविश्वासयुक्त, जिम्मेदार, मेहनती, चुनौतियों पर मात करने की हिम्मत रखनेवाला मनुष्य।
लम्बी अवधी के लिए धैर्य की आवश्यकता – ३ पीढीयों की योजना
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* ग्राम स्तर आधारित नियोजन। परस्परावलंबनपर आधारित स्वावलंबी ग्राम का एक हिस्सा।
पहली पीढी में कुटुंब उद्योग का विवेकपूर्ण चयन और स्थापना । पहली पीढी के कुटुंब के मुखिया की सूझबूझ कुटुंब आधारित उद्योग के लिए जड़ की बात है । 
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* बाजार/ग्राहक – भौगोलिक सीमा
दूसरी पीढी में उद्योग का खडा और आडा विस्तार ।
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* अतिरिक्त उत्पादन (मुख्यत: अन्न)
तीसरी पीढी में कौटुम्बिक व्यवसाय की स्थिरता ।
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नीति : आज जो कर सकते हो कर डालो । अगले चरण के लिए परिस्थितियाँ निर्माण करो ।
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== परिवर्तन की योजना ==
लक्ष्यप्राप्तितक अविरत प्रयास करते रहो । अगली पीढी को अधिक श्रेष्ठ बनाने के प्रयास शुद्ध जीवात्मा के आवाहनसे आज से ही शुरू करो । बहू के रूप में बाहर से घर में आनेवाले व्यक्ति को और उसके परिवार को अच्छी तरह से जांच परखकर स्वीकार करना । इसी तरह जमाई बननेवाले व्यक्ति को और उसके परिवार को भी अच्छी तरह जांच परखकर ही सम्बन्ध जोड़ना उचित होगा । इन के कारण कुटुंब के परस्पर संबंधों में खटास न आ पाए, यह सुनिश्चित करना आवश्यक है ।
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गणितीय पहलू : रक्तसम्बन्धी लोगों की संख्या में वृद्धि और उन्हें उद्योग से जोड़ने के प्रयास करना । पहली और दूसरी  पीढी में जन्मे बच्चे कौटुम्बिक उद्योग को छोडें नहीं ऐसे संस्कार और वातावरण घर में रखना होगा । बाहर के वातावरण से उन्हें बचाना होगा । इसमें पति-पत्नि संबंधों की भारतीय दृष्टि से उन्हें अवगत और स्वीकृत कराना होगा ।
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=== लम्बी अवधि के लिए धैर्य की आवश्यकता – ३ पीढीयों की योजना ===
प्रक्रिया  
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* पहली पीढी में कुटुंब उद्योग का विवेकपूर्ण चयन और स्थापना। पहली पीढी के कुटुंब के मुखिया की सूझबूझ कुटुंब आधारित उद्योग के लिए जड़ की बात है।
कौटुम्बिक उद्योग के प्रयोग स्वावलंबी ग्राम के साथ करने से कठिनाइयाँ कम होंगीं । ऐसा करने से सफलता की संभावनाएं बढेंगी । इस का अधिक विवरण ग्रामकुल के अध्याय में हम देखेंगे । अभी यहाँ तो केवल कुटुम्ब आधारित उद्योग का विचार हम करेंगे । यह विचार शहर या ग्राम कहीं भी हो सकता है ।
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* दूसरी पीढी में उद्योग का खडा और आडा विस्तार।
१. विवेकपूर्ण उद्योग का चयन:  
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* तीसरी पीढी में कौटुम्बिक व्यवसाय की स्थिरता।
- उत्पादन की या आनुषंगिक उत्पादनों की माँग में निरंतर वृद्धि की संभावनाएं ।
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* नीति :  
- उत्पादन निर्माण और निवास के लिए भूमि की उपलब्धता  
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** आज जो कर सकते हो कर डालो। अगले चरण के लिए परिस्थितियाँ निर्माण करो।
२. कुटुंब का विस्तार और साथ में उद्योग का विस्तार/ कार्य विभाजन/ कुटुंब के सभी सदस्यों का सहयोग । कुटुंब का और उद्योग का दोनों का विस्तार साथ में हो । नए सदस्यों के जुड़ने से पहले उनके स्वभाव के अनुरूप काम का नियोजन करना होगा । इसी तरह उद्योग विस्तार के साथ निर्माण होनेवाले भिन्न प्रकार के कामों के लिए कुटुंब के सदस्य को पहले से ही तैयार करना । .
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** लक्ष्यप्राप्ति तक अविरत प्रयास करते रहो।
उपसंहार  
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** अगली पीढी को अधिक श्रेष्ठ बनाने के प्रयास शुद्ध जीवात्मा के आवाहन से आज से ही शुरू करो। बहू के रूप में बाहर से घर में आनेवाले व्यक्ति को और उसके परिवार को अच्छी तरह से जांच परखकर स्वीकार करना। इसी तरह जमाई बनने वाले व्यक्ति को और उसके परिवार को भी अच्छी तरह जांच परखकर ही सम्बन्ध जोड़ना उचित होगा। इन के कारण कुटुंब के परस्पर संबंधों में खटास न आ पाए, यह सुनिश्चित करना आवश्यक है।
पारिवारिक उद्योग आधारित समाजजीवन की प्रतिष्ठापना/जीवन के प्रतिमान में पारिवारिक उद्योगों की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है । आश्रम व्यवस्था भारतीय प्रतिमान के अनुसार जीनेवाले समाज की श्रेष्ठ पोषण व्यवस्था के लिए अनिवार्य बात होती है । और कौटुम्बिक उद्योग यह आश्रम व्यवस्था का अविभाज्य अंग है । इसा तरह जीवन के भारतीय प्रतिमान और कौटुम्बिक उद्योगों का अन्योन्याश्रित संबंध होता है ।
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* गणितीय पहलू : रक्तसम्बन्धी लोगों की संख्या में वृद्धि और उन्हें उद्योग से जोड़ने के प्रयास करना। पहली और दूसरी  पीढी में जन्मे बच्चे कौटुम्बिक उद्योग को छोडें नहीं ऐसे संस्कार और वातावरण घर में रखना होगा। बाहर के वातावरण से उन्हें बचाना होगा। इसमें पति-पत्नि संबंधों की भारतीय दृष्टि से उन्हें अवगत और स्वीकृत कराना होगा।
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=== प्रक्रिया ===
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कौटुम्बिक उद्योग के प्रयोग स्वावलंबी ग्राम के साथ करने से कठिनाइयाँ कम होंगीं। ऐसा करने से सफलता की संभावनाएं बढेंगी। इस का अधिक विवरण [[Grama Kul (ग्रामकुल)|ग्रामकुल]] अध्याय में देखें। अभी यहाँ तो केवल कुटुम्ब आधारित उद्योग का विचार हम करेंगे। यह विचार शहर या ग्राम कहीं भी हो सकता है।
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# विवेकपूर्ण उद्योग का चयन:  
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## उत्पादन की या आनुषंगिक उत्पादनों की माँग में निरंतर वृद्धि की संभावनाएं।
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## उत्पादन निर्माण और निवास के लिए भूमि की उपलब्धता  
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# कुटुंब का विस्तार और साथ में उद्योग का विस्तार/ कार्य विभाजन/ कुटुंब के सभी सदस्यों का सहयोग।
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## कुटुंब का और उद्योग का दोनों का विस्तार साथ में हो। नए सदस्यों के जुड़ने से पहले उनके स्वभाव के अनुरूप काम का नियोजन करना होगा। इसी तरह उद्योग विस्तार के साथ निर्माण होनेवाले भिन्न प्रकार के कामों के लिए कुटुंब के सदस्य को पहले से ही तैयार करना।
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== उपसंहार ==
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पारिवारिक उद्योग आधारित समाजजीवन की प्रतिष्ठापना/जीवन के प्रतिमान में पारिवारिक उद्योगों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। आश्रम व्यवस्था भारतीय प्रतिमान के अनुसार जीनेवाले समाज की श्रेष्ठ पोषण व्यवस्था के लिए अनिवार्य बात होती है। और कौटुम्बिक उद्योग यह आश्रम व्यवस्था का अविभाज्य अंग है। इसा तरह जीवन के भारतीय प्रतिमान और कौटुम्बिक उद्योगों का अन्योन्याश्रित संबंध होता है।
    
==References==
 
==References==
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