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# बच्चे को जन्म देने का काम स्त्री और पुरुष दोनों करते हैं । लेकिन नवजात शिशू के साथ पुरुष और स्त्री के संबंधों में स्वाभाविक भिन्नता होती है । नवजात शिशू को स्त्री अपनी कोख में ९ महीने पालती है । गर्भस्थ बच्चे की रक्षा के लिए जागरुक रहती है । हर संभव प्रयास से उसे सुरक्षा देती है । बच्चा भी ९ महीने माता के उदर में रहता है । माता की साँस के माध्यम से साँस लेता है । माता के अन्न खाने से पोषित होता है । माता की भाव भावनाओं से प्रभावित होता है । इन ९ महीनों में पुरुष की या पिता की भूमिका दुय्यम और माता की भूमिका अहम् होती है ।
 
# बच्चे को जन्म देने का काम स्त्री और पुरुष दोनों करते हैं । लेकिन नवजात शिशू के साथ पुरुष और स्त्री के संबंधों में स्वाभाविक भिन्नता होती है । नवजात शिशू को स्त्री अपनी कोख में ९ महीने पालती है । गर्भस्थ बच्चे की रक्षा के लिए जागरुक रहती है । हर संभव प्रयास से उसे सुरक्षा देती है । बच्चा भी ९ महीने माता के उदर में रहता है । माता की साँस के माध्यम से साँस लेता है । माता के अन्न खाने से पोषित होता है । माता की भाव भावनाओं से प्रभावित होता है । इन ९ महीनों में पुरुष की या पिता की भूमिका दुय्यम और माता की भूमिका अहम् होती है ।
 
# यह सामान्य ज्ञान की बात है कि जिसका अन्न खाओगे उसकी चाकरी करोगे । यह सामान्य नियम है । बच्चे को भी लागु होता है । माता के दूध पिलाए बिना वह जी नहीं सकता । माता ही उसका जीवन है । इतना तो वह बच्चा भी समझता है । यह प्रकृति-प्रदत्त ऐसी स्थिति है । इसलिए माता का प्रभाव बच्चे पर अन्य किसी यानि पिता से भी अधिक होगा यह स्वाभाविक है । शिशु से पिता की पहचान भी तो माता ही कराती है।
 
# यह सामान्य ज्ञान की बात है कि जिसका अन्न खाओगे उसकी चाकरी करोगे । यह सामान्य नियम है । बच्चे को भी लागु होता है । माता के दूध पिलाए बिना वह जी नहीं सकता । माता ही उसका जीवन है । इतना तो वह बच्चा भी समझता है । यह प्रकृति-प्रदत्त ऐसी स्थिति है । इसलिए माता का प्रभाव बच्चे पर अन्य किसी यानि पिता से भी अधिक होगा यह स्वाभाविक है । शिशु से पिता की पहचान भी तो माता ही कराती है।
# विवाह के समय पुरुष की आयु स्त्री से अधिक रखने के कई कारण हैं । स्त्री यानि लड़की आयु की अवस्था की दृष्टि से यौन संबंधों के सन्दर्भ में जल्दी सज्ञान बनती है । सामान्यत: ११ से १४ वर्ष की आयु में लड़कियाँ यौन आकर्षण का अनुभव करने लग जाती हैं । संपर्क में आनेवाले हर पुरुष के प्रति आकर्षण अनुभव करने लग जाती है । उनका चिन्तन करने लग जाती हैं । पुरुष यानि लडके १४ – १६ वर्ष की आयु में सज्ञान होते हैं । इसी प्रकार से प्रसूतियों के कारण स्त्री के शरीर में जो कुछ कमी निर्माण हो जाती है उसका भी विचार किया गया है । पिछली सदी में बच्चे अधिक संख्या में पैदा होते थे । इसलिए पुरुष से स्त्री विवाह के समय ८-१० वर्ष कम आयु की हुआ करती थी । हम दो हमारे दो के काल में यह अंतर ४-५ वर्ष तक कम हो जाना स्वाभाविक ही है । इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर विवाह के समय पुरुष और स्त्री की आयु में अंतर रखा जाता है । स्त्री कम आयु की होती है । ऐसा करने के पीछे दोनों का सहजीवन और जीवन भी लगभग साथ में समाप्त हो ऐसा विचार होता है । साथी के बिना जीवन बिताने का समय न्यूनतम हो यही विवाह के समय स्त्री और पुरुष की आयु में अंतर रखने के पीछे भूमिका होती है । तीसरा कारण आयु अधिक होने से पत्नि के रक्षण की दृष्टि से पति को अधिक अनुभव रहे इससे भी है ।
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# विवाह के समय पुरुष की आयु स्त्री से अधिक रखने के कई कारण हैं । स्त्री यानि लड़की आयु की अवस्था की दृष्टि से यौन संबंधों के सन्दर्भ में जल्दी सज्ञान बनती है । सामान्यत: ११ से १४ वर्ष की आयु में लड़कियाँ यौन आकर्षण का अनुभव करने लग जाती हैं । संपर्क में आनेवाले हर पुरुष के प्रति आकर्षण अनुभव करने लग जाती है । उनका चिन्तन करने लग जाती हैं । पुरुष यानि लडके १४ – १६ वर्ष की आयु में सज्ञान होते हैं । इसी प्रकार से प्रसूतियों के कारण स्त्री के शरीर में जो कुछ कमी निर्माण हो जाती है उसका भी विचार किया गया है । पिछली सदी में बच्चे अधिक संख्या में पैदा होते थे । इसलिए पुरुष से स्त्री विवाह के समय ८-१० वर्ष कम आयु की हुआ करती थी । हम दो हमारे दो के काल में यह अंतर ४-५ वर्ष तक कम हो जाना स्वाभाविक ही है । इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर विवाह के समय पुरुष और स्त्री की आयु में अंतर रखा जाता है । स्त्री कम आयु की होती है । ऐसा करने के पीछे दोनों का सहजीवन और जीवन भी लगभग साथ में समाप्त हो ऐसा विचार होता है । साथी के बिना जीवन बिताने का समय न्यूनतम हो यही विवाह के समय स्त्री और पुरुष की आयु में अंतर रखने के पीछे भूमिका होती है । तीसरा कारण आयु अधिक होने से पत्नी के रक्षण की दृष्टि से पति को अधिक अनुभव रहे इससे भी है ।
# भारतीय समाज में असंस्कृत घरों में स्त्री को जो दुय्यम स्थिति प्राप्त हुई है इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं । पहला कारण बौद्ध कालीन है । आदि शंकराचार्य के समयतक भारत में बौद्ध मत अत्यंत प्रभावी बन गया था । राजाओं के आश्रय के कारण और मुक्त यौन संबंधों के कारण बौद्ध विहार व्यभिचार के अड्डे बन गए थे । यौन आकर्षण के कारण जवान लड़कियाँ संघों में शरण ले लेतीं थीं । एक  बार संघ में शरण ले लेने के बाद उसे वहाँ से वापस लाना लगभग असंभव होता था । इसलिए लड़कियों के माता पिता लड़की के सज्ञान होने से पहले ही अपनी बेटियों के विवाह करा देते थे । इसलिए बाल विवाह की प्रथा चल पड़ी थी । स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय समाज का इस काल में बहुत नुकसान हुआ । फिर हुए बर्बर मुस्लिम आक्रमण । ये आक्रमणकारी शत्रू की स्त्रियों पर बलात्कार, अत्याचार करना अपने मजहब के अनुसार उचित मानते थे । लड़कियों, स्त्रियों को भगाकर ले जाना, दासी बनाना, रखेली बनाना, गुलाम बनाना, बेचना ये सब बातें इनके लिए मजहबी दृष्टि से आवश्यक थीं । प्रत्यक्ष शिवाजी महाराज की चाची को मुसलमान भगा ले गए थे । उसे शिवाजी के पिता शाहजी जैसा उस समय का एक जबरदस्त कद्दावर सेनापति भी वापस नहीं ला सका था । ऐसी परिस्थिति में स्त्री का घर से बाहर निकलना ही बंद हो गया । इसके परिणामस्वरूप भी स्त्री शिक्षा की अपार हानि हुई । अन्यथा शंकराचार्य के काल तक तो मंडन मिश्र की पत्नि भारती जैसी विदुषियों की भारत में उपलब्धता थी ।
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# भारतीय समाज में असंस्कृत घरों में स्त्री को जो दुय्यम स्थिति प्राप्त हुई है इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं । पहला कारण बौद्ध कालीन है । आदि शंकराचार्य के समयतक भारत में बौद्ध मत अत्यंत प्रभावी बन गया था । राजाओं के आश्रय के कारण और मुक्त यौन संबंधों के कारण बौद्ध विहार व्यभिचार के अड्डे बन गए थे । यौन आकर्षण के कारण जवान लड़कियाँ संघों में शरण ले लेतीं थीं । एक  बार संघ में शरण ले लेने के बाद उसे वहाँ से वापस लाना लगभग असंभव होता था । इसलिए लड़कियों के माता पिता लड़की के सज्ञान होने से पहले ही अपनी बेटियों के विवाह करा देते थे । इसलिए बाल विवाह की प्रथा चल पड़ी थी । स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय समाज का इस काल में बहुत नुकसान हुआ । फिर हुए बर्बर मुस्लिम आक्रमण । ये आक्रमणकारी शत्रू की स्त्रियों पर बलात्कार, अत्याचार करना अपने मजहब के अनुसार उचित मानते थे । लड़कियों, स्त्रियों को भगाकर ले जाना, दासी बनाना, रखेली बनाना, गुलाम बनाना, बेचना ये सब बातें इनके लिए मजहबी दृष्टि से आवश्यक थीं । प्रत्यक्ष शिवाजी महाराज की चाची को मुसलमान भगा ले गए थे । उसे शिवाजी के पिता शाहजी जैसा उस समय का एक जबरदस्त कद्दावर सेनापति भी वापस नहीं ला सका था । ऐसी परिस्थिति में स्त्री का घर से बाहर निकलना ही बंद हो गया । इसके परिणामस्वरूप भी स्त्री शिक्षा की अपार हानि हुई । अन्यथा शंकराचार्य के काल तक तो मंडन मिश्र की पत्नी भारती जैसी विदुषियों की भारत में उपलब्धता थी ।
 
# अब स्त्रियों को शिक्षा के द्वार खुल गए हैं । लेकिन विडम्बना यह है कि मिलने वाली शिक्षा विपरीत शिक्षा है । गुलामी की शिक्षा है । स्त्री को परायों के पास जाने को बाध्य करनेवाली और उनको नौकर बनानेवाली शिक्षा है । असंस्कृत समाज निर्माण करनेवाली शिक्षा है । स्त्री को बरगलाने वाली शिक्षा है । संस्कारों का काम सरकार डंडे की मदद से करे ऐसी अपेक्षा समाज में निर्माण करनेवाली शिक्षा है । स्त्री-मुक्ति के नाम पर स्त्री का शोषण करने के लिये स्त्री को भोग वस्तु बनानेवाली शिक्षा है । स्त्री को अरक्षित करनेवाले अर्थशास्त्र को सिखाने वाली शिक्षा है । पारिवारिक सुरक्षा कवच को तोड़ने की स्त्री को प्रेरणा देनेवाली शिक्षा है । केवल स्त्री ही नहीं तो पुरुषों को भी कर्तव्यों के स्थानपर अधिकारों के लिए झगडा करने को प्रेरित करने वाली शिक्षा है। अपनी सुरक्षा, अपना स्वार्थ किस में है इसका विवेक नष्ट करनेवाली शिक्षा है।
 
# अब स्त्रियों को शिक्षा के द्वार खुल गए हैं । लेकिन विडम्बना यह है कि मिलने वाली शिक्षा विपरीत शिक्षा है । गुलामी की शिक्षा है । स्त्री को परायों के पास जाने को बाध्य करनेवाली और उनको नौकर बनानेवाली शिक्षा है । असंस्कृत समाज निर्माण करनेवाली शिक्षा है । स्त्री को बरगलाने वाली शिक्षा है । संस्कारों का काम सरकार डंडे की मदद से करे ऐसी अपेक्षा समाज में निर्माण करनेवाली शिक्षा है । स्त्री-मुक्ति के नाम पर स्त्री का शोषण करने के लिये स्त्री को भोग वस्तु बनानेवाली शिक्षा है । स्त्री को अरक्षित करनेवाले अर्थशास्त्र को सिखाने वाली शिक्षा है । पारिवारिक सुरक्षा कवच को तोड़ने की स्त्री को प्रेरणा देनेवाली शिक्षा है । केवल स्त्री ही नहीं तो पुरुषों को भी कर्तव्यों के स्थानपर अधिकारों के लिए झगडा करने को प्रेरित करने वाली शिक्षा है। अपनी सुरक्षा, अपना स्वार्थ किस में है इसका विवेक नष्ट करनेवाली शिक्षा है।
 
# स्वामी विवेकानंद कहते थे कि उनकी माता और पिता ने अच्छे बच्चे की प्राप्ति के लिए बहुत तप किया था । उनके काल में कई घरों में माता पिता श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए ऐसा तप करते थे । अब हालत यह है कि सामान्यत: बच्चे अपघात से पैदा हो रहे हैं । माता पिता का परिवार नियोजन चल रहा होता है । बच्चे की कोई चाहत होती नहीं है । लेकिन प्रकृति काम करती रहती है । किसी असावधानी के क्षण के कारण गर्भ ठहर जाता है । ऐसे माता पिताओं से और उनके द्वारा अपघात से पैदा हुए बच्चों से संस्कारों की अपेक्षा करना व्यर्थ है ।
 
# स्वामी विवेकानंद कहते थे कि उनकी माता और पिता ने अच्छे बच्चे की प्राप्ति के लिए बहुत तप किया था । उनके काल में कई घरों में माता पिता श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए ऐसा तप करते थे । अब हालत यह है कि सामान्यत: बच्चे अपघात से पैदा हो रहे हैं । माता पिता का परिवार नियोजन चल रहा होता है । बच्चे की कोई चाहत होती नहीं है । लेकिन प्रकृति काम करती रहती है । किसी असावधानी के क्षण के कारण गर्भ ठहर जाता है । ऐसे माता पिताओं से और उनके द्वारा अपघात से पैदा हुए बच्चों से संस्कारों की अपेक्षा करना व्यर्थ है ।
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== समस्या के मूल ==
 
== समस्या के मूल ==
सर्व प्रथम यह समस्या जिन कारणों से निर्माण हुई है उनका हम उनकी व्यापकता के स्तर के अनुसार विचार करेंगे
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सर्व प्रथम यह समस्या जिन कारणों से निर्माण हुई है उनका हम उनकी व्यापकता के स्तर के अनुसार विचार करेंगे:
१.  पारिवारिक भावनापर आधारित जीवन के प्रतिमान के स्थानपर व्यक्तिवादिता, इहवादिता और जडवादिता की जीवनदृष्टिपर पर आधारित जीवन के प्रतिमान का स्वीकार : जीवन के प्रतिमान से परे समाज जीवन और व्यक्ति के जीवन का कोई पहलू नहीं होता । व्यक्तिवादिता का अर्थ है स्वार्थभाव । सारी सृष्टि मेरे उपभोग के लिए बनीं है ऐसी भावना लोगों में निर्माण होती है । स्वार्थ भावना वाले समाज में बलवानों की ही चलती है । शारीरिक दृष्टि से स्त्री दुर्बल होने से उसका शोषण, उस पर अत्याचार होना स्वाभाविक ही है । इहवादिता की भावना के कारण कर्मसिद्धांत के ऊपर विश्वास नहीं होता । इस जन्म में नहीं तो अगले किसी जन्म में इस अत्याचार के परिणाम मुझे भोगने ही होंगे, ऐसी मान्यता नहीं होती । फलस्वरूप जहाँ कहीं अत्याचार कर छुट जाने की संभावनाएं होंगी वहाँ पुरुष अत्याचार कर गुजरता है । जडवादिता में मनुष्य को मात्र एक रासायनिक प्रक्रिया मान लेने से अत्याचार के कारण पीड़ित को होनेवाले क्लेश, दुख:, पीड़ा आदि की सह-अनुभूति होती ही नहीं है । लगभग पूरा समाज ही इस घटिया प्रतिमान में जी रहा होने के कारण समाज के अन्य घटकों की संवेदनशीलता भी कम ही होती है । महिलाएँ भी एक मोमबत्ती मोर्चा निकालकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा हुआ मान लेतीं हैं ।
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# पारिवारिक भावना पर आधारित जीवन के प्रतिमान के स्थान पर व्यक्तिवादिता, इहवादिता और जडवादिता की जीवन दृष्टिपर पर आधारित जीवन के प्रतिमान का स्वीकार : जीवन के प्रतिमान से परे समाज जीवन और व्यक्ति के जीवन का कोई पहलू नहीं होता।
२.  वर्तमान लोकतंत्र : वर्तमान लोकतंत्र भी सामाजिकता को विघटित कर हर व्यक्ति को एक अलग इन्डिव्हीज्युअल पर्सन (समाज का अन्यों से कटा हुआ घटक) बना देता है । इससे एक ओर तो स्त्री अपने को शारीरिक दृष्टि से बराबर की नहीं होनेपर भी पुरुषों के बराबरी की समझने लग जाती है और अपने को खतरनाक स्थिति में झोंक देती है । तो दूसरी ओर अत्याचारी पुरुष को भी अत्याचार का अवसर मिल जाता है । जब अत्याचार का प्रसंग आता है तब कहीं स्त्री को यह भान होता है की वह पुरुष नहीं है, वह एक स्त्री है । वर्तमान लोकतंत्र के कारण और जीवन के अभारतीय प्रतिमान के कारण भी समाज में अमर्याद स्वतंत्रता का पुरस्कार होता है । अपने अधिकारों की गुहार लगाई जाती है । अपने लिए तो सभी प्रकार की स्वतंत्रता का अधिकार माना जाता है लेकिन औरों के कर्तव्यों तथा औरों की सुसंस्कृतता के ऊपर प्रश्नचिन्ह खड़े किये जाते हैं । एक बार चुनाव में व्होट डाल दिया की फिर अपनी अब कोई जिम्मेदारी नहीं है ऐसा सब मानते हैं । परिवारों को, माता पिताओं को, शिक्षकों को अब कुछ करने की आवश्यकता नहीं है । सरकार ही सब कुछ करेगी ऐसी भावना समाज में व्याप्त हो जाती है । सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक समस्या का हल शासकीय दंड व्यवस्था में ढूंढा जाता है ।
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## व्यक्तिवादिता का अर्थ है स्वार्थ भाव । सारी सृष्टि मेरे उपभोग के लिए बनीं है ऐसी भावना लोगों में निर्माण होती है । स्वार्थ भावना वाले समाज में बलवानों की ही चलती है । शारीरिक दृष्टि से स्त्री दुर्बल होने से उसका शोषण, उस पर अत्याचार होना स्वाभाविक ही है ।
३.  विपरीत शिक्षा : विपरीत शिक्षा भी उपर्युक्त अभारतीय प्रतिमान और घटिया लोकतंत्र का पृष्ठपोषण ही करती है । यह शिक्षा मनुष्य को अधिकारों के प्रति एकदम सचेत कर देती है । यह बड़ा सरल होता है । स्वार्थ का व्यवहार सिखाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती । यह तो जन्मजात भावना होती है । बच्चा तो जन्म से ही अपने अधिकारों को ही समझता है । अधिकारों के लिए लड़ना, रोना, चिल्लाना उसे सिखाना नहीं पड़ता । लेकिन कर्तव्यों के प्रति सचेत बनने के लिए बहुत श्रेष्ठ शिक्षा की आवश्यकता होती है । वर्तमान शिक्षा इस दृष्टि से केवल अक्षम ही नहीं विपरीत दिशा में ले जानेवाली है ।    
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## इहवादिता की भावना के कारण कर्मसिद्धांत के ऊपर विश्वास नहीं होता । इस जन्म में नहीं तो अगले किसी जन्म में इस अत्याचार के परिणाम मुझे भोगने ही होंगे, ऐसी मान्यता नहीं होती । फलस्वरूप जहाँ कहीं अत्याचार कर छूट जाने की संभावनाएं होंगी वहाँ पुरुष अत्याचार कर गुजरता है ।  
४.  परिवारों से पारिवारिक भावना और परिवार तत्व का नष्ट हो जाना : वर्तमान में परिवार रचना तेजी से टूट रही है । परिवारों की ‘फैमिली’ बन गई है । माता, पिता और उनके ऊपर निर्भर संतानें इतने सदस्यों तक ही फैमिली मर्यादित होती है । फिर आजकल विवाह भी समझौता (कोन्ट्रेक्ट) होता है । करार होता है । समझौता या करार यह दो लोगों ने अपने अपने स्वार्थ के लिए आपस में किया हुआ शर्तों का सूचि पत्र होता है । अपने अपने स्वार्थों के लिए, मुख्यत: अपनी यौवन सुलभ इच्छाओं की या वासना की पूर्ति के लिए जो स्त्री पुरुष साथ में रहते हें उनसे बच्चों को संस्कारित करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती । वे तो बच्चों को स्वार्थ ही सिखाएँगे । अधिकारों के लिए कैसे लड़ना यही सिखाएँगे ।      
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## जडवादिता में मनुष्य को मात्र एक रासायनिक प्रक्रिया मान लेने से अत्याचार के कारण पीड़ित को होनेवाले क्लेश, दुख:, पीड़ा आदि की सह-अनुभूति होती ही नहीं है । लगभग पूरा समाज ही इस घटिया प्रतिमान में जी रहा होने के कारण समाज के अन्य घटकों की संवेदनशीलता भी कम ही होती है । महिलाएँ भी एक मोमबत्ती मोर्चा निकालकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा हुआ मान लेतीं हैं ।
परिवार व्यवस्था का निर्माण ही वास्तव में केवल अधिकारों की समझ लेकर जन्म लिए हुए बच्चे को केवल कर्तव्यों के लिये जीनेवाला मनुष्य बनाने के लिए किया गया है । घर के मुखिया के केवल कर्तव्य होते हैं । कोई अधिकार नहीं होते । इसी कारण ऐसा कहा जाता है की परिवार यह सामाजिकता की पाठशाला होती है । सामाजिकता का आधार अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारोंपर बल देने की मानसिकता यही होता है ।
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# वर्तमान लोकतंत्र : वर्तमान लोकतंत्र भी सामाजिकता को विघटित कर हर व्यक्ति को एक अलग इन्डिव्हीज्युअल पर्सन (समाज का अन्यों से कटा हुआ घटक) बना देता है । इससे एक ओर तो स्त्री अपने को शारीरिक दृष्टि से बराबर की नहीं होने पर भी पुरुषों के बराबरी की समझने लग जाती है और अपने को खतरनाक स्थिति में झोंक देती है । तो दूसरी ओर अत्याचारी पुरुष को भी अत्याचार का अवसर मिल जाता है । जब अत्याचार का प्रसंग आता है तब कहीं स्त्री को यह भान होता है की वह पुरुष नहीं है, वह एक स्त्री है । वर्तमान लोकतंत्र के कारण और जीवन के अभारतीय प्रतिमान के कारण भी समाज में अमर्याद स्वतंत्रता का पुरस्कार होता है । अपने अधिकारों की गुहार लगाई जाती है । अपने लिए तो सभी प्रकार की स्वतंत्रता का अधिकार माना जाता है लेकिन औरों के कर्तव्यों तथा औरों की सुसंस्कृतता के ऊपर प्रश्नचिन्ह खड़े किये जाते हैं । एक बार चुनाव में व्होट डाल दिया कि फिर अपनी अब कोई जिम्मेदारी नहीं है ऐसा सब मानते हैं । परिवारों को, माता पिताओं को, शिक्षकों को अब कुछ करने की आवश्यकता नहीं है । सरकार ही सब कुछ करेगी ऐसी भावना समाज में व्याप्त हो जाती है । सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक समस्या का हल शासकीय दंड व्यवस्था में ढूंढा जाता है ।
५. माताओं में गुरुत्व का अभाव : माँ के जने बिना कोई बच्चा जन्म नहीं लेता । बच्चे का पोषण माता ही करती है । जिसने जन्म दिया है और जो पोषण करती है उसके प्रति कृतज्ञता की भावना होना मानवता का लक्षण है । ऐसा होने के उपरांत भी बच्चे बिगड़ रहे हैं । स्त्रियोंपर अत्याचार कर रहे हैं । अभारतीय समाजों में शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालयीन शिक्षा होता है । भारतीय माताएं भी ऐसा ही मानने लगीं हैं । वास्तव में बच्चे की ७५ – ८० % घडन तो घर-परिवार में ही होती है ।  
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# विपरीत शिक्षा : विपरीत शिक्षा भी उपर्युक्त अभारतीय प्रतिमान और घटिया लोकतंत्र का पृष्ठपोषण ही करती है । यह शिक्षा मनुष्य को अधिकारों के प्रति एकदम सचेत कर देती है । यह बड़ा सरल होता है । स्वार्थ का व्यवहार सिखाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती । यह तो जन्मजात भावना होती है । बच्चा तो जन्म से ही अपने अधिकारों को ही समझता है । अधिकारों के लिए लड़ना, रोना, चिल्लाना उसे सिखाना नहीं पड़ता । लेकिन कर्तव्यों के प्रति सचेत बनने के लिए बहुत श्रेष्ठ शिक्षा की आवश्यकता होती है । वर्तमान शिक्षा इस दृष्टि से केवल अक्षम ही नहीं विपरीत दिशा में ले जानेवाली है ।
श्रेष्ठ मानव निर्माण के लिए दो बातें आवश्यक होतीं हैं । पहली बात है बीज का शुद्ध होना । दूसरी बात है संस्कार और शिक्षा । बीज में खोट होने से संस्कार और शिक्षा कितने भी श्रेष्ठ हों मायने नहीं रखते । संस्कार और शिक्षा भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं । बीज को बंजर जमींन में फ़ेंक देने से कितना भी श्रेष्ठ बीज हो वह नष्ट हो जाता है । तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ बीज को जन्म देने का ५० % और श्रेष्ठ संस्कार देने का २५ % काम भी परिवार में ही होता है । शिक्षा की जिम्मेदारी तो बचे हुए महज २५ % की होती है । इसका अर्थ है की श्रेष्ठ मानव निर्माण की मुख्य जिम्मेदारी परिवार की यानि माता और पिता की होती है ।  
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# परिवारों से पारिवारिक भावना और परिवार तत्व का नष्ट हो जाना : वर्तमान में परिवार रचना तेजी से टूट रही है । परिवारों की ‘फैमिली’ बन गई है । माता, पिता और उनके ऊपर निर्भर संतानें इतने सदस्यों तक ही फैमिली मर्यादित होती है । फिर आजकल विवाह भी समझौता (कोन्ट्रेक्ट) होता है । करार होता है । समझौता या करार यह दो लोगों ने अपने अपने स्वार्थ के लिए आपस में किया हुआ शर्तों का सूचीपत्र होता है । अपने अपने स्वार्थों के लिए, मुख्यत: अपनी यौवन सुलभ इच्छाओं की या वासना की पूर्ति के लिए जो स्त्री पुरुष साथ में रहते हें उनसे बच्चों को संस्कारित करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती । वे तो बच्चों को स्वार्थ ही सिखाएँगे । अधिकारों के लिए कैसे लड़ना यही सिखाएँगे । परिवार व्यवस्था का निर्माण ही वास्तव में केवल अधिकारों की समझ लेकर जन्म लिए हुए बच्चे को केवल कर्तव्यों के लिये जीने वाला मनुष्य बनाने के लिए किया गया है । घर के मुखिया के केवल कर्तव्य होते हैं । कोई अधिकार नहीं होते । इसी कारण ऐसा कहा जाता है की परिवार यह सामाजिकता की पाठशाला होती है । सामाजिकता का आधार अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारों पर बल देने की मानसिकता यही होता है ।
भारतीय शैक्षिक चिंतन के अनुसार कहा गया है – माता प्रथमो गुरु: पिता द्वितीयो । अर्थ है श्रेष्ठ मानव निर्माण की जिम्मेदारी माता और पिता की साझी होती है । लेकिन उन में भी माता की जिम्मेदारी प्राथमिक और अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है । बच्चे पर किये जानेवाले या होनेवाले गर्भपुर्व और गर्भसंस्कार मुख्यत: माता के माध्यम से और माता चाहे तो ही होते हैं । इनमें पिता की भूमिका तो दुय्यम ही हो सकती है । सहयोगी की ही हो सकती है । ऐसी परिस्थिती में बच्चा यदि बिगड़ता है तो जिम्मेदारी पिता की तो है ही लेकिन यह जिम्मेदारी प्राथमिकता से माता की ही होगी ।  
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# माताओं में गुरुत्व का अभाव : माँ के जने बिना कोई बच्चा जन्म नहीं लेता । बच्चे का पोषण माता ही करती है । जिसने जन्म दिया है और जो पोषण करती है उसके प्रति कृतज्ञता की भावना होना मानवता का लक्षण है । ऐसा होने के उपरांत भी बच्चे बिगड़ रहे हैं । स्त्रियों पर अत्याचार कर रहे हैं । अभारतीय समाजों में शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालयीन शिक्षा होता है । भारतीय माताएं भी ऐसा ही मानने लगीं हैं । वास्तव में बच्चे की ७५ – ८० % घडन तो घर-परिवार में ही होती है ।  
इसलिए इसे सुधारने के लिए किसी एक बिंदु से नहीं तो सभी बिन्दुओं को लेकर एकसाथ पहल करने की आवश्यकता है । लेकिन स्त्री की सुरक्षा की दृष्टि से इन सभी बिन्दुओं में सुधार होनेतक नहीं रुका जा सकता । जीवन का पूरा प्रतिमान, लोकतंत्र, विपरीत शिक्षा, परिवारों का सुदृढीकरण आदि सभी में पुरे समाज की यानि स्त्री और पुरुष दोनों की पहल और सहयोग आवश्यक है । जब की माता प्रथमो गुरु: में केवल स्त्री की पहल और सक्रियता की आवश्यकता है ।  
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श्रेष्ठ मानव निर्माण के लिए दो बातें आवश्यक होतीं हैं । पहली बात है बीज का शुद्ध होना । दूसरी बात है संस्कार और शिक्षा । बीज में खोट होने से संस्कार और शिक्षा कितने भी श्रेष्ठ हों मायने नहीं रखते । संस्कार और शिक्षा भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं । बीज को बंजर जमींन में फ़ेंक देने से कितना भी श्रेष्ठ बीज हो वह नष्ट हो जाता है । तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ बीज को जन्म देने का ५० % और श्रेष्ठ संस्कार देने का २५ % काम भी परिवार में ही होता है । शिक्षा की जिम्मेदारी तो बचे हुए महज २५ % की होती है । इसका अर्थ है कि श्रेष्ठ मानव निर्माण की मुख्य जिम्मेदारी परिवार की यानि माता और पिता की होती है ।  
बर्बर आक्रमण, गुलामी और वर्तमान जीवन के अभारतीय प्रतिमान के कारण तथा गत १० पीढ़ियों से चल रही विपरीत शिक्षा के कारण श्रेष्ठ संतान कैसे निर्माण की जाती है यह बात वर्तमान में स्त्री भूल गई है । वर्तमान में स्त्रियों की स्थिति को सुधारने कि दृष्टि से स्त्रियों के लिए माता प्रथमो गुरु: का अर्थ समझ लेना हितकारी है ।      
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माता प्रथमो गुरु: पिता द्वितीयो
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भारतीय शैक्षिक चिंतन के अनुसार कहा गया है – माता प्रथमो गुरु: पिता द्वितीयो । अर्थ है श्रेष्ठ मानव निर्माण की जिम्मेदारी माता और पिता की साझी होती है । लेकिन उन में भी माता की जिम्मेदारी प्राथमिक और अत्यंत महत्वपूर्ण होती है । बच्चे पर किये जाने वाले या होने वाले गर्भपूर्व और गर्भसंस्कार मुख्यत: माता के माध्यम से और माता चाहे तो ही होते हैं । इनमें पिता की भूमिका तो दुय्यम ही हो सकती है । सहयोगी की ही हो सकती है । ऐसी परिस्थिति में बच्चा यदि बिगड़ता है तो जिम्मेदारी पिता की तो है ही लेकिन यह जिम्मेदारी प्राथमिकता से माता की ही होगी । इसलिए इसे सुधारने के लिए किसी एक बिंदु से नहीं तो सभी बिन्दुओं को लेकर एक साथ पहल करने की आवश्यकता है । लेकिन स्त्री की सुरक्षा की दृष्टि से इन सभी बिन्दुओं में सुधार होने तक नहीं रुका जा सकता । जीवन का पूरा प्रतिमान, लोकतंत्र, विपरीत शिक्षा, परिवारों का सुदृढीकरण आदि सभी में पूरे समाज की यानि स्त्री और पुरुष दोनों की पहल और सहयोग आवश्यक है । जब कि माता प्रथमो गुरु: में केवल स्त्री की पहल और सक्रियता की आवश्यकता है ।  
१. गर्भपूर्व संस्कार : माता प्रथमो गुरु: बनने की तैयारी तो गर्भ धारणा से बहुत पहले से शुरू करनी होती है । वैसे तो यह तैयारी बाल्यावस्था में और कौमार्यावस्था में माँ कराए यह आवश्यक है । लेकिन जिन लड़कियों के बारे में उनकी माँ ने ऐसी तैयारी नहीं कराई है उन्हें अपने से ही और वह विवाहपूर्व जिस भी आयु की अवस्था में है उस  अवस्था से इसे करना होगा । संयुक्त परिवारों में ज्येष्ठ और अनुभवी महिला इसमें बालिकाओं और युवतियों का मार्गदर्शन किया करती थीं । विभक्त परिवारों में तो यह जिम्मेदारी माता की ही है । इसमें निम्न बिन्दुओं का समावेश होगा । ये सभी बातें होनेवाले पिता (द्वितीयो गुरु:) के लिए भी आवश्यक है
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१.१ ब्रह्मचर्य का पालन करना । अर्थात् मनपर संयम रखना । पति के रूप में पुरुष का चिन्तन नहीं करना । यह बहुत कठिन है  लेकिन करना तो आवश्यक ही है । शायद इसीलिए बालविवाह की प्रथा चली होगी? इससे मन श्रेष्ठ बनता है ।
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== माता प्रथमो गुरु: पिता द्वितीयो ==
१.२ अपनी आहार विहार और व्यायाम की आदतों को श्रेष्ठ रखना । स्वास्थ्य अच्छा रहे यह सुनिश्चित करना ।  
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बर्बर आक्रमण, गुलामी और वर्तमान जीवन के अभारतीय प्रतिमान के कारण तथा गत १० पीढ़ियों से चल रही विपरीत शिक्षा के कारण श्रेष्ठ संतान कैसे निर्माण की जाती है यह बात वर्तमान में स्त्री भूल गई है । वर्तमान में स्त्रियों की स्थिति को सुधारने कि दृष्टि से स्त्रियों के लिए माता प्रथमो गुरु: का अर्थ समझ लेना हितकारी है :
१.३ आजकल स्त्रियों को भी नौकरी करने का शौक हो गया है । विपरीत शिक्षा के कारण अन्य किसी कौशल के ह्स्तगत नहीं होने से मजबूरी में पति नौकरी करे यह समझ में आता है । स्त्री को भी मजबूरी में नौकरी करनी पड़े यह भी समझ में आता है । किन्तु अच्छे कमाऊ पति के होते हुए भी पत्नि नौकरी करना ‘स्वाभिमान’ का लक्षण मानती है, यह बात समझ से बाहर है । विशेषत: माता यदि नौकर है तो बच्चे मालिक की मानसिकता के कैसे बनेंगे? माता कुमाता नहीं होती । ऐसी कहावत थी । लेकिन नौकर माँ क्या कुमाता नहीं होगी? नौकरों को जन्म देनेवाली नहीं होगी । इसलिए जिन्हें श्रेष्ठ माता बनना है उन्हें यथा संभव नौकर नहीं बनना चाहिए ।
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# गर्भपूर्व संस्कार : माता प्रथमो गुरु: बनने की तैयारी तो गर्भ धारणा से बहुत पहले से शुरू करनी होती है । वैसे तो यह तैयारी बाल्यावस्था में और कौमार्यावस्था में माँ कराए यह आवश्यक है । लेकिन जिन लड़कियों के बारे में उनकी माँ ने ऐसी तैयारी नहीं कराई है उन्हें अपने से ही और वह विवाहपूर्व जिस भी आयु की अवस्था में है उस  अवस्था से इसे करना होगा । संयुक्त परिवारों में ज्येष्ठ और अनुभवी महिला इसमें बालिकाओं और युवतियों का मार्गदर्शन किया करती थीं । विभक्त परिवारों में तो यह जिम्मेदारी माता की ही है । इसमें निम्न बिन्दुओं का समावेश होगा । ये सभी बातें होनेवाले पिता (द्वितीयो गुरु:) के लिए भी आवश्यक है :
२. गर्भधारणा के लिए
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## ब्रह्मचर्य का पालन करना । अर्थात् मनपर संयम रखना । पति के रूप में पुरुष का चिन्तन नहीं करना । यह बहुत कठिन है  लेकिन करना तो आवश्यक ही है । शायद इसीलिए बाल विवाह की प्रथा चली होगी? इससे मन श्रेष्ठ बनता है ।
  २.१ केवल अपने पति का ही चिन्तन मन में रहे । पति भी पत्नि के प्रति निष्ठावान रहे ।  
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## अपनी आहार विहार और व्यायाम की आदतों को श्रेष्ठ रखना । स्वास्थ्य अच्छा रहे यह सुनिश्चित करना ।
  २.२ कैसे गुण लक्षणों की संतान की अपेक्षा है यह पति के साथ तय करना ।  
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## आजकल स्त्रियों को भी नौकरी करने का शौक हो गया है । विपरीत शिक्षा के कारण अन्य किसी कौशल के ह्स्तगत नहीं होने से मजबूरी में पति नौकरी करे यह समझ में आता है । स्त्री को भी मजबूरी में नौकरी करनी पड़े यह भी समझ में आता है । किन्तु अच्छे कमाऊ पति के होते हुए भी पत्नी नौकरी करना ‘स्वाभिमान’ का लक्षण मानती है, यह बात समझ से बाहर है । विशेषत: माता यदि नौकर है तो बच्चे मालिक की मानसिकता के कैसे बनेंगे? माता कुमाता नहीं होती । ऐसी कहावत थी । लेकिन नौकर माँ क्या कुमाता नहीं होगी? नौकरों को जन्म देनेवाली नहीं होगी । इसलिए जिन्हें श्रेष्ठ माता बनना है उन्हें यथा संभव नौकर नहीं बनना चाहिए ।
  २.३ योग्य वैद्यों तथा ज्योतिषाचार्यों की सलाह लेना । गर्भधारणा का समय तय करना । असावधानी के कारण अपघात से गलत समयपर गर्भधारणा न हो इसे ध्यान में रखना ।  
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# गर्भधारणा के लिए
२.४ गर्भधारणा से पहले कुछ मास तक पति और पत्नि दोनों ने कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करना । ऐसा करने से माता का और पिता का दोनों का ओज बढ़ता है । पत्नि जब नौकरी नहीं करती उसे अन्य पुरुषों का सहवास नहीं मिलता । ऐसी स्त्रियों को ब्रह्मचर्य पालन कम कठिन होता है । समय का सार्थक उपयोग करने के लिए घर में अकेली माँ को निश्चय की आवश्यकता होती है । समय का सार्थक उपयोग करने के लिए संयुक्त परिवार में कई अच्छे अच्छे तरीके होते हैं । जैसे भजन मण्डली, कथाकथन, घर के काम, सिलाई, बुनाई आदि । इसलिए संयुक्त परिवारों में तो ब्रह्मचर्य पालन और भी कम कठिन होता है ।  
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## केवल अपने पति का ही चिन्तन मन में रहे । पति भी पत्नी के प्रति निष्ठावान रहे ।
२.५ जिन गुण लक्षणोंवाली संतान की इच्छा है उस के गुण लक्षणों के अनुरूप और अनुकूल अपना व्यवहार रखना । उन गुण   और लक्षणों का निरंतर चिंतन करना । उन गुण लक्षणोंवाले महापुरुषों की कथाएँ पढ़ना । गीत सुनना । वैसा वातावरण बनाए रखना । पराई स्त्री माता के समान होती है इस भाव को मनपर अंकित करनेवाली कहानियाँ पढ़ना । स्त्री का आदर, सम्मान करनेवाली कहानियां पढ़ना, सुनना । अश्लील, हिंसक साहित्य, सिनेमा, दूरदर्शन की मालिकाओं से दूर रहना । माता पिता दोनों के लिए यह आवश्यक है ।
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## कैसे गुण लक्षणों की संतान की अपेक्षा है यह पति के साथ तय करना ।
३. गर्भधारणा के बाद संतान के जन्मतक  
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## योग्य वैद्यों तथा ज्योतिषाचार्यों की सलाह लेना । गर्भधारणा का समय तय करना । असावधानी के कारण अपघात से गलत समय पर गर्भधारणा न हो इसे ध्यान में रखना ।
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## गर्भधारणा से पहले कुछ मास तक पति और पत्नी दोनों ने कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करना । ऐसा करने से माता का और पिता का दोनों का ओज बढ़ता है । पत्नी जब नौकरी नहीं करती उसे अन्य पुरुषों का सहवास नहीं मिलता । ऐसी स्त्रियों को ब्रह्मचर्य पालन कम कठिन होता है । समय का सार्थक उपयोग करने के लिए घर में अकेली माँ को निश्चय की आवश्यकता होती है । समय का सार्थक उपयोग करने के लिए संयुक्त परिवार में कई अच्छे अच्छे तरीके होते हैं । जैसे भजन मण्डली, कथाकथन, घर के काम, सिलाई, बुनाई आदि । इसलिए संयुक्त परिवारों में तो ब्रह्मचर्य पालन और भी कम कठिन होता है ।
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## जिन गुण लक्षणों वाली संतान की इच्छा है उस के गुण लक्षणों के अनुरूप और अनुकूल अपना व्यवहार रखना । उन गुण और लक्षणों का निरंतर चिंतन करना। उन गुण लक्षणों वाले महापुरुषों की कथाएँ पढ़ना। गीत सुनना। वैसा वातावरण बनाए रखना । पराई स्त्री माता के समान होती है इस भाव को मन पर अंकित करनेवाली कहानियाँ पढ़ना । स्त्री का आदर, सम्मान करनेवाली कहानियां पढ़ना, सुनना । अश्लील, हिंसक साहित्य, सिनेमा, दूरदर्शन की मलिकाओं से दूर रहना । माता पिता दोनों के लिए यह आवश्यक है ।
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# गर्भधारणा के बाद संतान के जन्मतक
 
   इस काल में पिता की भूमिका दुय्यम हो जाती है । माता के सहायक की हो जाती है । मुख्य भूमिका माता की ही होती है ।  
 
   इस काल में पिता की भूमिका दुय्यम हो जाती है । माता के सहायक की हो जाती है । मुख्य भूमिका माता की ही होती है ।  
 
   ३.१ उपर्युक्त बिंदु २.५ में बताई बातों को ‘स्व’भाव बनाना ।  
 
   ३.१ उपर्युक्त बिंदु २.५ में बताई बातों को ‘स्व’भाव बनाना ।  
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