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| | | | |
| | ==दण्ड के सिद्धान्त== | | ==दण्ड के सिद्धान्त== |
| − | आधुनिक विधिशास्त्री दण्ड के चार सिद्धान्त मानते हैं -
| + | राजा की दण्डव्यवस्था से चारों वर्ण और आश्रम संरक्षित रहते हैं। संपूर्ण समाज अपने-अपने धर्म और कर्म में निरंतर प्रवृत्त होकर मर्यादा बनाए रखता है। यही दण्डविधान सामाजिक व्यवस्था का आधार है। इस दण्डव्यवस्था को निम्न प्रकारों में विभाजित किया गया है - |
| | | | |
| − | *प्रतीकारात्मक | + | *प्रतिशोधात्मक दण्ड - अपराध के बदले में दण्ड देना। |
| − | *निषेधात्मक | + | *प्रतीकारात्मक दण्ड - अपराधी को उसके कर्म का उचित प्रतिफल देना। |
| − | *अवरोधक | + | *सुधारात्मक दण्ड - अपराधी के सुधार पर केंद्रित दण्ड। |
| − | *सुधारात्मक | + | *द्युत् समाह्य दण्ड - न्याय के सम्यक संतुलन हेतु दण्ड। |
| | + | *प्रकीर्णक दण्ड - विविध स्थितियों में प्रयोग किए जाने वाले दण्ड। |
| | + | *आदर्शात्मक दण्ड - समाज में आदर्श आचरण की स्थापना के लिए दण्ड। |
| | + | |
| | + | इनके अतिरिक्त कौटिल्य ने अर्थदण्ड (धनदण्ड), मृत्युदण्ड तथा अन्य अनेक दण्डों का भी उल्लेख किया है। दण्ड के इन प्रकारों के साथ-साथ प्रायश्चित की संकल्पना भी है, जो नैतिकता पर आधारित है। प्रायश्चित और दण्ड में मूल अंतर यह है कि प्रायश्चित पाप के लिए होता है, जबकि दण्ड अपराध के लिए। जहाँ पाप और अपराध में स्पष्ट भेद होता है, वहाँ प्रायश्चित का प्रभाव अधिक माना गया है।<ref>शोधार्थिनी- श्रीमती संगीता मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/180446 मौर्य काल में न्याय-व्यवस्था], सन २००६,शोधकेन्द्र- श्री गाँधी स्नातकोत्तर महाविद्यालय मालटारी-आजमगढ (पृ० १३२)।</ref> |
| | | | |
| | ==दण्ड के प्रकार== | | ==दण्ड के प्रकार== |
| Line 58: |
Line 62: |
| | मनु एवं अन्य स्मृतिकारों में व्यवहारपदों की संख्या एवं संज्ञा को लेकर पर्याप्त भिन्नता है। निम्नलिखित तालिका इस कथन को स्पष्ट करती है -<ref>डॉ० पांडुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.306909/page/n143/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-२], सन १९६५, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० ७०७)।</ref> | | मनु एवं अन्य स्मृतिकारों में व्यवहारपदों की संख्या एवं संज्ञा को लेकर पर्याप्त भिन्नता है। निम्नलिखित तालिका इस कथन को स्पष्ट करती है -<ref>डॉ० पांडुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.306909/page/n143/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-२], सन १९६५, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० ७०७)।</ref> |
| | {| class="wikitable" | | {| class="wikitable" |
| − | |+व्यवहारपदों की तुलना | + | |+व्यवहारपदों की तुलना<ref>डॉ० पांडुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.306909/page/n143/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-२], सन १९६५, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० ७०७)।</ref> |
| | !क्र०सं० | | !क्र०सं० |
| | !मनु | | !मनु |
| Line 64: |
Line 68: |
| | !याज्ञवल्क्य | | !याज्ञवल्क्य |
| | (मिताक्षरा) | | (मिताक्षरा) |
| − | !नारद | + | ! नारद |
| | !बृहस्पति | | !बृहस्पति |
| | |- | | |- |
| Line 78: |
Line 82: |
| | |उपनिधि | | |उपनिधि |
| | | | | | |
| − | | | + | |निक्षेप |
| − | | | + | |निधि |
| | |- | | |- |
| | |०३ | | |०३ |
| Line 85: |
Line 89: |
| | |अस्वामिविक्रय | | |अस्वामिविक्रय |
| | | | | | |
| − | | | + | |अस्वामिविक्रय |
| − | | | + | |अस्वामिविक्रय |
| | |- | | |- |
| | |०४ | | |०४ |
| − | | सम्भूय-समुत्थान | + | |सम्भूय-समुत्थान |
| | |सम्भूय-समुत्थान | | |सम्भूय-समुत्थान |
| | | | | | |
| − | | | + | |सम्भूय-समुत्थान |
| − | | | + | |सम्भूय-समुत्थान |
| | |- | | |- |
| | |०५ | | |०५ |
| | |दत्तस्यानपाकर्म | | |दत्तस्यानपाकर्म |
| | + | |दत्तस्यानपाकर्म |
| | + | |दत्ताप्रदानिक |
| | |दत्ताप्रदानिक | | |दत्ताप्रदानिक |
| − | | | + | |अदेयाद्य |
| − | |
| |
| − | |
| |
| | |- | | |- |
| − | | ०६ | + | |०६ |
| | |वेतनादान | | |वेतनादान |
| | + | |कर्मकरकल्प |
| | |वेतनादान | | |वेतनादान |
| − | | | + | |वेतनस्यानपाकर्म |
| − | | | + | |भृत्यदान |
| − | |
| |
| | |- | | |- |
| | |०७ | | |०७ |
| | |संविद्-व्यतिक्रम | | |संविद्-व्यतिक्रम |
| | + | |समयस्यानपाकर्म |
| | |संविद्-व्यतिक्रम | | |संविद्-व्यतिक्रम |
| − | | | + | |समयस्यानपाकर्म |
| − | | | + | |समयातिक्रम |
| − | |
| |
| | |- | | |- |
| | |०८ | | |०८ |
| | |क्रयविक्रयानशय | | |क्रयविक्रयानशय |
| | + | |विक्रीत-क्रीतानशय |
| | + | |क्रीतानुशय |
| | + | |
| | + | विक्रीयासप्रदान |
| | |क्रीतानुशय | | |क्रीतानुशय |
| − | |
| + | |
| − | |
| + | विक्रीयासप्रदान |
| − | | | + | |क्रयविक्रयानुशय |
| | |- | | |- |
| − | |०९ | + | | ०९ |
| | |स्वामिपालविवाद | | |स्वामिपालविवाद |
| | + | | |
| | |स्वामिपालविवाद | | |स्वामिपालविवाद |
| − | |
| |
| | | | | | |
| | | | | | |
| Line 133: |
Line 141: |
| | |सीमाविवाद | | |सीमाविवाद |
| | |सीमाविवाद | | |सीमाविवाद |
| − | | | + | |सीमाविवाद |
| − | | | + | |क्षेत्रजविवाद |
| − | | | + | |भूवाद |
| | |- | | |- |
| | |११ | | |११ |
| | |वाक्पारुष्य | | |वाक्पारुष्य |
| | |वाक्पारुष्य | | |वाक्पारुष्य |
| − | | | + | |वाक्पारुष्य |
| − | | | + | |वाक्पारुष्य |
| − | | | + | |वाक्पारुष्य |
| | |- | | |- |
| | |१२ | | |१२ |
| | |दण्डपारुष्य | | |दण्डपारुष्य |
| | |दण्डपारुष्य | | |दण्डपारुष्य |
| − | | | + | |दण्डपारुष्य |
| − | | | + | |दण्डपारुष्य |
| − | | | + | |दण्डपारुष्य |
| | |- | | |- |
| | |१३ | | |१३ |
| − | | स्तेय
| |
| | |स्तेय | | |स्तेय |
| | | | | | |
| | + | |स्तेय |
| | | | | | |
| − | | | + | |स्तेय |
| | |- | | |- |
| | |१४ | | |१४ |
| | |साहस | | |साहस |
| | |साहस | | |साहस |
| − | | | + | |साहस |
| − | | | + | |साहस |
| − | | | + | |वध |
| | |- | | |- |
| | |१५ | | |१५ |
| | |स्त्रीसंग्रहण | | |स्त्रीसंग्रहण |
| | + | |संग्रहण |
| | |स्त्री-संग्रहण | | |स्त्री-संग्रहण |
| | | | | | |
| − | | | + | |स्त्रीसंग्रह |
| − | |
| |
| | |- | | |- |
| | |१६ | | |१६ |
| Line 176: |
Line 184: |
| | | | | | |
| | | | | | |
| − | | | + | |स्त्रीपुंसयोग |
| − | | | + | |स्त्रीपुंसयोग |
| | |- | | |- |
| − | |१७ | + | | १७ |
| | |विभाग | | |विभाग |
| − | | | + | |दायभाग |
| − | | | + | |दायविभाग |
| − | | | + | |दायभाग |
| − | | | + | |दायभाग |
| | |- | | |- |
| | |१८ | | |१८ |
| | |द्यूतसमाह्वय | | |द्यूतसमाह्वय |
| − | | | + | |द्यूतसमाह्वय |
| − | | | + | |द्यूतसमाह्वय |
| − | | | + | |द्यूतसमाह्वय |
| − | | | + | |अक्षदेवन |
| | |- | | |- |
| | |१९ | | |१९ |
| | | | | | |
| − | | | + | |प्रकीर्णक |
| − | | | + | |अभ्युपेत्याशुश्रूषा |
| − | | | + | |अभ्युपेत्याशुश्रूषा |
| − | | | + | |अशुश्रूषा |
| | |- | | |- |
| | |२० | | |२० |
| | | | | | |
| | | | | | |
| − | | | + | |प्रकीर्णक |
| − | | | + | |प्रकीर्णक |
| − | | | + | |प्रकीर्णक |
| | |} | | |} |
| | परंपरा और शास्त्रों द्वारा, अष्टादश (18) व्यवहारपदों का उल्लेख है। अर्थात ये अठारह प्रकार के न्यायिक विषय (cases or legal proceedings) जिन पर राज्य में न्याय किया जाता है। ये सब पृथक-पृथक रूप से निर्धारित हैं - | | परंपरा और शास्त्रों द्वारा, अष्टादश (18) व्यवहारपदों का उल्लेख है। अर्थात ये अठारह प्रकार के न्यायिक विषय (cases or legal proceedings) जिन पर राज्य में न्याय किया जाता है। ये सब पृथक-पृथक रूप से निर्धारित हैं - |
| Line 230: |
Line 238: |
| | व्यवहार के इन अठारह पदों का वर्णन मनुस्मृति में किया गया है। नारद स्मृति में व्यवहार के जिन अठारह पदों का वर्णन किया गया है, वे मनुस्मृति से कुछ भिन्न हैं।<ref>डॉ० श्रीमती विभा, [https://ia800408.us.archive.org/34/items/DharmaShastraSahityaMeinApradhEvamDandVidhanDr.Vibha/Dharma%20Shastra%20Sahitya%20Mein%20Apradh%20Evam%20Dand%20Vidhan%20-%20Dr.%20Vibha.pdf धर्मशास्त्र साहित्य में अपराध एवं दण्ड विधान], सन २००२, संस्कृत ग्रन्थागार, दिल्ली (पृ० ३०)।</ref> | | व्यवहार के इन अठारह पदों का वर्णन मनुस्मृति में किया गया है। नारद स्मृति में व्यवहार के जिन अठारह पदों का वर्णन किया गया है, वे मनुस्मृति से कुछ भिन्न हैं।<ref>डॉ० श्रीमती विभा, [https://ia800408.us.archive.org/34/items/DharmaShastraSahityaMeinApradhEvamDandVidhanDr.Vibha/Dharma%20Shastra%20Sahitya%20Mein%20Apradh%20Evam%20Dand%20Vidhan%20-%20Dr.%20Vibha.pdf धर्मशास्त्र साहित्य में अपराध एवं दण्ड विधान], सन २००२, संस्कृत ग्रन्थागार, दिल्ली (पृ० ३०)।</ref> |
| | | | |
| − | ==दण्ड व्यवस्था का महत्व== | + | == दण्ड व्यवस्था का महत्व== |
| | भारतीय ज्ञान परंपरा में राजधर्म के अन्तर्गत राजा का यह कर्तव्य है कि वह धर्म का उल्लंघन करने वाले को दण्डित करें एवं धर्म का पालन करने वालों की रक्षा करें। मनु के अनुसार राजा दण्डाधिकारी है। गौतम के अनुसार दण्ड से अभिप्राय है नियंत्रित करना। भारतीय धर्म ग्रन्थों महाभारत, वेदों, पुराणों एवं उपनिषदों में दण्ड की महत्ता के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। कामन्दक नीतिसार (द्वितीय १५), शुक्रनीति (प्रथम, १४) और महाभारत (शांतिपर्व, १५-८) की परिभाषा के अनुसार अपराधों का दमन (दम) ही दण्ड अथवा नीति कहलाता है। | | भारतीय ज्ञान परंपरा में राजधर्म के अन्तर्गत राजा का यह कर्तव्य है कि वह धर्म का उल्लंघन करने वाले को दण्डित करें एवं धर्म का पालन करने वालों की रक्षा करें। मनु के अनुसार राजा दण्डाधिकारी है। गौतम के अनुसार दण्ड से अभिप्राय है नियंत्रित करना। भारतीय धर्म ग्रन्थों महाभारत, वेदों, पुराणों एवं उपनिषदों में दण्ड की महत्ता के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। कामन्दक नीतिसार (द्वितीय १५), शुक्रनीति (प्रथम, १४) और महाभारत (शांतिपर्व, १५-८) की परिभाषा के अनुसार अपराधों का दमन (दम) ही दण्ड अथवा नीति कहलाता है। |
| | | | |
| Line 260: |
Line 268: |
| | न्याय-कार्य मुख्यतः राजा के अधीन थे। राजा प्रारम्भिक एवं अन्तिम न्यायालय था। स्मृतियों एवं निबन्धों का कहना है कि अकेला राजा न्याय-कार्य नहीं कर सकता, उसे अन्य लोगों की सहायता से न्याय करना चाहिए। राजा अन्तिम न्यायकर्ता थे और उनके नीचे का न्यायालय उसके द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों का न्यायालय था। बृहस्पति का कथन है कि साहस नामक मामलों के अतिरिक्त सभी प्रकार के मुकदमों का फैसला कुल, श्रेणी एवं गण कर सकते थे, किन्तु निर्णयों को कार्यान्वित करने का अधिकार राजा को ही प्राप्त था। पितामह ने तीन प्रकार के न्यायालयों की ओर संकेत किया है, किन्तु याज्ञवल्क्य एवं नारद ने दो न्यायलयों की चर्चा की है - | | न्याय-कार्य मुख्यतः राजा के अधीन थे। राजा प्रारम्भिक एवं अन्तिम न्यायालय था। स्मृतियों एवं निबन्धों का कहना है कि अकेला राजा न्याय-कार्य नहीं कर सकता, उसे अन्य लोगों की सहायता से न्याय करना चाहिए। राजा अन्तिम न्यायकर्ता थे और उनके नीचे का न्यायालय उसके द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों का न्यायालय था। बृहस्पति का कथन है कि साहस नामक मामलों के अतिरिक्त सभी प्रकार के मुकदमों का फैसला कुल, श्रेणी एवं गण कर सकते थे, किन्तु निर्णयों को कार्यान्वित करने का अधिकार राजा को ही प्राप्त था। पितामह ने तीन प्रकार के न्यायालयों की ओर संकेत किया है, किन्तु याज्ञवल्क्य एवं नारद ने दो न्यायलयों की चर्चा की है - |
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| − | # मुख्य न्यायाधीश का न्यायालय | + | #मुख्य न्यायाधीश का न्यायालय |
| − | # राजा का न्यायालय | + | #राजा का न्यायालय |
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| | पितामह ने लिखा है कि ग्राम में किया गया निर्णय नगर में पहुँचता है और नगर वाला निर्णय राजा के पास और राजा का निर्णय गलत है या सही, वही अन्तिम होता है। | | पितामह ने लिखा है कि ग्राम में किया गया निर्णय नगर में पहुँचता है और नगर वाला निर्णय राजा के पास और राजा का निर्णय गलत है या सही, वही अन्तिम होता है। |