| − | स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतं आह्वय एव च। पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह॥ (मनु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ८, श्लोक - ३-७।</ref> </blockquote>भाषार्थ - न्याय-व्यवस्था की शरण में जाने या मुकदमों के लिए मनु ने १८ कारण गिनाये हैं। जिनके नाम हैं - ऋण और धरोहर का भुगतान न करना, बिना स्वामित्व का विक्रय करना, साझीदारों के संबंध में गडबडी हो जाना, दान दी हुई वस्तु को पुनः वापिस लेना, पारिश्रमिक का भुगतान न करना, समझौतों को भंग करना, क्रय-विक्रय की व्यवस्था का उल्लंघन करना, स्वामी तथा भृत्य के बीच विवाद पैदा होना, सीमा संबंधी अडचन का उपस्थित होना, किसी को मारना, किसी का अपमान करना, किसी की चोरी करना, हिंसा तथा व्यभिचार करना, वैयक्तिक कर्त्तव्यों को न निभाना, पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे में मतभेद हो जाना और जुआ तथा पांसा आदि खेलना।<ref name=":1">वाचस्पति गैरोला, [https://archive.org/details/koutheliy-arthshastra-hindi/Arthasastra%20Of%20Kautilya%20%26%20Chanakya%20Sutra%20Vachaspati%20Gairola%20Chowkambha/mode/1up कौटिलीय-अर्थशास्त्र-हिन्दीव्याख्यासमेत], सन १९८४, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी (पृ० ५३)।</ref> | + | स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतं आह्वय एव च। पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह॥ (मनु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ८, श्लोक - ३-७।</ref> </blockquote>भाषार्थ - न्याय-व्यवस्था की शरण में जाने या मुकदमों के लिए मनु ने १८ कारण गिनाये हैं। जिनके नाम हैं - ऋण और धरोहर का भुगतान न करना, बिना स्वामित्व का विक्रय करना, साझीदारों के संबंध में गडबडी हो जाना, दान दी हुई वस्तु को पुनः वापिस लेना, पारिश्रमिक का भुगतान न करना, समझौतों को भंग करना, क्रय-विक्रय की व्यवस्था का उल्लंघन करना, स्वामी तथा भृत्य के बीच विवाद पैदा होना, सीमा संबंधी अडचन का उपस्थित होना, किसी को मारना, किसी का अपमान करना, किसी की चोरी करना, हिंसा तथा व्यभिचार करना, वैयक्तिक कर्त्तव्यों को न निभाना, पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे में मतभेद हो जाना और जुआ तथा पांसा आदि खेलना।<ref name=":1">वाचस्पति गैरोला, [https://archive.org/details/koutheliy-arthshastra-hindi/Arthasastra%20Of%20Kautilya%20%26%20Chanakya%20Sutra%20Vachaspati%20Gairola%20Chowkambha/mode/1up कौटिलीय-अर्थशास्त्र-हिन्दीव्याख्यासमेत], सन १९८४, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी (पृ० ५३)।</ref> |
| − | प्रतिदिन देश की परंपरा और शास्त्रों में बताए गए वाक्यों के द्वारा, अष्टादश (18) व्यवहारपदों का उल्लेख है- अर्थात् वे अठारह प्रकार के न्यायिक विषय (cases or legal proceedings) जिन पर राज्य में न्याय किया जाता है। ये सब पृथक-पृथक रूप से निर्धारित हैं -
| + | मनु एवं अन्य स्मृतिकारों में व्यवहारपदों की संख्या एवं संज्ञा को लेकर पर्याप्त भिन्नता है। निम्नलिखित तालिका इस कथन को स्पष्ट करती है -<ref>डॉ० पांडुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.306909/page/n143/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-२], सन १९६५, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० ७०७)।</ref> |
| | राजा कृत-युग-स्रष्टा त्रेताया द्वापरस्य च। युगस्य च चतुर्थस्य राजा भवति कारणम्॥ (महाभारत)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-069 महाभारत], शांतिपर्व, अध्याय- ६९, श्लोक- १५-१८।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा कलि-युग का अर्थ है - दण्ड के प्रयोग में राजा के अवधान का आधिक्य और अल्पत्व। इससे यही सार निकलता है कि राजा की कुशलता तथा अकुशलता के ऊपर ही कृत-युग तथा कलियुग निर्भर हैं, इनकी कोई निश्चित अवधि नहीं है। | | राजा कृत-युग-स्रष्टा त्रेताया द्वापरस्य च। युगस्य च चतुर्थस्य राजा भवति कारणम्॥ (महाभारत)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-069 महाभारत], शांतिपर्व, अध्याय- ६९, श्लोक- १५-१८।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा कलि-युग का अर्थ है - दण्ड के प्रयोग में राजा के अवधान का आधिक्य और अल्पत्व। इससे यही सार निकलता है कि राजा की कुशलता तथा अकुशलता के ऊपर ही कृत-युग तथा कलियुग निर्भर हैं, इनकी कोई निश्चित अवधि नहीं है। |