| Line 11: |
Line 11: |
| | मन्दिर का निर्माण शास्त्रों में बताए गये स्थानों पर ही करना चाहिए। जैसा कि प्रासादमण्डन ग्रन्थ में प्राप्त होता है - <blockquote>नद्यां सिद्धाश्रमे तीर्थे पुरे ग्रामे च गह्वरे। वापी-वाटी तडागादी स्थाने कार्यं सुरालयम्॥ (प्रासादमण्डनम्) </blockquote>'''भाषार्थ -''' नदी के तट पर, सिद्धपुरुषों के निर्वाण स्थान, तीर्थ भूमि, शहर, गांव, पर्वत की गुफाओं में, बावडी, उपवन और तालाब आदि स्थलों पर मन्दिर का निर्माण करना चाहिए। | | मन्दिर का निर्माण शास्त्रों में बताए गये स्थानों पर ही करना चाहिए। जैसा कि प्रासादमण्डन ग्रन्थ में प्राप्त होता है - <blockquote>नद्यां सिद्धाश्रमे तीर्थे पुरे ग्रामे च गह्वरे। वापी-वाटी तडागादी स्थाने कार्यं सुरालयम्॥ (प्रासादमण्डनम्) </blockquote>'''भाषार्थ -''' नदी के तट पर, सिद्धपुरुषों के निर्वाण स्थान, तीर्थ भूमि, शहर, गांव, पर्वत की गुफाओं में, बावडी, उपवन और तालाब आदि स्थलों पर मन्दिर का निर्माण करना चाहिए। |
| | | | |
| − | ==देवालय निर्माण के आधारभूत सिद्धान्त== | + | ==देव वास्तु एवं देवालय निर्माण सिद्धान्त== |
| | + | देव पूजन के निर्मित वह स्थान जहाँ पर देवी-देवताओं का पूजन-अर्चन या इन से संबंधित अनुष्ठान आदि किया जाता हो उस स्थान या भवन को देव वास्तु कहते हैं। यह वास्तु मुख्यतया पाँच प्रकार के होते हैं - <ref>शोधगंगा- बबलु मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/479623 वास्तु विद्या विमर्श], सन २०१८, शोधकेन्द्र - बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, अध्याय-२ (पृ० ४५)।</ref> |
| | + | |
| | + | # '''पूजास्थल -''' मन्दिर मण्डप आदि |
| | + | # '''साधनास्थल -''' मठ, आश्रम, आदि |
| | + | # '''सार्वजनिक स्थल -''' विश्रामस्थल, धर्मशाला आदि |
| | + | # '''जलाशय -''' कुआँ, बावडी, सरोवर आदि |
| | + | # '''संस्थान -''' वेदपाठशाला, धार्मिक एवं दातव्य संस्थान आदि |
| | + | |
| | + | देव वास्तु के अन्तर्गत यज्ञमण्डप, वेदी, कुण्ड आदि भी आते हैं। शास्त्रों में व वास्तुशास्त्र के प्राचीनतम वास्तुग्रन्थ विश्वकर्मप्रकाश एवं मयमतम् आदि में इनका प्रतिपादन किया गया है। |
| | + | |
| | प्रासादों या मंदिरों के निर्माण में ईंटों एवं पाषाणों का प्रयोग किया जाता था। इनके प्रमुख भागों-मंडप, शिखर, कदलीकरण, अधिष्ठान (Base), पीठ, उपपीठ आदि का विभिन्न ग्रन्थों में उल्लेख प्राप्त होता है। वराहमिहिर रचित बृहत्संहिता के अनुसार -<ref>आचार्य वराह मिहिर, व्याख्याकार- पं० अच्युतानन्द झा, [https://archive.org/details/brihat-samhita-/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20Brihat%20samhita%C2%A0_3/page/n137/mode/1up बृहत्संहिता-विमला हिन्दीव्याख्यायुता], अध्याय - ५६, प्रासादलक्षण, सन २०१४, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी (पृ० १२७)।</ref> | | प्रासादों या मंदिरों के निर्माण में ईंटों एवं पाषाणों का प्रयोग किया जाता था। इनके प्रमुख भागों-मंडप, शिखर, कदलीकरण, अधिष्ठान (Base), पीठ, उपपीठ आदि का विभिन्न ग्रन्थों में उल्लेख प्राप्त होता है। वराहमिहिर रचित बृहत्संहिता के अनुसार -<ref>आचार्य वराह मिहिर, व्याख्याकार- पं० अच्युतानन्द झा, [https://archive.org/details/brihat-samhita-/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20Brihat%20samhita%C2%A0_3/page/n137/mode/1up बृहत्संहिता-विमला हिन्दीव्याख्यायुता], अध्याय - ५६, प्रासादलक्षण, सन २०१४, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी (पृ० १२७)।</ref> |
| | | | |
| Line 64: |
Line 74: |
| | गर्भ-गृह, निश्चित रूप से एक गहरा अंधेरा कक्ष होता है, जहां | | गर्भ-गृह, निश्चित रूप से एक गहरा अंधेरा कक्ष होता है, जहां |
| | | | |
| − | ===प्रमुख शैलियां॥ Pramukh Shailiyan===
| + | ==प्रमुख शैलियां॥ Pramukh Shailiyan== |
| | [[File:देवालय वास्तु - प्रमुख शैलियां.jpg|thumb|देवालय वास्तु - प्रमुख शैलियां]] | | [[File:देवालय वास्तु - प्रमुख शैलियां.jpg|thumb|देवालय वास्तु - प्रमुख शैलियां]] |
| | देववास्तु के अनुसार भारत के मंदिरों को साधारणतया तीन शैलियों में वर्गीकृत किया गया है -<ref>देवेन्द्र नाथ ओझा, [https://www.researchgate.net/publication/369142874_Daiv_Vastu_Ki_Vividha_Shailiyon_Ka_Vimarsh_deva_vastu_ki_vividha_sailiyom_ka_vimarsa देव वास्तु की विविध शैलियों का विमर्श], सन २०२०, सेंट्रल संस्कृत यूनिवर्सिटी, उत्तराखण्ड (पृ० ९६)।</ref> | | देववास्तु के अनुसार भारत के मंदिरों को साधारणतया तीन शैलियों में वर्गीकृत किया गया है -<ref>देवेन्द्र नाथ ओझा, [https://www.researchgate.net/publication/369142874_Daiv_Vastu_Ki_Vividha_Shailiyon_Ka_Vimarsh_deva_vastu_ki_vividha_sailiyom_ka_vimarsa देव वास्तु की विविध शैलियों का विमर्श], सन २०२०, सेंट्रल संस्कृत यूनिवर्सिटी, उत्तराखण्ड (पृ० ९६)।</ref> |
| Line 75: |
Line 85: |
| | | | |
| | ग्रीवामारभ्य चाष्टास्रं विमानं द्राविडाख्यकम्। सर्वं वै रचुरस्त्रं यत् प्रासादं नागरं त्विदम्॥ (समरांगण सूत्रधार) | | ग्रीवामारभ्य चाष्टास्रं विमानं द्राविडाख्यकम्। सर्वं वै रचुरस्त्रं यत् प्रासादं नागरं त्विदम्॥ (समरांगण सूत्रधार) |
| − | | + | {| class="wikitable" |
| | + | |+मन्दिर स्थापत्य-कला शैली |
| | + | !नागर |
| | + | !द्राविड |
| | + | !वेशर |
| | + | |- |
| | + | |हिमालय से विंध्य |
| | + | |कृष्णा से कन्याकुमारी |
| | + | |विंध्य से कृष्णा नदी तक |
| | + | |} |
| | '''नागर शैली॥ Urban Style''' | | '''नागर शैली॥ Urban Style''' |
| | [[File:देवालय वास्तु - मुख्य अंग.jpg|thumb|347x347px|देवालय वास्तु - प्रमुख अंग]] | | [[File:देवालय वास्तु - मुख्य अंग.jpg|thumb|347x347px|देवालय वास्तु - प्रमुख अंग]] |
| Line 95: |
Line 114: |
| | यह शैली दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविड़ शैली कहलाती है। तमिलनाडु के अधिकांश मंदिर इसी श्रेणी के हैं। इसमें मंदिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह के ऊपर का शिखर भाग प्रिज्मवत् या पिरामिडनुमा होता है, जिसमें क्षैतिज विभाजन लिए अनेक मंजिलें होती हैं। शिखर के शीर्ष भाग पर आमलक व कलश की जगह स्तूपिका होते हैं। इस शैली के मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये काफी ऊँचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं। प्रांगण में छोटे-बड़े अनेक मंदिर, कक्ष तथा जलकुण्ड होते हैं। परिसर में कल्याणी या पुष्करिणी के रूप में जलाशय होता है। प्रागंण का मुख्य प्रवेश द्वार 'गोपुरम्' कहलाता है। प्रायः मंदिर प्रांगण में विशाल दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ का भी विधान होता है।'''वेसर शैली॥ Weser Style''' | | यह शैली दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविड़ शैली कहलाती है। तमिलनाडु के अधिकांश मंदिर इसी श्रेणी के हैं। इसमें मंदिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह के ऊपर का शिखर भाग प्रिज्मवत् या पिरामिडनुमा होता है, जिसमें क्षैतिज विभाजन लिए अनेक मंजिलें होती हैं। शिखर के शीर्ष भाग पर आमलक व कलश की जगह स्तूपिका होते हैं। इस शैली के मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये काफी ऊँचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं। प्रांगण में छोटे-बड़े अनेक मंदिर, कक्ष तथा जलकुण्ड होते हैं। परिसर में कल्याणी या पुष्करिणी के रूप में जलाशय होता है। प्रागंण का मुख्य प्रवेश द्वार 'गोपुरम्' कहलाता है। प्रायः मंदिर प्रांगण में विशाल दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ का भी विधान होता है।'''वेसर शैली॥ Weser Style''' |
| | | | |
| − | नागर और द्रविड़ शैली के मिश्रित रूप को वेसर शैली की संज्ञा दी गई है। वेसर शब्द कन्नड़ भाषा के 'वेशर' शब्द से बना है, जिसका अर्थ है- रूप. नवीन प्रकार की रूप-आकृति होने के कारण इसे वेशर शैली कहा गया, जो भाषांतर होने पर वेसर या बेसर बन गया. यह विन्यास में द्रविड़ शैली का तथा रूप में नागर जैसा होता है। इस शैली के मंदिरों की संख्या सबसे कम है. इस शैली के मंदिर विन्ध्य पर्वतमाला से कृष्णा नदी के बीच निर्मित हैं। कर्नाटक व महाराष्ट्र इन मंदिरों के केंद्र माने जाते हैं। विशेषतः राष्ट्रकूट, होयसल व चालुक्य वंशीय कतिपय मंदिर इसी शैली में हैं। | + | नागर और द्रविड़ शैली के मिश्रित रूप को वेसर शैली की संज्ञा दी गई है। वेसर शब्द कन्नड़ भाषा के 'वेशर' शब्द से बना है, जिसका अर्थ है- रूप. नवीन प्रकार की रूप-आकृति होने के कारण इसे वेशर शैली कहा गया, जो भाषांतर होने पर वेसर या बेसर बन गया. यह विन्यास में द्रविड़ शैली का तथा रूप में नागर जैसा होता है। इस शैली के मंदिरों की संख्या सबसे कम है. इस शैली के मंदिर विन्ध्य पर्वतमाला से कृष्णा नदी के बीच निर्मित हैं। कर्नाटक व महाराष्ट्र इन मंदिरों के केंद्र माने जाते हैं। विशेषतः राष्ट्रकूट, होयसल व चालुक्य वंशीय कतिपय मंदिर इसी शैली में हैं।<ref>सोनू द्विवेदी, [https://egyankosh.ac.in/handle/123456789/114077 मंदिर निर्माण शैली], सन २०२५, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० १६)।</ref> |
| | {| class="wikitable" | | {| class="wikitable" |
| | |+मंदिर की नागर व द्रविड़ शैलियों में सामान्य अंतर | | |+मंदिर की नागर व द्रविड़ शैलियों में सामान्य अंतर |
| Line 130: |
Line 149: |
| | |द्वार के रूप में सामान्यतः विशाल गोपुरम् | | |द्वार के रूप में सामान्यतः विशाल गोपुरम् |
| | |- | | |- |
| − | |8 | + | | 8 |
| | |मंदिर का सामान्य परिसर | | |मंदिर का सामान्य परिसर |
| | |मंदिर का विशाल प्रांगण | | |मंदिर का विशाल प्रांगण |