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भवनोत्पत्ति के अनेक आख्यान पुराणों में भी पाए जाते हैं। मार्कण्डेय (अ० ४९) तथा वायु (अ० ८) पुराण समरांगण के इसी आख्यान के प्रतीक है। भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिए अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
 
भवनोत्पत्ति के अनेक आख्यान पुराणों में भी पाए जाते हैं। मार्कण्डेय (अ० ४९) तथा वायु (अ० ८) पुराण समरांगण के इसी आख्यान के प्रतीक है। भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिए अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
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भवन (गृह) के विना जीवन-यापन में प्राणी-मात्र को असुविधा होती है। वास्तु शास्त्र में गृह का महत्व प्रतिपादित करते हुए आचार्य कथन है कि - <ref name=":0">प्रो० विनय कुमार पाण्डेय, [https://uou.ac.in/sites/default/files/slm/DVS-103.pdf गृह निर्माण विवेचन], सन २०२०, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी (पृ० ९५)।</ref> <blockquote>गृहस्थस्य क्रियाः सर्वा न सिद्ध्यन्ति गृहं विना। यतस्तस्माद् गृहारम्भ कर्म चात्राभिधीयते॥ (वास्तु)</blockquote>गृह के बिना गृहस्थ के समस्त स्मार्त व वैदिक कार्य सफल नहीं होते हैं या अल्प फल वाले होते हैं, इसलिए यहाँ गृहारम्भ के बारे में बतलाया जा रहा है।
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दूसरे के घर पर किया हुआ श्रौत व स्मार्त कर्म निष्फल हो जाता है, क्योंकि दूसरे के घर में कृत कार्य का फल गृहेश या गृहस्वामी को भी मिलता है। जैसे -<ref name=":0" /> <blockquote>परगेहकृताः सर्वाः श्रौतस्मार्त्तक्रिया शुभाः। निष्फलाः स्युर्यतस्तासां भूमिशः फलमश्नुते॥ (वास्तु)</blockquote>अतः सभी को स्वयं का गृह निर्माण करना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में हर संभव प्रयास करता है कि वह अपने गृह का निर्माण करें।
    
दिशाओं के अनुसार गृह की स्थिति एवं बनावट का गृहकर्ता पर विशेष प्रभाव पड़ता है और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ही गृह-निर्माण करना चाहिये। अथर्ववेद के काण्ड - ३ सूक्त - १२ में गृह निर्माण विषय का संक्षिप्त रूप में वर्णन किया गया है। सुरक्षित, सुखकारक, आरोग्यदायक तथा निर्भय ऐसा स्थान गृह हेतु होना चाहिए।<ref>डॉ० यशपाल, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/98460/1/Unit-13.pdf महाभारत में वास्तु विज्ञान], सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २११)।</ref>
 
दिशाओं के अनुसार गृह की स्थिति एवं बनावट का गृहकर्ता पर विशेष प्रभाव पड़ता है और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ही गृह-निर्माण करना चाहिये। अथर्ववेद के काण्ड - ३ सूक्त - १२ में गृह निर्माण विषय का संक्षिप्त रूप में वर्णन किया गया है। सुरक्षित, सुखकारक, आरोग्यदायक तथा निर्भय ऐसा स्थान गृह हेतु होना चाहिए।<ref>डॉ० यशपाल, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/98460/1/Unit-13.pdf महाभारत में वास्तु विज्ञान], सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २११)।</ref>
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