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#देव-भवन, मंदिर - प्रासाद - पत्थरों से निर्मित
 
#देव-भवन, मंदिर - प्रासाद - पत्थरों से निर्मित
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समारांगणसूत्रधार के ३०वें अध्याय में राजगृह के दो भाग बताए गए हैं, जैसे - निवास-भवनानि तथा विलास-भवनानि। इनके अतिरिक्त अन्य भवनों के उद्धरण भी संस्कृत वाङ्मय में पाए जाते हैं। <ref>जीवन कुमार, [https://www.anantaajournal.com/archives/2017/vol3issue6/PartB/3-6-35-689.pdf वास्तुशास्त्र में भूमि चयन एवं वास्तुपुरुष], सन २०१७, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ संस्कृत रिसर्च - अनन्ता (पृ० ७८)।</ref>
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समारांगणसूत्रधार के ३०वें अध्याय में राजगृह के दो भाग बताए गए हैं, जैसे - निवास-भवनानि तथा विलास-भवनानि। इनके अतिरिक्त अन्य भवनों के उद्धरण भी संस्कृत वाङ्मय में पाए जाते हैं।<ref>जीवन कुमार, [https://www.anantaajournal.com/archives/2017/vol3issue6/PartB/3-6-35-689.pdf वास्तुशास्त्र में भूमि चयन एवं वास्तुपुरुष], सन २०१७, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ संस्कृत रिसर्च - अनन्ता (पृ० ७८)।</ref>
    
*वात्स्यायन ने कामसूत्र में वास्तुविद्या को चौंसठ कलाओं में से एक माना है।
 
*वात्स्यायन ने कामसूत्र में वास्तुविद्या को चौंसठ कलाओं में से एक माना है।
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वास्तुशास्त्र लोकोपयोगी वैदिक विधाओं में एक प्रमुख शास्त्र है। यह गुरुत्व शक्ति, चुम्बकीय शक्ति एवं सौर ऊर्जा का प्रयोग करने के साथ-साथ पञ्चमहाभूतों से सामंजस्य स्थापित कर इस प्रकार के भवन का निर्माण करने की प्रविधि बन जाता है, जिससे वहाँ रहने वाले और काम करने वाले लोगों का तन, मन एवं जीवन स्फूर्तिमान रहे।
 
वास्तुशास्त्र लोकोपयोगी वैदिक विधाओं में एक प्रमुख शास्त्र है। यह गुरुत्व शक्ति, चुम्बकीय शक्ति एवं सौर ऊर्जा का प्रयोग करने के साथ-साथ पञ्चमहाभूतों से सामंजस्य स्थापित कर इस प्रकार के भवन का निर्माण करने की प्रविधि बन जाता है, जिससे वहाँ रहने वाले और काम करने वाले लोगों का तन, मन एवं जीवन स्फूर्तिमान रहे।
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* वास्तुशास्त्र का प्रधान लक्ष्य भवन निर्माण करते समय समग्र सृष्टि की प्रधान शक्तियों का प्रबन्धन अधिक से अधिक मात्रा में करना है।
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*वास्तुशास्त्र का प्रधान लक्ष्य भवन निर्माण करते समय समग्र सृष्टि की प्रधान शक्तियों का प्रबन्धन अधिक से अधिक मात्रा में करना है।
* वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में कहा है कि वास्तुविद्या चौंसठ कलाओं में से एक कला है।
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*वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में कहा है कि वास्तुविद्या चौंसठ कलाओं में से एक कला है।
    
राजप्रासाद संबंधी प्रमाण, मान, संस्थान, संख्यान, उच्छ्राय आदि लक्षणों से लक्षित एवं प्राकार-परिखा-गुप्त, गोपुर, अम्बुवेश्म, क्रीडाराम, महानस, कोष्ठागार, आयुधस्थान, भाण्डागार, व्यायामशाला, नृत्यशाला, संगीतशाला, स्नानगृह, धारागृह, शय्यागृह, वासगृह, प्रेक्षा (नाट्यशाला), दर्पणगृह, दोलागृह, अरिष्टगृह, अन्तःपुर तथा उसके विभिन्न शोभा-सम्भार, कक्षाएँ, अशोकवन, लतामण्डप, वापी, दारु गिरि, पुष्पवीथियाँ, राजभवन की किस-किस दिशा में पुरोहित, सेनानी, जनावास, शालभवन, भवनाग, भवनद्रव्य, विशिष्ट भवन, चुनाई, भूषा, दारुकर्म, इष्टकाकर्म, द्वारविधान, स्तम्भ लक्षण, छाद्यस्थापन आदि के साथ वास्तुपदों की विभिन्न योजनाएँ, मान एवं वेध आदि।
 
राजप्रासाद संबंधी प्रमाण, मान, संस्थान, संख्यान, उच्छ्राय आदि लक्षणों से लक्षित एवं प्राकार-परिखा-गुप्त, गोपुर, अम्बुवेश्म, क्रीडाराम, महानस, कोष्ठागार, आयुधस्थान, भाण्डागार, व्यायामशाला, नृत्यशाला, संगीतशाला, स्नानगृह, धारागृह, शय्यागृह, वासगृह, प्रेक्षा (नाट्यशाला), दर्पणगृह, दोलागृह, अरिष्टगृह, अन्तःपुर तथा उसके विभिन्न शोभा-सम्भार, कक्षाएँ, अशोकवन, लतामण्डप, वापी, दारु गिरि, पुष्पवीथियाँ, राजभवन की किस-किस दिशा में पुरोहित, सेनानी, जनावास, शालभवन, भवनाग, भवनद्रव्य, विशिष्ट भवन, चुनाई, भूषा, दारुकर्म, इष्टकाकर्म, द्वारविधान, स्तम्भ लक्षण, छाद्यस्थापन आदि के साथ वास्तुपदों की विभिन्न योजनाएँ, मान एवं वेध आदि।
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पूजनकक्ष, भोजनालय (रसोई कक्ष), भोजन करने का स्थान (डायनिंग रूम), भण्डारगृह, बच्चों का कक्ष, अध्ययनकक्ष, गृहस्वामी कक्ष, माता-पिता का कक्ष, शयनकक्ष (बेडरूम), शौचालय, अतिथिगृह, सार्वजनिक-कक्ष (हॉल), व्यायाम कक्ष एवं मनोरंजन कक्ष इत्यादि प्रमुख रूप से निर्माण किए जाते हैं।
 
पूजनकक्ष, भोजनालय (रसोई कक्ष), भोजन करने का स्थान (डायनिंग रूम), भण्डारगृह, बच्चों का कक्ष, अध्ययनकक्ष, गृहस्वामी कक्ष, माता-पिता का कक्ष, शयनकक्ष (बेडरूम), शौचालय, अतिथिगृह, सार्वजनिक-कक्ष (हॉल), व्यायाम कक्ष एवं मनोरंजन कक्ष इत्यादि प्रमुख रूप से निर्माण किए जाते हैं।
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==षोडश कक्ष विन्यास==
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प्राचीन काल में बने बृहद भूखण्डों पर बने भव्य-भवन भारत की भव्यता और समृद्धता के सूचक हैं। भवन में सोलह कक्षों का निर्माण होता था। प्राचीन वास्तुशास्त्र के ग्रन्थों में दिशाओं की प्रकृति के अनुरूप षोडश कक्षों के निर्माण का उल्लेख निम्न प्रकार से किया गया है - <blockquote>पूर्वस्यां श्रीगृहं प्रोक्तमाग्नेयां स्यान्महानसम्। शयनं दक्षिणस्यां च नैरृत्यामायुधाश्रयम्॥
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भोजनं पश्चिमायां च वायव्यां धनसंचयम्। उत्तरे द्रव्यसंस्थानमैशान्यां देवतागृहम्॥
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इन्द्राग्नयोर्मथनं मध्ये यमाग्नयोर्घृतमन्दिरम्। यमराक्षसयोर्मध्ये पुरीषत्यागमन्दिरम्॥
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राक्षसजलयोर्मध्य्ये विद्याभ्यासस्य मन्दिरम्। कामोपभोगशमनं वायव्योत्तरयोर्गृहम्॥
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कौबेरेशानयोर्मध्ये सर्ववस्तुषु संग्रहम्। सदनं कारयेदेवं क्रमादुक्तानि षोडश॥ नैरृत्यां सूतिकागेहं नृपाणां भूतिमिच्छता॥ (वास्तुसार संग्रह)</blockquote>भूखण्ड को सोलह भागों में विभक्त कर ईशान में देवपूजा कक्ष, ईशान ओर पूर्व के मध्य में सभी सामान्य उपयोग की वस्तुओं का संग्रह (भाण्डागार), पूर्व दिशा में स्नानगृह, आग्नेय एवं पूर्व के मध्य में दही मथने का का कमरा, आग्नेय कोण में रसोईघर (पाकशाला), आग्नेय और दक्षिण के मध्य में घीतेल का भण्डार, दक्षिण दिशा में शयनकक्ष, दक्षिण एवं नैर्ऋत्य के मध्य में शौचालय, नैऋत्य कोण में शस्त्रागार और भारी वस्तुएँ रखने का स्थान, नैर्ऋत्य और पश्चिम के बीच में अध्ययन कक्ष, पश्चिम दिशा में भोजन करने का स्थान, पश्चिम और वायव्य के मध्य में रोदन कक्ष, वायव्यकोण में पशुशाला, वायव्य एवं उत्तर के मध्य में रतिगृह, उत्तर दिशा में कोषागार तथा उत्तर- ईशान के बीच में औषधि कक्ष का निर्माण किया जाता था भवन के मध्यभाग को रिक्त रखने का विधान था जिसका कारण ब्रह्म स्थल और वास्तुपुरुष के मर्म स्थानों का रक्षण करना था। भवन के मध्य में तुलसी अथवा यज्ञशाला का निर्माण किया जा सकता था।<ref>डॉ० नित्यानन्द ओझा, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95180/1/Block-1.pdf गृह एवं व्यावसायिक वास्तु], सन २००३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० ३१)।</ref> इस प्रकार गृह निर्माण के महत्त्व का जितना ही विमर्श किया जाएगा, उतना ही महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आता जाएगा। शास्त्रों में कहा गया है -<blockquote>कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं मृण्मये दशसद्गुणम्। ऐष्टिके शतकोटिघ्नं शैलेऽनन्तं फलं भवेत्॥ (वास्तुरत्नाकर १/९) </blockquote>इसका भावार्थ यही है कि खर-पतवार युक्त गृह निर्माण करने पर लाख गुणा पुण्य मिट्टी से गृह निर्माण करने पर दस लाख गुणा पुण्य ईंट से गृह निर्माण करने पर एक सौ लाख (करोड़) गुणा पुण्य और पत्थर से भवन निर्माण करने पर गृहकर्त्ता को पुण्य फल मिलता है।
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*'''पूजा कक्ष - ऐशान्यां देवतागृहम्।'''
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*'''भण्डार कक्ष - आग्नेयां स्यान्महानसम्।'''
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*'''स्नान घर - भोजनं पश्चिमायाम्।'''
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*'''दधि मंथन कक्ष -'''
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*'''रसोई घर -'''
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*'''घृत तेल भण्डार कक्ष -'''
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*'''शयन कक्ष - शयनं दक्षिणस्याम्।'''
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*'''शौचालय - यमराक्षसयोर्मध्ये पुरीषत्यागमन्दिरम्।'''
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*'''शस्त्रोपकरण भण्डार -'''
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*'''अध्ययन कक्ष -'''
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*'''भोजन कक्ष -'''
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*'''रोदन कक्ष - तोयेशानलयोर्मध्ये रोदनस्य च मन्दिरम्।'''
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*'''पशु शाला -'''
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*'''रति गृह -'''
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*'''कोषागार - उत्तरे द्रव्यसंस्थाम्।'''
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*'''औषधि कक्ष -'''
    
==स्थापत्यवेद एवं भवन निर्माण==
 
==स्थापत्यवेद एवं भवन निर्माण==
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#भवन कला
 
#भवन कला
#नगर कला
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# नगर कला
 
#प्रासाद कला
 
#प्रासाद कला
# मूर्ति कला
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#मूर्ति कला
# चित्र कला
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#चित्र कला
 
#यंत्र कला
 
#यंत्र कला
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भारतीय वास्तु-शास्त्र में भवन के निम्न प्रकार बताये गए हैं -
 
भारतीय वास्तु-शास्त्र में भवन के निम्न प्रकार बताये गए हैं -
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* द्वार-निवेश
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*द्वार-निवेश
 
*भवन-निवेश
 
*भवन-निवेश
 
*रचना विच्छितियां तथा चित्रण
 
*रचना विच्छितियां तथा चित्रण
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भवनोत्पत्ति के अनेक आख्यान पुराणों में भी पाए जाते हैं। मार्कण्डेय (अ० ४९) तथा वायु (अ० ८) पुराण समरांगण के इसी आख्यान के प्रतीक है। भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिए अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
 
भवनोत्पत्ति के अनेक आख्यान पुराणों में भी पाए जाते हैं। मार्कण्डेय (अ० ४९) तथा वायु (अ० ८) पुराण समरांगण के इसी आख्यान के प्रतीक है। भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिए अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
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दिशाओं के अनुसार गृह की स्थिति एवं बनावट का गृहकर्ता पर विशेष प्रभाव पड़ता है और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ही गृह-निर्माण करना चाहिये। अथर्ववेद के काण्ड - ३ सूक्त - १२ में गृह निर्माण विषय का संक्षिप्त रूप में वर्णन किया गया है। सुरक्षित, सुखकारक, आरोग्यदायक तथा निर्भय ऐसा स्थान गृह हेतु होना चाहिए।<ref>डॉ० यशपाल, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/98460/1/Unit-13.pdf महाभारत में वास्तु विज्ञान], सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २११)।</ref>
    
==उद्धरण॥ References==
 
==उद्धरण॥ References==
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