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#आवासीय भवन - शाल भवन लकड़ी द्वारा निर्मित
 
#आवासीय भवन - शाल भवन लकड़ी द्वारा निर्मित
 
# राज भवन - राजवेश्म - ईंटों से निर्मित
 
# राज भवन - राजवेश्म - ईंटों से निर्मित
# देव-भवन, मंदिर - प्रासाद - पत्थरों से निर्मित
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#देव-भवन, मंदिर - प्रासाद - पत्थरों से निर्मित
    
समारांगणसूत्रधार के ३०वें अध्याय में राजगृह के दो भाग बताए गए हैं, जैसे - निवास-भवनानि तथा विलास-भवनानि। इनके अतिरिक्त अन्य भवनों के उद्धरण भी संस्कृत वाङ्मय में पाए जाते हैं। <ref>जीवन कुमार, [https://www.anantaajournal.com/archives/2017/vol3issue6/PartB/3-6-35-689.pdf वास्तुशास्त्र में भूमि चयन एवं वास्तुपुरुष], सन २०१७, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ संस्कृत रिसर्च - अनन्ता (पृ० ७८)।</ref>
 
समारांगणसूत्रधार के ३०वें अध्याय में राजगृह के दो भाग बताए गए हैं, जैसे - निवास-भवनानि तथा विलास-भवनानि। इनके अतिरिक्त अन्य भवनों के उद्धरण भी संस्कृत वाङ्मय में पाए जाते हैं। <ref>जीवन कुमार, [https://www.anantaajournal.com/archives/2017/vol3issue6/PartB/3-6-35-689.pdf वास्तुशास्त्र में भूमि चयन एवं वास्तुपुरुष], सन २०१७, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ संस्कृत रिसर्च - अनन्ता (पृ० ७८)।</ref>
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भवन स्वरूप के अनंतर उसकी दृढ़ता पर भी विचार आवश्यक है -<ref>डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://sanskrit.nic.in/books_archive/057_Raja_Nivesha_and_Rajasi_Kalaye.pdf राज-निवेश एवं राजसी कलायें], सन् १९६७, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन-शाला, लखनऊ (पृ० १७)।</ref>
 
भवन स्वरूप के अनंतर उसकी दृढ़ता पर भी विचार आवश्यक है -<ref>डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://sanskrit.nic.in/books_archive/057_Raja_Nivesha_and_Rajasi_Kalaye.pdf राज-निवेश एवं राजसी कलायें], सन् १९६७, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन-शाला, लखनऊ (पृ० १७)।</ref>
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# भवन-निर्माण एक कला है।
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#भवन-निर्माण एक कला है।
# भवन कई पीढ़ियों तक रहने के लिए बनता है, अतः उसके निर्माण में दृढ़ता सम्पादन का पूर्ण विचार आवश्यक है।
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#भवन कई पीढ़ियों तक रहने के लिए बनता है, अतः उसके निर्माण में दृढ़ता सम्पादन का पूर्ण विचार आवश्यक है।
 
#भवन की तीसरी विशेषता उसका सौन्दर्य है - सौन्दर्य एकमात्र बाह्य दर्शन पर ही आश्रित नहीं, उसका संबंध अंतरंग सुविधा से है।
 
#भवन की तीसरी विशेषता उसका सौन्दर्य है - सौन्दर्य एकमात्र बाह्य दर्शन पर ही आश्रित नहीं, उसका संबंध अंतरंग सुविधा से है।
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*भवन रचना
 
*भवन रचना
 
भवन-निर्माण के पूर्व भवनोचित देश, प्रदेश, जनपद, सीमा, क्षेत्र, वन, उपवन, भूमि आदि की परीक्षा आवश्यक है। भवन एकाकी न होकर पुर, पत्तन अथवा ग्राम का अंग होता है अतः भवन-निर्माण अथवा भवन-निवेश का प्रथम सोपान पुर-निवेश है।
 
भवन-निर्माण के पूर्व भवनोचित देश, प्रदेश, जनपद, सीमा, क्षेत्र, वन, उपवन, भूमि आदि की परीक्षा आवश्यक है। भवन एकाकी न होकर पुर, पत्तन अथवा ग्राम का अंग होता है अतः भवन-निर्माण अथवा भवन-निवेश का प्रथम सोपान पुर-निवेश है।
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==आवासीय भवन एवं कक्ष विन्यास==
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वास्तु विज्ञान प्राकृतिक पंचमहाभूतों का भवन (गृह) में उचित सामंजस्य कर गृह को निवास के लिए अनुकूलता प्रदान करता है। मत्स्यपुराण में भवन में कक्ष-विन्यास के विषय में वर्णन किया गया है कि - <blockquote>तस्य प्रदेशाश्चत्वारस्तथोत्सर्गेऽग्रतः शुभः। पृष्ठतः पृष्ठभागस्तु सव्यावर्त्तः प्रशस्यते॥
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अपसव्यो विनाशाय दक्षिणे शीर्षकस्तथा। सर्वकामफलो तृणां सम्पूर्णो नाम वामतः॥ (मत्स्य पुराण २५६।३,४)</blockquote>'''भाषार्थ -''' भवन निर्माण के लिए प्रस्तावित भूखंड के चारों ओर का कुछ भाग छोड़ देना चाहिए। प्रवेश करते ही दाएँ तरफ निर्मित भवन प्रशंसनीय और लाभ देने वाला होता है, तथा बाएँ ओर निर्मित भवन विनाशकारी अशुभ फल देने वाला होता है। भूखंड में दक्षिण भाग में उन्नत तथा दाएं ओर निर्मित भवन मनुष्य की कामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है तथा उसे सम्पूर्ण नामक वास्तु कहा गया है।
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आवास गृह में मनुष्य की नित्य आवश्यकताओं के अनुसार विभिन्न कक्ष होते हैं, तथा गृह में पृथक-पृथक दिशाओं में कक्षों का निर्माण किया जाता है। सभी दिशाओं में अलग-अलग तत्वों की प्रधानता होती है। सामान्यतः आवासीय भवन हेतु प्राचीन आचार्यों ने प्रकृति और पंचतत्वों का गृह में सामंजस्य के आधार पर भवन के सुनियोजित मानचित्र (नक्शा) में कौन सा विशिष्ट कक्ष कहाँ और किस दिशा में होना चाहिए इसके विषय में विस्तार से वर्णन किया है।
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भारतीय वास्तु विज्ञान में आवासीय भवन निर्माण हेतु भूमि के आकार के अनुसार एक उत्तम भवन निर्माण की कल्पना षोडश कक्षों के निर्माण के आधार पर की है। आवासीय वास्तु में मुख्य रूप से पूजनकक्ष, भोजनालय, शयनकक्ष, स्नानागार, भण्डारकक्ष, शस्त्रागार, पशुधनकक्ष, अतिथिकक्ष, रतिगृह (बेडरूम) इत्यादि सोलह प्रकार के मुख्य कक्षों का उल्लेख वास्तु विज्ञान में आचार्यों ने किया है।
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{| class="wikitable"
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|+
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!क्र०
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!कक्ष
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!निर्धारित दिशा
 +
!वैकल्पिक दिशा
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|-
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|१.
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|पूजाकक्ष
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|ईशान कोण (उत्तर-पूर्व)
 +
|ईशान-पूर्व के मध्य, पूर्व, ईशान उत्तर के मध्य, उत्तर
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|-
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|२.
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|रसोईगृह
 +
|आग्नेय (पूर्व-दक्षिण)
 +
|आग्नेय दक्षिण के मध्य, आग्नेय-पूर्व के मध्य,वायव्य उत्तर के मध्य
 +
|-
 +
|३.
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|शयन कक्ष
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|दक्षिण
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|आग्नेय-दक्षिण के मध्य, नैरृत्य-दक्षिण के मध्य,  पश्चिम-नैरृत्य के मध्य, वायव्य-उत्तर के मध्य
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|-
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|४.
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|भोजन कक्ष
 +
|पश्चिम
 +
|आग्नेय-दक्षिण के मध्य, पश्चिम-वायव्य के मध्य, वायव्य, उत्तर-वायव्य के मध्य
 +
|-
 +
|५.
 +
|भण्डारकक्ष (स्टोर)
 +
|नैरृत्य (दक्षिण-पश्चिम)
 +
|दक्षिण-आग्नेय के मध्य, वायव्य, दक्षिण-नैरृत्य के मध्य, पश्चिम
 +
|-
 +
|६.
 +
|स्नानगृह
 +
|पूर्व
 +
|पूर्व-आग्नेय के मध्य, ईशान-पूर्व के मध्य, पश्चिम
 +
|-
 +
|७.
 +
|शौचालय
 +
|नैरृत्य-दक्षिण
 +
|ईशान, आग्नेय, पूर्व एवं भवन के मध्य को छोड़कर अन्य दिशाओं में
 +
|-
 +
|८.
 +
|अतिथिकक्ष (ड्राइंगरूम)
 +
|पूर्व के मध्य
 +
|ईशान-पूर्व के मध्य, आग्नेय-दक्षिण, पश्चिम-वायव्य के मध्य, वायव्य-उत्तर के मध्य, उत्तर, आग्नेय
 +
|-
 +
|९.
 +
|बरामदा
 +
|पूर्व एवं उत्तर
 +
|ईशान, उत्तर-ईशान के मध्य
 +
|-
 +
|१०.
 +
|अध्ययन कक्ष
 +
|पश्चिम-नैरृत्य के मध्य
 +
|वायव्य-उत्तर के मध्य
 +
|}
 +
वास्तु विज्ञान में निर्देशित आवासीय गृह में भूखंड के अनुसार उक्त सोलह स्थानों पर विशेष कक्षों का जो विधान आया है उसका मूल आधार प्राकृतिक पञ्च तत्वों (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी तथा आकाश) का आवासीय भवन में सामंजस्य कर उस गृह को मनुष्य के लिए जीवनोपयोगी और दोष रहित बनाना है।
    
==सारांश॥ Summary==
 
==सारांश॥ Summary==
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