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| − | वास्तु शास्त्र और भवन निवेश (संस्कृतः वास्तुशास्त्रं भवन-निवेशश्च) शास्त्रीय एवं कलात्मक दोनों दृष्टियों से वास्तु का मुख्य अंग है। भारतीय वास्तुशास्त्र समग्र निर्माण (भवन आदि का) विधि एवं प्रक्रिया प्रतिपादक शास्त्र है। भवन-निर्माण निवेश तथा रचना (प्लानिंग एंड कंस्ट्रक्शन) दोनों ही है। निवेश का संबंध विशेषकर शास्त्र से है और रचना का कला से। भवन निर्माण के पूर्व भवनोचित देश, प्रदेश, जनपद, सीमा, क्षेत्र, वन, उपवन, भूमि आदि की परीक्षा की जाती रही है। भवन निवेश करते समय वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों का पालन करके भवन की ऊर्जा को संतुलित, आर्थिक लाभ और समृद्धि भी प्राप्त की जा सकती है। | + | वास्तु शास्त्र और भवन निवेश (संस्कृतः वास्तुशास्त्रं भवन-निवेशश्च) शास्त्रीय एवं कलात्मक दोनों दृष्टियों से वास्तु का मुख्य अंग है। भारतीय वास्तुशास्त्र समग्र निर्माण (भवन आदि का) विधि एवं प्रक्रिया प्रतिपादक शास्त्र है। भवन-निर्माण निवेश तथा रचना (प्लानिंग एण्ड कंस्ट्रक्शन) दोनों ही हैं। निवेश का संबंध विशेषकर शास्त्र से और रचना का कला से है। भवन निर्माण के पूर्व भवनोचित देश, प्रदेश, जनपद, सीमा, क्षेत्र, वन, उपवन, भूमि आदि की परीक्षा की जाती रही है। वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों का पालन करते हुए भवन का निर्माण करवाना भवन की ऊर्जा को संतुलित करते हुए लाभप्रद और अनुकूल परिणाम देने वाला होता है। |
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| − | == परिचय॥ Introduction == | + | ==परिचय॥ Introduction== |
| | वास्तु शब्द का प्रयोग सुनियोजित भवन के लिए किया जाता है। किसी भी अनियोजित भूखण्ड को सुनियोजित कर जब उसका प्रयोग निवास, व्यापार या मन्दिर के रूप में किया जाता है, तो उस भूखण्ड को वास्तु कहा जाता है। भारतीय वास्तु का शास्त्रीय और कलात्मक दोनों दृष्टियों से विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है।<ref>डॉ० देशबन्धु, [https://uou.ac.in/sites/default/files/slm/DVS-101.pdf वास्तु शास्त्र का स्वरूप व परिचय], सन २०२१, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी (पृ० १२)।</ref> भवन निवेश को वास्तु का मुख्य अंग माना गया है। मनुष्य के जीवन में भवन (गृह) सर्वाधिक महत्वपूर्ण आवश्यकताओं में से एक है। वास्तु के अनुसार भवन मनुष्य को सुरक्षा के साथ-साथ जीवन को सुचारू रूप से चलने के लिए पारिवारिक जीवन में भौतिक व सांसारिक सुख-सुविधाओं की पूर्ति भी करता है। भविष्य पुराण के अनुसार भी मनुष्य को गृहस्थ जीवन के सुखमय यापन हेतु भवन(गृह) निर्माण आवश्यक होता है - <blockquote>स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदम्। जन्तूनां निलयं सुखास्पदमिदं शीताम्बुधर्मापहम्॥ (राजवल्लभ मण्डनम्)</blockquote>गृह स्त्री, पुत्रादि का सुख देने वाला, धर्म-अर्थ और काम की पूर्ति करने वाला तथा प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा करने के लिए आवश्यक होता है। मनुष्य के निवास के लिए भवन निर्माण में भी देश काल और परिस्थिति के अनुसार उत्तरोत्तर परिवर्तन होता चला गया।<ref>शोधगंगा-शिवम अत्रे, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/518806 भारतीय वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन], सन २०२३, शोधकेन्द्र-संस्कृतविद्याधर्मविज्ञानसंकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० २४७)।</ref> | | वास्तु शब्द का प्रयोग सुनियोजित भवन के लिए किया जाता है। किसी भी अनियोजित भूखण्ड को सुनियोजित कर जब उसका प्रयोग निवास, व्यापार या मन्दिर के रूप में किया जाता है, तो उस भूखण्ड को वास्तु कहा जाता है। भारतीय वास्तु का शास्त्रीय और कलात्मक दोनों दृष्टियों से विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है।<ref>डॉ० देशबन्धु, [https://uou.ac.in/sites/default/files/slm/DVS-101.pdf वास्तु शास्त्र का स्वरूप व परिचय], सन २०२१, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी (पृ० १२)।</ref> भवन निवेश को वास्तु का मुख्य अंग माना गया है। मनुष्य के जीवन में भवन (गृह) सर्वाधिक महत्वपूर्ण आवश्यकताओं में से एक है। वास्तु के अनुसार भवन मनुष्य को सुरक्षा के साथ-साथ जीवन को सुचारू रूप से चलने के लिए पारिवारिक जीवन में भौतिक व सांसारिक सुख-सुविधाओं की पूर्ति भी करता है। भविष्य पुराण के अनुसार भी मनुष्य को गृहस्थ जीवन के सुखमय यापन हेतु भवन(गृह) निर्माण आवश्यक होता है - <blockquote>स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदम्। जन्तूनां निलयं सुखास्पदमिदं शीताम्बुधर्मापहम्॥ (राजवल्लभ मण्डनम्)</blockquote>गृह स्त्री, पुत्रादि का सुख देने वाला, धर्म-अर्थ और काम की पूर्ति करने वाला तथा प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा करने के लिए आवश्यक होता है। मनुष्य के निवास के लिए भवन निर्माण में भी देश काल और परिस्थिति के अनुसार उत्तरोत्तर परिवर्तन होता चला गया।<ref>शोधगंगा-शिवम अत्रे, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/518806 भारतीय वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन], सन २०२३, शोधकेन्द्र-संस्कृतविद्याधर्मविज्ञानसंकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० २४७)।</ref> |
| | भारतीय वास्तु के सर्वांगीण रूपों - पुर निवेश एवं नगर-रचना, गृह-निर्माण, देव भवन या मंदिर, प्रतिमा-विज्ञान एवं मूर्तिकला, चित्रकला तथा यंत्र घटना एवं शयनासन का विशद परिचय प्राप्त होता है। समरांगणसूत्रधार के अनुसार भवनों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है - <ref>डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://ia801502.us.archive.org/6/items/in.ernet.dli.2015.442085/2015.442085.BhartiyeSathaptya1968AC5475.pdf भारतीय स्थापत्य], सन १९६८, हिन्दी समिति सूचना विभाग, लखनऊ (पृ० ७-८)।</ref> | | भारतीय वास्तु के सर्वांगीण रूपों - पुर निवेश एवं नगर-रचना, गृह-निर्माण, देव भवन या मंदिर, प्रतिमा-विज्ञान एवं मूर्तिकला, चित्रकला तथा यंत्र घटना एवं शयनासन का विशद परिचय प्राप्त होता है। समरांगणसूत्रधार के अनुसार भवनों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है - <ref>डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://ia801502.us.archive.org/6/items/in.ernet.dli.2015.442085/2015.442085.BhartiyeSathaptya1968AC5475.pdf भारतीय स्थापत्य], सन १९६८, हिन्दी समिति सूचना विभाग, लखनऊ (पृ० ७-८)।</ref> |
| | #आवासीय भवन - शाल भवन लकड़ी द्वारा निर्मित | | #आवासीय भवन - शाल भवन लकड़ी द्वारा निर्मित |
| − | #राज भवन - राजवेश्म - ईंटों से निर्मित | + | # राज भवन - राजवेश्म - ईंटों से निर्मित |
| − | #देव-भवन, मंदिर - प्रासाद - पत्थरों से निर्मित | + | # देव-भवन, मंदिर - प्रासाद - पत्थरों से निर्मित |
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| | समारांगणसूत्रधार के ३०वें अध्याय में राजगृह के दो भाग बताए गए हैं, जैसे - निवास-भवनानि तथा विलास-भवनानि। इनके अतिरिक्त अन्य भवनों के उद्धरण भी संस्कृत वाङ्मय में पाए जाते हैं। <ref>जीवन कुमार, [https://www.anantaajournal.com/archives/2017/vol3issue6/PartB/3-6-35-689.pdf वास्तुशास्त्र में भूमि चयन एवं वास्तुपुरुष], सन २०१७, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ संस्कृत रिसर्च - अनन्ता (पृ० ७८)।</ref> | | समारांगणसूत्रधार के ३०वें अध्याय में राजगृह के दो भाग बताए गए हैं, जैसे - निवास-भवनानि तथा विलास-भवनानि। इनके अतिरिक्त अन्य भवनों के उद्धरण भी संस्कृत वाङ्मय में पाए जाते हैं। <ref>जीवन कुमार, [https://www.anantaajournal.com/archives/2017/vol3issue6/PartB/3-6-35-689.pdf वास्तुशास्त्र में भूमि चयन एवं वास्तुपुरुष], सन २०१७, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ संस्कृत रिसर्च - अनन्ता (पृ० ७८)।</ref> |
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| − | * वात्स्यायन ने कामसूत्र में वास्तुविद्या को चौंसठ कलाओं में से एक माना है। | + | *वात्स्यायन ने कामसूत्र में वास्तुविद्या को चौंसठ कलाओं में से एक माना है। |
| − | * वराहमिहिर ने वास्तुविद्या को आवासीय गृहनिर्माण तक रखा है। | + | *वराहमिहिर ने वास्तुविद्या को आवासीय गृहनिर्माण तक रखा है। |
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| − | वास्तुशास्त्र के अनुसार जिस भूमि पर भवन आदि निर्माण किया जाये अथवा जो भूमि गृहादि निर्माण के योग्य है वह वास्तु कहलाती है - <blockquote>गृहकरणयोग्यभूमिः। (शब्दकल्पद्रुम)</blockquote>समरांगणसूत्रधार में ही राज-प्रासाद से संबंधित लगभग ५० प्रकार के भवनों का वर्णन है।<ref>हृषिकेश सेनापति, [https://www.ncert.nic.in/pdf/publication/otherpublications/sanskrit_vangmay.pdf संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान का इतिहास], सन १९४०, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, नयी दिल्ली (पृ० ११०)।</ref> | + | वास्तुशास्त्र के अनुसार जिस भूमि पर भवन आदि निर्माण किया जाये अथवा जो भूमि गृहादि निर्माण के योग्य है वह वास्तु कहलाती है - <blockquote>वसन्ति प्राणिनो यत्र इति वास्तु, गृहकरणयोग्यभूमिः तत्पर्यायः। (शब्दकल्पद्रुम)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%83 शब्दकल्पद्रुमः]</ref></blockquote>समरांगणसूत्रधार में ही राज-प्रासाद से संबंधित लगभग ५० प्रकार के भवनों का वर्णन है।<ref>हृषिकेश सेनापति, [https://www.ncert.nic.in/pdf/publication/otherpublications/sanskrit_vangmay.pdf संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान का इतिहास], सन १९४०, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, नयी दिल्ली (पृ० ११०)।</ref> ऋग्वेद की एक ऋचा में वैदिक-ऋषि वास्तोष्पति से अपने संरक्षण में रखने तथा समृद्धि से रहने का आशीर्वाद प्रदान करने हेतु प्रार्थना करते हैं। ऋषि अपने द्विपदों (मनुष्यों) तथा चतुष्पदों (पशुओं) के लिए भी वास्तोष्पति से कल्याणकारी आशीर्वाद की कामना करते हैं। यथा -<blockquote>वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान्त्स्वावेशो अनमीवो भवा नः। यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥ (ऋग्वेद)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%8B%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%83_%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%82_%E0%A5%AD.%E0%A5%AB%E0%A5%AA ऋग्वेद], मण्डल - ०७, सूक्त - ५४, मन्त्र - ०१।</ref></blockquote>ज्योतिष शास्त्र के संहिता भाग में सर्वाधिक रूप से वास्तुविद्या का वर्णन उपलब्ध होता है। ज्योतिष के विचारणीय पक्ष दिग्-देश-काल के कारण ही वास्तु ज्योतिष के संहिता भाग में समाहित हुआ। विश्वकर्मा एवं मय वास्तुशास्त्र के सुविख्यात आचार्य रहे हैं। इनके अनुयायियों ने भवननिर्माण के अनेकों नियमों की व्याख्या वास्तुशास्त्र के मानक ग्रन्थों में की है। रामायण, महाभारत, कौटिल्यार्थशास्त्र, शुक्रनीति आदि ग्रन्थों तथा विविध पुराणों में वास्तुशास्त्र से संबंधित उल्लेख प्राप्त होते है। इसके अतिरिक्त रामायणकाल में अयोध्यापुरी, किष्किन्धापुरी, लंकापुरी तथा महाभारत काल में पाण्डवसभा, यमसभा, वरुणसभा, कुबेरसभा, इन्द्रसभा और लाक्षागृह का वर्णन भी तत्कालीन वास्तुकला के उन्नयन का परिचायक है। |
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| − | ऋग्वेद की एक ऋचा में वैदिक-ऋषि वास्तोष्पति से अपने संरक्षण में रखने तथा समृद्धि से रहने का आशीर्वाद प्रदान करने हेतु प्रार्थना करते हैं। ऋषि अपने द्विपदों (मनुष्यों) तथा चतुष्पदों (पशुओं) के लिए भी वास्तोष्पति से कल्याणकारी आशीर्वाद की कामना करते हैं। यथा -<blockquote>वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान्त्स्वावेशो अनमीवो भवा नः। यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥ (ऋग्वेद)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%8B%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%83_%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%82_%E0%A5%AD.%E0%A5%AB%E0%A5%AA ऋग्वेद], मण्डल - ०७, सूक्त - ५४, मन्त्र - ०१।</ref></blockquote>ज्योतिष शास्त्र के संहिता भाग में सर्वाधिक रूप से वास्तुविद्या का वर्णन उपलब्ध होता है। ज्योतिष के विचारणीय पक्ष दिग्-देश-काल के कारण ही वास्तु ज्योतिष के संहिता भाग में समाहित हुआ। विश्वकर्मा एवं मय वास्तुशास्त्र के सुविख्यात आचार्य रहे हैं। इनके अनुयायियों ने भवननिर्माण के अनेकों नियमों की व्याख्या वास्तुशास्त्र के मानक ग्रन्थों में की है। | |
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| | ==भवन कला॥ Bhavana Kala== | | ==भवन कला॥ Bhavana Kala== |
| | राजप्रासाद संबंधी प्रमाण, मान, संस्थान, संख्यान, उच्छ्राय आदि लक्षणों से लक्षित एवं प्राकार-परिखा-गुप्त, गोपुर, अम्बुवेश्म, क्रीडाराम, महानस, कोष्ठागार, आयुधस्थान, भाण्डागार, व्यायामशाला, नृत्यशाला, संगीतशाला, स्नानगृह, धारागृह, शय्यागृह, वासगृह, प्रेक्षा (नाट्यशाला), दर्पणगृह, दोलागृह, अरिष्टगृह, अन्तःपुर तथा उसके विभिन्न शोभा-सम्भार, कक्षाएँ, अशोकवन, लतामण्डप, वापी, दारु गिरि, पुष्पवीथियाँ, राजभवन की किस-किस दिशा में पुरोहित, सेनानी, जनावास, शालभवन, भवनाग, भवनद्रव्य, विशिष्ट भवन, चुनाई, भूषा, दारुकर्म, इष्टकाकर्म, द्वारविधान, स्तम्भ लक्षण, छाद्यस्थापन आदि के साथ वास्तुपदों की विभिन्न योजनाएँ, मान एवं वेध आदि। | | राजप्रासाद संबंधी प्रमाण, मान, संस्थान, संख्यान, उच्छ्राय आदि लक्षणों से लक्षित एवं प्राकार-परिखा-गुप्त, गोपुर, अम्बुवेश्म, क्रीडाराम, महानस, कोष्ठागार, आयुधस्थान, भाण्डागार, व्यायामशाला, नृत्यशाला, संगीतशाला, स्नानगृह, धारागृह, शय्यागृह, वासगृह, प्रेक्षा (नाट्यशाला), दर्पणगृह, दोलागृह, अरिष्टगृह, अन्तःपुर तथा उसके विभिन्न शोभा-सम्भार, कक्षाएँ, अशोकवन, लतामण्डप, वापी, दारु गिरि, पुष्पवीथियाँ, राजभवन की किस-किस दिशा में पुरोहित, सेनानी, जनावास, शालभवन, भवनाग, भवनद्रव्य, विशिष्ट भवन, चुनाई, भूषा, दारुकर्म, इष्टकाकर्म, द्वारविधान, स्तम्भ लक्षण, छाद्यस्थापन आदि के साथ वास्तुपदों की विभिन्न योजनाएँ, मान एवं वेध आदि। |
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| | + | ==स्थापत्यवेद एवं नगर निर्माण== |
| | + | स्थापत्यवेद में नगरविन्यास, ग्रामविन्यास, जनभवन, राजभवन, देवभवन आदि के निर्माण से संबंधित वर्णन को तो सब जानते ही हैं, उसके साथ-साथ शय्यानिर्माण, आसनरचना, आभूषणनिर्माण, आयुधनिर्माण, अनेक प्रकार के चित्र-निर्माण, प्रतिमारचना, अनेक प्रकार के यन्त्रों की रचना तथा अनेक प्रकार के स्थापत्यकौशल का वर्णन स्थापत्यवेद तथा उसी से उद्भूत वास्तुशास्त्र के विविध ग्रन्थों में प्राप्त होता है।<ref>डॉ० देशबन्धु, [https://uou.ac.in/sites/default/files/slm/DVS-101.pdf वास्तु शास्त्र का स्वरूप व परिचय], सन २०२१, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी (पृ० १९)।</ref> |
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| | ==समरांगण सूत्रधार एवं भवन निवेश== | | ==समरांगण सूत्रधार एवं भवन निवेश== |
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| | समरांगण सूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुए अष्टांगवास्तुशास्त्र की कल्पना की है और इन आठ अंगों के ज्ञान के बिना वास्तुशास्त्र का सम्यक प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं - <blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥ | | समरांगण सूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुए अष्टांगवास्तुशास्त्र की कल्पना की है और इन आठ अंगों के ज्ञान के बिना वास्तुशास्त्र का सम्यक प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं - <blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥ |
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| − | एतान्यंगानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान्। शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत्॥ (समरांगण सूत्रधार)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%99%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A4%A3%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF_%E0%A5%AA%E0%A5%AA समरांगणसूत्रधार], अध्याय- ४४, श्लोक- २-४।</ref></blockquote>सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष, छंद, शिराज्ञान, शिल्प, यंत्रकर्म और विधि ये वास्तुशास्त्र के आठ अंग हैं। | + | एतान्यंगानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान्। शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत्॥ (समरांगण सूत्रधार)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%99%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A4%A3%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF_%E0%A5%AA%E0%A5%AA समरांगणसूत्रधार], अध्याय- ४४, श्लोक- २-४।</ref></blockquote>सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष, छंद, शिराज्ञान, शिल्प, यंत्रकर्म और विधि - ये वास्तुशास्त्र के आठ अंग हैं। वास्तु संबंधि विषयों को आचार्यों ने निम्न प्रकार से माना है - |
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| − | कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वास्तुशास्त्र की चर्चा दृष्टिगोचर होती है - वास्तु की परिभाषा, दुर्ग निवेश, ग्रामनिवेश, नगर निवेश, राष्ट्रनिवेश, भवन में द्वारविषयक चर्चा आदि।
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| − | मनु स्मृति में भी गुल्म-ग्राम-राष्ट्र-दुर्ग आदि के प्रसंग से विविध वास्तुविषयों की चर्चा की गई है।
| + | *कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वास्तुशास्त्र की चर्चा दृष्टिगोचर होती है - वास्तु की परिभाषा, दुर्ग निवेश, ग्रामनिवेश, नगर निवेश, राष्ट्रनिवेश, भवन में द्वारविषयक चर्चा आदि। |
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| − | शुक्रनीति में भी भवननिर्माण, राजधानी की स्थापना, राजप्रासाद, दुर्गनिर्माण, प्रतिमानिर्माण, मंदिरनिर्माण और राजमार्गनिर्माण आदि वास्तु के विविध विषयों की चर्चा प्राप्त होती है। | + | *मनु स्मृति में भी गुल्म-ग्राम-राष्ट्र-दुर्ग आदि के प्रसंग से विविध वास्तुविषयों की चर्चा की गई है। |
| | + | *शुक्रनीति में भी भवननिर्माण, राजधानी की स्थापना, राजप्रासाद, दुर्गनिर्माण, प्रतिमानिर्माण, मंदिरनिर्माण और राजमार्गनिर्माण आदि वास्तु के विविध विषयों की चर्चा प्राप्त होती है। |
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| | भवन स्वरूप के अनंतर उसकी दृढ़ता पर भी विचार आवश्यक है -<ref>डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://sanskrit.nic.in/books_archive/057_Raja_Nivesha_and_Rajasi_Kalaye.pdf राज-निवेश एवं राजसी कलायें], सन् १९६७, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन-शाला, लखनऊ (पृ० १७)।</ref> | | भवन स्वरूप के अनंतर उसकी दृढ़ता पर भी विचार आवश्यक है -<ref>डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://sanskrit.nic.in/books_archive/057_Raja_Nivesha_and_Rajasi_Kalaye.pdf राज-निवेश एवं राजसी कलायें], सन् १९६७, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन-शाला, लखनऊ (पृ० १७)।</ref> |
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| − | #भवन-निर्माण एक कला है। | + | # भवन-निर्माण एक कला है। |
| − | #भवन कई पीढ़ियों तक रहने के लिए बनता है, अतः उसके निर्माण में दृढ़ता सम्पादन का पूर्ण विचार आवश्यक है। | + | # भवन कई पीढ़ियों तक रहने के लिए बनता है, अतः उसके निर्माण में दृढ़ता सम्पादन का पूर्ण विचार आवश्यक है। |
| | #भवन की तीसरी विशेषता उसका सौन्दर्य है - सौन्दर्य एकमात्र बाह्य दर्शन पर ही आश्रित नहीं, उसका संबंध अंतरंग सुविधा से है। | | #भवन की तीसरी विशेषता उसका सौन्दर्य है - सौन्दर्य एकमात्र बाह्य दर्शन पर ही आश्रित नहीं, उसका संबंध अंतरंग सुविधा से है। |
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| | *भवन-निवेश | | *भवन-निवेश |
| | *रचना विच्छितियां तथा चित्रण | | *रचना विच्छितियां तथा चित्रण |
| − | * भवन-वेध | + | *भवन-वेध |
| | *वीथी-निवेश | | *वीथी-निवेश |
| | *भवन रचना | | *भवन रचना |
| | भवन-निर्माण के पूर्व भवनोचित देश, प्रदेश, जनपद, सीमा, क्षेत्र, वन, उपवन, भूमि आदि की परीक्षा आवश्यक है। भवन एकाकी न होकर पुर, पत्तन अथवा ग्राम का अंग होता है अतः भवन-निर्माण अथवा भवन-निवेश का प्रथम सोपान पुर-निवेश है। | | भवन-निर्माण के पूर्व भवनोचित देश, प्रदेश, जनपद, सीमा, क्षेत्र, वन, उपवन, भूमि आदि की परीक्षा आवश्यक है। भवन एकाकी न होकर पुर, पत्तन अथवा ग्राम का अंग होता है अतः भवन-निर्माण अथवा भवन-निवेश का प्रथम सोपान पुर-निवेश है। |
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| − | रामायण, महाभारत, कौटिल्यार्थशास्त्र, शुक्रनीति आदि ग्रन्थों तथा विविध पुराणों में वास्तुशास्त्र से संबंधित उल्लेख प्राप्त होते है। इसके अतिरिक्त रामायणकाल में अयोध्यापुरी, किष्किन्धापुरी, लंकापुरी तथा महाभारत काल में पाण्डवसभा, यमसभा, वरुणसभा, कुबेरसभा, इन्द्रसभा और लाक्षागृह का वर्णन भी तत्कालीन वास्तुकला के उन्नयन का परिचायक है।
| + | ==सारांश॥ Summary== |
| | + | प्राचीन ऋषि-मुनियों ने मानव के हित हेतु वास्तुशास्त्र का सृजन किया जिसे हम भवन-निर्माण कला (Art of Architecture) भी कह सकते हैं।<ref>डॉ० उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर', [https://archive.org/details/vastukalaaurbhavannirmandr.umeshpurigyaneshwar/page/n4/mode/1up वास्तु कला और भवन निर्माण], सन २००१, रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार (पृ० १६)।</ref> |
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| − | ==सारांश॥ Summary==
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| | प्राचीन भारत में भवन निर्माण को साधारण शिल्प से ऊपर माना गया। इमारतों में उपयोगिता के साथ-साथ कलात्मकता भी अपेक्षित समझी गयी।<ref>श्री कृष्णदत्त वाजपेयी, [https://ignca.gov.in/Asi_data/52258.pdf भारतीय वास्तुकला का इतिहास], सन १९७२, हिन्दी समिति, लखनऊ (पृ० ३)।</ref> | | प्राचीन भारत में भवन निर्माण को साधारण शिल्प से ऊपर माना गया। इमारतों में उपयोगिता के साथ-साथ कलात्मकता भी अपेक्षित समझी गयी।<ref>श्री कृष्णदत्त वाजपेयी, [https://ignca.gov.in/Asi_data/52258.pdf भारतीय वास्तुकला का इतिहास], सन १९७२, हिन्दी समिति, लखनऊ (पृ० ३)।</ref> |
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