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| === २.२ आश्रम प्रणाली २ – चार/ तीन आश्रम === | | === २.२ आश्रम प्रणाली २ – चार/ तीन आश्रम === |
− | आश्रम में ‘श्रम’ शब्द है । इसका अर्थ है आजीवन श्रम । आयु की हर अवस्था में परिश्रम तो करना ही है । जन्म, बाल्य, यौवन, वृद्धावस्था और मृत्यू का चक्र अविरत चलता रहता है । मानव बालक जब जन्म लेता है तो वह पूर्णतया परावलंबी होता है । जब वह यौवनावस्था में होता है तब सामर्थ्यवान होता है । फिर जब वृद्धावस्था की ओर बढ़ता है तब उसकी कई क्षमताओं में कमी आती है । वह क्रमश: परावलंबी बनता जाता है । इसलिए मानव जीवन को मोटे मोटे चार हिस्सों में बांटना उचित होता है । युवावस्था तक का, यौवन का, प्रौढ़ता का और वृद्धावस्था का ऐसे चार विभाग बनते हैं । यौवनावस्थातक के काल में क्षमताएं बढ़ने और बढाने का काल होता है । इस काल में क्षमताएं बढाने से यौवनावस्था में वह यौवनावस्था के पूर्वतक के तथा यौवनावस्था के बाद के काल में जो लोग हैं उनका तथा अपना भी जीवन सुख से बीते इस की आश्वस्ती कर सकता है । इसे अनुशासन में बिठाने से आश्रम रचना बनती है । प्रौढ़ता की आयु में मनुष्य की शारीरिक क्षमताएं घटना शुरू हो जाता है लेकिन वह ज्ञान और जीवन के अनुभवों से यौवनावस्था समाप्तितक की आयु के लोगों से समृद्ध होता है । इसे वानप्रस्थी कहते हैं । इस आयु में वह प्रौढावस्था से कम आयु के लोगों के लिए मार्गदर्शनकी भूमिका में होने से जीवन का उन्नयन होता जाता है । इस प्रकार से आश्रम चार बनाते हैं । ये निम्न हैं । | + | आश्रम में ‘श्रम’ शब्द है । इसका अर्थ है आजीवन श्रम । आयु की हर अवस्था में परिश्रम तो करना ही है । जन्म, बाल्य, यौवन, वृद्धावस्था और मृत्यू का चक्र अविरत चलता रहता है । मानव बालक जब जन्म लेता है तो वह पूर्णतया परावलंबी होता है । जब वह यौवनावस्था में होता है तब सामर्थ्यवान होता है । फिर जब वृद्धावस्था की ओर बढ़ता है तब उसकी कई क्षमताओं में कमी आती है । वह क्रमश: परावलंबी बनता जाता है । इसलिए मानव जीवन को मोटे मोटे चार हिस्सों में बांटना उचित होता है । युवावस्था तक का, यौवन का, प्रौढ़ता का और वृद्धावस्था का ऐसे चार विभाग बनते हैं । यौवनावस्थातक के काल में क्षमताएं बढ़ने और बढाने का काल होता है । इस काल में क्षमताएं बढाने से यौवनावस्था में ,वह यौवनावस्था के पूर्वतक के तथा यौवनावस्था के बाद के काल में जो लोग हैं उनका तथा अपना भी जीवन सुख से बीते इस की आश्वस्ति कर सकता है । इसे अनुशासन में बिठाने से आश्रम रचना बनती है । प्रौढ़ता की आयु में मनुष्य की शारीरिक क्षमताएं घटना शुरू हो जाता है लेकिन वह ज्ञान और जीवन के अनुभवों से यौवनावस्था समाप्ति तक की आयु के लोगों से समृद्ध होता है । इसे वानप्रस्थी कहते हैं । इस आयु में वह प्रौढावस्था से कम आयु के लोगों के लिए मार्गदर्शन की भूमिका में होने से जीवन का उन्नयन होता जाता है । इस प्रकार से आश्रम चार बनाते हैं । ये निम्न हैं: |
− | और आश्रम प्रणाली के दूसरे हिस्से आश्रम के घटक निम्न हुआ करते थे ।
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− | २.२.१ ब्रह्मचर्य २.२.२ गृहस्थ २.२.३ वानप्रस्थ/ उत्तर गृहस्थ २.२.४ संन्यास
| + | ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ/ उत्तर गृहस्थ, संन्यास |
− | वर्त्तमान के अनुसार संन्यास अवस्था तो लगभग लुप्तप्राय हो गई है । इसलिए अब आयु की अवस्था के अनुसार केवल तीन ही आश्रमों का विचार उचित होगा ।
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− | ब्रह्मचर्य (२५ वर्षतक) - गृहस्थ (६० वर्षतक) - उत्तर गृहस्थ (६० वर्ष से अधिक) | + | वर्तमान के अनुसार संन्यास अवस्था तो लगभग लुप्तप्राय हो गई है । इसलिए अब आयु की अवस्था के अनुसार केवल तीन ही आश्रमों का विचार उचित होगा: |
− | २.३ आश्रम प्रणाली ३ : ग्राम | + | * ब्रह्मचर्य (२५ वर्ष तक) |
− | स्वतंत्रता यह मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य है । परावलंबन से स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है । परस्परावलंबन से स्वतंत्रता की मात्रा कम हो जाती है । लेकिन एक सीमातक स्वतंत्रता की आश्वस्ति हो जाती है । | + | * गृहस्थ (६० वर्षतक) |
− | मानव के अधिकतम संभाव्य सामर्थ्य और उसके जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक सामर्थ्य में बहुत अंतर होता है । इस अंतर को वह केवल कुटुंब के रक्तसम्बंधी लोगों की मदद के आधारपर कुछ सीमातक ही पाट सकता है । आगे उसे परस्परावलंबन का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है । परस्परावलंबी कुटुम्बों के समायोजन से एक सीमातक स्वावलंबन संभव हो सकता है । | + | * उत्तर गृहस्थ (६० वर्ष से अधिक) |
− | व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकता । केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी संभव नहीं है । व्यक्ति की कितनी ही दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुंब भी नहीं करा सकता । व्यक्ति और परिवार दोनों को समाज के अन्य घटकोंपर निर्भर होना ही पड़ता है । यह जैसे समाज के एक व्यक्ति या एक परिवार के लिए लागू है उसी तरह समाज के सभी व्यक्तियों के लिए और सभी कुटुंबों के लिए भी लागू है । सामाजिक स्तरपर जीवन का लक्ष्य स्वतंत्रता होकर भी व्यक्ति या कुटुंब पूर्णत: स्वतन्त्र नहीं रह सकते । कुछ मात्रा में परावलंबन अनिवार्य होता है । इसलिए सुख से जीने के लिए मनुष्य को और कुटुंबों को स्वतंत्रता और परावलंबन में संतुलन रखना आवश्यक हो जाता है । केवल परावलंबन से परस्परावलंबन में स्वतंत्रता की मात्रा बढ़ जाती है । इसलिए कुटुंबों में आपस में परस्परावलंबन होना आवश्यक हो जाता है । जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है परस्परावलंबन कठिन होता जाता है । प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं । इसलिए न्यूनतम या छोटे से छोटे भूक्षेत्र में रहनेवाले परस्परावलंबी परिवार मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय बनाना उचित होता है । अन्न वस्त्र, मकान, प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य ये मनुष्य की दैनन्दिन आवश्यकताएं हैं । | + | |
− | वास्तव में ऐसे समुदाय को बड़ा कुटुंब भी कहा जा सकता है । ऐसे बड़े कुटुंब को ग्राम कहना उचित होता है । ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है । इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है । | + | === २.३ आश्रम प्रणाली ३ : ग्राम === |
− | परस्परावलंबी कुटुम्बों के एकत्र आनेसे जो स्वावलंबी समुदाय बनता है उसे ग्राम कहते हैं । यह आश्रम प्रणाली का तीसरा हिस्सा है । कौटुम्बिक उद्योगों के आधारपर ग्राम स्वावलंबी बनते हैं । आवश्यकताओं और आपूर्ति का मेल बिठाने के लिए कौटुम्बिक उद्योगों को अनुवांशिक बनाने की आवश्यकता होती है । | + | स्वतंत्रता मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य है । परावलंबन से स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है । परस्परावलंबन से स्वतंत्रता की मात्रा कम हो जाती है । लेकिन एक सीमा तक स्वतंत्रता की आश्वस्ति हो जाती है । मानव के अधिकतम संभाव्य सामर्थ्य और उसके जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक सामर्थ्य में बहुत अंतर होता है । इस अंतर को वह केवल कुटुंब के रक्तसम्बंधी लोगों की मदद के आधार पर कुछ सीमा तक ही पाट सकता है । आगे उसे परस्परावलंबन का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है । परस्परावलंबी कुटुम्बों के समायोजन से एक सीमा तक स्वावलंबन संभव हो सकता है । व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकता । केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी संभव नहीं है । व्यक्ति की कितनी ही दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुंब भी नहीं करा सकता । व्यक्ति और परिवार दोनों को समाज के अन्य घटकों पर निर्भर होना ही पड़ता है । यह जैसे समाज के एक व्यक्ति या एक परिवार के लिए लागू है उसी तरह समाज के सभी व्यक्तियों के लिए और सभी कुटुंबों के लिए भी लागू है । सामाजिक स्तर पर जीवन का लक्ष्य स्वतंत्रता होकर भी व्यक्ति या कुटुंब पूर्णत: स्वतन्त्र नहीं रह सकते । कुछ मात्रा में परावलंबन अनिवार्य होता है । इसलिए सुख से जीने के लिए मनुष्य को और कुटुंबों को स्वतंत्रता और परावलंबन में संतुलन रखना आवश्यक हो जाता है । केवल परावलंबन से परस्परावलंबन में स्वतंत्रता की मात्रा बढ़ जाती है । इसलिए कुटुंबों में आपस में परस्परावलंबन होना आवश्यक हो जाता है । जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है परस्परावलंबन कठिन होता जाता है । प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं । इसलिए न्यूनतम या छोटे से छोटे भूक्षेत्र में रहनेवाले परस्परावलंबी परिवार मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय बनाना उचित होता है । अन्न वस्त्र, मकान, प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य ये मनुष्य की दैनन्दिन आवश्यकताएं हैं । |
− | ज्ञान, कला, कौशल आदि की प्राप्ति के लिए पूरा विश्व ही ग्राम होता है । लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही पूरा विश्व होता है । ऐसी सोच के कारण समाज पगढ़ीला नहीं हो पाता । पगढ़ीले समाज में कोई श्रेष्ठ संस्कृति पनप नहीं पाती । ग्राम की सीमा भी सुबह घर से निकलकर समाज की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति में अपना योगदान देकर शामतक फिर से अपने घर लौट सके इतनी ही होनी चाहिये । ग्राम की विशेषताएँ निम्न कही जा सकतीं हैं । | + | |
− | कुटुंब भावना - कौटुम्बिक उद्योग - समाज जीवन की स्वावलंबी लघुतम आर्थिक इकाई | + | वास्तव में ऐसे समुदाय को बड़ा कुटुंब भी कहा जा सकता है । ऐसे बड़े कुटुंब को ग्राम कहना उचित होता है । ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है । इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है । परस्परावलंबी कुटुम्बों के एकत्र आने से जो स्वावलंबी समुदाय बनता है उसे ग्राम कहते हैं । यह आश्रम प्रणाली का तीसरा हिस्सा है । कौटुम्बिक उद्योगों के आधारपर ग्राम स्वावलंबी बनते हैं । आवश्यकताओं और आपूर्ति का मेल बिठाने के लिए कौटुम्बिक उद्योगों को अनुवांशिक बनाने की आवश्यकता होती है । ज्ञान, कला, कौशल आदि की प्राप्ति के लिए पूरा विश्व ही ग्राम होता है । लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही पूरा विश्व होता है । ऐसी सोच के कारण समाज पगढ़ीला नहीं हो पाता । पगढ़ीले समाज में कोई श्रेष्ठ संस्कृति पनप नहीं पाती । ग्राम की सीमा भी सुबह घर से निकलकर समाज की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति में अपना योगदान देकर शामतक फिर से अपने घर लौट सके इतनी ही होनी चाहिये । ग्राम की विशेषताएँ निम्न कही जा सकतीं हैं: |
− | उपसंहार | + | * कुटुंब भावना |
− | संयुक्त परिवार, वर्ण, जाति, ग्रामकुल, राष्ट्र ऐसी प्राकृतिक आवश्यकताओं का आधार लेकर प्रकृति सुसंगत बातों को पुष्ट और धर्मानुकूल बनाने से ही ये प्रणालियाँ ठीक चला रही थीं और राष्ट्र संगठन अबतक टिका हुआ था । लेकिन हमारे दुर्लक्ष के कारण हिंदू समाज का संगठन पूरी तरह से चरमरा रहा है। संयुक्त परिवार व्यवस्था के, वर्ण व्यवस्था के, जाति व्यवस्था के, अंग्रेजपूर्व भारत में बहुत बडी संख्या में अस्तित्व में थे ऐसे लाखों ग्रामकुल और राष्ट्रीयता आदि की रक्षा और सबलीकरण के सीधे और पैने प्रयासों की आवश्यकता निर्माण हुई है। जिस गति से वर्तमान जीवन का अभारतीय प्रतिमान हमें भ्रष्ट और नष्ट कर रहा है उस गति से अधिक गति हमें जीवन के भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठापना के कार्य को देनी होगी। यह कठिन बहुत है। लेकिन असंभव तो कतई नहीं है।
| + | * कौटुम्बिक उद्योग |
| + | * समाज जीवन की स्वावलंबी लघुतम आर्थिक इकाई |
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| + | == उपसंहार == |
| + | संयुक्त परिवार, वर्ण, जाति, ग्रामकुल, राष्ट्र ऐसी प्राकृतिक आवश्यकताओं का आधार लेकर प्रकृति सुसंगत बातों को पुष्ट और धर्मानुकूल बनाने से ही ये प्रणालियाँ ठीक चला रही थीं और राष्ट्र संगठन अब तक टिका हुआ था । लेकिन हमारे दुर्लक्ष के कारण हिंदू समाज का संगठन पूरी तरह से चरमरा रहा है। जिस गति से वर्तमान जीवन का अभारतीय प्रतिमान हमें भ्रष्ट और नष्ट कर रहा है उस गति से अधिक गति हमें जीवन के भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठापना के कार्य को देनी होगी। यह कठिन बहुत है। लेकिन असंभव तो कतई नहीं है। |
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| ==References== | | ==References== |