| Line 13: |
Line 13: |
| | #मानसिक दुःख - काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, विषाद तथा शब्द, स्पर्श आदि श्रेष्ठ विषयों की प्राप्ति न होने से उत्पन्न दुःख मानसिक दुःख होता है। | | #मानसिक दुःख - काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, विषाद तथा शब्द, स्पर्श आदि श्रेष्ठ विषयों की प्राप्ति न होने से उत्पन्न दुःख मानसिक दुःख होता है। |
| | | | |
| − | ये सभी दुःख आन्तरिक उपायों से साध्य होने के कारण आध्यात्मिक कहलाते हैं। बाह्य उपायों से साध्य दुःख दो प्रकार का होता है। आधिभौतिक और आधिदैविक। इनमें से मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावरों से उत्पन्न होने वाला दुःख आधिभौतिक तथा यक्ष, राक्षस, विनायक, ग्रह इत्यादि के दुष्ट प्रभाव से होने वाला दुःख आधिदैविक कहलाता है - <blockquote>येनाभिहताः प्राणिनस्तदुपघाताय प्रयतन्ते तद्दुःखमिति योगभाष्यम्। एतावता प्रतिकूलवेदनीयं दुःखमिति सामान्यलक्षणं सूचितं भवति। तच्च त्रिविधम् - आध्यात्मिकम्, व्याधिवशात् शारीरम्, कामादिवशाच्च मानसमिति द्विप्रकारम्। आधिभौतिकं व्याघ्रादिजनितम्। आधिदैविकम् ग्रहपीडादिजनितमिति। (द्र०यो०भा०)<ref>आचार्य केदारनाथ त्रिपाठी, [https://archive.org/details/oDBG_sankhya-yog-kosh-by-acharya-kedarnath-tripathi-shri-vijaykumar-tripathi-varanasi/page/n43/mode/1up सांख्ययोग कोश], सन् १९७४, श्रीविजय कुमार त्रिपाठी, वाराणसी (पृ० १९)।</ref></blockquote>इस प्रकार इन्हीं त्रिविध दुःखों का सार्वकालिक निवृत्ति ही प्राणिमात्र का परमपुरुषार्थ है। योगदर्शन में जो दुःख देते हैं, उन दुःखों के कारणों को क्लेश कहते हैं। ये पाँच हैं -<ref>शोध छात्र-सचिन भारद्वाज एवं गणेश शंकर गिरी, [https://www.dhsgsu.edu.in/images/Yoga/Sachin--Prof-Giri_Yoga-Darshan-mein-Isvar-ka-Sthan--sadhan-ya-sadhya.pdf योग दर्शन में ईश्वर का स्थानः एक साधन या साध्य], सन् २०२१, डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (पृ० १४१)।</ref> अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश इन क्लेशों को योगदर्शन में दुःखों का मुख्य कारण कहा गया है। [[Ashtavakra (अष्टवक्र)|अष्टावक्र]] गीता में दुःख के विषय में कहा गया है कि - <blockquote>चिन्तया जायते दुःखं, नान्यथेहेति निश्चयी। तया हीनः सुखी शान्तः, सर्वत्र गलितस्पृहः॥ (अष्टावक्र गीता)</blockquote>'''भाषार्थ -''' चिंता से ही दुःख उत्पन्न होते हैं किसी अन्य कारण से नहीं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, चिंता से रहित होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। न्यायदर्शन में सब दुःखों का मूल अज्ञान को, मिथ्याज्ञान को विपरीत ज्ञान को माना गया है। इसी अज्ञान, मिथ्याज्ञान अथवा विपरीतज्ञान को हटाने का उपदेश दिया है - <blockquote>दुःख-जन्म-प्रवृत्ति-दोष-मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः॥ (योगदर्शन)</blockquote>मिथ्याज्ञान को हटाने से दोष निवृत्त होंगे, दोष (रागद्वेषमोह) के हटने से यथार्थ प्रवृत्ति होगी। कुप्रवृत्ति से बचाव होगा। जब कुप्रवृत्ति से बचेंगे तो सुप्रवृत्ति के कारण जन्म से बचेंगे। जहाँ जन्म से बचे वहाँ फिर दुःख कहाँ? दुःखों का अत्यन्ताभाव ही मोक्ष है।<ref>परमार्थ पत्रिका विशेषांक-दुःख निवारण अंक, आचार्य श्रीनरदेव जी शास्त्री, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.341627/page/n137/mode/1up दुःख-सुख-आनन्द मीमांसा], परमार्थ प्रेस, शाहजहाँपुर (पृ० १२४)।</ref> | + | ये सभी दुःख आन्तरिक उपायों से साध्य होने के कारण आध्यात्मिक कहलाते हैं। बाह्य उपायों से साध्य दुःख दो प्रकार का होता है। आधिभौतिक और आधिदैविक। इनमें से मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावरों से उत्पन्न होने वाला दुःख आधिभौतिक तथा यक्ष, राक्षस, विनायक, ग्रह इत्यादि के दुष्ट प्रभाव से होने वाला दुःख आधिदैविक कहलाता है - <blockquote>येनाभिहताः प्राणिनस्तदुपघाताय प्रयतन्ते तद्दुःखमिति योगभाष्यम्। एतावता प्रतिकूलवेदनीयं दुःखमिति सामान्यलक्षणं सूचितं भवति। तच्च त्रिविधम् - आध्यात्मिकम्, व्याधिवशात् शारीरम्, कामादिवशाच्च मानसमिति द्विप्रकारम्। आधिभौतिकं व्याघ्रादिजनितम्। आधिदैविकम् ग्रहपीडादिजनितमिति। (द्र०यो०भा०)<ref>आचार्य केदारनाथ त्रिपाठी, [https://archive.org/details/oDBG_sankhya-yog-kosh-by-acharya-kedarnath-tripathi-shri-vijaykumar-tripathi-varanasi/page/n43/mode/1up सांख्ययोग कोश], सन् १९७४, श्रीविजय कुमार त्रिपाठी, वाराणसी (पृ० १९)।</ref></blockquote>इस प्रकार इन्हीं त्रिविध दुःखों का सार्वकालिक निवृत्ति ही प्राणिमात्र का परमपुरुषार्थ है। योगदर्शन में जो दुःख देते हैं, उन दुःखों के कारणों को क्लेश कहते हैं। ये पाँच हैं -<ref>शोध छात्र-सचिन भारद्वाज एवं गणेश शंकर गिरी, [https://www.dhsgsu.edu.in/images/Yoga/Sachin--Prof-Giri_Yoga-Darshan-mein-Isvar-ka-Sthan--sadhan-ya-sadhya.pdf योग दर्शन में ईश्वर का स्थानः एक साधन या साध्य], सन् २०२१, डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (पृ० १४१)।</ref> अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश इन क्लेशों को योगदर्शन में दुःखों का मुख्य कारण कहा गया है। [[Ashtavakra (अष्टवक्र)|अष्टावक्र]] गीता में दुःख के विषय में कहा गया है कि - <blockquote>चिन्तया जायते दुःखं, नान्यथेहेति निश्चयी। तया हीनः सुखी शान्तः, सर्वत्र गलितस्पृहः॥ (अष्टावक्र गीता)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE#%E0%A5%A7%E0%A5%A7 अष्टावक्र गीता], अध्याय -११, श्लोक-०५।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' चिंता से ही दुःख उत्पन्न होते हैं किसी अन्य कारण से नहीं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, चिंता से रहित होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। न्यायदर्शन में सब दुःखों का मूल अज्ञान को, मिथ्याज्ञान को विपरीत ज्ञान को माना गया है। इसी अज्ञान, मिथ्याज्ञान अथवा विपरीतज्ञान को हटाने का उपदेश दिया है - <blockquote>दुःख-जन्म-प्रवृत्ति-दोष-मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः॥ (न्याय दर्शन)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%BF/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A5%E0%A4%AE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%83 न्यायसूत्र], अध्याय-०१, सूत्र-०२।</ref></blockquote>मिथ्याज्ञान को हटाने से दोष निवृत्त होंगे, दोष (रागद्वेषमोह) के हटने से यथार्थ प्रवृत्ति होगी। कुप्रवृत्ति से बचाव होगा। जब कुप्रवृत्ति से बचेंगे तो सुप्रवृत्ति के कारण जन्म से बचेंगे। जहाँ जन्म से बचे वहाँ फिर दुःख कहाँ? दुःखों का अत्यन्ताभाव ही मोक्ष है।<ref>परमार्थ पत्रिका विशेषांक-दुःख निवारण अंक, आचार्य श्रीनरदेव जी शास्त्री, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.341627/page/n137/mode/1up दुःख-सुख-आनन्द मीमांसा], परमार्थ प्रेस, शाहजहाँपुर (पृ० १२४)।</ref> |
| | | | |
| − | ==परिभाषा॥ Definition== | + | ==परिभाषा॥ Definition == |
| − | दुःख शब्द का अर्थ व्यथा, पीड़ा, यातना एवं कष्ट आदि हैं। दुःख अकारांत शब्द एवं नपुंसकलिंग में इसका प्रयोग होता है - <blockquote>दुष्टानि खानि यस्मिन इति दुःखम्, दुःखाद् अच्, क्लीब। (शब्दकल्पद्रुम)</blockquote>अमरकोष कार ने दुःख के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग इस प्रकार किया है - <blockquote>पीडा बाधा व्यथा दुःखमामनस्यं प्रसूतिजं स्यात्कष्टं कृच्छ्रमाभीलम् इति। (अमरकोष) </blockquote>भाषार्थ - पीड़ा, बाधा, व्यथा, दुःख, आमनस्य, प्रसूतिज, कष्ट, कृच्छ्र, आभील आदि पर्यायवाची शब्द प्राप्त होते हैं। | + | दुःख शब्द का अर्थ व्यथा, पीड़ा, यातना एवं कष्ट आदि हैं। दुःख अकारांत शब्द एवं नपुंसकलिंग में इसका प्रयोग होता है - <blockquote>दुष्टानि खानि यस्मिन इति दुःखम्, दुःखाद् अच्, क्लीब। (शब्दकल्पद्रुम)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%9A%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%98%E0%A4%B6%E0%A4%B0 शब्दकल्पद्रुम]</ref></blockquote>अमरकोष कार ने दुःख के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग इस प्रकार किया है - <blockquote>पीडा बाधा व्यथा दुःखमामनस्यं प्रसूतिजं स्यात्कष्टं कृच्छ्रमाभीलम् इति। (अमरकोश)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A5%E0%A4%AE%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%AE%E0%A5%8D अमरकोश], प्रथमकाण्ड, नरकवर्ग, श्लोक-०३।</ref> </blockquote>भाषार्थ - पीड़ा, बाधा, व्यथा, दुःख, आमनस्य, प्रसूतिज, कष्ट, कृच्छ्र, आभील आदि पर्यायवाची शब्द प्राप्त होते हैं। |
| | | | |
| | ==दुःख की अवधारणा॥ Concept of Duhkha== | | ==दुःख की अवधारणा॥ Concept of Duhkha== |
| Line 22: |
Line 22: |
| | | | |
| | ===सांख्य दर्शन-दुःख की अवधारणा॥ Sankhya Darshana - Concept of Duhkha=== | | ===सांख्य दर्शन-दुःख की अवधारणा॥ Sankhya Darshana - Concept of Duhkha=== |
| − | प्राणीमात्र की प्रवृत्ति का लक्ष्य एकमात्र सुख की प्राप्ति और दुःख का परिहार है। उनमें भी जो विचारशील हैं वे तो सांसारिक वैषयिक सुख को भी दुःख मिश्रित होने से हेय ही समझते हैं। [[Samkhya Darshana (साङ्ख्यदर्शनम्)|सांख्य दर्शन]] में आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक तीन प्रकार के दुःखों की निवृत्ति का वर्णन प्राप्त होता है -<ref>मार्कण्डेय नाथ तिवारी, [https://egyankosh.ac.in/handle/123456789/68683 त्रिविध दुःख और सांख्यशास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य विषय], सन् २०२०, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (पृ० २९०)।</ref> <blockquote>दुःखत्रयाभिघाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे सापार्थाचेन्नैकान्तात्यन्ततोभावात्॥ (सांख्यकारिका)</blockquote>इन तीनों दुःखों को सदैव और अवश्य रोकने के लिए सांख्यशास्त्रीय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। | + | प्राणीमात्र की प्रवृत्ति का लक्ष्य एकमात्र सुख की प्राप्ति और दुःख का परिहार है। उनमें भी जो विचारशील हैं वे तो सांसारिक वैषयिक सुख को भी दुःख मिश्रित होने से हेय ही समझते हैं। [[Samkhya Darshana (साङ्ख्यदर्शनम्)|सांख्य दर्शन]] में आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक तीन प्रकार के दुःखों की निवृत्ति का वर्णन प्राप्त होता है -<ref>मार्कण्डेय नाथ तिवारी, [https://egyankosh.ac.in/handle/123456789/68683 त्रिविध दुःख और सांख्यशास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य विषय], सन् २०२०, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (पृ० २९०)।</ref> <blockquote>दुःखत्रयाभिघाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे सापार्थाचेन्नैकान्तात्यन्ततोभावात्॥ (सांख्यकारिका)<ref>डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी, [https://archive.org/details/dli.ministry.26848/page/n15/mode/1up सांख्यकारिका-तत्त्वप्रभा व्याख्या सहित], सन् १९७०, बालकृष्ण त्रिपाठी, भदैनी वाराणसी (पृ० १)।</ref></blockquote>इन तीनों दुःखों को सदैव और अवश्य रोकने के लिए सांख्यशास्त्रीय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। |
| | | | |
| − | === योग दर्शन-दुःख की अवधारणा॥ Yoga Darshana - Concept of Duhkha=== | + | ===योग दर्शन-दुःख की अवधारणा॥ Yoga Darshana - Concept of Duhkha=== |
| | | | |
| | [[Yoga Darshana (योगदर्शनम्)|योगदर्शन]] में दुःख को वर्गीकृत करते हुए बताया गया है कि परिणाम दुःख, ताप दुःख, संस्कार दुःख और गुणवृत्ति विरोध से उत्पन्न दुःख के कारण, विवेकी पुरुषों के लिए सब कुछ अर्थात सुख भी दुःख जैसा ही है अर्थात इस प्रकार के दुःखों से सामान्य व्यक्ति ही पीडित होते हैं विवेकी नहीं - <blockquote>परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः॥ (योग सूत्र)<ref>योगसूत्र, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%9E%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%83 साधनपाद-सूत्र १५]।</ref></blockquote>इसमें मुख्य रूप से तीन प्रकार के दुःखो का वर्णन किया गया है - | | [[Yoga Darshana (योगदर्शनम्)|योगदर्शन]] में दुःख को वर्गीकृत करते हुए बताया गया है कि परिणाम दुःख, ताप दुःख, संस्कार दुःख और गुणवृत्ति विरोध से उत्पन्न दुःख के कारण, विवेकी पुरुषों के लिए सब कुछ अर्थात सुख भी दुःख जैसा ही है अर्थात इस प्रकार के दुःखों से सामान्य व्यक्ति ही पीडित होते हैं विवेकी नहीं - <blockquote>परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः॥ (योग सूत्र)<ref>योगसूत्र, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%9E%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%83 साधनपाद-सूत्र १५]।</ref></blockquote>इसमें मुख्य रूप से तीन प्रकार के दुःखो का वर्णन किया गया है - |
| Line 53: |
Line 53: |
| | | | |
| | ==सारांश॥ Summary== | | ==सारांश॥ Summary== |
| − | एक सामूहिक अज्ञान की स्थिति है। भारतीय ज्ञान परम्परा में दर्शन ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे दुःख को आत्यन्तिक केवल वहीं अपने को इस स्थिति से बचा पाते हैं जिनमें विवेक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। विवेक से आत्मा का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाता है। सचराचर लोक में सुख एवं दुःख की अनुभूति प्रत्येक जीव को होती है। कर्माशय की तीव्रता के कारण किसी को तीव्र दुःखानुभूति होती है तो किसी को मन्द दुःख की अनुभूति होती है। दुःख को प्रतिकूल अनुभूति कहा गया है -<ref>शोधगंगा- आनंद मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/285216 भारतीय दर्शन में दुःख की अवधारणा], अध्याय प्रथम-भारतीय दर्शन में दुःख, सन् २००२, शोधकेन्द्र-महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ (पृ० ९८)।</ref><blockquote>प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।</blockquote>जब इच्छाओं के विपरीत किसी वस्तु का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है अथवा किसी अत्यन्त प्रिय वस्तु का विच्छेद हो जाता है तो दुःख होता है। श्री कृष्ण जी गीता में कहते हैं कि - <blockquote>ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥ (६।२२)</blockquote> | + | एक सामूहिक अज्ञान की स्थिति है। भारतीय ज्ञान परम्परा में दर्शन ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे दुःख को आत्यन्तिक केवल वहीं अपने को इस स्थिति से बचा पाते हैं जिनमें विवेक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। विवेक से आत्मा का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाता है। सचराचर लोक में सुख एवं दुःख की अनुभूति प्रत्येक जीव को होती है। कर्माशय की तीव्रता के कारण किसी को तीव्र दुःखानुभूति होती है तो किसी को मन्द दुःख की अनुभूति होती है। दुःख को प्रतिकूल अनुभूति कहा गया है -<ref>शोधगंगा- आनंद मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/285216 भारतीय दर्शन में दुःख की अवधारणा], अध्याय प्रथम-भारतीय दर्शन में दुःख, सन् २००२, शोधकेन्द्र-महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ (पृ० ९८)।</ref><blockquote>प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्। दुःख येनाभिहताः प्राणिनस्तदुपघाताय प्रयतन्ते तदुःखमिति योगभाष्यम् । एतावता प्रतिकूलवेदनीयं दुःखमिति सामान्यलक्षणम्। </blockquote>जब इच्छाओं के विपरीत किसी वस्तु का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है अथवा किसी अत्यन्त प्रिय वस्तु का विच्छेद हो जाता है तो दुःख होता है। श्री कृष्ण जी गीता में कहते हैं कि - <blockquote>ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥ (भगवद्गीता)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A4%83 भगवद्गीता], अध्याय-०५, श्लोक-२२।</ref></blockquote> |
| | | | |
| − | अर्थात इन्द्रिय और विषयों के संसर्ग से होने वाले जितने भी भोग हैं वे सब दुःख के ही कारण हैं तथा आदि और अन्त वाले हैं। विवेकी पुरुष उनमें कभी आसक्त नहीं होता। [[Vasishtha (वसिष्ठ)|महर्षि वसिष्ठ]] राम जी से कहते हैं कि - <blockquote>यः स्वादयन् भोगविष रतिमेति देने दिने। सोsसौ स्वमूर्ति ज्वलिते कक्षमक्षयमुञ्झति॥ (यो० वा० ६ उ० ३६।२२)</blockquote>अर्थात जो मनुष्य नित्य भोगरूप विषका आस्वादन करके प्रसन्न होता है वह तो मानों निरन्तर अपने शरीररूपी ईंधन को प्रज्वलित अग्नि में जला रहा है। हेय, हेय हेतु, हान और हानोपाय ये चार प्रत्येक अध्यात्म शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है - | + | अर्थात इन्द्रिय और विषयों के संसर्ग से होने वाले जितने भी भोग हैं वे सब दुःख के ही कारण हैं तथा आदि और अन्त वाले हैं। विवेकी पुरुष उनमें कभी आसक्त नहीं होता। [[Vasishtha (वसिष्ठ)|महर्षि वसिष्ठ]] राम जी से कहते हैं कि - <blockquote>यः स्वादयन् भोगविषं रतिमेति देने दिने। सोsग्नौ स्वमूर्ति ज्वलिते कक्षमक्षयमुज्झति॥ (योग वासिष्ठ)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D_%E0%A5%AC_(%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%AE%E0%A5%8D)/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A4%83_%E0%A5%A6%E0%A5%A9%E0%A5%AC योगवासिष्ठ], प्रकरण-६, सर्ग-३६, श्लोक-२२।</ref></blockquote>अर्थात जो मनुष्य नित्य भोगरूप विषका आस्वादन करके प्रसन्न होता है वह तो मानों निरन्तर अपने शरीररूपी ईंधन को प्रज्वलित अग्नि में जला रहा है। हेय, हेय हेतु, हान और हानोपाय ये चार प्रत्येक अध्यात्म शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है - |
| | | | |
| | *'''हेय -''' इसके स्वरूप को महर्षि पतंजति जी ने योगदर्शन द्वितीय पाद के सोलहवें सूत्र "हेयं दुःखमनागतम्" में स्पष्ट किया है। इस सूत्र के अनुसार भविष्य में आने वाले दुःख को ही हेय अर्थात त्याज्य कहा गया है। अर्थात जो दुःख अभी प्राप्त नहीं हुआ है उसे ही दूर किया जा सकता है, उससे ही बचा जा सकता है। त्याग के योग्य दुःख है, जो कि प्रतिकूल लगता है। | | *'''हेय -''' इसके स्वरूप को महर्षि पतंजति जी ने योगदर्शन द्वितीय पाद के सोलहवें सूत्र "हेयं दुःखमनागतम्" में स्पष्ट किया है। इस सूत्र के अनुसार भविष्य में आने वाले दुःख को ही हेय अर्थात त्याज्य कहा गया है। अर्थात जो दुःख अभी प्राप्त नहीं हुआ है उसे ही दूर किया जा सकता है, उससे ही बचा जा सकता है। त्याग के योग्य दुःख है, जो कि प्रतिकूल लगता है। |
| Line 62: |
Line 62: |
| | *'''हानोपाय -''' इसका स्वरूप योगदर्शन सूत्र २/२६ विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपाय" में बतलाया गया है अर्थात स्थिर (दृढ) विवेकख्याति मोक्ष का उपाय है। इसके साथ ही विद्या, धर्माचरण, शुद्ध ज्ञान, शुद्ध (निष्काम) कर्म तथा शुद्ध उपासना आदि भी मोक्षप्राप्ति के उपाय हैं। हानोपाय का अर्थ मोक्षप्राप्ति का उपाय है। कहने का आशय यह है कि मोक्ष का उपाय होने के कारण विवेकख्याति के स्वरूप को अच्छे प्रकार से जान लेना चाहिए।<ref>देशराज-[https://egyankosh.ac.in/handle/123456789/103624 योग, अर्थ, परिभाषा एवं वैशिष्ट्य], सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २२)।</ref> | | *'''हानोपाय -''' इसका स्वरूप योगदर्शन सूत्र २/२६ विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपाय" में बतलाया गया है अर्थात स्थिर (दृढ) विवेकख्याति मोक्ष का उपाय है। इसके साथ ही विद्या, धर्माचरण, शुद्ध ज्ञान, शुद्ध (निष्काम) कर्म तथा शुद्ध उपासना आदि भी मोक्षप्राप्ति के उपाय हैं। हानोपाय का अर्थ मोक्षप्राप्ति का उपाय है। कहने का आशय यह है कि मोक्ष का उपाय होने के कारण विवेकख्याति के स्वरूप को अच्छे प्रकार से जान लेना चाहिए।<ref>देशराज-[https://egyankosh.ac.in/handle/123456789/103624 योग, अर्थ, परिभाषा एवं वैशिष्ट्य], सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २२)।</ref> |
| | | | |
| − | दुख तीन प्रकार के होते हैं (1) दैविक (2) दैहिक (3) भौतिक। दैनिक दुख वे कहे जाते हैं जो मन को होते हैं जैसे चिन्ता आशंका क्रोध, अपमान, शत्रुता, विछोह, भय, शोक आदि। दैहिक दुख वे होते हैं जो शरीर को होते हैं जैसे रोग, चोट, आघात, विष आदि के प्रभाव से होने वाले कष्ट।<blockquote>आशा हि परमं दुःखं निराशा परमं सुखं। आशापाशं परित्यज्य सुखं स्वपिति पिंगला॥ (सुभाषित संग्रह)</blockquote>भौतिक दुख वे हैं जो अचानक अदृश्य प्रकार से आते हैं जैसे भूकम्प, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, महामारी, युद्ध आदि। इन्हीं तीन प्रकार के दुखों की वेदना से मनुष्यों को तड़पता हुआ देखा जाता है। यह तीनों दुख हमारे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कर्मों के फल हैं। मानसिक पापों के परिणाम से दैविक दुख आते हैं, शारीरिक पापों के फलस्वरूप दैहिक और सामाजिक पापों के कारण भौतिक दुख उत्पन्न होते हैं।<ref>श्री राम शर्मा,[https://www.awgp.org/en/literature/akhandjyoti/1948/September/v2.7 अखण्ड ज्योति-दुःख और उनका कारण], सन १९४८-सितंबर, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा (पृ० ७)।</ref> | + | दुख तीन प्रकार के होते हैं (1) दैविक (2) दैहिक (3) भौतिक। दैनिक दुख वे कहे जाते हैं जो मन को होते हैं जैसे चिन्ता आशंका क्रोध, अपमान, शत्रुता, विछोह, भय, शोक आदि। दैहिक दुख वे होते हैं जो शरीर को होते हैं जैसे रोग, चोट, आघात, विष आदि के प्रभाव से होने वाले कष्ट।<blockquote>आशा हि परमं दुःखं निराशा परमं सुखं। आशापाशं परित्यज्य सुखं स्वपिति पिंगला॥ (भागवत पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A7/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AE भागवत महापुराण], स्कन्ध-११, अध्याय-०८, श्लोक-४४।</ref></blockquote>भौतिक दुख वे हैं जो अचानक अदृश्य प्रकार से आते हैं जैसे भूकम्प, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, महामारी, युद्ध आदि। इन्हीं तीन प्रकार के दुखों की वेदना से मनुष्यों को तड़पता हुआ देखा जाता है। यह तीनों दुख हमारे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कर्मों के फल हैं। मानसिक पापों के परिणाम से दैविक दुख आते हैं, शारीरिक पापों के फलस्वरूप दैहिक और सामाजिक पापों के कारण भौतिक दुख उत्पन्न होते हैं।<ref>श्री राम शर्मा,[https://www.awgp.org/en/literature/akhandjyoti/1948/September/v2.7 अखण्ड ज्योति-दुःख और उनका कारण], सन १९४८-सितंबर, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा (पृ० ७)।</ref> |
| | | | |
| | ==उद्धरण॥ References== | | ==उद्धरण॥ References== |