Duhkha (दुःख)

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दुख (संस्कृतः दुःख) एक ऐसी अवस्था है जिससे निवृत्ति की इच्छा प्राणीमात्र में विद्यमान होती है। दुःख का शाब्दिक अर्थ कष्ट, क्लेश या सुख का विपरीत भाव है। भारतीय ज्ञान परंपरा में दर्शन, साहित्य एवं धर्मग्रन्थों में दुःख का विस्तार से विवेचन किया गया है। सांख्यदर्शन में दुःख को आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तीन प्रकार का माना है। न्याय और वैशेषिक दुःख को आत्मा का धर्म मानते हैं। वेदान्त ने सुख-दुःख रूपी ज्ञान को अविद्या कहा है इसकी निवृत्ति ब्रह्मज्ञान द्वारा हो जाती है। योगदर्शन में चित्तविक्षेप या चित्त के राजसकार्य को दुःख कहा है। भारतीय दर्शनों के विषय में ऐसा माना जाता है कि वे मोक्ष प्रधान हैं और इनका लक्ष्य दुःखों से मुक्ति है।

परिचय॥ Introduction

भारतीय दर्शन में दार्शनिक चिन्तन का मुख्य लक्ष्य दुःखों को दूर करना है। अज्ञान या अविद्या ही दुःखों का मूल कारण है। दुःखों की निवृत्ति और तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हेतु भारतीय दर्शन शास्त्र की प्रवृत्त होती है।[1] सांख्यशास्त्र के अनुसार त्रिविध दुःख हैं - आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक।

  1. आध्यात्मिक दुःख - काम, क्रोध, मोह, ईर्ष्या, भय, विषाद आदि से होने वाला दुःख।
  2. आधिभौतिक दुःख - मनुष्य, पशु, सर्प आदि से होने वाला दुःख।
  3. आधिदैविक - यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेत आदि से होने वाला दुःख।

ऐकान्तिक शब्द का अर्थ है - दुःख का अनिवार्य रूप से नष्ट हो जाना। आत्यन्तिक शब्द का अर्थ है - जो दुःख नष्ट हुआ है उसका फिर से उत्पन्न न होना। लौकिक उपायों से दुःखत्रय की सार्वकालिक निवृत्ति नहीं होती। इनमें आध्यात्मिक दुःख दो प्रकार का है - शारीरिक और मानसिक।

  1. शारीरिक दुःख - वात, पित्त और कफ नामक त्रिदोष की विषमता से उत्पन्न दुःख को शारीरिक दुःख कहते हैं।
  2. मानसिक दुःख - काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, विषाद तथा शब्द, स्पर्श आदि श्रेष्ठ विषयों की प्राप्ति न होने से उत्पन्न दुःख मानसिक दुःख होता है।

ये सभी दुःख आन्तरिक उपायों से साध्य होने के कारण आध्यात्मिक कहलाते हैं। बाह्य उपायों से साध्य दुःख दो प्रकार का होता है। आधिभौतिक और आधिदैविक। इनमें से मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावरों से उत्पन्न होने वाला दुःख आधिभौतिक तथा यक्ष, राक्षस, विनायक, ग्रह इत्यादि के दुष्ट प्रभाव से होने वाला दुःख आधिदैविक कहलाता है -

येनाभिहताः प्राणिनस्तदुपघाताय प्रयतन्ते तद्दुःखमिति योगभाष्यम्। एतावता प्रतिकूलवेदनीयं दुःखमिति सामान्यलक्षणं सूचितं भवति। तच्च त्रिविधम् - आध्यात्मिकम्, व्याधिवशात् शारीरम्, कामादिवशाच्च मानसमिति द्विप्रकारम्। आधिभौतिकं व्याघ्रादिजनितम्। आधिदैविकम् ग्रहपीडादिजनितमिति। (द्र०यो०भा०)[2]

इस प्रकार इन्हीं त्रिविध दुःखों का सार्वकालिक निवृत्ति ही प्राणिमात्र का परमपुरुषार्थ है। योगदर्शन में जो दुःख देते हैं, उन दुःखों के कारणों को क्लेश कहते हैं। ये पाँच हैं -[3] अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश इन क्लेशों को योगदर्शन में दुःखों का मुख्य कारण कहा गया है। अष्टावक्र गीता में दुःख के विषय में कहा गया है कि -

चिन्तया जायते दुःखं, नान्यथेहेति निश्चयी। तया हीनः सुखी शान्तः, सर्वत्र गलितस्पृहः॥ (अष्टावक्र गीता)[4]

भाषार्थ - चिंता से ही दुःख उत्पन्न होते हैं किसी अन्य कारण से नहीं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, चिंता से रहित होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। न्यायदर्शन में सब दुःखों का मूल अज्ञान को, मिथ्याज्ञान को विपरीत ज्ञान को माना गया है। इसी अज्ञान, मिथ्याज्ञान अथवा विपरीतज्ञान को हटाने का उपदेश दिया है -

दुःख-जन्म-प्रवृत्ति-दोष-मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः॥ (न्याय दर्शन)[5]

मिथ्याज्ञान को हटाने से दोष निवृत्त होंगे, दोष (रागद्वेषमोह) के हटने से यथार्थ प्रवृत्ति होगी। कुप्रवृत्ति से बचाव होगा। जब कुप्रवृत्ति से बचेंगे तो सुप्रवृत्ति के कारण जन्म से बचेंगे। जहाँ जन्म से बचे वहाँ फिर दुःख कहाँ? दुःखों का अत्यन्ताभाव ही मोक्ष है।[6]

परिभाषा॥ Definition

दुःख शब्द का अर्थ व्यथा, पीड़ा, यातना एवं कष्ट आदि हैं। दुःख अकारांत शब्द एवं नपुंसकलिंग में इसका प्रयोग होता है -

दुष्टानि खानि यस्मिन इति दुःखम्, दुःखाद् अच्, क्लीब। (शब्दकल्पद्रुम)[7]

अमरकोष कार ने दुःख के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग इस प्रकार किया है -

पीडा बाधा व्यथा दुःखमामनस्यं प्रसूतिजं स्यात्कष्टं कृच्छ्रमाभीलम् इति। (अमरकोश)[8]

भाषार्थ - पीड़ा, बाधा, व्यथा, दुःख, आमनस्य, प्रसूतिज, कष्ट, कृच्छ्र, आभील आदि पर्यायवाची शब्द प्राप्त होते हैं।

दुःख की अवधारणा॥ Concept of Duhkha

भारतीय दर्शन का जीवन से गहरा संबंध है। यह जीवन की समस्याओं एवं दुःख निवृत्ति के लिए केवल मानसिक जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास ही नहीं करता, अपितु आध्यात्मिक असंतोष तथा जीवन के दुःखों का मूल कारणों को जानकर उनसे छुटकारा प्राप्त करने के पूर्ण संभव मार्गों की स्थापना भी करता है। संस्कृत वांगमय में दुःख का अर्थ केवल शारीरिक या मानसिक पीड़ा तक सीमित नहीं है, किन्तु यह व्यापक रूप से मानव जीवन के अस्तित्वगत और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को समाहित करता है। यह जीवन के अंतर्निहित संघर्ष, अनित्यत्व, और मृत्यु की अनिवार्यता से संबंधित है।

सांख्य दर्शन-दुःख की अवधारणा॥ Sankhya Darshana - Concept of Duhkha

प्राणीमात्र की प्रवृत्ति का लक्ष्य एकमात्र सुख की प्राप्ति और दुःख का परिहार है। उनमें भी जो विचारशील हैं वे तो सांसारिक वैषयिक सुख को भी दुःख मिश्रित होने से हेय ही समझते हैं। सांख्य दर्शन में आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक तीन प्रकार के दुःखों की निवृत्ति का वर्णन प्राप्त होता है -[9]

दुःखत्रयाभिघाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे सापार्थाचेन्नैकान्तात्यन्ततोभावात्॥ (सांख्यकारिका)[10]

इन तीनों दुःखों को सदैव और अवश्य रोकने के लिए सांख्यशास्त्रीय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

योग दर्शन-दुःख की अवधारणा॥ Yoga Darshana - Concept of Duhkha

योगदर्शन में दुःख को वर्गीकृत करते हुए बताया गया है कि परिणाम दुःख, ताप दुःख, संस्कार दुःख और गुणवृत्ति विरोध से उत्पन्न दुःख के कारण, विवेकी पुरुषों के लिए सब कुछ अर्थात सुख भी दुःख जैसा ही है अर्थात इस प्रकार के दुःखों से सामान्य व्यक्ति ही पीडित होते हैं विवेकी नहीं -

परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः॥ (योग सूत्र)[11]

इसमें मुख्य रूप से तीन प्रकार के दुःखो का वर्णन किया गया है -

परिणाम दुःख- विषय सुख के भोग के बाद सुख के वियोग की सम्भावना का दुःख अर्थात हम इन्द्रियों से मिलने वाली तृप्ति या सुखद अहसास को ही सुख समझने लगते हैं। लेकिन वास्तव में वह सुख नहीं है। इस प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न तृप्ति कभी भी शान्त नहीं होती बल्कि उनको और भी ज्यादा पाने की इच्छा होती रहती है। जैसे – स्वादिष्ट भोजन, आनन्द प्राप्ति के साधन आदि। इन सभी से हमें केवल एक क्षण के लिए तो आनंद मिलता है। लेकिन यह वास्तव में सुख नहीं है। यह एक पल की तृप्ति हमारी इन्द्रियों को कमजोर कर देती है । इसी को परिणाम दुःख कहते हैं।

ताप दुःख - सुख की अपूर्णता और सुख प्राप्ति में विघ्नों का दुःख अर्थात सुख पहुँचाने वाले साधनों व व्यक्तियों के प्रति राग अर्थात आसक्ति होना। दुःख पहुँचाने वाले साधनों व व्यक्तियों के प्रति द्वेष या घृणा होना ही ताप दुःख कहलाता है। ये राग व द्वेष दोनों ही दुःख पहुँचाने वाले होते हैं।

संस्कार दुःख - सुख वियोग के बाद सुख भोग के संस्कारों का दुःख अर्थात मनुष्य में सुख के भोगने से सुख के संस्कार व दुःख को भोगने से दुःख के संस्कार बनते हैं। इन सुख व दुःख के संस्कारों से व्यक्ति इसी जीवन-मरण के चक्र में बंधा रहता है। उसके चित्त में सुख व दुःख के संस्कार घूमते रहते हैं। यही संस्कार दुःख है।

गुण वृत्ति विरोध दुःख - गुण का अर्थ है सत्त्वगुण, रजोगुण व तमोगुण। वृत्ति का अर्थ है इनका कार्य। व विरोध का अर्थ होता है आपसी मतभेद। इन सभी गुणों का कार्य अलग-अलग होता है। सत्त्वगुण सुख, ज्ञान व प्रकाश का अनुभव करवाता है। रजोगुण इच्छाओं व चंचलता का अनुभव करवाता है। व तमोगुण अज्ञान व अंधकार का अनुभव करवाता है। लेकिन आपसी जब इन गुणों में आपसी तालमेल टूटता है तब यह एक दूसरे के ऊपर दबाव बनाते हैं। उसमें सत्त्वगुण रजोगुण पर रजोगुण तमोगुण पर व तमोगुण सत्त्वगुण पर प्रभावी होने का प्रयास करते रहते हैं। और एक गुण के प्रभावी होने से बाकी के दो गुण स्वयं ही दब जाते हैं। ऐसी अवस्था में शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। यह स्थिति भी दुःख को उत्पन्न करने वाली होती है।

न्याय-वैशेषिक दर्शन में दुःख की अवधारणा॥

गौतम न्यायसूत्र में सोलह पदार्थों में से प्रमेय द्वितीय पदार्थ है -

प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगमः। (न्यायसूत्र १।१।१॥)[12]

न्यायसूत्रमें प्रमेय बारह हैं, दुःख को ग्यारहवां प्रमेय माना है -

आत्मशरीरेन्द्रियार्थ बुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभाव फलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम्। (न्यायसूत्र १।१।९)[13]

अर्थात आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन,प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख और अपवर्ग ये बारह प्रमेय कहलाते हैं। साथ ही न्याय-वैशेषिक में सुख और दुःख को चौबीस गुणों में से एक माना है। सुख और दुःख आत्मा के विशेष गुण हैं।

मिथ्याज्ञान (मोह वा विपर्यय वा भ्रम) रूप कारण के नाश से दोषों (राग और द्वेष) का नाश होता है। ये राग-द्वेष और मोह रूप दोष ही (जिनमें मोह अधिक पापी है क्योंकि इसके बिना राग-द्वेष उत्पन्न ही नहीं हो सकते हैं) धर्म और अधर्म के जनक पुण्य वा पाप-रूप कर्मों में प्रवृत्ति कराते हैं, अतः इन दोषों के नाश से प्रवृत्ति की भी समाप्ति हो जाती है। और इस वाणी, मन तथा शरीर की क्रिया-रूप प्रवृत्ति (अर्थात सत्य प्रिय और हित वचन वाली पुण्य रूप वाचिकी क्रिया तथा असत्य अप्रिय और अहित वचन वाली पाप-रूप वाचिकी क्रिया, एवं प्राणियों पर दया-भाव इत्यादि की पुण्य-रूप मानसी क्रिया तथा उसकी विपरीत पाप-रूप मानसी क्रिया, एवं दान-सेवादि शारीरी पुण्य-क्रिया तथा उसकी विपरीत पाप-रूप शारीरिकी क्रिया) के न रह जाने पर फिर आगे उत्पन्न होना (पुनर्जन्म, प्रेत्य भाव) बन्द हो जाता है -

दुःख-जन्म-प्रवृत्ति-दोष-मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः। (अ० १ आ० १ सू० २)

वैशेषिक दर्शन में इस प्रकार कहा गया है -

आत्मेन्द्रिय मनोsर्थसंनिकर्षात्सुखदुःखे(अ० ५, आ० २, सू० १५)

अर्थात जब आत्मा मन से, मन इंद्रिय से और इंद्रिय अपने विषय से, सन्निकर्ष (समीप) में होती हैं तभी सुख-दुःख होते हैं।

चरक संहिता एवं दुःख निवृत्ति

दुःख की निवृत्ति कराना ही सभी दर्शनों का परम लक्ष्य रहा है। अतः एक दार्शनिक ग्रन्थ की तरह ही आयुर्वेद का लक्ष्य भी प्राणियों के दुःख का नाश कराना है। जिस प्रकार सांख्य में त्रिविध दुःख कहे हैं, उसी प्रकार आयुर्वेदीय चरक संहिता में चरक ने इनमें से आध्यात्मिक दुःख के चार प्रकार कहे हैं -

चत्वारो रोगाः भवन्ति - आगन्तुवातपित्तश्लेष्मनिमित्ताः; तेषां चतुर्णामपि रोगाणां रोगत्वमेकविधं भवति, रुक्सामान्यात्; द्विविधा पुनः प्रकृतिरेषाम्, आगन्तुनिजविभागात्; द्विविधं चैषामधिष्ठानं, मनःशरीरविशेषात्; विकाराः पुनरपरिसङ्ख्येयाः, प्रकृत्यधिष्ठानलिङ्गायतनविकल्पविशेषापरिसङ्ख्येयत्वात् ॥३॥ (चरक संहिता)[14]

आगन्तुज, वातज, पित्तज और कफज। ये चार प्रकार के दुःख अधिष्ठान के भेद से दो ही प्रकार के हैं - शारीरिक और मानसिक। चरक ने उन सभी दुःखों का मूल उपधा को ही स्वीकार किया है -

उपधा हि परो हेतुर्दुःखदुःखाश्रयप्रदः। त्यागः सर्वोपधानां च सर्वदुःखव्यपोहकः॥

कोषकारो यथा ह्यंशूनुपादत्ते वधप्रदान्। उपादत्ते तथाऽर्थेभ्यस्तृष्णामज्ञः सदातुरः॥

यस्त्वग्निकल्पानर्थाञ्ज्ञो ज्ञात्वा तेभ्यो निवर्तते। अनारम्भादसंयोगात्तं दुःखं नोपतिष्ठते॥ (चरक संहिता)[15]

सभी प्रकार की उपधाओं को छोडना ही सभी दुःखों का विनाशक है। जैसे - रेशम का कीडा अपने सभी विनाशक तन्तुओं को स्वयं ही उत्पन्न करता है। उसी प्रकार ज्ञान रहित मानव पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय के प्रति अपने में तृष्णा को उत्पन्न कर लेता है, अतएव वह हमेशा रोगी बना रहता है। इसके विपरीत जो मनुष्य अग्नि के समान इन इन्द्रियों के विषय को भली-भांति जानकर उनसे निवृत्त हो जाता है। उसके उपरान्त किसी कार्य के आरम्भ न होने से तथा शरीर का संयोग न होने से आत्मा उस दुःख को प्राप्त नहीं होती है।[16]

दुःख निवृत्ति उपाय

सारांश॥ Summary

एक सामूहिक अज्ञान की स्थिति है। भारतीय ज्ञान परम्परा में दर्शन ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे दुःख को आत्यन्तिक केवल वहीं अपने को इस स्थिति से बचा पाते हैं जिनमें विवेक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। विवेक से आत्मा का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाता है। सचराचर लोक में सुख एवं दुःख की अनुभूति प्रत्येक जीव को होती है। कर्माशय की तीव्रता के कारण किसी को तीव्र दुःखानुभूति होती है तो किसी को मन्द दुःख की अनुभूति होती है। दुःख को प्रतिकूल अनुभूति कहा गया है -[17]

प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्। दुःख येनाभिहताः प्राणिनस्तदुपघाताय प्रयतन्ते तदुःखमिति योगभाष्यम् । एतावता प्रतिकूलवेदनीयं दुःखमिति सामान्यलक्षणम्।

जब इच्छाओं के विपरीत किसी वस्तु का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है अथवा किसी अत्यन्त प्रिय वस्तु का विच्छेद हो जाता है तो दुःख होता है। श्री कृष्ण जी गीता में कहते हैं कि -

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥ (भगवद्गीता)[18]

अर्थात इन्द्रिय और विषयों के संसर्ग से होने वाले जितने भी भोग हैं वे सब दुःख के ही कारण हैं तथा आदि और अन्त वाले हैं। विवेकी पुरुष उनमें कभी आसक्त नहीं होता। महर्षि वसिष्ठ राम जी से कहते हैं कि -

यः स्वादयन् भोगविषं रतिमेति देने दिने। सोsग्नौ स्वमूर्ति ज्वलिते कक्षमक्षयमुज्झति॥ (योग वासिष्ठ)[19]

अर्थात जो मनुष्य नित्य भोगरूप विषका आस्वादन करके प्रसन्न होता है वह तो मानों निरन्तर अपने शरीररूपी ईंधन को प्रज्वलित अग्नि में जला रहा है। हेय, हेय हेतु, हान और हानोपाय ये चार प्रत्येक अध्यात्म शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है -

  • हेय - इसके स्वरूप को महर्षि पतंजति जी ने योगदर्शन द्वितीय पाद के सोलहवें सूत्र "हेयं दुःखमनागतम्" में स्पष्ट किया है। इस सूत्र के अनुसार भविष्य में आने वाले दुःख को ही हेय अर्थात त्याज्य कहा गया है। अर्थात जो दुःख अभी प्राप्त नहीं हुआ है उसे ही दूर किया जा सकता है, उससे ही बचा जा सकता है। त्याग के योग्य दुःख है, जो कि प्रतिकूल लगता है।
  • हेय हेतु - इसके स्वरूप को द्वितीय पाद के सत्रहवें सूत्र - "द्रष्टदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः" में स्पष्ट किया गया है। हेयहेतु का अर्थ है दुःख का कारण। जीवात्मा का बुद्धि एवं समस्त प्राकृतिक पदार्थों के साथ जो अज्ञानपूर्वक सम्बन्ध है वह हेयहेतु कहलाता है।
  • हान - इसका वर्णन योगदर्शन सूत्र २/२५ "तदभावात्संयोगाभावो हानं तद्दृशेः कैवल्यम्" में किया गया है। अविद्या का अभाव हो जाने पर बुद्धि और जीवात्मा के बन्धन का नितान्त विनाश हो जाता है तथा उसे प्राप्त करने योग्य दुःखरहित नित्य सुख और ईश्वर की प्राप्ति होती है। यही हान का स्वरूप है, हान का अर्थ मोक्ष है।
  • हानोपाय - इसका स्वरूप योगदर्शन सूत्र २/२६ विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपाय" में बतलाया गया है अर्थात स्थिर (दृढ) विवेकख्याति मोक्ष का उपाय है। इसके साथ ही विद्या, धर्माचरण, शुद्ध ज्ञान, शुद्ध (निष्काम) कर्म तथा शुद्ध उपासना आदि भी मोक्षप्राप्ति के उपाय हैं। हानोपाय का अर्थ मोक्षप्राप्ति का उपाय है। कहने का आशय यह है कि मोक्ष का उपाय होने के कारण विवेकख्याति के स्वरूप को अच्छे प्रकार से जान लेना चाहिए।[20]

दुख तीन प्रकार के होते हैं (1) दैविक (2) दैहिक (3) भौतिक। दैनिक दुख वे कहे जाते हैं जो मन को होते हैं जैसे चिन्ता आशंका क्रोध, अपमान, शत्रुता, विछोह, भय, शोक आदि। दैहिक दुख वे होते हैं जो शरीर को होते हैं जैसे रोग, चोट, आघात, विष आदि के प्रभाव से होने वाले कष्ट।

आशा हि परमं दुःखं निराशा परमं सुखं। आशापाशं परित्यज्य सुखं स्वपिति पिंगला॥ (भागवत पुराण)[21]

भौतिक दुख वे हैं जो अचानक अदृश्य प्रकार से आते हैं जैसे भूकम्प, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, महामारी, युद्ध आदि। इन्हीं तीन प्रकार के दुखों की वेदना से मनुष्यों को तड़पता हुआ देखा जाता है। यह तीनों दुख हमारे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कर्मों के फल हैं। मानसिक पापों के परिणाम से दैविक दुख आते हैं, शारीरिक पापों के फलस्वरूप दैहिक और सामाजिक पापों के कारण भौतिक दुख उत्पन्न होते हैं।[22]

उद्धरण॥ References

  1. प्रो० सोहन राज तातेड, भारतीय दर्शन में मोक्ष की अवधारणा, सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान (पृ० १)।
  2. आचार्य केदारनाथ त्रिपाठी, सांख्ययोग कोश, सन् १९७४, श्रीविजय कुमार त्रिपाठी, वाराणसी (पृ० १९)।
  3. शोध छात्र-सचिन भारद्वाज एवं गणेश शंकर गिरी, योग दर्शन में ईश्वर का स्थानः एक साधन या साध्य, सन् २०२१, डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (पृ० १४१)।
  4. अष्टावक्र गीता, अध्याय -११, श्लोक-०५।
  5. न्यायसूत्र, अध्याय-०१, सूत्र-०२।
  6. परमार्थ पत्रिका विशेषांक-दुःख निवारण अंक, आचार्य श्रीनरदेव जी शास्त्री, दुःख-सुख-आनन्द मीमांसा, परमार्थ प्रेस, शाहजहाँपुर (पृ० १२४)।
  7. शब्दकल्पद्रुम
  8. अमरकोश, प्रथमकाण्ड, नरकवर्ग, श्लोक-०३।
  9. मार्कण्डेय नाथ तिवारी, त्रिविध दुःख और सांख्यशास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य विषय, सन् २०२०, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (पृ० २९०)।
  10. डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी, सांख्यकारिका-तत्त्वप्रभा व्याख्या सहित, सन् १९७०, बालकृष्ण त्रिपाठी, भदैनी वाराणसी (पृ० १)।
  11. योगसूत्र, साधनपाद-सूत्र १५
  12. प्रो० राजाराम , न्याय सूत्र और न्याय भाष्य, सन् १९२१, बॉम्बे मैशीन प्रेस-लाहौर (पृ० ५)।
  13. प्रो० राजाराम , न्याय सूत्र और न्याय भाष्य, सन् १९२१, बॉम्बे मैशीन प्रेस-लाहौर (पृ० ३६)।
  14. चरक संहिता, सूत्र स्थान, महारोगाध्याय-२०, श्लोक 63-64।
  15. चरक संहिता, शारीर स्थान, कतिधापुरुषीयशारीरम, श्लोक 63-64।
  16. किरण कुमार एवं कौशल्या चौहान, चरह संहिता में सांख्य संदर्भ, सन् २०१९, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ संस्कृत रिसर्च (पृ० २९०)।
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  18. भगवद्गीता, अध्याय-०५, श्लोक-२२।
  19. योगवासिष्ठ, प्रकरण-६, सर्ग-३६, श्लोक-२२।
  20. देशराज-योग, अर्थ, परिभाषा एवं वैशिष्ट्य, सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २२)।
  21. भागवत महापुराण, स्कन्ध-११, अध्याय-०८, श्लोक-४४।
  22. श्री राम शर्मा,अखण्ड ज्योति-दुःख और उनका कारण, सन १९४८-सितंबर, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा (पृ० ७)।