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तीर्थ क्षेत्र भारतीय संस्कृति, धर्म और परंपराओं का अभिन्न हिस्सा हैं। वैदिक साहित्य में तीर्थ शब्द पवित्र स्थान के अर्थ में प्रयोग हुआ है। तीर्थ क्षेत्र न केवल आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रदान करते हैं किन्तु शिक्षा एवं कला के ज्ञान में, स्वास्थ्य के संरक्षण तथा अर्थव्यवस्था के लिये भी सहायक हैं। चार धाम, सात पुरी, द्वादश ज्योतिर्लिंग तथा अनेक नदी, वन, उपवन तीर्थों की श्रेणी में आते हैं, इनके दर्शन, निवास, स्नान, भजन, पूजन, अर्चन आदि की सुस्थिर मान्यता है। तीर्थ क्षेत्रों में अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य, विशुद्ध जलवायु एवं महात्माओं का सत्संग व्यक्ति के मन को शुद्ध एवं पवित्र करता है।
 
तीर्थ क्षेत्र भारतीय संस्कृति, धर्म और परंपराओं का अभिन्न हिस्सा हैं। वैदिक साहित्य में तीर्थ शब्द पवित्र स्थान के अर्थ में प्रयोग हुआ है। तीर्थ क्षेत्र न केवल आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रदान करते हैं किन्तु शिक्षा एवं कला के ज्ञान में, स्वास्थ्य के संरक्षण तथा अर्थव्यवस्था के लिये भी सहायक हैं। चार धाम, सात पुरी, द्वादश ज्योतिर्लिंग तथा अनेक नदी, वन, उपवन तीर्थों की श्रेणी में आते हैं, इनके दर्शन, निवास, स्नान, भजन, पूजन, अर्चन आदि की सुस्थिर मान्यता है। तीर्थ क्षेत्रों में अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य, विशुद्ध जलवायु एवं महात्माओं का सत्संग व्यक्ति के मन को शुद्ध एवं पवित्र करता है।
    
==परिचय॥ Introduction==
 
==परिचय॥ Introduction==
तीर्थ क्षेत्रों की स्थापना करने में हमारे तत्वदर्शी पूर्वजों ने बडी बुद्धिमता का परिचय दिया है। जिन स्थानों पर तीर्थ स्थान स्थापित किये गये हैं वे जलवायु की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी हैं। जिन नदियों का जल विशेष शुद्ध उपयोगी एवं स्वास्थ्यप्रद पाया गया है उनके तटों पर तीर्थ स्थापित किये गये हैं। ऋग्वेद में तीर्थ शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है, जिसमें अनेक स्थलों पर यह मार्ग अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में १०.११४.७ की व्याख्या में सायण ने तीर्थ का अर्थ - "पापोत्तरणसमर्थ" दिया है। अवतरण प्रदेश (नदी का किनारा, घाट), यज्ञ तथा स्थान विशेष के लिये भी तीर्थ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है।<ref>डॉ० राजाराम हजारी, [https://www.exoticindiaart.com/book/details/pilgrimage-in-ancient-india-nzi854/ प्राचीन भारत में तीर्थ], अध्याय ०१, सन् २००३, शारदा पब्लिशिंग् हाऊस, दिल्ली (पृ० ३)। </ref> गंगा के तट पर सबसे अधिक तीर्थ हैं, क्योंकि गंगा का जल संसार की अन्य नदियों की अपेक्षा अधिक उपयोगी है। उस जल में स्वर्ण, पारा, गंधक तथा अभ्रक जैसे उपयोगी खनिज पदार्थ मिले रहते हैं जिसके संमिश्रण से गंगाजल एक-एक प्रकार की दवा बन जाता है, जिसके प्रयोग से उदर रोग, चर्म रोग तथा रक्त विकार आश्चर्य जनक रीति से अच्छे होते हैं। इन गुणों की उपयोगिता का तीर्थों के निर्माण में प्रधान रूप से ध्यान रखा गया है।<ref>[https://www.awgp.org/en/literature/akhandjyoti/1948/December/v2.14 अखण्ड ज्योति], दिसम्बर सन् १९४८ (पृ० १४)।</ref> तीर्थों के संबंध में मार्कण्डेय पुराण में अगस्त्य ऋषि कहते हैं -  <blockquote>यथा शरीरस्योद्देशाः केचिन्मध्योत्तमाः स्मृताः। तथा पृथिव्यामुद्देशाः केचित् पुण्यतमाः  स्मृताः॥ (स्कन्द पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83_%E0%A5%A8_(%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%B5%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83)/%E0%A4%85%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A6 स्कन्दपुराण], वैष्णव खण्ड - अध्याय 10, श्लोक-49।</ref> </blockquote>अर्थात जिस प्रकार मनुष्य शरीर के कुछ अंग जैसे - दक्षिण हस्त, कर्ण अथवा मस्तक इत्यादि अन्य अंगों की अपेक्षा पवित्र माने जाते हैं उसी प्रकार पृथिवी पर कुछ स्थान विशेष रूप से पवित्र माने जाते हैं। तीर्थस्थलों की पवित्रता तीन प्रमुख कारणों से मानी जाती है -  
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तीर्थ क्षेत्रों की स्थापना करने में हमारे तत्वदर्शी पूर्वजों ने बडी बुद्धिमता का परिचय दिया है। जिन स्थानों पर तीर्थ स्थान स्थापित किये गये हैं वे जलवायु की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी हैं। जिन नदियों का जल विशेष शुद्ध उपयोगी एवं स्वास्थ्यप्रद पाया गया है उनके तटों पर तीर्थ स्थापित किये गये हैं। ऋग्वेद में तीर्थ शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है, जिसमें अनेक स्थलों पर यह मार्ग अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में १०.११४.७ की व्याख्या में सायण ने तीर्थ का अर्थ - "पापोत्तरणसमर्थ" दिया है। अवतरण प्रदेश (नदी का किनारा, घाट), यज्ञ तथा स्थान विशेष के लिये भी तीर्थ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है।<ref name=":2">डॉ० राजाराम हजारी, [https://www.exoticindiaart.com/book/details/pilgrimage-in-ancient-india-nzi854/ प्राचीन भारत में तीर्थ], अध्याय ०१, सन् २००३, शारदा पब्लिशिंग् हाऊस, दिल्ली (पृ० ३)। </ref> गंगा के तट पर सबसे अधिक तीर्थ हैं, क्योंकि गंगा का जल संसार की अन्य नदियों की अपेक्षा अधिक उपयोगी है। उस जल में स्वर्ण, पारा, गंधक तथा अभ्रक जैसे उपयोगी खनिज पदार्थ मिले रहते हैं जिसके संमिश्रण से गंगाजल एक-एक प्रकार की दवा बन जाता है, जिसके प्रयोग से उदर रोग, चर्म रोग तथा रक्त विकार आश्चर्य जनक रीति से अच्छे होते हैं। इन गुणों की उपयोगिता का तीर्थों के निर्माण में प्रधान रूप से ध्यान रखा गया है।<ref>[https://www.awgp.org/en/literature/akhandjyoti/1948/December/v2.14 अखण्ड ज्योति], दिसम्बर सन् १९४८ (पृ० १४)।</ref> तीर्थों के संबंध में मार्कण्डेय पुराण में अगस्त्य ऋषि कहते हैं -  <blockquote>यथा शरीरस्योद्देशाः केचिन्मध्योत्तमाः स्मृताः। तथा पृथिव्यामुद्देशाः केचित् पुण्यतमाः  स्मृताः॥ (स्कन्द पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83_%E0%A5%A8_(%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%B5%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83)/%E0%A4%85%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A6 स्कन्दपुराण], वैष्णव खण्ड - अध्याय 10, श्लोक-49।</ref> </blockquote>अर्थात जिस प्रकार मनुष्य शरीर के कुछ अंग जैसे - दक्षिण हस्त, कर्ण अथवा मस्तक इत्यादि अन्य अंगों की अपेक्षा पवित्र माने जाते हैं उसी प्रकार पृथिवी पर कुछ स्थान विशेष रूप से पवित्र माने जाते हैं। तीर्थस्थलों की पवित्रता तीन प्रमुख कारणों से मानी जाती है -  
    
#स्थान विशेष की कुछ आश्चर्यजनक प्राकृतिक विशेषताओं के कारण
 
#स्थान विशेष की कुछ आश्चर्यजनक प्राकृतिक विशेषताओं के कारण
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==तीर्थ की परिभाषा॥ Tirth ki Paribhasha==
 
==तीर्थ की परिभाषा॥ Tirth ki Paribhasha==
 
तीर्थ शब्द प्लवन-तरणार्थक-तॄ धातु से पातॄतुदिवचि० (२/७) इस उणादि सूत्र से थक् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ है -  <blockquote>तरति पापादिकं यस्मात् तत् तीर्थम्।(शब्दकल्पद्रुम)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B7%E0%A5%80 शब्दकल्पद्रुम] </ref></blockquote>वह स्थान-विशेष जहां जाने से पापों का क्षय हो जाता है, उसे तीर्थ कहते हैं। इस प्रकार [[Dharma (धर्मः)|धर्म]] और [[Moksha (मोक्षः)|मोक्ष]] की प्राप्ति में तीर्थ बडे सहायक हैं।
 
तीर्थ शब्द प्लवन-तरणार्थक-तॄ धातु से पातॄतुदिवचि० (२/७) इस उणादि सूत्र से थक् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ है -  <blockquote>तरति पापादिकं यस्मात् तत् तीर्थम्।(शब्दकल्पद्रुम)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B7%E0%A5%80 शब्दकल्पद्रुम] </ref></blockquote>वह स्थान-विशेष जहां जाने से पापों का क्षय हो जाता है, उसे तीर्थ कहते हैं। इस प्रकार [[Dharma (धर्मः)|धर्म]] और [[Moksha (मोक्षः)|मोक्ष]] की प्राप्ति में तीर्थ बडे सहायक हैं।
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'''तीर्थ शब्दार्थ'''
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भट्टोजि दीक्षित ने उणादि २/७ की व्याख्या करते समय तीर्थ शब्द को शास्त्र, अध्वर, क्षेत्र, उपाय, उपाध्याय तथा मन्त्री का बोधक माना है - <ref name=":2" /><blockquote>तीर्थं शास्त्राध्वरक्षेत्रोपायोपाध्याय-मन्त्रिषु। (Vishvakosha)</blockquote>शास्त्र, दर्शन आदि इसलिए तीर्थ हैं, कि इनके अध्ययन से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है, जिससे व्यक्ति पापादि से निवृत्त होता है। अध्वर अर्थात यज्ञादि कर्मकाण्ड से देवता प्रसन्न होते हैं, जिससे दैवी शक्ति प्राप्त होती है, आत्मबल आता है तथा मनःशुद्धि होती है। अतः इससे भी मनुष्य पापकर्मों से निवृत्त तथा पुण्यकर्मों में प्रवृत्त होता है।
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क्षेत्र (स्थान विशेष) तो आजकल प्रधान रूप से तीर्थ माना गया है, क्योंकि आज सभी लोग प्रायः स्थल विशेष के लिए ही तीर्थ शब्द का प्रयोग करते हैं।
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उपाध्याय शास्त्र-ज्ञान द्वारा अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करता है। अतः सद्गुरु के उपदेश से ही अन्तःकरण की शुद्धि तथा पापों की निवृत्ति सम्भव है। अतएव उसे तीर्थ कहा गया है।
    
==तीर्थ का वर्गीकरण॥ Tirth ka Vargikarana==
 
==तीर्थ का वर्गीकरण॥ Tirth ka Vargikarana==
शास्त्रों में तीन प्रकार के तीर्थों का वर्णन है - 1. मानस तीर्थ, 2. जंगम तीर्थ और 3. स्थावर तीर्थ। इनके अतिरिक्त तीर्थों का विभाजन प्रकारान्तर से भी किया गया है - १. नैसर्गिक २. निर्मित। निर्मित तीर्थ भी चार प्रकार के हैं - १. देव २. आसुर ३. आर्ष ४. मानुष। ये पुनः पार्थिव, अन्तरिक्ष तथा पाताल के भेद से तीन प्रकार के हैं।<ref>डॉ० राजाराम हजारी, [https://www.exoticindiaart.com/book/details/pilgrimage-in-ancient-india-nzi854/ प्राचीन भारत में तीर्थ], भूमिका, सन् २००३, शारदा पब्लिशिंग् हाऊस, दिल्ली (पृ० १)।</ref>
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पुराणों में तीर्थों का उल्लेख व्यापक रूप से प्राप्त होता है। तीर्थ शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में भी हुआ है। ऋग्वेद में तीर्थ शब्द का प्रयोग नदी के तट या समीपस्थ क्षेत्र या किसी भी जल अथवा समुद्र तटीय स्थान के लिये हुआ है। स्कन्दपुराण में तीन लाख पचास हजार तीर्थों की संख्या बताई गई है।<ref>डॉ० शिवस्वरूप सहाय, [https://books.google.co.in/books?id=qQXqEUyr6t4C&pg=PA153&dq=%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5&hl=hi&newbks=1&newbks_redir=0&sa=X&ved=2ahUKEwiGsuD7kvWKAxXBXGwGHTP-OGsQ6AF6BAgFEAI#v=onepage&q=%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5&f=false प्राचीन भारतीय धर्म एवं दर्शन], सन २०१०, मोतीलाल बनारसीदास (पृ० १५३)।</ref> पौराणिक काल में पुण्यप्रदेशों को भी तीर्थ कहा जाने लगा - <blockquote>आश्रयाः मुनीन्द्राणां देवानां च तथा प्रिये। भूमिभागाः पर्वताः स्युः तत्कीर्त्य तीर्थ मित्युत॥ (स्कन्द पुराण)</blockquote>मुनि, देव आदि के जो आश्रयभूत भूमिभाग एवं पर्वत हैं वे तीर्थ हैं। ब्रह्मपुराण में वर्णित है कि कर्मभूमि होने के कारण ये तीर्थ हैं - <blockquote>कर्मभूमिर्यतः पुत्र तस्मात तीर्थं तदुच्यते॥ (ब्रह्मपुराण ७७/२१)</blockquote>कर्मभूमि का अभिप्राय कर्मक्षेत्र से है। अर्थात श्रेष्ठजनों का जो कर्मक्षेत्र होता है वही तीर्थ कहा जाता है। एवं इसके अतिरिक्त प्राकृतिक वन, नदी, पर्वत या सरोवर आदि हों जिनकी महत्ता शास्त्रों में वर्णित हों या जो पुण्यफल प्रदायिणी हों या किसी दिव्य पुरुष की लीला स्थली रही हो वे भी तीर्थ माने जाते हैं। पद्मपुराण में - <blockquote>तीर्थाभिगमनं पुण्यं यज्ञैरपि विशिष्यते। (पद्म० आदि ११/१७)</blockquote>तीर्थगमन का फल यज्ञ से भी विशिष्ट है। प्रत्येक तीर्थ क्षेत्र को एक नाम विशेष से पुराणों में सम्बोधित किया गया है जैसे - भृगुक्षेत्र, वाल्मीकि पर्वत, प्रयाग तीर्थ आदि। शास्त्रों में तीन प्रकार के तीर्थों का वर्णन है - 1. मानस तीर्थ, 2. जंगम तीर्थ और 3. स्थावर तीर्थ। इनके अतिरिक्त तीर्थों का विभाजन प्रकारान्तर से भी किया गया है - १. नैसर्गिक २. निर्मित। निर्मित तीर्थ भी चार प्रकार के हैं - १. देव २. आसुर ३. आर्ष ४. मानुष। ये पुनः पार्थिव, अन्तरिक्ष तथा पाताल के भेद से तीन प्रकार के हैं।<ref>डॉ० राजाराम हजारी, [https://www.exoticindiaart.com/book/details/pilgrimage-in-ancient-india-nzi854/ प्राचीन भारत में तीर्थ], भूमिका, सन् २००३, शारदा पब्लिशिंग् हाऊस, दिल्ली (पृ० १)।</ref>  
    
'''मानस तीर्थ॥ Manasa Tirtha'''  
 
'''मानस तीर्थ॥ Manasa Tirtha'''  
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==तीर्थ माहात्म्य॥ Tirtha Mahatmya==
 
==तीर्थ माहात्म्य॥ Tirtha Mahatmya==
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सनातन परम्परा में तीर्थों का महत्व बहुत प्राचीन काल से ही रहा है। वैदिक साहित्य में तीर्थ शब्द का प्रयोग पवित्र स्थान के अर्थ में हुआ है। रामायण एवं महाभारत में भी तीर्थों का माहात्म्य अधिक था। महाभारत में तो आदि से अंत तक सम्पूर्ण ग्रन्थ में तीर्थों का वर्णन मिलता है। पुलस्त्य-भीष्म संवाद, गौतम-आंगिरस-संवाद तथा भीष्म-युधिष्ठिर संवाद में तीर्थों का माहात्म्य एवं फल का विस्तृत वर्णन है।<ref>डॉ० राजाराम हजारी, [https://www.exoticindiaart.com/book/details/pilgrimage-in-ancient-india-nzi854/ प्राचीन भारत में तीर्थ], सन् २००३, शारदा पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली (पृ० ०२)।</ref>
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तीर्थों में जाने एवं वहाँ दान आदि करने का अत्यधिक माहात्म्य शास्त्रों में वर्णित है जिसका प्रमाण अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। किन्तु यहाँ तीर्थ-माहात्म्य के संकेत के लिए संक्षेप में उनका निरूपण किया जा रहा है - <blockquote>अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैरिष्टाविपुलदक्षिणैः। न तत् फलमवाप्नोति तीर्थाभिगमनेन यत्॥
 
तीर्थों में जाने एवं वहाँ दान आदि करने का अत्यधिक माहात्म्य शास्त्रों में वर्णित है जिसका प्रमाण अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। किन्तु यहाँ तीर्थ-माहात्म्य के संकेत के लिए संक्षेप में उनका निरूपण किया जा रहा है - <blockquote>अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैरिष्टाविपुलदक्षिणैः। न तत् फलमवाप्नोति तीर्थाभिगमनेन यत्॥
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धर्मशास्त्रों में इसी कारण तीर्थ यात्रा के इन दोनों ही माहात्म्यों के प्रतिफलों का स्थान-स्थान पर वर्णन किया है। जैसा कि - <blockquote>अनुपातकिनस्त्वेते महापातकिनो यथा। अश्वमेधेन शुद्धयन्ति तीर्थानुसरेण च॥ (विष्णु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%B7%E0%A4%A1%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%BD%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 विष्णु स्मृति], अध्याय-36, श्लोक-07।</ref></blockquote>भाषार्थ - पापी, महापापी सभी [[Ashvamedha Yajna (अश्वमेधयज्ञः)|अश्वमेध]] से तथा तीर्थ अनुसरण अर्थात तीर्थ यात्रा से शुद्ध हो जाते हैं। तीर्थयात्रा के समय भावनाएँ उच्चस्तरीय होनी चाहिए। उस अवधि में आत्म-निर्माण और लोक कल्याण के लिए क्या करना चाहिए? किस प्रकार करना चाहिए? यह चिन्तन एवं मनन [[Antahkarana Chatushtaya (अन्तःकरणचतुष्टयम्)|अन्तःकरण]] में चलता रहना चाहिए।
 
धर्मशास्त्रों में इसी कारण तीर्थ यात्रा के इन दोनों ही माहात्म्यों के प्रतिफलों का स्थान-स्थान पर वर्णन किया है। जैसा कि - <blockquote>अनुपातकिनस्त्वेते महापातकिनो यथा। अश्वमेधेन शुद्धयन्ति तीर्थानुसरेण च॥ (विष्णु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%B7%E0%A4%A1%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%BD%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 विष्णु स्मृति], अध्याय-36, श्लोक-07।</ref></blockquote>भाषार्थ - पापी, महापापी सभी [[Ashvamedha Yajna (अश्वमेधयज्ञः)|अश्वमेध]] से तथा तीर्थ अनुसरण अर्थात तीर्थ यात्रा से शुद्ध हो जाते हैं। तीर्थयात्रा के समय भावनाएँ उच्चस्तरीय होनी चाहिए। उस अवधि में आत्म-निर्माण और लोक कल्याण के लिए क्या करना चाहिए? किस प्रकार करना चाहिए? यह चिन्तन एवं मनन [[Antahkarana Chatushtaya (अन्तःकरणचतुष्टयम्)|अन्तःकरण]] में चलता रहना चाहिए।
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===तीर्थयात्रा और शिक्षा॥ Pilgrimage and Education===
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===तीर्थयात्रा और शिक्षा॥ Pilgrimage and Education ===
 
तीर्थयात्रा तीर्थ करने वालों के लिए शिक्षा, रचना और सांस्कृतिक चेतना का एक महत्वपूर्ण स्रोत रही है। भारतीय तीर्थों में यात्रा दूर गाँव में रहने वाले असंख्य लोगों का समूचे भारत और उसके विभिन्न रीति रिवाजों, जीवन शैलियों और प्रथाओं को जानने का अवसर प्रदान करती है। एक सर्वे के अनुसार तीर्थयात्रा में [[Shiksha (शिक्षा)|शिक्षा]] की तीन विशेषताएँ मिलती हैं, ये हैं - <ref>एस० के० भट्टाचार्या, [https://egyankosh.ac.in/handle/123456789/73825 प्रार्थनाः तीर्थ यात्रा और पर्व], सन 2021, इंदिरा गाँधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (पृ० १३८)।</ref>
 
तीर्थयात्रा तीर्थ करने वालों के लिए शिक्षा, रचना और सांस्कृतिक चेतना का एक महत्वपूर्ण स्रोत रही है। भारतीय तीर्थों में यात्रा दूर गाँव में रहने वाले असंख्य लोगों का समूचे भारत और उसके विभिन्न रीति रिवाजों, जीवन शैलियों और प्रथाओं को जानने का अवसर प्रदान करती है। एक सर्वे के अनुसार तीर्थयात्रा में [[Shiksha (शिक्षा)|शिक्षा]] की तीन विशेषताएँ मिलती हैं, ये हैं - <ref>एस० के० भट्टाचार्या, [https://egyankosh.ac.in/handle/123456789/73825 प्रार्थनाः तीर्थ यात्रा और पर्व], सन 2021, इंदिरा गाँधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (पृ० १३८)।</ref>
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#पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण
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# पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण
 
#उसका संवर्धन
 
#उसका संवर्धन
 
#आगामी पीढी में उसका प्रचार-प्रसार
 
#आगामी पीढी में उसका प्रचार-प्रसार
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==सारांश॥ Summary==
 
==सारांश॥ Summary==
भारत में तीर्थ स्थलों की एक बहुत प्राचीन परम्परा है। प्राचीन काल से ही भारतीय शान्ति की खोज में तीर्थयात्रा करते आये हैं। परम्परा अनुसार चार धामों की यात्र पर जाते थे जोकि भारत के चारों कोनों में स्थापित हैं - उत्तर में बद्रीनाथ (पहाडों पर), पूर्व में पुरी (समुद्र के किनारे), पश्चिम में द्वारिका (समुद्री किनारा) एवं दक्षिण में रामेश्वरम (समुद्र तट)। भारत में स्थित कुछ तीर्थस्थलों की सूची इस प्रकार है -  
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भारत में तीर्थ स्थलों की एक बहुत प्राचीन परम्परा है। प्राचीन काल से ही भारतीय शान्ति की खोज में तीर्थयात्रा करते आये हैं। परम्परा अनुसार चार धामों की यात्र पर जाते थे जोकि भारत के चारों कोनों में स्थापित हैं - उत्तर में बद्रीनाथ (पहाडों पर), पूर्व में पुरी (समुद्र के किनारे), पश्चिम में द्वारिका (समुद्री किनारा) एवं दक्षिण में रामेश्वरम (समुद्र तट)। भारत में स्थित कुछ तीर्थस्थलों की सूची इस प्रकार है -<ref>महेश शर्मा, [https://books.google.co.in/books?id=q35sBQAAQBAJ&pg=PA128&dq=%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5&hl=hi&newbks=1&newbks_redir=0&sa=X&ved=2ahUKEwiRlIm1qPWKAxVyR2wGHc65AZ84PBDoAXoECAsQAg#v=onepage&q=%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5&f=false हिन्दू धर्म विश्वकोश], सन २०१३, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली (पृ० १२८)।</ref>
    
*'''उत्तरी क्षेत्र -''' अमरनाथ, बद्रीनाथ, केदारनाथ, वैष्णोदेवी, रुद्र प्रयाग, हरिद्वार, काशी, बनारस, प्रयाग, नगरकोट, कुरुक्षेत्र, अमृतसर, अयोध्या, हेमकुण्ड, विन्ध्यवासिनी, चित्रकूट इत्यादि।
 
*'''उत्तरी क्षेत्र -''' अमरनाथ, बद्रीनाथ, केदारनाथ, वैष्णोदेवी, रुद्र प्रयाग, हरिद्वार, काशी, बनारस, प्रयाग, नगरकोट, कुरुक्षेत्र, अमृतसर, अयोध्या, हेमकुण्ड, विन्ध्यवासिनी, चित्रकूट इत्यादि।
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तीर्थायात्रा मुख्यतः नदियों के किनारों एवं संगम के साथ-साथ थी। तीर्थ, मन व विचारों की पवित्रता से जुडा था एवं पापों के प्रायश्चित एवं निर्वाण के लिये किया जाता था। धर्मशास्त्र के अनुसार प्रायश्चित्त के अनुष्ठान की अनेक प्रयोग विधियाँ हैं, जैसे उपवास, दोषख्यापन, प्राणायाम, जप, तप, होम एवं तीर्थयात्रा आदि। तीर्थगमन को प्रायश्चित्त का मुख्य अंग माना गया है। स्कन्दपुराणमें कहा गया है -  <blockquote>
 
तीर्थायात्रा मुख्यतः नदियों के किनारों एवं संगम के साथ-साथ थी। तीर्थ, मन व विचारों की पवित्रता से जुडा था एवं पापों के प्रायश्चित एवं निर्वाण के लिये किया जाता था। धर्मशास्त्र के अनुसार प्रायश्चित्त के अनुष्ठान की अनेक प्रयोग विधियाँ हैं, जैसे उपवास, दोषख्यापन, प्राणायाम, जप, तप, होम एवं तीर्थयात्रा आदि। तीर्थगमन को प्रायश्चित्त का मुख्य अंग माना गया है। स्कन्दपुराणमें कहा गया है -  <blockquote>
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यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम्। निर्विकाराः क्रियाः सर्वाः स तीर्थफलमश्नुते॥ (माहे० कुमार० २/) </blockquote>
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यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम्। निर्विकाराः क्रियाः सर्वाः स तीर्थफलमश्नुते॥ (स्कन्दपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83_%E0%A5%A7_(%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83)/%E0%A4%95%E0%A5%8C%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AC%E0%A5%AA स्कन्दपुराण], माहेश्वरखण्ड, अध्याय-६४, श्लोक-२६।</ref> </blockquote>
    
अर्थात जिसके हाथ, पैर और मन अच्छी तरह से वशमें हों तथा जिसकी सभी क्रियाएँ निर्विकारभावसे सम्पन्न होती हों, वही तीर्थका पूर्ण फल प्राप्त करता है। श्री रामजी वनगमन के समय जहां-जहां वास किये वो सभी तीर्थ कहलाये, उनकी यात्रा के अन्तर्गत आने वाले तीर्थों की संख्या १०८ है - <blockquote>वनवासगतो रामो यत्र यत्र व्यवस्थितः। तानि चोक्तानि तीर्थानि शतमष्टोत्तरण क्षितौ॥ (बृहद्धर्म० पूर्व० १४)</blockquote>लंका से लौटते समय श्रीराम ने सीता जी को दिखाते हुए अपने पूर्व निवास स्थलों को एक-एककर गिनाया है। महाभारत-वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वके ८२ से ९५ तकके अध्यायोंमें महर्षि पुलस्त्यने भीष्मसे, देवर्षि नारदने युधिष्ठिरसे तथा पद्मपुराण-आदिखण्ड (स्वर्गखण्ड) के १० से २८ तकके अध्यायोंमें महर्षि वसिष्ठने दिलीपसे एवं अन्यत्र भी वामन आदि पुराणोंमें कई स्थलोंपर तीर्थयात्रा करने का एक क्रम बतलाया है।
 
अर्थात जिसके हाथ, पैर और मन अच्छी तरह से वशमें हों तथा जिसकी सभी क्रियाएँ निर्विकारभावसे सम्पन्न होती हों, वही तीर्थका पूर्ण फल प्राप्त करता है। श्री रामजी वनगमन के समय जहां-जहां वास किये वो सभी तीर्थ कहलाये, उनकी यात्रा के अन्तर्गत आने वाले तीर्थों की संख्या १०८ है - <blockquote>वनवासगतो रामो यत्र यत्र व्यवस्थितः। तानि चोक्तानि तीर्थानि शतमष्टोत्तरण क्षितौ॥ (बृहद्धर्म० पूर्व० १४)</blockquote>लंका से लौटते समय श्रीराम ने सीता जी को दिखाते हुए अपने पूर्व निवास स्थलों को एक-एककर गिनाया है। महाभारत-वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वके ८२ से ९५ तकके अध्यायोंमें महर्षि पुलस्त्यने भीष्मसे, देवर्षि नारदने युधिष्ठिरसे तथा पद्मपुराण-आदिखण्ड (स्वर्गखण्ड) के १० से २८ तकके अध्यायोंमें महर्षि वसिष्ठने दिलीपसे एवं अन्यत्र भी वामन आदि पुराणोंमें कई स्थलोंपर तीर्थयात्रा करने का एक क्रम बतलाया है।
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वर्तमान में पर्यावरण संकट जैसे वैश्विक तापमान (ग्लोबल वार्मिंग), जलवायु परिवर्तन, ओजोन परत क्षरण आदि पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान हेतु प्रकृति का संरक्षण नितांत आवश्यक है।
    
==उद्धरण॥ References==
 
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[[Category:Hindi Articles]]
 
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