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3. यान - अपनी मनोवांछित वस्तु की सिद्धि के लिए तथा शत्रुओं के विनाशार्थ चढाई को यान कहते हैं - शत्रुनाशार्थगमनं यानं स्वाभीष्टसिद्धये। (शुक्रनीति, 4. 7. 237) आँख की तरह राजा दोनों ओर काम करें। यान पांच प्रकार का होता है - विगृह्य सन्धाय तथा सम्भूयाथ प्रसंगतः।  उपेक्षया च निपुणैर्यानं पञ्चविधं स्मृतम्॥ विगृह्ययान, संधाययान, संभूययान, प्रसंगयान तथा उपेक्षायान इस प्रकार से यान पाँच प्रकार का होता है।   
 
3. यान - अपनी मनोवांछित वस्तु की सिद्धि के लिए तथा शत्रुओं के विनाशार्थ चढाई को यान कहते हैं - शत्रुनाशार्थगमनं यानं स्वाभीष्टसिद्धये। (शुक्रनीति, 4. 7. 237) आँख की तरह राजा दोनों ओर काम करें। यान पांच प्रकार का होता है - विगृह्य सन्धाय तथा सम्भूयाथ प्रसंगतः।  उपेक्षया च निपुणैर्यानं पञ्चविधं स्मृतम्॥ विगृह्ययान, संधाययान, संभूययान, प्रसंगयान तथा उपेक्षायान इस प्रकार से यान पाँच प्रकार का होता है।   
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4. आसन - स्वरक्षणं शत्रुनाशो भवेत् स्थानात् तदासनम्। (शुक्रनीति 4. 7. 237) जहां पडे रहने से आत्मरक्षा एवं शत्रु विनाश की
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4. आसन - स्वरक्षणं शत्रुनाशो भवेत् स्थानात् तदासनम्। (शुक्रनीति 4. 7. 237) जहां पडे रहने से आत्मरक्षा एवं शत्रु विनाश की संभावनाहो, उसे आसन कहते हैं। जहां से शत्रु सेना पर तोप, गोली आदि चलाकर उसे छिन्न-भिन्न किया जा सके, वहां सेना के साथ राजा के टिकने को आसन कहते हैं। साथ ही घास, अनाज, पानी, प्रकृति, आवश्यक सामग्री तथा शत्रुसेना के लिए अन्य उपयोगी वस्तुओं को घेरा डालकर बहुत दिनों तक चारों ओर से राजा के द्वारा रोककर शत्रु तक न पहुंचने देना आदि कार्य आसन द्वारा ही संभव है - 
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यन्त्रास्त्रैः शत्रुसेनाया भेदो येभ्यः प्रजायते। स्थलेभ्यस्तेषु सन्तिष्ठेत् ससैन्यो ह्यासनं हि तत्॥ तृणान्नजलसम्भारा ये चान्ये शत्रुपोषकाः। सम्यनिरुध्य तान् यत्नात् परितश्चिरमासनात्॥ (शुक्रनीति 4. 7. 285-286) 
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5. द्वैधीभाव - अपनी सेना को टुकडियों में बांटकर रखने की स्थिति को द्वैधीभाव कहते हैं - द्वैधीभावः स्वसैन्यानां स्थापनं गुल्मगुल्मतः। (शुक्रनीति 4. 7. 238) समयानुसार कार्य करने वाला राजा शत्रुसंकट से बचने का जब तक कोई उपाय निश्चित न कर ले, तब तक कौवे की एक आंख की तरह अलक्षित होता हुआ व्यवहार करे - अनिश्चितोपायकार्य्यः समयानुचरो नृपः।  द्वैधीभाव वर्तेत काकाक्षिवदलक्षितम्। प्रदर्शयेदन्यकार्यमन्यमालम्बयेच्च वा॥ (शुक्रनीति 4. 7. 291)
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6. आश्रय शक्तिहीन जिस शक्तिशाली की शरण में जाकर शक्तिसम्पन्न बन जाता है, उस प्रबल राजा को आश्रय कहते हैं - यैर्गुप्तो बलवान भूयाद् दुर्बलोऽपि स आश्रयः। (शुक्रनीति 4. 7. 238) जब किसी शक्तिशाली राजा द्वारा राज्य विनष्ट की स्थिति में आ जाए तो किसी कुलीन, दृढ-प्रतिज्ञ,शक्तिशाली अन्य राजा की शरण लेनी चाहिए। उच्छिद्यमानो बलिना निरूपाय प्रतिक्रियः। कुलोद्भवं सत्यमार्य्यामाश्रयेत बलोत्कटम् ॥ (शुक्रनीति 4. 7. 289) 
    
==षाड्गुण्य नीति का महत्व॥ Importance of Shadgunya Niti==
 
==षाड्गुण्य नीति का महत्व॥ Importance of Shadgunya Niti==
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