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| ===स्वामी या राजा॥ King=== | | ===स्वामी या राजा॥ King=== |
− | राज्य के सप्तांगों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में राजा है। राजा को शुक्रनीति में मूर्द्धा के रूप में माना गया है - <blockquote>तत्र मूर्द्धा नृपः स्मृतः॥ (शु०नी० १/६१)</blockquote>राजा को स्वामी, अधिपति, आत्मा अलग-अलग पर्याय के द्वारा सम्बोधित किया गया है। शुक्राचार्य तथा कौटिल्यादि आचार्यों ने राजा के लिए अनेक आवश्यक गुण बताए हैं। राजा धार्मिक, उच्चकुलोत्पन्न, सत्यवादी, सत्यप्रतिज्ञ, विनयशील, कृतज्ञ आदि उत्तम गुणों से युक्त शास्त्रज्ञाता होता है - | + | राज्य के सप्तांगों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में राजा है। राजा को शुक्रनीति में मूर्द्धा के रूप में माना गया है - <blockquote>तत्र मूर्द्धा नृपः स्मृतः॥ (शुक्र नीति १/६१)<ref name=":0" /></blockquote>राजा को स्वामी, अधिपति, आत्मा अलग-अलग पर्याय के द्वारा सम्बोधित किया गया है। शुक्राचार्य तथा कौटिल्यादि आचार्यों ने राजा के लिए अनेक आवश्यक गुण बताए हैं। राजा धार्मिक, उच्चकुलोत्पन्न, सत्यवादी, सत्यप्रतिज्ञ, विनयशील, कृतज्ञ आदि उत्तम गुणों से युक्त शास्त्रज्ञाता होता है - |
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| ===अमात्य या मंत्री॥ Minister=== | | ===अमात्य या मंत्री॥ Minister=== |
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| *कौटिल्य के शब्दों में राज्य चक्र को सुचारु रूप से चलाए जाने के लिए सचिव की नियुक्ति तथा उसके मत को सुनना आवश्यक कहा गया है - | | *कौटिल्य के शब्दों में राज्य चक्र को सुचारु रूप से चलाए जाने के लिए सचिव की नियुक्ति तथा उसके मत को सुनना आवश्यक कहा गया है - |
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− | <blockquote>सहायसाध्य राजत्वं चक्रमेकं न वर्त्तते। कुर्वीत सचिवांस्तस्मात्तेषां च शृणुयान्मतम्॥ (अर्थशास्त्र 1.7.15)<ref name=":1">प्रो० उदयवीर शास्त्री, [https://archive.org/details/KautilyaKaArthshastra-Hindi-Kautilya/page/n35/mode/1up कौटलीय अर्थशास्त्र-हिन्दी अनुवाद सहित], सन १९२५, अमृतप्रेस, लाहौर (पृ० ३६)।</ref></blockquote>कौटिल्य ने अमात्य व मन्त्री में अन्तर किया है। आचार्य कौटिल्य राजा को योग्य अमात्यों को नियुक्त करके शासन-व्यवस्था संचालित करने का निर्देश करते हैं। उनके अनुसार राजा योग्य पुरुषों को देश, काल तथा कार्य आदि का परीक्षण करके अमात्य नियुक्त करें तथा मन्त्री के रूप में सर्वगुणसम्पन्न व्यक्ति को ही नियुक्त करें - <blockquote>विभज्यामात्यभिवं देशकालौ च कर्म च। अमात्याः सर्व एवैते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः॥ (अर्थ० 1.3.7.3)</blockquote>महाभारत के अनुसार कुलीन, विद्वान, सर्वशास्त्रनिपुण, कृतज्ञ, बलवान, जितेन्द्रिय, स्वदेशवासी, स्वामिभक्त आदि गुणों से युक्त पुरुष को अमात्य बनाना चाहिये। | + | <blockquote>सहायसाध्य राजत्वं चक्रमेकं न वर्त्तते। कुर्वीत सचिवांस्तस्मात्तेषां च शृणुयान्मतम्॥ (अर्थशास्त्र 1.7.15)<ref name=":1">प्रो० उदयवीर शास्त्री, [https://archive.org/details/KautilyaKaArthshastra-Hindi-Kautilya/page/n35/mode/1up कौटलीय अर्थशास्त्र-हिन्दी अनुवाद सहित], सन १९२५, अमृतप्रेस, लाहौर (पृ० ३६)।</ref></blockquote>कौटिल्य ने अमात्य व मन्त्री में अन्तर किया है। आचार्य कौटिल्य राजा को योग्य अमात्यों को नियुक्त करके शासन-व्यवस्था संचालित करने का निर्देश करते हैं। उनके अनुसार राजा योग्य पुरुषों को देश, काल तथा कार्य आदि का परीक्षण करके अमात्य नियुक्त करें तथा मन्त्री के रूप में सर्वगुणसम्पन्न व्यक्ति को ही नियुक्त करें - <blockquote>विभज्यामात्यभिवं देशकालौ च कर्म च। अमात्याः सर्व एवैते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः॥ (अर्थशास्त्र 1.3.7.3)<ref>प्रो० उदयवीर शास्त्री, [https://archive.org/details/KautilyaKaArthshastra-Hindi-Kautilya/page/n38/mode/1up कौटलीय अर्थशास्त्र-हिन्दी अनुवाद सहित], सन १९२५, अमृतप्रेस, लाहौर, विनयाधिकार, अध्याय- 08, श्लोक-33 (पृ० ३६)।</ref></blockquote>महाभारत के अनुसार कुलीन, विद्वान, सर्वशास्त्रनिपुण, कृतज्ञ, बलवान, जितेन्द्रिय, स्वदेशवासी, स्वामिभक्त आदि गुणों से युक्त पुरुष को अमात्य बनाना चाहिये। |
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| ===जनपद॥ District=== | | ===जनपद॥ District=== |
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| मित्र को कौटिल्य ने कान कहा है। उनके अनुसार राज्य की उन्नति के लिये तथा विपत्ति के समय सहायता के लिये राज्य को मित्रों की आवश्यकता होती है। राज्य के सप्तांग सिद्धान्त में मित्र को अन्तिम अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। मित्र की विशेषता इस प्रकार बताई है <ref name=":1" />- | | मित्र को कौटिल्य ने कान कहा है। उनके अनुसार राज्य की उन्नति के लिये तथा विपत्ति के समय सहायता के लिये राज्य को मित्रों की आवश्यकता होती है। राज्य के सप्तांग सिद्धान्त में मित्र को अन्तिम अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। मित्र की विशेषता इस प्रकार बताई है <ref name=":1" />- |
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− | * मित्र पिता-पितामह के क्रम से चले आ रहे हों, नित्यकुलीन, दुविधा रहित, महान एवं अवसर के अनुरूप सहायता करने वाले हों। | + | *मित्र पिता-पितामह के क्रम से चले आ रहे हों, नित्यकुलीन, दुविधा रहित, महान एवं अवसर के अनुरूप सहायता करने वाले हों। |
| *मित्र तथा शत्रु में भेद बताते हुये कहा है कि शत्रु वह है, जो लोभी, अन्यायी, व्यसनी एवं दुराचारी होता है। मित्र इन दुर्गुणों से रहित होता है। | | *मित्र तथा शत्रु में भेद बताते हुये कहा है कि शत्रु वह है, जो लोभी, अन्यायी, व्यसनी एवं दुराचारी होता है। मित्र इन दुर्गुणों से रहित होता है। |
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− | ==सप्तांग सिद्धान्त का महत्व== | + | == सप्तांग सिद्धान्त का महत्व== |
| + | राज्य का सप्तांग सिद्धान्त प्राचीन भारतीय राजनीति-शास्त्र में राज्य की संरचना, स्थिरता और समृद्धि को समझने का एक महत्वपूर्ण साधन है। सप्तांग सिद्धान्त में सभी अंगों के बीच समन्वय और संतुलन पर जोर दिया जाता है। ये सभी अंग मिलकर राज्य को स्थिर और समृद्ध बनाते हैं।<ref>आशीष कुमार, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/105069/1/Block-2.pdf संस्कृत साहित्य में राष्ट्रीयता और राष्ट्र की अवधारणा], सन 2024, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० 76)।</ref> |
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| *महाभारत, अर्थशास्त्र, शुक्रनीति आदि ग्रन्थों में प्रायः राज्य के संचालन हेतु सात आवश्यक अंगों को आवश्यक माना गया है। | | *महाभारत, अर्थशास्त्र, शुक्रनीति आदि ग्रन्थों में प्रायः राज्य के संचालन हेतु सात आवश्यक अंगों को आवश्यक माना गया है। |