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| प्राचीन भारतीय राजधर्मशास्त्रज्ञों ने राज्य से ही धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति बतलाई है। किसी भी राज्य के निर्माण एवं पोषण हेतु सात अवयवों की चर्चा राजशास्त्र प्रणेताओं ने की है, जिसे सप्तांग कहते हैं। ये सप्तांग इस प्रकार हैं - राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र। धर्मशास्त्रों, अर्थशास्त्रों तथा नीतिशास्त्रों में राज्य के इन्हीं सात अंगों का उल्लेख मिलता है। राज्य के अस्तित्व और आधारभूत विकास के लिए इन सात अंगों का ज्ञान अति आवश्यक हैं। | | प्राचीन भारतीय राजधर्मशास्त्रज्ञों ने राज्य से ही धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति बतलाई है। किसी भी राज्य के निर्माण एवं पोषण हेतु सात अवयवों की चर्चा राजशास्त्र प्रणेताओं ने की है, जिसे सप्तांग कहते हैं। ये सप्तांग इस प्रकार हैं - राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र। धर्मशास्त्रों, अर्थशास्त्रों तथा नीतिशास्त्रों में राज्य के इन्हीं सात अंगों का उल्लेख मिलता है। राज्य के अस्तित्व और आधारभूत विकास के लिए इन सात अंगों का ज्ञान अति आवश्यक हैं। |
| ==परिचय॥ Introduction== | | ==परिचय॥ Introduction== |
− | राजनीति-शास्त्र के विद्वानों ने राज्य के सात अंगों का विवेचन किया है। सप्तांगों को सर्वप्रथम मनु एवं कौटिल्य ने परिभाषित किया है। कुछ प्राचीन धर्मसूत्रों में राजा, अमात्य, कोश आदि अंगों का विवेचन हुआ है पर सप्तांगों का पूर्ण स्वरूप और परिभाषा के अभाव में उसे महत्त्व न देना ही उचित होगा। प्रायः सभी राजनीति-शास्त्रज्ञों ने सात अंगों को बताया है - स्वामी, अमात्य, जनपद या राष्ट्र, दुर्ग, कोश, दण्ड और मित्र। भारतीय ज्ञान परंपरा में सभी प्राणियों का शरण-स्थल राजधर्म है, महाभारत के अनुसार राजधर्म के सहारे ही जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति सम्भव होना बताया गया है -<blockquote>सर्वे धर्मा राजधर्म प्रधानाः सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति। सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजस्त्यागं धर्मं चाहुरग्रन्थ पुराणम्॥</blockquote>राजा राजधर्म का पालन करते हुए ही राज्य को नियन्त्रित करता है। राजा के कार्यों और उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था पद्धति के आधार पर सप्तांगों का विवेचन किया गया है। | + | राजनीति-शास्त्र के विद्वानों ने राज्य के सात अंगों का विवेचन किया है। सप्तांगों को सर्वप्रथम मनु एवं कौटिल्य ने परिभाषित किया है। कुछ प्राचीन धर्मसूत्रों में राजा, अमात्य, कोश आदि अंगों का विवेचन हुआ है पर सप्तांगों का पूर्ण स्वरूप और परिभाषा के अभाव में उसे महत्त्व न देना ही उचित होगा। प्रायः सभी राजनीति-शास्त्रज्ञों ने सात अंगों को बताया है - स्वामी, अमात्य, जनपद या राष्ट्र, दुर्ग, कोश, दण्ड और मित्र। भारतीय ज्ञान परंपरा में सभी प्राणियों का शरण-स्थल राजधर्म है, महाभारत के अनुसार राजधर्म के सहारे ही जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति सम्भव होना बताया गया है -<blockquote>सर्वे धर्मा राजधर्म प्रधानाः सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति। सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजंस्त्यागं धर्मं चाहुरग्र्यं पुराणम्॥ (महाभारत )<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-158 महाभारत] , शांतिपर्व-राजधर्मानुशासन पर्व , अध्याय - 58, श्लोक- 33।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' सभी धर्मों में राजधर्म ही प्रधान है; क्योंकि उसके द्वारा सभी वर्णों का पालन होता है। राजन्! राजधर्मों में सभी प्रकार के त्याग का समावेश है और ॠषिगण त्याग को सर्वश्रेष्ठ एवं प्राचीन धर्म बताते हैं। राजा राजधर्म का पालन करते हुए ही राज्य को नियन्त्रित करता है। राजा के कार्यों और उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था पद्धति के आधार पर सप्तांगों का विवेचन किया गया है। |
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| ==शुक्रनीति में सप्तांग-सिद्धान्त== | | ==शुक्रनीति में सप्तांग-सिद्धान्त== |
− | शुक्रनीति में आचार्य शुक्र ने राज्यांगों का विशद विवेचन किया है। राज्य को सप्तांग राज्य से सम्बोधित करते हुए आचार्य शुक्र कहते हैं कि - | + | शुक्रनीति में आचार्य शुक्र ने राज्यांगों का विशद विवेचन किया है। राज्य को सप्तांग राज्य से सम्बोधित करते हुए आचार्य शुक्र कहते हैं कि - <blockquote>स्वाम्यमात्यसुहृत्कोश राष्ट्र दुर्ग बलानि च। सप्तांगमुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः॥ (शुक्रनीति १/६१)<ref name=":0">[https://ia601509.us.archive.org/11/items/in.ernet.dli.2015.343255/2015.343255.99999990232043.pdf शुक्रनीति - भाषा टीका सहित], श्रीवेंकटेश्वर प्रेस-मुम्बई, अध्याय-१, श्लोक-६१ (पृ० ६)।</ref></blockquote> |
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− | स्वाम्यमात्यसुहृत्कोश राष्ट्र दुर्ग बलानि च। सप्तांगमुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः॥
| + | अर्थात राजा, मन्त्री, मित्र, कोश, राष्ट्र, दुर्ग और सेना में राज्य के सात अंग कहलाते हैं और इनमें राजा को सर्वश्रेष्ठ अंग मस्तक माना गया है। वे राज्य के सप्तांगों की तुलना मानव शरीर से करते हैं - <blockquote>दृगमात्यः सुहृच्छोत्रं मुखं कोशो बलं मनः। हस्तौ पादौ दुर्गराष्ट्रौ राज्यांगानि स्मृतानि हि॥ (शुक्रनीति)<ref name=":0" /></blockquote>अर्थात राज्य रूपी शरीर के मन्त्री नेत्र हैं, मित्र कान, कोष मुख, सेना मन, दुर्ग दोनों हाथ और दोनों पैर। |
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− | अर्थात राजा, मन्त्री, मित्र, कोश, राष्ट्र, दुर्ग और सेना में राज्य के सात अंग कहलाते हैं और इनमें राजा को सर्वश्रेष्ठ अंग मस्तक माना गया है। वे राज्य के सप्तांगों की तुलना मानव शरीर से करते हैं - <blockquote>दृगमात्यः सुहृच्छोत्रं मुखं कोशो बलं मनः। हस्तौ पादौ दुर्गराष्ट्रौ राज्यांगानि स्मृतानि हि॥</blockquote>अर्थात राज्य रूपी शरीर के मन्त्री नेत्र हैं, मित्र कान, कोष मुख, सेना मन, दुर्ग दोनों हाथ और दोनों पैर। | |
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| *राष्ट्र की उपमा पैरों से इसलिए की गई है, क्योंकि वह राज्य का मूलाधार है। उसी के साथ राजा रूपी शरीर स्थिर रहता है। | | *राष्ट्र की उपमा पैरों से इसलिए की गई है, क्योंकि वह राज्य का मूलाधार है। उसी के साथ राजा रूपी शरीर स्थिर रहता है। |
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| प्राचीन भारतीय राजनीति में वैदिक साहित्य में राष्ट्र का विशद विकास क्रम प्राप्त होता है। परवर्ती काल में यही राष्ट्र की संकल्पना विकसित, व्यवस्थित तथा संघटित राज्य के रूप में सप्तांग सिद्धान्त के रूप में स्थापित हुआ है। महाभारत में राज्य के राष्ट्रांग स्वरूप के साथ-साथ अष्टांग स्वरूप का भी उल्लेख प्राप्त होता है - <blockquote>सदाप्रकृति चाष्टांगं शरीरमिह यद् विदुः। राज्यस्य दण्डमेवांगं दण्डः प्रभव एव च॥ (शान्तिपर्व १२१/४७)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-121 महाभारत], शान्तिपर्व, अध्याय-121, श्लोक-47।</ref></blockquote>महाभारत में राजा को इन सातों अंगों वाले राज्य के परिपालन का उपदेश दिया गया है - <blockquote>राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे। आत्मामात्यश्च कोशश्च दण्डो मित्राणि चैव हि॥ | | प्राचीन भारतीय राजनीति में वैदिक साहित्य में राष्ट्र का विशद विकास क्रम प्राप्त होता है। परवर्ती काल में यही राष्ट्र की संकल्पना विकसित, व्यवस्थित तथा संघटित राज्य के रूप में सप्तांग सिद्धान्त के रूप में स्थापित हुआ है। महाभारत में राज्य के राष्ट्रांग स्वरूप के साथ-साथ अष्टांग स्वरूप का भी उल्लेख प्राप्त होता है - <blockquote>सदाप्रकृति चाष्टांगं शरीरमिह यद् विदुः। राज्यस्य दण्डमेवांगं दण्डः प्रभव एव च॥ (शान्तिपर्व १२१/४७)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-121 महाभारत], शान्तिपर्व, अध्याय-121, श्लोक-47।</ref></blockquote>महाभारत में राजा को इन सातों अंगों वाले राज्य के परिपालन का उपदेश दिया गया है - <blockquote>राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे। आत्मामात्यश्च कोशश्च दण्डो मित्राणि चैव हि॥ |
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− | तथा जनपदाश्चैव पुरं च कुरुनन्दन। एतत् सप्तात्मकं राज्यं परिपाल्यं प्रयत्नतः॥ (शान्तिप० ६५/६६)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-068 महाभारत] , शांतिपर्व , अध्याय 68, श्लोक 69-70।</ref></blockquote>महाभारत में सप्तांग के अवयवों में क्रम भेद है परन्तु अवयवों में समानता है। अग्निपुराण में राज्य के व्यवस्थित स्वरूप स्वामी, अमात्य दुर्ग, कोष, दण्ड, मित्र, जनपद से युक्त वर्णन प्राप्त होता है - | + | तथा जनपदाश्चैव पुरं च कुरुनन्दन। एतत् सप्तात्मकं राज्यं परिपाल्यं प्रयत्नतः॥ (शान्तिप० ६५/६६)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-068 महाभारत] , शांतिपर्व , अध्याय 68, श्लोक 69-70।</ref></blockquote>महाभारत में सप्तांग के अवयवों में क्रम भेद है परन्तु अवयवों में समानता है। अग्निपुराण में राज्य के व्यवस्थित स्वरूप स्वामी, अमात्य दुर्ग, कोष, दण्ड, मित्र, जनपद से युक्त वर्णन प्राप्त होता है - <blockquote>स्वाम्यमात्याश्च तथा दुर्ग कोषो दण्डस्थैव च। मित्रजनपदश्चैव राज्यं सप्तांगमुच्यते॥ (अग्निपुराण २३३/१२)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8%E0%A5%A9%E0%A5%A9 अग्निपुराण], अध्याय-२३३, श्लोक-१२।</ref></blockquote> |
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− | स्वाम्यमात्याश्च तथा दुर्ग कोषो दण्डस्थैव च। मित्रजनपदश्चैव राज्यं सप्तांगमुच्यते॥(अग्निपुराण२३३/१२) | |
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− | आचार्य मनु के अनुसार प्रत्येक अंग अगले अंग से श्रेष्ठ है तथा एक अंग में विकार आने से दूसरे अंग में विकार होता है अतः प्रत्येक अंग एक दूसरे के लिए आवश्यक होता है। प्रत्येक अंग विशेषता से युक्त होता है तथा राज्य संचालन में समान रूप से प्रयोग होता है - <blockquote>सप्तांगस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत्। अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किंचिदतिरिच्यते॥ (मनु० ९/२९६)</blockquote>अर्थात स्वामी, अमात्य, सुहृत, कोश राष्ट्र, दुर्ग और बल से सप्तांग राज्य के रूप में वर्णित है। | + | आचार्य मनु के अनुसार प्रत्येक अंग अगले अंग से श्रेष्ठ है तथा एक अंग में विकार आने से दूसरे अंग में विकार होता है अतः प्रत्येक अंग एक दूसरे के लिए आवश्यक होता है। प्रत्येक अंग विशेषता से युक्त होता है तथा राज्य संचालन में समान रूप से प्रयोग होता है - <blockquote>सप्तांगस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत्। अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किंचिदतिरिच्यते॥ (मनु स्मृति ९/२९६)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ०९, श्लोक - २९६।</ref></blockquote>अर्थात स्वामी, अमात्य, सुहृत, कोश राष्ट्र, दुर्ग और बल से सप्तांग राज्य के रूप में वर्णित है। |
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| ==कौटिल्य - सप्तांग सिद्धान्त== | | ==कौटिल्य - सप्तांग सिद्धान्त== |
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| *कौटिल्य के शब्दों में राज्य चक्र को सुचारु रूप से चलाए जाने के लिए सचिव की नियुक्ति तथा उसके मत को सुनना आवश्यक कहा गया है - | | *कौटिल्य के शब्दों में राज्य चक्र को सुचारु रूप से चलाए जाने के लिए सचिव की नियुक्ति तथा उसके मत को सुनना आवश्यक कहा गया है - |
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− | <blockquote>सहायसाध्य राजत्वं चक्रमेकं न वर्त्तते। कुर्वीत सचिवांस्तस्मात्तेषां च शृणुयान्मतम्॥ (अर्थशास्त्र 1.7.15)<ref>प्रो० उदयवीर शास्त्री, [https://archive.org/details/KautilyaKaArthshastra-Hindi-Kautilya/page/n35/mode/1up कौटलीय अर्थशास्त्र-हिन्दी अनुवाद सहित], सन १९२५, अमृतप्रेस, लाहौर (पृ० ३६)।</ref></blockquote>कौटिल्य ने अमात्य व मन्त्री में अन्तर किया है। आचार्य कौटिल्य राजा को योग्य अमात्यों को नियुक्त करके शासन-व्यवस्था संचालित करने का निर्देश करते हैं। उनके अनुसार राजा योग्य पुरुषों को देश, काल तथा कार्य आदि का परीक्षण करके अमात्य नियुक्त करें तथा मन्त्री के रूप में सर्वगुणसम्पन्न व्यक्ति को ही नियुक्त करें - <blockquote>विभज्यामात्यभिवं देशकालौ च कर्म च। अमात्याः सर्व एवैते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः॥ (अर्थ० 1.3.7.3)</blockquote>महाभारत के अनुसार कुलीन, विद्वान, सर्वशास्त्रनिपुण, कृतज्ञ, बलवान, जितेन्द्रिय, स्वदेशवासी, स्वामिभक्त आदि गुणों से युक्त पुरुष को अमात्य बनाना चाहिये। | + | <blockquote>सहायसाध्य राजत्वं चक्रमेकं न वर्त्तते। कुर्वीत सचिवांस्तस्मात्तेषां च शृणुयान्मतम्॥ (अर्थशास्त्र 1.7.15)<ref name=":1">प्रो० उदयवीर शास्त्री, [https://archive.org/details/KautilyaKaArthshastra-Hindi-Kautilya/page/n35/mode/1up कौटलीय अर्थशास्त्र-हिन्दी अनुवाद सहित], सन १९२५, अमृतप्रेस, लाहौर (पृ० ३६)।</ref></blockquote>कौटिल्य ने अमात्य व मन्त्री में अन्तर किया है। आचार्य कौटिल्य राजा को योग्य अमात्यों को नियुक्त करके शासन-व्यवस्था संचालित करने का निर्देश करते हैं। उनके अनुसार राजा योग्य पुरुषों को देश, काल तथा कार्य आदि का परीक्षण करके अमात्य नियुक्त करें तथा मन्त्री के रूप में सर्वगुणसम्पन्न व्यक्ति को ही नियुक्त करें - <blockquote>विभज्यामात्यभिवं देशकालौ च कर्म च। अमात्याः सर्व एवैते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः॥ (अर्थ० 1.3.7.3)</blockquote>महाभारत के अनुसार कुलीन, विद्वान, सर्वशास्त्रनिपुण, कृतज्ञ, बलवान, जितेन्द्रिय, स्वदेशवासी, स्वामिभक्त आदि गुणों से युक्त पुरुष को अमात्य बनाना चाहिये। |
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| ===जनपद॥ District=== | | ===जनपद॥ District=== |
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| ===दुर्ग॥ Durg=== | | ===दुर्ग॥ Durg=== |
− | दुर्ग राज्य का महत्वपूर्ण अंग था। मनुस्मृति में तथा महाभारत के शान्तिपर्व में दुर्ग को पुर कहा गया है। दुर्ग का शाब्दिक अर्थ किला है, किन्तु अर्थशास्त्र में इसका वर्णन दुर्गीकृत राजधानी से है। दुर्ग निवेश प्रकरण में कौटिल्य ने विशेषतायें बताई हैं कि दुर्ग का निर्माण नगर के केन्द्र भाग में किया जाना चाहिये तथा प्रत्येक वर्ण तथा कारीगरों के निवास के लिये नगर में अलग-अलग व्यवस्था होनी चाहिये। दुर्ग की तुलना बाँहों या भुजाओं से की है तथा उन्होंने चार प्रकार के दुर्गों की चर्चा की है - | + | दुर्ग राज्य का महत्वपूर्ण अंग था। मनुस्मृति में तथा महाभारत के शान्तिपर्व में दुर्ग को पुर कहा गया है। दुर्ग का शाब्दिक अर्थ किला है, किन्तु अर्थशास्त्र में इसका वर्णन दुर्गीकृत राजधानी से है। दुर्ग निवेश प्रकरण में कौटिल्य ने विशेषतायें बताई हैं कि दुर्ग का निर्माण नगर के केन्द्र भाग में किया जाना चाहिये तथा प्रत्येक वर्ण तथा कारीगरों के निवास के लिये नगर में अलग-अलग व्यवस्था होनी चाहिये। दुर्ग की तुलना बाँहों या भुजाओं से की है तथा उन्होंने चार प्रकार के दुर्गों की चर्चा की है -<ref name=":1" /> |
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| #'''औदिक दुर्ग -''' जिसके चारों ओर पानी हो। | | #'''औदिक दुर्ग -''' जिसके चारों ओर पानी हो। |
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| ===कोष॥ Treasury=== | | ===कोष॥ Treasury=== |
− | कोष की तुलना कौटिल्य ने मुख से की है। उन्होंने कोष को राज्य का मुख्य अंग इसलिये माना है क्योंकि उनके अनुसार कोष से ही कोई भी राज्य वृद्धि करता है तथा शक्तिशाली बने रहने के लिए कोष के द्वारा ही अपनी सेना का भरण-पोषण करता है। उन्होंने कोष में वृद्धि का मार्ग कर आरोपण बताया है जिसमें प्रजा को अनाज का छठा, व्यापार का दसवाँ तथा पशु धन के लाभ का पचासवाँ भाग राजा को कर के रूप में देना होता है। क्योंकि - | + | कोष की तुलना कौटिल्य ने मुख से की है। उन्होंने कोष को राज्य का मुख्य अंग इसलिये माना है क्योंकि उनके अनुसार कोष से ही कोई भी राज्य वृद्धि करता है तथा शक्तिशाली बने रहने के लिए कोष के द्वारा ही अपनी सेना का भरण-पोषण करता है। उन्होंने कोष में वृद्धि का मार्ग कर आरोपण बताया है जिसमें प्रजा को अनाज का छठा, व्यापार का दसवाँ तथा पशु धन के लाभ का पचासवाँ भाग राजा को कर के रूप में देना होता है। क्योंकि -<ref name=":1" /> |
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| *धर्म तथा काम संबंधी संपूर्ण कार्य कोष के माध्यम से ही संपन्न होते हैं। | | *धर्म तथा काम संबंधी संपूर्ण कार्य कोष के माध्यम से ही संपन्न होते हैं। |
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| ===दण्ड या सैन्य बल ॥ Penalty=== | | ===दण्ड या सैन्य बल ॥ Penalty=== |
− | कौटिल्य ने सेना की तुलना मस्तिष्क से की है। उन्होंने सेना के चार प्रकार बताये हैं - हस्ति सेना, अश्व सेना, रथ सेना तथा पैदल सेना। उनके अनुसार सेना ऐसी होनी चाहिये जो साहसी हो, बलशाली हो तथा जिसके हर सैनिक के हृदय में देशप्रेम तथा वीरगति को प्राप्त हो जाने पर जिसके परिवार को उस पर अभिमान हो। दण्ड से तात्पर्य भी सेना से ही है। कौटिल्य ने सेना की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है - | + | कौटिल्य ने सेना की तुलना मस्तिष्क से की है। उन्होंने सेना के चार प्रकार बताये हैं - हस्ति सेना, अश्व सेना, रथ सेना तथा पैदल सेना। उनके अनुसार सेना ऐसी होनी चाहिये जो साहसी हो, बलशाली हो तथा जिसके हर सैनिक के हृदय में देशप्रेम तथा वीरगति को प्राप्त हो जाने पर जिसके परिवार को उस पर अभिमान हो। दण्ड से तात्पर्य भी सेना से ही है। कौटिल्य ने सेना की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है -<ref name=":1" /> |
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− | * सेना को सदा राजा के अधीन रहना चाहिये। | + | *सेना को सदा राजा के अधीन रहना चाहिये। |
− | * सैनिकों के परिवार का भरण-पोषण राज्य का कर्तव्य है। | + | *सैनिकों के परिवार का भरण-पोषण राज्य का कर्तव्य है। |
− | * शत्रु पर चढाई आदि के समय सैनिकों की सुख-सुविधा के लिये आवश्यक भोग्य वस्तुयें उपलब्ध कराना आवश्यक है। | + | *शत्रु पर चढाई आदि के समय सैनिकों की सुख-सुविधा के लिये आवश्यक भोग्य वस्तुयें उपलब्ध कराना आवश्यक है। |
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| ===मित्र॥ Friends=== | | ===मित्र॥ Friends=== |
− | मित्र को कौटिल्य ने कान कहा है। उनके अनुसार राज्य की उन्नति के लिये तथा विपत्ति के समय सहायता के लिये राज्य को मित्रों की आवश्यकता होती है। राज्य के सप्तांग सिद्धान्त में मित्र को अन्तिम अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। मित्र की विशेषता इस प्रकार बताई है - | + | मित्र को कौटिल्य ने कान कहा है। उनके अनुसार राज्य की उन्नति के लिये तथा विपत्ति के समय सहायता के लिये राज्य को मित्रों की आवश्यकता होती है। राज्य के सप्तांग सिद्धान्त में मित्र को अन्तिम अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। मित्र की विशेषता इस प्रकार बताई है <ref name=":1" />- |
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− | * मित्र पिता-पितामह के क्रम से चले आ रहे हों, नित्यकुलीन, दुविधा रहित, महान एवं अवसर के अनुरूप सहायता करने वाले हों। | + | * मित्र पिता-पितामह के क्रम से चले आ रहे हों, नित्यकुलीन, दुविधा रहित, महान एवं अवसर के अनुरूप सहायता करने वाले हों। |
− | * मित्र तथा शत्रु में भेद बताते हुये कहा है कि शत्रु वह है, जो लोभी, अन्यायी, व्यसनी एवं दुराचारी होता है। मित्र इन दुर्गुणों से रहित होता है। | + | *मित्र तथा शत्रु में भेद बताते हुये कहा है कि शत्रु वह है, जो लोभी, अन्यायी, व्यसनी एवं दुराचारी होता है। मित्र इन दुर्गुणों से रहित होता है। |
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| ==सप्तांग सिद्धान्त का महत्व== | | ==सप्तांग सिद्धान्त का महत्व== |