भारतीय दर्शन के अनुसार, व्यक्ति के जीवन और मृत्यु के चक्र में पाप और पुण्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह कर्म सिद्धांत के आधार पर काम करता है, जिसके अनुसार अच्छे कर्म (पुण्य) और बुरे कर्म (पाप) का फल व्यक्ति को अगले जन्म में प्राप्त होता है। यही कारण है कि शास्त्रों में पुण्य कर्मों का महत्त्व और पाप से बचने की बात कही गई है।
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भारतीय दर्शन के अनुसार, व्यक्ति के जीवन और मृत्यु के चक्र में पाप और पुण्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह कर्म सिद्धांत के आधार पर काम करता है, जिसके अनुसार अच्छे कर्म (पुण्य) और बुरे कर्म (पाप) का फल व्यक्ति को अगले जन्म में प्राप्त होता है। यही कारण है कि शास्त्रों में पुण्य कर्मों का महत्त्व और पाप से बचने की बात कही गई है। भगवद गीता में पुण्य और पाप का स्पष्ट रूप से वर्णन है, जहां श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म के महत्व और पुण्य की भूमिका समझाते हैं। गीता के अनुसार, पुण्य कर्म से व्यक्ति स्वर्गलोक और उच्चतर जन्म प्राप्त करता है। भगवद गीता (9.20-21) में कहा गया है - <blockquote>ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकम् अश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्। (भगवद गीता 9.20-21)</blockquote>यहां पुण्य की महत्ता स्वर्ग और ईश्वरीय सुखों की प्राप्ति के रूप में व्यक्त की गई है, जो पुण्य कर्मों का फल है। उपनिषदों में पुण्य की अवधारणा आत्मज्ञान और मोक्ष से गहराई से जुड़ी हुई है। कठोपनिषद में पुण्य को एक ऐसी ऊर्जा के रूप में देखा गया है, जो आत्मा को शुद्ध करती है और उसे जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त करती है - <blockquote>यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः। मृत्युर्मत्युं अप्नोति यः पुण्ये परे अवस्थितः॥ (कठोपनिषद 2.2.7)</blockquote>इस श्लोक में पुण्य को जीवन के अंतिम सत्य के रूप में देखा गया है, जो मोक्ष की दिशा में मार्गदर्शन करता है।