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==परिभाषा==
 
==परिभाषा==
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आचार्य सायण ने निरुक्त का लक्षण किया है – <blockquote>अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्।<ref name=":1">रामबाबू पाण्डेय,  [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/71661 निरुक्त प्रयोजन एवं निर्वचन के सिद्धान्त], सन् 2021, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० 244)।</ref>
 
आचार्य सायण ने निरुक्त का लक्षण किया है – <blockquote>अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्।<ref name=":1">रामबाबू पाण्डेय,  [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/71661 निरुक्त प्रयोजन एवं निर्वचन के सिद्धान्त], सन् 2021, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० 244)।</ref>
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==निघण्टु एवं निरुक्त==
 
==निघण्टु एवं निरुक्त==
यास्क का निरुक्त वस्तुतः निघण्टु ग्रन्थ की व्याख्या या भाष्य है। निघण्टु वैदिक शब्द-कोश या वैदिक शब्दों का संकलन है। कुछ विद्वान् मानते हैं कि निघण्टु पृथक्- पृथक् विद्वानों की रचना है। महाभारत शान्तिपर्व के अनुसार निघंटु के रचयिता प्रजापति कश्यप हैं -<blockquote>वृषो हि भगवान् धर्मः ख्यातो लोकेषु भारत। निघण्टुकपदाख्याने विद्धि मां वृषमुत्तमम्॥ कपिर्वराहः श्रेष्ठश्च धर्मश्च वृष उच्यते। तस्माद्वृषाकपिं प्राह कश्यपो मां प्रजापतिः॥ (महा० 342 -88/89)<ref>महर्षियास्क, निरुक्तम् , दुर्गाचार्यकृत ऋज्वर्थाख्यव्याख्यया सहितं, सन् 1912, श्रीवेंकटेश्वर प्रेस मुम्बई (पृ० 05)।</ref></blockquote>इसमें पाँच अध्याय हैं। इसमें संग्रहीत शब्दों की संख्या 1768 है। अध्यायों के अनुसार इनकी संख्या इस प्रकार है -   
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यास्क का निरुक्त वस्तुतः निघण्टु ग्रन्थ की व्याख्या या भाष्य है। निघण्टु वैदिक शब्द-कोश या वैदिक शब्दों का संकलन है। कुछ विद्वान् मानते हैं कि निघण्टु पृथक्- पृथक् विद्वानों की रचना है। महाभारत शान्तिपर्व के अनुसार निघंटु के रचयिता प्रजापति कश्यप हैं -<blockquote>वृषो हि भगवान् धर्मः ख्यातो लोकेषु भारत। निघण्टुकपदाख्याने विद्धि मां वृषमुत्तमम्॥
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कपिर्वराहः श्रेष्ठश्च धर्मश्च वृष उच्यते। तस्माद्वृषाकपिं प्राह कश्यपो मां प्रजापतिः॥ (महा० 342 -88/89)<ref>महर्षियास्क, निरुक्तम् , दुर्गाचार्यकृत ऋज्वर्थाख्यव्याख्यया सहितं, सन् 1912, श्रीवेंकटेश्वर प्रेस मुम्बई (पृ० 05)।</ref></blockquote>इसमें पाँच अध्याय हैं। इसमें संग्रहीत शब्दों की संख्या 1768 है। अध्यायों के अनुसार इनकी संख्या इस प्रकार है -   
 
{| class="wikitable"
 
{| class="wikitable"
 
|+(निघण्टु के अध्यायों वर्णित शब्द संख्या एवं पदार्थों के समानार्थक शब्द सारिणी)
 
|+(निघण्टु के अध्यायों वर्णित शब्द संख्या एवं पदार्थों के समानार्थक शब्द सारिणी)
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|प्रथम अध्याय
 
|प्रथम अध्याय
|414 शब्द संकलित
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| 414 शब्द संकलित
 
|पृथिवी, हिरण्य, मेघ आदि 17 पदार्थों के समानार्थक शब्द
 
|पृथिवी, हिरण्य, मेघ आदि 17 पदार्थों के समानार्थक शब्द
 
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|द्वितीय अध्याय
 
|द्वितीय अध्याय
|514 शब्द
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| 514 शब्द
 
|मनुष्य, अन्न, धन, गो आदि 22 पदार्थों के समानार्थक शब्द
 
|मनुष्य, अन्न, धन, गो आदि 22 पदार्थों के समानार्थक शब्द
 
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|तृतीय अध्याय
 
|तृतीय अध्याय
|410 शब्द
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| 410 शब्द
 
|बहु, ह्रस्व, प्रज्ञा, यज्ञ आदि 30 के समानार्थक शब्द
 
|बहु, ह्रस्व, प्रज्ञा, यज्ञ आदि 30 के समानार्थक शब्द
 
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|चतुर्थ अध्याय
 
|चतुर्थ अध्याय
|279 शब्द
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| 279 शब्द
 
|कठिन या व्याख्या के योग्य 279 शब्दों का संकलन
 
|कठिन या व्याख्या के योग्य 279 शब्दों का संकलन
 
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|पंचम अध्याय
 
|पंचम अध्याय
| 151 शब्द
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|151 शब्द
| देवता- वाचक 151 शब्दों का संकलन
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|देवता- वाचक 151 शब्दों का संकलन
 
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निरुक्त को तीन काण्डों में विभक्त किया गया है - <ref>यास्काचार्य, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.312660/mode/1up निरुक्त, प्राक्कथन], सन् १९५२, रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना  (पृ० २४)</ref>
 
निरुक्त को तीन काण्डों में विभक्त किया गया है - <ref>यास्काचार्य, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.312660/mode/1up निरुक्त, प्राक्कथन], सन् १९५२, रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना  (पृ० २४)</ref>
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स्तुत्वा मां शिपिविष्टेति यास्क ऋषिरुदारधीः। मत्प्रसादादधो नष्टं निरुक्तमधिजग्मिवान्॥ (महा० मोक्षप० 342-69/70/71)</blockquote>
 
स्तुत्वा मां शिपिविष्टेति यास्क ऋषिरुदारधीः। मत्प्रसादादधो नष्टं निरुक्तमधिजग्मिवान्॥ (महा० मोक्षप० 342-69/70/71)</blockquote>
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== वेदांग एवं निरुक्त==
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==वेदांग एवं निरुक्त==
 
निरुक्त का अर्थ है- निर्वचन, व्युत्पत्ति। शब्द के मूलरूप का ज्ञान कराना, शब्दमें प्रकृति-प्रत्यय का स्पष्टीकरण, धात्वर्थ और प्रत्ययार्थ का विशदीकरण, समानार्थक और नानार्थक शब्दों का विवेचन आदि कार्य निरुक्त का है। इसके लिये इंग्लिश शब्द (Etmology, एटिमॉलाजी) है। जिसका अर्थ है - शब्द की उत्पत्ति और उसके विकास की प्रक्रिया का अध्ययन। इसे ही शब्द-व्युत्पत्ति-शास्त्र भी कहा जाता है। प्राचीन काल में इस शास्त्र को निरुक्त कहते थे।<ref>प्रो० उमाशंकर शर्मा 'ऋषिः', [https://ia801506.us.archive.org/14/items/in.ernet.dli.2015.405754/2015.405754.The-Nirukta.pdf निरुक्तम्], राष्ट्रभाषानुवाद टिप्पणीसहित, सन् 1966, विद्याभवन संस्कृत सीरीज (पृ० 53)।</ref> वेदार्थ ज्ञान के लिए महर्षि यास्ककृत निरुक्तशास्त्र सर्वोत्तम सहायक ग्रन्थ है। वेदांग छः हैं - <ref>डॉ० कुंवर लाल, [https://ignca.gov.in/Asi_data/64070.pdf निरुक्त सार निदर्शन], सन् १९७८, इतिहास विद्या प्रकाशन, दिल्ली (पृ० १३)।</ref><blockquote>शिक्षा कल्पोऽथ व्याकरणं निरुक्तं छन्दसां च य। ज्योतिषामयनं चैव वेदांगानि षडेव तु॥ (पा० शि०)</blockquote>शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दःशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र। इनमें निरुक्तशास्त्र वेद का श्रोत्र (कान) माना गया है - <blockquote>निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते। (....)</blockquote>निरुक्त की चतुर्दश विद्याओं में भी गणना होती है। यह व्याकरण का पूरक भी है क्योंकि व्याकरण शब्दों की रचना (बहिरंग) की व्याख्या करता है वहीं निरुक्त उनके अर्थ (अन्तरंग) की खोज करता है। इसके लिये वह शब्दों की प्रकृति का पता लगाकर उसके अर्थ से संगति दिखाते हुए पूरे शब्द के अर्थ का अनुसन्धान करता है।
 
निरुक्त का अर्थ है- निर्वचन, व्युत्पत्ति। शब्द के मूलरूप का ज्ञान कराना, शब्दमें प्रकृति-प्रत्यय का स्पष्टीकरण, धात्वर्थ और प्रत्ययार्थ का विशदीकरण, समानार्थक और नानार्थक शब्दों का विवेचन आदि कार्य निरुक्त का है। इसके लिये इंग्लिश शब्द (Etmology, एटिमॉलाजी) है। जिसका अर्थ है - शब्द की उत्पत्ति और उसके विकास की प्रक्रिया का अध्ययन। इसे ही शब्द-व्युत्पत्ति-शास्त्र भी कहा जाता है। प्राचीन काल में इस शास्त्र को निरुक्त कहते थे।<ref>प्रो० उमाशंकर शर्मा 'ऋषिः', [https://ia801506.us.archive.org/14/items/in.ernet.dli.2015.405754/2015.405754.The-Nirukta.pdf निरुक्तम्], राष्ट्रभाषानुवाद टिप्पणीसहित, सन् 1966, विद्याभवन संस्कृत सीरीज (पृ० 53)।</ref> वेदार्थ ज्ञान के लिए महर्षि यास्ककृत निरुक्तशास्त्र सर्वोत्तम सहायक ग्रन्थ है। वेदांग छः हैं - <ref>डॉ० कुंवर लाल, [https://ignca.gov.in/Asi_data/64070.pdf निरुक्त सार निदर्शन], सन् १९७८, इतिहास विद्या प्रकाशन, दिल्ली (पृ० १३)।</ref><blockquote>शिक्षा कल्पोऽथ व्याकरणं निरुक्तं छन्दसां च य। ज्योतिषामयनं चैव वेदांगानि षडेव तु॥ (पा० शि०)</blockquote>शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दःशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र। इनमें निरुक्तशास्त्र वेद का श्रोत्र (कान) माना गया है - <blockquote>निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते। (....)</blockquote>निरुक्त की चतुर्दश विद्याओं में भी गणना होती है। यह व्याकरण का पूरक भी है क्योंकि व्याकरण शब्दों की रचना (बहिरंग) की व्याख्या करता है वहीं निरुक्त उनके अर्थ (अन्तरंग) की खोज करता है। इसके लिये वह शब्दों की प्रकृति का पता लगाकर उसके अर्थ से संगति दिखाते हुए पूरे शब्द के अर्थ का अनुसन्धान करता है।
    
==निरुक्तकार यास्क==
 
==निरुक्तकार यास्क==
भाषाशास्त्र की दृष्टि से निरुक्त का बहुत महत्व है। इसमें शब्द के मूल का ज्ञान कराया जाता है। इसमें अर्थविज्ञान की अनेक विद्याओं का समावेश है। शब्द के अर्थ का किस प्रकार विकास होता है, किस प्रकार एकार्थक शब्द अनेकार्थक हो जाता है और अनेकार्थक शब्द एकार्थक हो जाते हैं, समानार्थक शब्दों में सूक्ष्म भेद क्या है, शब्दों के अर्थों में परिवर्तन कैसे होता है। जो निरुक्तकारों की शृंखला में चौदहवें निरुक्तकार माने जाते हैं। महाभारत शान्तिपर्व (अध्या० 342 श्लो० 72/73) में यास्क ऋषि के निरुक्तकार होने का स्पष्ट उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि यास्क ने नष्ट हुए निरुक्त-शास्त्र का पुनरुद्धार किया - <blockquote>यास्को मामृषिरव्यग्रो नैकयज्ञेषु गीतवान्। यास्क ऋषिरुदारधीः......नष्टं निरुक्तमधिजग्मिवान्॥ (श्लो० 72/73)</blockquote>यास्क का निरुक्त ग्रन्थ ही संप्रति उपलब्ध है। इसमें 12 अध्याय हैं। अन्त में परिशिष्ट के रूप में 2 अध्याय हैं। इस प्रकार यह 14 अध्यायों में विभक्त है। इसका वर्ण्य-विषय संक्षेप में यह है - <ref name=":0" />
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भारतीय भाषा वैज्ञानिक परम्परा में यास्क एक प्रतिष्ठित नाम है। भाषाशास्त्र की दृष्टि से निरुक्त का बहुत महत्व है। निरुक्त का अर्थ है प्रकृति और प्रत्यय का विवेचन। इसलिये निरुक्त का अभिप्राय है निर्वचन शास्त्र अथवा व्युत्पत्ति शास्त्र।
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निर्वचन दो प्रकार का है - शब्द निर्वचन तथा अर्थ निर्वचन।
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'''शब्द निर्वचन -''' इस पद्धति में यास्क ने वर्णसाम्य के आधार पर प्रकृति तथा उससे होने वाले प्रत्यय के विकार को स्पष्ट किया है। उदाहरण - अश् धातु से अश्व, वि+आ+घ्रा' धातु से व्याघ्र आदि शब्दों की निरुक्ति का प्रतिपादन किया है भाषाविज्ञान की दृष्टि से ऐसे निर्वचन अत्यन्त उपादेय हैं।
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'''अर्थनिर्वचन -''' इस पद्धति में यास्क ने अर्थसाम्य को ही आधार बनाया है। जैसे व्याघ्र का निर्वचन करते हुए यास्क कहते हैं 'व्यादाय हन्ति' अर्थात् भोजन के लिये मारता है। समुद्र का निर्वचन 'समभिद्रवन्त्येनम् आपः' अर्थात् जिसकी तरफ जल एक साथ दौडता है आदि।
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यास्क ने धातु तथा प्रत्यय अथवा अर्थतत्व और संबंध तत्व के आधार पर व्युत्पत्ति समझाई है। संक्षेप में यह कहना उचित होगा कि यास्क न शब्दों का निर्वचन ध्वनि विज्ञान, अर्थविज्ञान तथा मनोविज्ञान आदि की दृष्टि से किया है जैसे वर्तमान भाषा वैज्ञानिक अध्ययन में किया जाता है।
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इसमें शब्द के मूल का ज्ञान कराया जाता है। इसमें अर्थविज्ञान की अनेक विद्याओं का समावेश है। शब्द के अर्थ का किस प्रकार विकास होता है, किस प्रकार एकार्थक शब्द अनेकार्थक हो जाता है और अनेकार्थक शब्द एकार्थक हो जाते हैं, समानार्थक शब्दों में सूक्ष्म भेद क्या है, शब्दों के अर्थों में परिवर्तन कैसे होता है। जो निरुक्तकारों की शृंखला में चौदहवें निरुक्तकार माने जाते हैं। महाभारत शान्तिपर्व (अध्या० 342 श्लो० 72/73) में यास्क ऋषि के निरुक्तकार होने का स्पष्ट उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि यास्क ने नष्ट हुए निरुक्त-शास्त्र का पुनरुद्धार किया -<blockquote>यास्को मामृषिरव्यग्रो नैकयज्ञेषु गीतवान्। यास्क ऋषिरुदारधीः......नष्टं निरुक्तमधिजग्मिवान्॥ (श्लो० 72/73)</blockquote>यास्क का निरुक्त ग्रन्थ ही संप्रति उपलब्ध है। इसमें 12 अध्याय हैं। अन्त में परिशिष्ट के रूप में 2 अध्याय हैं। इस प्रकार यह 14 अध्यायों में विभक्त है। इसका वर्ण्य-विषय संक्षेप में यह है - <ref name=":0" />
    
'''अध्याय 1 -''' निघण्टु का लक्षण, नाम आख्यात आदि पदों के भेद, षड्भाव-विकार, शब्दनित्यता का विवेचन, उपसर्गों का अर्थविवेचन, शब्दों का धातुज सिद्धान्त, मन्त्रों की सार्थकता का प्रतिपादन, अर्थज्ञान का महत्व और निरुक्त की उपयोगिता।
 
'''अध्याय 1 -''' निघण्टु का लक्षण, नाम आख्यात आदि पदों के भेद, षड्भाव-विकार, शब्दनित्यता का विवेचन, उपसर्गों का अर्थविवेचन, शब्दों का धातुज सिद्धान्त, मन्त्रों की सार्थकता का प्रतिपादन, अर्थज्ञान का महत्व और निरुक्त की उपयोगिता।
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निरुक्त द्वितीय अध्याय के प्रारंभ में इस विषय का विस्तृत विवेचन है और इनके उदाहरण आदि दिए हैं। वैदिक पदों के निर्वचन के अतिरिक्त निरुक्त में भाषा विज्ञान, साहित्य, समाज-शास्त्र एवं ऐतिहासिक विभिन्न विषयों का भी प्रयोगानुकूल वर्णन किया गया है।<ref>Shradha Singh, [http://hdl.handle.net/10603/457559 Nirukta me Pratipadit Antarikshsthaniya Devatao ka Samikshatmak Adhyayan], 2022, Banaras Hindu University (shodhganga), chapter 1, Page 5. </ref>
 
निरुक्त द्वितीय अध्याय के प्रारंभ में इस विषय का विस्तृत विवेचन है और इनके उदाहरण आदि दिए हैं। वैदिक पदों के निर्वचन के अतिरिक्त निरुक्त में भाषा विज्ञान, साहित्य, समाज-शास्त्र एवं ऐतिहासिक विभिन्न विषयों का भी प्रयोगानुकूल वर्णन किया गया है।<ref>Shradha Singh, [http://hdl.handle.net/10603/457559 Nirukta me Pratipadit Antarikshsthaniya Devatao ka Samikshatmak Adhyayan], 2022, Banaras Hindu University (shodhganga), chapter 1, Page 5. </ref>
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== निरुक्त के प्रयोजन==
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==निरुक्त के प्रयोजन==
 
आचार्य यास्क निरुक्तशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का सर्वप्रथम प्रयोजन बताते हुए निरुक्त को मंत्र ज्ञान अथवा अर्थज्ञान हेतु सहायक कहते हैं। इतना ही नहीं वे व्याकरण और निरुक्त में घनिष्ठ संबंध को भी मानते हैं। आचार्य यास्क के अनुसार निरुक्त शास्त्र के चार प्रयोजन निम्नलिखित हैं - अर्थज्ञान, पदविभाग का ज्ञान, देवता का ज्ञान, ज्ञान की प्रशंसा एवं अज्ञान की निंदा। इन सभी का विस्तृत वर्णन नीचे किया जा रहा है -   
 
आचार्य यास्क निरुक्तशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का सर्वप्रथम प्रयोजन बताते हुए निरुक्त को मंत्र ज्ञान अथवा अर्थज्ञान हेतु सहायक कहते हैं। इतना ही नहीं वे व्याकरण और निरुक्त में घनिष्ठ संबंध को भी मानते हैं। आचार्य यास्क के अनुसार निरुक्त शास्त्र के चार प्रयोजन निम्नलिखित हैं - अर्थज्ञान, पदविभाग का ज्ञान, देवता का ज्ञान, ज्ञान की प्रशंसा एवं अज्ञान की निंदा। इन सभी का विस्तृत वर्णन नीचे किया जा रहा है -   
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महर्षि यास्क प्रवृत्ति निमित्त और प्रयोग को ही पद विभाग का आधार मानते हैं। जाति, गुण और यदृच्छा वाचक शब्दों में सत्व की प्रधानता ही प्रवृत्ति-निमित्त है। अतः इन तीनों प्रकार के शब्दों को यास्क ने नाम वर्ग में माना है। सत्व के लिये प्रयुक्त शब्द नाम ही है। क्रिया को प्रकट करने वाले शब्दों को आख्यात नाम दिया है तथा इनमें भाव की प्रधानता बताई है। अव्यय पदों में से नाम और आख्यात से संयुक्त होकर अर्थ बोध कराने वाले शब्दों को उपसर्ग तथा शेष अव्यय पदों को निपात की संज्ञा से अभिहित किया है। यास्क की दृष्टि में मुख्य रूप से पदों के दो विभाग हैं-
 
महर्षि यास्क प्रवृत्ति निमित्त और प्रयोग को ही पद विभाग का आधार मानते हैं। जाति, गुण और यदृच्छा वाचक शब्दों में सत्व की प्रधानता ही प्रवृत्ति-निमित्त है। अतः इन तीनों प्रकार के शब्दों को यास्क ने नाम वर्ग में माना है। सत्व के लिये प्रयुक्त शब्द नाम ही है। क्रिया को प्रकट करने वाले शब्दों को आख्यात नाम दिया है तथा इनमें भाव की प्रधानता बताई है। अव्यय पदों में से नाम और आख्यात से संयुक्त होकर अर्थ बोध कराने वाले शब्दों को उपसर्ग तथा शेष अव्यय पदों को निपात की संज्ञा से अभिहित किया है। यास्क की दृष्टि में मुख्य रूप से पदों के दो विभाग हैं-
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दृष्टव्यय तथा अव्यय इन्हीं को महर्षि यास्क ने गौण रूप में चार विभागों में विभक्त करते हुये कहा है-<blockquote>तद्यान्येतानि चत्वारि पदजातानि नामाख्याते चोपसर्गनिपाताश्च तानि इमानि भवन्ति। (निरुक्त 1.1.1) चत्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसर्गनिपाताश्च। (म०भा० पस्पशाह्निक)</blockquote>इस प्रकार निरुक्त और महाभाष्यादि में चार प्रकार के पद स्वीकार किये गये हैं। इस सन्दर्भ में वाक्यपदीयकार ने कहा है- <blockquote>द्विधा कैश्चित्पदं भिन्नं चतुर्धा पञ्चधापि वा। अपोद्धृत्यैव वाक्येभ्यः प्रकृतिप्रत्ययादिवत् ॥ (वा०प० 3.1.1) </blockquote>अर्थात् कुछ आचार्य नाम और आख्यात इन दो को पद मानते हैं, कुछ नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात इन चार को पद मानते हैं जबकि कुछ इन चारों के साथ-साथ कर्मप्रवचनीय को भी पद मानते हैं। पदों के मुख्यतः चार विभाग हैं –
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'''1. नाम -'''   
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दृष्टव्यय तथा अव्यय इन्हीं को महर्षि यास्क ने गौण रूप में चार विभागों में विभक्त करते हुये कहा है-<blockquote>तद्यान्येतानि चत्वारि पदजातानि नामाख्याते चोपसर्गनिपाताश्च तानि इमानि भवन्ति। (निरुक्त 1.1.1)
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चत्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसर्गनिपाताश्च। (म०भा० पस्पशाह्निक)</blockquote>इस प्रकार निरुक्त और महाभाष्यादि में चार प्रकार के पद स्वीकार किये गये हैं। इस सन्दर्भ में वाक्यपदीयकार ने कहा है- <blockquote>द्विधा कैश्चित्पदं भिन्नं चतुर्धा पञ्चधापि वा। अपोद्धृत्यैव वाक्येभ्यः प्रकृतिप्रत्ययादिवत् ॥ (वा०प० 3.1.1) </blockquote>अर्थात् कुछ आचार्य नाम और आख्यात इन दो को पद मानते हैं, कुछ नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात इन चार को पद मानते हैं जबकि कुछ इन चारों के साथ-साथ कर्मप्रवचनीय को भी पद मानते हैं। पदों के मुख्यतः चार विभाग हैं –
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'''1. नाम'''   
    
'''2. आख्यात'''  
 
'''2. आख्यात'''  
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मुख्य रूप से सत्ता (भू) और अस्ति इन धातुओं से ही समस्त कार्य प्रकट होते हैं। एक तृतीय कृञ् धातु भी इसी प्राधान्यता की श्रेणी में समाविष्ट होती हैं। भावविकारों का उल्लेख वार्ष्यायणि के नाम से महाभाष्यकार पतञ्जलि ने षड्भावविकारा इति ह स्माह वार्ष्यायणिः। (महा०भा० 1.3.1) ने किया है अतः यह षड्भावविकार सिद्धान्त भाषाविज्ञान का प्रसिद्ध और मान्य सिद्धान्त है।
 
मुख्य रूप से सत्ता (भू) और अस्ति इन धातुओं से ही समस्त कार्य प्रकट होते हैं। एक तृतीय कृञ् धातु भी इसी प्राधान्यता की श्रेणी में समाविष्ट होती हैं। भावविकारों का उल्लेख वार्ष्यायणि के नाम से महाभाष्यकार पतञ्जलि ने षड्भावविकारा इति ह स्माह वार्ष्यायणिः। (महा०भा० 1.3.1) ने किया है अतः यह षड्भावविकार सिद्धान्त भाषाविज्ञान का प्रसिद्ध और मान्य सिद्धान्त है।
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==निरुक्तकार==
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==निरुक्तकार ==
 
महर्षि यास्कने अपने निरुक्तमें चौदह निरुक्तकारोंके मत का उल्लेख किया है। निरुक्तके टीकाकार दुर्गाचार्यजी ने भी चौदह निरुक्तकारों की चर्चा अपनी वृत्तिमें की है-<blockquote>निरुक्तं चतुर्दश प्रभेदम्। (दुर्गवृत्ति 1-13)</blockquote>यास्क के निरुक्त में वर्णित कुछ प्रमुख निरुक्तकारों के नाम तथा मत जो कि इस प्रकार निर्दिष्ट किए गए हैं। इनके नाम अक्षरक्रम से इस प्रकार हैं - <ref>बलदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.345816/page/n434/mode/1up?view=theater वैदिक साहित्य और संस्कृति], सन् 1958, शारदा मंदिर काशी (</ref> {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
 
महर्षि यास्कने अपने निरुक्तमें चौदह निरुक्तकारोंके मत का उल्लेख किया है। निरुक्तके टीकाकार दुर्गाचार्यजी ने भी चौदह निरुक्तकारों की चर्चा अपनी वृत्तिमें की है-<blockquote>निरुक्तं चतुर्दश प्रभेदम्। (दुर्गवृत्ति 1-13)</blockquote>यास्क के निरुक्त में वर्णित कुछ प्रमुख निरुक्तकारों के नाम तथा मत जो कि इस प्रकार निर्दिष्ट किए गए हैं। इनके नाम अक्षरक्रम से इस प्रकार हैं - <ref>बलदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.345816/page/n434/mode/1up?view=theater वैदिक साहित्य और संस्कृति], सन् 1958, शारदा मंदिर काशी (</ref> {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
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#'''चर्मशिरा'''
 
#'''चर्मशिरा'''
 
#'''शतवलाक्ष'''}}इस प्रकार से पन्द्रह निरुक्तकारों का वर्णन प्राप्त होता है।<ref>डॉ० रामाशीष पाण्डेय, [https://www.jainfoundation.in/JAINLIBRARY/books/vyutpatti_vigyan_aur_aacharya_yask_023115_hr6.pdf व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क], सन् १९९९, प्रबोध संस्कृत प्रकाशन, हरमू, रांची(बिहार), (पृ०५४)।</ref>
 
#'''शतवलाक्ष'''}}इस प्रकार से पन्द्रह निरुक्तकारों का वर्णन प्राप्त होता है।<ref>डॉ० रामाशीष पाण्डेय, [https://www.jainfoundation.in/JAINLIBRARY/books/vyutpatti_vigyan_aur_aacharya_yask_023115_hr6.pdf व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क], सन् १९९९, प्रबोध संस्कृत प्रकाशन, हरमू, रांची(बिहार), (पृ०५४)।</ref>
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== निरुक्त का महत्व ==
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निरुक्त अपने प्रतिपाद्य विषयों, विषयवस्तु तथा संरचना के आधार पर अत्यन्त महत्त्वाधायी ग्रन्थ है। निरुक्त आधुनिक भाषावैज्ञानिकों को भी दृष्टि प्रदान करता है, जिसके आलोक में भाषा के विश्लेषण के विविध पक्षों का परिचय प्राप्त होता है। निरुक्त के महत्व पर विचार करते समय कुछ विशेष बिन्दु दृष्टिगत होते हैं -
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* निरुक्त व्युत्पत्ति विज्ञान का प्राचीनतम ग्रन्थ
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* वैदिक मन्त्रों के पदार्थ ज्ञान तथा वाक्यार्थ ज्ञान के लिये अत्यन्त उपयोगी
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* अर्थविज्ञान का आदि स्रोत
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* पद विभाजन का नाम, आख्यात, उपसर्ग तथा निपात के रूप में व्यवस्थित रूप निरुक्त से ही प्राप्त होता
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उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि  निरुक्त शास्त्र, भाषा विज्ञान तथा अर्थ विज्ञान का प्राचीनतम प्रामाणिक ग्रन्थ है।
    
==सारांश==
 
==सारांश==
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