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| ==श्री नारायण पण्डित – जीवन परिचय== | | ==श्री नारायण पण्डित – जीवन परिचय== |
− | नीति-कथाओं में पञ्चतंत्र के बाद हितोपदेश का ही नाम आता है। इसके रचयिता ‘श्री नारायण पंडित’ थे जिनके आश्रयदाता बंगाल के राजा धवलचंद्र थे। ग्रंथ की रचना 14 वीं शताब्दी के आसपास की है। इस ग्रंथ के लेखक होने का प्रमाण उनकी इसी रचना के अंतिम श्लोकों में प्राप्त होता है, जहां वे स्वयं ही कहते हैं कि –[1]<blockquote>'''नारायणेन प्रचरतु रचितः संग्रहोsयं कथानाम्।'''</blockquote>अर्थात श्री नारायण द्वारा यह कथाओं का संग्रह रचा गया है। | + | नीति-कथाओं में पञ्चतंत्र के बाद हितोपदेश का ही नाम आता है। इसके रचयिता ‘श्री नारायण पंडित’ थे जिनके आश्रयदाता बंगाल के राजा धवलचंद्र थे। ग्रंथ की रचना 14 वीं शताब्दी के आसपास की है। इस ग्रंथ के लेखक होने का प्रमाण उनकी इसी रचना के अंतिम श्लोकों में प्राप्त होता है, जहां वे स्वयं ही कहते हैं कि –<ref>शोधगंगा-नमिता , [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/327791 पञ्चतन्त्र एवं हितोपदेश में निहित शैक्षिक विचारों का तुलनात्मक अध्ययन एवं वर्तमान सन्दर्भ में उनकी उपादेयता], सन् २०१५, शोधकेन्द्र-डॉ० बी०आर० अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा (पृ० ४३)।</ref><blockquote>'''नारायणेन प्रचरतु रचितः संग्रहोsयं कथानाम्।'''</blockquote>अर्थात श्री नारायण द्वारा यह कथाओं का संग्रह रचा गया है। |
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| संस्कृत के अन्य आचार्यों की तरह हितोपदेश की रचना का समय एवं इसके लेखक श्री नारायण पंडित का जीवनकाल निर्धारण हेतु कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इन्होंने ग्रंथ के मंगलाचरण एवं अंतिम श्लोक में भगवान शिव की स्तुति की है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि इनकी शिव में विशेष आस्था रही होगी अर्थात वे शैव के अनुयायी थे। | | संस्कृत के अन्य आचार्यों की तरह हितोपदेश की रचना का समय एवं इसके लेखक श्री नारायण पंडित का जीवनकाल निर्धारण हेतु कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इन्होंने ग्रंथ के मंगलाचरण एवं अंतिम श्लोक में भगवान शिव की स्तुति की है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि इनकी शिव में विशेष आस्था रही होगी अर्थात वे शैव के अनुयायी थे। |
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| == कथा शैली== | | == कथा शैली== |
− | बालसुलभ एवं सरल, सुबोध, रोचक, मुहावरेदार और विषय के अनुरूप मनोरञ्जक एवं आकर्षक शैली में कथाओं को प्रस्तुत किया गया है। कथाओं की भाषा में प्रवाह एवं सन्तुलन है। नीति परक उपदेश एवं मनोरञ्जन पर आधारित होने से व्यावहारिक स्तर पर यहाँ कथा-काव्य की दो कोटियाँ प्राप्त होती हैं - | + | बालसुलभ एवं सरल, सुबोध, रोचक, मुहावरेदार और विषय के अनुरूप मनोरञ्जक एवं आकर्षक शैली में कथाओं को प्रस्तुत किया गया है। कथाओं की भाषा में प्रवाह एवं सन्तुलन है। नीति परक उपदेश एवं मनोरञ्जन पर आधारित होने से व्यावहारिक स्तर पर यहाँ कथा-काव्य की दो कोटियाँ प्राप्त होती हैं -<ref>बलदेव उपाध्याय, संस्कृत साहित्य का इतिहास, सन् , शारदा भवन, वाराणसी (पृ० 337)।</ref> |
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| *'''नीति कथा -''' पञ्चतन्त्र और हितोपदेश की गणना इसी कोटि में की जाती है। | | *'''नीति कथा -''' पञ्चतन्त्र और हितोपदेश की गणना इसी कोटि में की जाती है। |
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| इसकी शैली अत्यंत सरल और सरस है। पद्य अत्यंत सरल और उपदेशात्मक हैं। कहीं-कहीं पद्यों की संख्या अधिक हो जाने से अरुचि होती है। सरल संस्कृत होने के कारण पंचतंत्र से अधिक हितोपदेश का भारतवर्ष में प्रचार है। प्रारम्भिक छात्रों के लिए इसका उपयोग किया जाता है। भाव, भाषा, कथा-प्रवाह, रोचकता आदि सभी गुण इसमें अधिकता से प्राप्त होते हैं। | | इसकी शैली अत्यंत सरल और सरस है। पद्य अत्यंत सरल और उपदेशात्मक हैं। कहीं-कहीं पद्यों की संख्या अधिक हो जाने से अरुचि होती है। सरल संस्कृत होने के कारण पंचतंत्र से अधिक हितोपदेश का भारतवर्ष में प्रचार है। प्रारम्भिक छात्रों के लिए इसका उपयोग किया जाता है। भाव, भाषा, कथा-प्रवाह, रोचकता आदि सभी गुण इसमें अधिकता से प्राप्त होते हैं। |
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− | संस्कृत में कथायें दो प्रकार की होती हैं – उपदेशात्मक तथा मनोरंजक।[3] | + | संस्कृत में कथायें दो प्रकार की होती हैं – उपदेशात्मक तथा मनोरंजक।<ref>डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, सन् 2017, रामनारायणलाल विजयकुमार, इलाहाबाद (पृ० 582)।</ref> |
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| #'''उपदेशात्मक –''' इसमें कथायें पशु-पक्षी से संबंध रखती हैं और उनका प्रधान उद्देश्य उपदेश रहता है। जैसे – पंचतंत्र , हितोपदेश। | | #'''उपदेशात्मक –''' इसमें कथायें पशु-पक्षी से संबंध रखती हैं और उनका प्रधान उद्देश्य उपदेश रहता है। जैसे – पंचतंत्र , हितोपदेश। |
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| विद्वानो, मुझे केवल अपने पुत्रों की चिन्ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये पुत्र मेरे वंश को कलकित करेगे। संसार में उसी पुत्र का जन्म लेना सफल होता है जो अपने वंश की मान-मर्यादा बढ़ाये । निरर्थक पुत्रों से क्या लाभ ? कोई विद्वान् मेरे मूर्ख पुत्रों को भी विद्वान् बना दे तो में उसका उपकार मानूंगा । इस कार्य को पूरा करने के लिए में छः मास का समय देता हूँ। सभा में सन्नाटा छा गया। किसी भी अन्य विद्वान् मे राज पुत्रों को इतने थोड़े समय में राजनीतिज्ञ वना देने की सामथ्य नही थी । केवल विष्णुशर्मा नाम का एक विद्वान् अपने आसन से उठा और बोला – | | विद्वानो, मुझे केवल अपने पुत्रों की चिन्ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये पुत्र मेरे वंश को कलकित करेगे। संसार में उसी पुत्र का जन्म लेना सफल होता है जो अपने वंश की मान-मर्यादा बढ़ाये । निरर्थक पुत्रों से क्या लाभ ? कोई विद्वान् मेरे मूर्ख पुत्रों को भी विद्वान् बना दे तो में उसका उपकार मानूंगा । इस कार्य को पूरा करने के लिए में छः मास का समय देता हूँ। सभा में सन्नाटा छा गया। किसी भी अन्य विद्वान् मे राज पुत्रों को इतने थोड़े समय में राजनीतिज्ञ वना देने की सामथ्य नही थी । केवल विष्णुशर्मा नाम का एक विद्वान् अपने आसन से उठा और बोला – |
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− | राजन्, मे वचन देता हूँ कि छः महीने के अन्दर-अन्दर मैं राजपुत्रों को राजनीतिज्ञ वना दूंगा। राजा ने अपने पुत्रों को विष्णुगर्मा के साथ विदा किया । विष्णुशर्मा ने इन राजपुत्रों को जिन मनोरंजक कहानियो द्वारा राजनीति और व्यवहार-नीति की शिक्षा दी, उन कथाओं और नीति-वाक्यों के संग्रह को ही 'हितोपदेश' कहा जाता है। इस कथा-संग्रह के प्रथम भाग को 'मित्रलाभ' का नाम दिया गया। पहले उस भाग की प्रथम कथा कहते हैं।[7] | + | राजन्, मे वचन देता हूँ कि छः महीने के अन्दर-अन्दर मैं राजपुत्रों को राजनीतिज्ञ वना दूंगा। राजा ने अपने पुत्रों को विष्णुगर्मा के साथ विदा किया । विष्णुशर्मा ने इन राजपुत्रों को जिन मनोरंजक कहानियो द्वारा राजनीति और व्यवहार-नीति की शिक्षा दी, उन कथाओं और नीति-वाक्यों के संग्रह को ही 'हितोपदेश' कहा जाता है। इस कथा-संग्रह के प्रथम भाग को 'मित्रलाभ' का नाम दिया गया। पहले उस भाग की प्रथम कथा कहते हैं।<ref>नारायण पण्डित, [https://ia601502.us.archive.org/16/items/in.ernet.dli.2015.325936/2015.325936.The-Hitopadesa.pdf हितोपदेशः], सन् १९४१, निर्णयसागर प्रेस, मुम्बई (पृ० १३)।</ref> |
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| ==उद्धरण== | | ==उद्धरण== |
− | [1] <nowiki>https://ia801405.us.archive.org/21/items/in.ernet.dli.2015.327677/2015.327677.Sanskrit-Sahitya.pdf</nowiki>
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− | बलदेव उपाध्याय, संस्कृत साहित्य का इतिहास, सन् , शारदा भवन, वाराणसी (पृ० 337)।
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− | [2] डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, सन् 2017, रामनारायणलाल विजयकुमार, इलाहाबाद (पृ० 582)।
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− | [3] <nowiki>https://ia801405.us.archive.org/21/itemsin.ernet.dli.2015.327677/2015.327677.Sanskrit-Sahitya.pdf</nowiki>
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− | [4] <nowiki>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/327791</nowiki>
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− | [5] <nowiki>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/327791</nowiki>
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− | [6] <nowiki>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/327791</nowiki>
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− | [7] <nowiki>https://ia801507.us.archive.org/1/items/in.ernet.dli.2015.349947/2015.349947.Hiteep-Desh.pdf</nowiki>
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