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− | जीवन का स्वभावज लक्ष्य मोक्ष है | + | जीवन का स्वभावज लक्ष्य मोक्ष है । जितनी गहराई से मानव के व्यक्तित्व का अध्ययन भारतीय मनीषियों ने किया है, अन्य किसी ने नहीं किया है। भारतीय मनीषियों के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। वर्तमान की विपरीत शिक्षा से प्रभावित लोगों के लिए जीवन के इस लक्ष्य को समझना कठिन इसलिए बन गया है कि वे ‘विचार कैसे करना चाहिए’ इस की शिक्षा से वंचित हैं। सामान्य बुध्दि वाले हर मानव को मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है, इसे समझना कठिन बात नहीं है। हर मनुष्य चाहता है कि: |
− | जितना गहराई से मानव के व्यक्तित्वका अध्ययन भारतीय मनीषियों ने किया है अन्य किसी ने नहीं किया है। भारतीय मनीषियों के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। वर्तमान की विपरीत शिक्षा से प्रभावित लोगों के लिए जीवन के इस लक्ष्य को समझना कठिन इसलिए बन गया है कि वे ‘विचार कैसे करना चाहिए’ इस की शिक्षा से वंचित हैं। सामान्य बुध्दिवाले हर मानव को मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है यह समझना कठिन बात नहीं है। हर मनुष्य चाहता है कि - १. मैं अमर हो जाऊँ | २ मैं सर्वज्ञानी बन जाऊँ। ३ मैं सदासुखी रहूँ।
| + | # मैं अमर हो जाऊँ । |
− | ४ मेरे ऊपर किसी का नियंत्रण नहीं चले। ५ मेरा नियंत्रण सभीपर चले।
| + | # मैं सर्वज्ञानी बन जाऊँ । |
− | ये सभी बातें केवल परमात्मा के पास हैं। अन्य किसी के पास नहीं हैं। और इन्हीं बैटन की चाहत हर मनुष्य को है अर्थात् प्रत्येक मानव परमात्मपद प्राप्त करना चाहता है। मोक्ष चाहता है। | + | # मैं सदा सुखी रहूँ। |
− | अन्य ढँग से देखें। सृष्टि में चक्रीयता है। हम यात्रा के लिए निकलते हैं घर से| हमारी यात्रा घर आकर ही पूर्ण होती है| सृष्टि का (और मनुष्य का भी) निर्माण यदि परमात्माने अपने में से ही किया है तो मानव जीवन का लक्ष्य भी जहाँ से यात्रा प्रारंभ की है वहीं पहुँचने का होगा। | + | # मेरे ऊपर किसी का नियंत्रण नहीं चले। |
− | जीवन दृष्टी के सूत्र | + | # मेरा नियंत्रण सभी पर चले । |
| + | ये सभी बातें केवल परमात्मा के पास हैं। अन्य किसी के पास नहीं हैं। और इन्हीं बातों की चाहत हर मनुष्य को है अर्थात् प्रत्येक मानव परमात्मपद प्राप्त करना चाहता है। मोक्ष चाहता है। अन्य ढँग से देखें। सृष्टि में चक्रीयता है। हम यात्रा के लिए घर से निकलते हैं । हमारी यात्रा घर आकर ही पूर्ण होती है। सृष्टि का (और मनुष्य का भी) निर्माण यदि परमात्मा ने अपने में से ही किया है तो मानव जीवन का लक्ष्य भी जहाँ से यात्रा प्रारंभ की है वहीं पहुँचने का होगा। |
| + | |
| + | == जीवन दृष्टि के सूत्र == |
| प्राचीन काल से ही मै कौन हूं? कहाँ से आया हूं? मेरे जन्म का प्रयोजन क्या है ? मरने के बाद मै कहाँ जाऊंगा? आदि प्रश्नों के उत्तर हमारे पूर्वजों ने खोज निकाले थे। वह उत्तर आज भी उतने ही सटीक हैं। इन उत्तरों को प्राप्त करने के लिये जो चिंतन हुवा उस का सार निम्न है। | | प्राचीन काल से ही मै कौन हूं? कहाँ से आया हूं? मेरे जन्म का प्रयोजन क्या है ? मरने के बाद मै कहाँ जाऊंगा? आदि प्रश्नों के उत्तर हमारे पूर्वजों ने खोज निकाले थे। वह उत्तर आज भी उतने ही सटीक हैं। इन उत्तरों को प्राप्त करने के लिये जो चिंतन हुवा उस का सार निम्न है। |
− | १. चराचर अर्थात् जड और चेतन सृष्टि यह आत्मतत्त्व का ही विस्तार है। इस लिये चराचर के प्रत्येक घटक का एक दूसरे से आत्मीयता का संबंध है। आत्मीयता शब्द ही आत्मतत्त्व से बना है| आत्मीयता से व्यवहार के सूत्र प्रेम, सेवा और त्याग है। आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति परिवार भावना है| | + | १. चराचर अर्थात् जड और चेतन सृष्टि यह आत्मतत्त्व का ही विस्तार है। इस लिये चराचर के प्रत्येक घटक का एक दूसरे से आत्मीयता का संबंध है। आत्मीयता शब्द ही आत्मतत्त्व से बना है। आत्मीयता से व्यवहार के सूत्र प्रेम, सेवा और त्याग है। आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति परिवार भावना है। |
| २. आत्मतत्त्व परम चैतन्यमय है। इस लिये सारी सृष्टि यह चैतन्यमय ही है। जड, जीव, वनस्पति, प्राणी और मानव आदि अक्रिय से लेकर सक्रियतक की चेतना के भिन्न भिन्न स्तरों को दिये गये नाम है। | | २. आत्मतत्त्व परम चैतन्यमय है। इस लिये सारी सृष्टि यह चैतन्यमय ही है। जड, जीव, वनस्पति, प्राणी और मानव आदि अक्रिय से लेकर सक्रियतक की चेतना के भिन्न भिन्न स्तरों को दिये गये नाम है। |
− | ३. सृष्टि के सभी घटकों में मानव जाति सब से अधिक विकसित है। मनुष्य जन्म का प्रयोजन जहाँ (परमात्मतत्त्व से) से निकले वहाँ (परमात्त्वतत्त्वतक) पहुंचना ही है। यही सृष्टि की चक्रीयता के स्वरूप से भी समझ में आता है। उत्पत्ति, स्थिति और लय यही सृष्टि के कालचक्र की गति है। अर्थात् मनुष्य जन्म का प्रयोजन आत्मतत्त्व में लीन हो जाना या परमात्मपद प्राप्ति है। मोक्ष है। मुक्ति है। चराचर सृष्टि के साथ एकात्मता की भावना का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है| प्रत्येक मनुष्य को यह लक्ष्य प्राप्त हो सके इस लिये समाज के साथ ही यज्ञ (नि:स्वार्थ भाव से लोक हित के और पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखने के लिये काम करना -संदर्भ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १०,११) को भी परमात्मा ने निर्माण किया है। | + | ३. सृष्टि के सभी घटकों में मानव जाति सब से अधिक विकसित है। मनुष्य जन्म का प्रयोजन जहाँ (परमात्मतत्त्व से) से निकले वहाँ (परमात्त्वतत्त्वतक) पहुंचना ही है। यही सृष्टि की चक्रीयता के स्वरूप से भी समझ में आता है। उत्पत्ति, स्थिति और लय यही सृष्टि के कालचक्र की गति है। अर्थात् मनुष्य जन्म का प्रयोजन आत्मतत्त्व में लीन हो जाना या परमात्मपद प्राप्ति है। मोक्ष है। मुक्ति है। चराचर सृष्टि के साथ एकात्मता की भावना का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। प्रत्येक मनुष्य को यह लक्ष्य प्राप्त हो सके इस लिये समाज के साथ ही यज्ञ (नि:स्वार्थ भाव से लोक हित के और पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखने के लिये काम करना -संदर्भ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १०,११) को भी परमात्मा ने निर्माण किया है। |
− | ४. जीवन स्थल और काल के संदर्भ में एक और अखण्ड है। इस लिये इस का टुकडों में विचार नहीं किया जाना चाहिये। स्थल के संदर्भ में अखण्डता से मतलब है विश्व के किसी भी कोने में घटनेवाली घटना या कृति का विश्व के हर भाग में असर होना| और काल के सन्दर्भ में अखण्डता का अर्थ है हर जीव जब से उसका सृष्टि में सृजन हुआ है तब से लेकर जबतक सृष्टि में उसका ले होगा तबतक उसका अस्तित्व रहेगा| यह उसके बारबार जन्म और मृत्यू के रूप में चलता रहता है| इस कारण एकात्म और समग्र पध्दति से ही जीवन का विचार करना चाहिये। ‘थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली’ इस अंगरेजी मुहावरे का अर्थ है, वैश्विक हित का विचार कर उस के सन्दर्भ में स्थानिक स्तरपर काम करो। | + | ४. जीवन स्थल और काल के संदर्भ में एक और अखण्ड है। इस लिये इस का टुकडों में विचार नहीं किया जाना चाहिये। स्थल के संदर्भ में अखण्डता से मतलब है विश्व के किसी भी कोने में घटनेवाली घटना या कृति का विश्व के हर भाग में असर होना। और काल के सन्दर्भ में अखण्डता का अर्थ है हर जीव जब से उसका सृष्टि में सृजन हुआ है तब से लेकर जबतक सृष्टि में उसका ले होगा तबतक उसका अस्तित्व रहेगा। यह उसके बारबार जन्म और मृत्यू के रूप में चलता रहता है। इस कारण एकात्म और समग्र पध्दति से ही जीवन का विचार करना चाहिये। ‘थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली’ इस अंगरेजी मुहावरे का अर्थ है, वैश्विक हित का विचार कर उस के सन्दर्भ में स्थानिक स्तरपर काम करो। |
− | ५. एक मात्र मनुष्य योनी कर्म योनी है। मनुष्य कर्म करने को स्वतंत्र है। इसे कर्म करने की स्वतंत्रता है। अन्य सब भोग योनियाँ हैं| मनुष्य योनी में कर्म ही जीवन का नियमन करते है । इसे समझने के लिए ही कर्म सिध्दांत की प्रस्तुति की गयी है| | + | ५. एक मात्र मनुष्य योनी कर्म योनी है। मनुष्य कर्म करने को स्वतंत्र है। इसे कर्म करने की स्वतंत्रता है। अन्य सब भोग योनियाँ हैं। मनुष्य योनी में कर्म ही जीवन का नियमन करते है । इसे समझने के लिए ही कर्म सिध्दांत की प्रस्तुति की गयी है। |
− | व्यवहार के सूत्र | + | |
− | इस चिंतन के आधार पर भारतीय मनीषियों ने मानव जाति को मार्गदर्शन करने के लिये कुछ व्यवहारसूत्रों की प्रस्तुति की है। यह व्यवहार सूत्र निम्न है। | + | == व्यवहार के सूत्र == |
− | १. नर करनी करे तो नर का नारायण बनä | + | इस चिंतन के आधार पर भारतीय मनीषियों ने मानव जाति को मार्गदर्शन करने के लिये कुछ व्यवहारसूत्रों की प्रस्तुति की है। यह व्यवहार सूत्र निम्न है। |
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| + | === १. नर करनी करे तो नर का नारायण बन जाये === |
| + | ä |
| योग्य ढंग से प्रयास करने से मनुष्य नरोत्तम बन सकता है और आगे देवत्व या परमात्मपद भी पा सकता है । यह मान्यता केवल हिंदू या भारतीय चिंतन और मान्यता है । अन्य समाजों ने तो मानव प्रेषित भी नही बन सकता ऐसा आग्रहपूर्वक कहा है । फल की कामना किये बिना यदि कोई विहित कर्म करता जाए तो वह परमात्म्प्द प्राप्त करता है ऐसा भगवद्गीता में कहा है । इस के लिये मार्गदर्शन भी किया है । | | योग्य ढंग से प्रयास करने से मनुष्य नरोत्तम बन सकता है और आगे देवत्व या परमात्मपद भी पा सकता है । यह मान्यता केवल हिंदू या भारतीय चिंतन और मान्यता है । अन्य समाजों ने तो मानव प्रेषित भी नही बन सकता ऐसा आग्रहपूर्वक कहा है । फल की कामना किये बिना यदि कोई विहित कर्म करता जाए तो वह परमात्म्प्द प्राप्त करता है ऐसा भगवद्गीता में कहा है । इस के लिये मार्गदर्शन भी किया है । |
| मनुष्य चार प्रकार के होते है । सब से नीचे के स्तरपर होता है नरराक्षस । औरों को कष्ट देकर इया औरों को दुखी देखकर इन्हें सुख मिलता है । जानबूझकर सडकपर केले के छिलके फेंककर लोगों को फिसलते देख आनंदित होना या खुजली का चूर्ण सार्वजनिक स्थानोंपर लोगों के बदनपर डालकर लोगों की परेशानी से आनंद पाना ऐसा इन का स्वभाव रहता है । | | मनुष्य चार प्रकार के होते है । सब से नीचे के स्तरपर होता है नरराक्षस । औरों को कष्ट देकर इया औरों को दुखी देखकर इन्हें सुख मिलता है । जानबूझकर सडकपर केले के छिलके फेंककर लोगों को फिसलते देख आनंदित होना या खुजली का चूर्ण सार्वजनिक स्थानोंपर लोगों के बदनपर डालकर लोगों की परेशानी से आनंद पाना ऐसा इन का स्वभाव रहता है । |
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| संक्षेप में ऐसा कह सकते है - | | संक्षेप में ऐसा कह सकते है - |
| परहित करते करते मानव उन्नत होता जाये परहित करते करते करते नर का नारायण हो जाये ॥ | | परहित करते करते मानव उन्नत होता जाये परहित करते करते करते नर का नारायण हो जाये ॥ |
− | २ सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात् | + | |
− | भावार्थ - सब सुखी हों । किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो । किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो । अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों । विश्वभर का हजारों वर्षों का साहित्य खोजकर देखनेपर भी इतना श्रेष्ठ विचार कहीं नही मिलेगा ।
| + | === २ सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात् === |
| + | भावार्थ - सब सुखी हों । किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो । किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो । अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों । विश्वभर का हजारों वर्षों का साहित्य खोजकर देखनेपर भी इतना श्रेष्ठ विचार कहीं नही मिलेगा । |
| कुछ लोग कहेंगे यह तो कागजी विचार है । सभी लोग तो कभी भी एकसाथ सुखी नही हो सकते । यह कुछ मात्रा में सत्य भी है । हर व्यक्ति भिन्न होता है । कुछ दुष्ट या नरराक्षस प्रवृत्ति के लोग तो औरों के सुख से दुखि होते है या दूसरों को दुखी कर सुख पाते है। फिर सब सुखी कप्रसे हो सकते है ? ऐसा होनेपर भी हमारा लक्ष्य तो सब सुखी हों यही रखना होगा । | | कुछ लोग कहेंगे यह तो कागजी विचार है । सभी लोग तो कभी भी एकसाथ सुखी नही हो सकते । यह कुछ मात्रा में सत्य भी है । हर व्यक्ति भिन्न होता है । कुछ दुष्ट या नरराक्षस प्रवृत्ति के लोग तो औरों के सुख से दुखि होते है या दूसरों को दुखी कर सुख पाते है। फिर सब सुखी कप्रसे हो सकते है ? ऐसा होनेपर भी हमारा लक्ष्य तो सब सुखी हों यही रखना होगा । |
| दुनियाँभर की लोकतांत्रिक सरकारों ने बहुजनहिताय बहुजनसुखाय का व्यावहारिक लक्ष्य रखा है । किंतु उस के परिणाम हम देख रहे है । केवल मुठ्ठीभर लोग ही सुख बटोरते है । बाकी सब दुखदर्द में पिसते रहते है । इसीलिये स्वामीऔ विवेकानंद कहते थे ‘जो आदर्श है उसे ही हमने व्यवहार बनाने के प्रयास करने चाहिये । जब हम व्यावहारिक को ही आदर्श मानने लग जाते है तो पतन प्रारंभ हो जाता है।‘ | | दुनियाँभर की लोकतांत्रिक सरकारों ने बहुजनहिताय बहुजनसुखाय का व्यावहारिक लक्ष्य रखा है । किंतु उस के परिणाम हम देख रहे है । केवल मुठ्ठीभर लोग ही सुख बटोरते है । बाकी सब दुखदर्द में पिसते रहते है । इसीलिये स्वामीऔ विवेकानंद कहते थे ‘जो आदर्श है उसे ही हमने व्यवहार बनाने के प्रयास करने चाहिये । जब हम व्यावहारिक को ही आदर्श मानने लग जाते है तो पतन प्रारंभ हो जाता है।‘ |
− | एकबार यूडीसीटी के प्राध्यापक से प्रश्न पूछा गया की क्या आप शून्य प्रदूषण रासायनिक उद्योग का लक्ष्य विद्यार्थियों के समक्ष रखते है । उन का उत्तर था की यह संभव नही है । इसलिये ऐसा लक्ष्य नही रखा जाता । परिणाम हम सबके सामने है । कच्चा माल, विभिन्न रासायनिक पदार्थों की गुणवत्ता, योग्य तापमान, योग्य समय और योग्य प्रक्रिया होने से ही सही रासायनिक उत्पादन तैयार होते है । इन में से किसी एक में भी अंतर आने से उत्पादन बिगड जाता है । इस का अर्थ है उत्पादन नही होता| लेकिन प्रदूषण तो होगा ही । इसलिये रासायनिक उद्योगों में शून्य प्रदूषण उद्योग का लक्ष्य ही सामने रखना होगा । निम्न दोहे में इस तत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है - | + | एकबार यूडीसीटी के प्राध्यापक से प्रश्न पूछा गया की क्या आप शून्य प्रदूषण रासायनिक उद्योग का लक्ष्य विद्यार्थियों के समक्ष रखते है । उन का उत्तर था की यह संभव नही है । इसलिये ऐसा लक्ष्य नही रखा जाता । परिणाम हम सबके सामने है । कच्चा माल, विभिन्न रासायनिक पदार्थों की गुणवत्ता, योग्य तापमान, योग्य समय और योग्य प्रक्रिया होने से ही सही रासायनिक उत्पादन तैयार होते है । इन में से किसी एक में भी अंतर आने से उत्पादन बिगड जाता है । इस का अर्थ है उत्पादन नही होता। लेकिन प्रदूषण तो होगा ही । इसलिये रासायनिक उद्योगों में शून्य प्रदूषण उद्योग का लक्ष्य ही सामने रखना होगा । निम्न दोहे में इस तत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है - |
| मानवता हो व्याप्त तभी जब बने सुखी हर जीव । शुभ देखे और स्वस्थ रहें, है मानवता की नींव ॥ | | मानवता हो व्याप्त तभी जब बने सुखी हर जीव । शुभ देखे और स्वस्थ रहें, है मानवता की नींव ॥ |
| किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये । आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है । किंतु पारे में औषधी गुण भी है । आयुर्वेद में इसे औषधी के रूप में प्रयोग किया जाता है । किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है । उस के बाद ही वह औषधी बनाने के लिये योग्य बनता है । | | किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये । आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है । किंतु पारे में औषधी गुण भी है । आयुर्वेद में इसे औषधी के रूप में प्रयोग किया जाता है । किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है । उस के बाद ही वह औषधी बनाने के लिये योग्य बनता है । |
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| २.१ आ नो भद्रा: कृतवो यन्तु विश्वता: | | २.१ आ नो भद्रा: कृतवो यन्तु विश्वता: |
| भद्र या शुभ-ज्ञान संपूर्ण विश्व से हमें मिले। हमारा जो ज्ञान है वही सर्वश्रेष्ठ है ऐसा अहंकार भारतीय मनीषियों ने कभी नही पाला। यहाँतक कह डाला की ‘बालादपि सुभाषितं ग्राह्यं’। छोटा बच्चा भी कुछ श्रेष्ठ ज्ञान देता है तो उसे स्वीकार करना चाहिये । बाहर से आनेवाली शीतल और शुध्द हवा के लिये हम अपने घरों की खिडकियाँ खोलते है । ठीक उसी तरह हमने अपने मन की खिडकियाँ भी शुभ ज्ञान की प्राप्ति के लिये खुली रखनी चाहिये । किन्तु कुछ अशुद्ध हवा आने लगे तो हम जैसे खिडकियाँ बंद भी कर लेते है वैसी ही हमारी अभद्र ज्ञान के विषय में भूमिका होनी चाहिये । कोई बात अन्यों के लिए हितकर है इसलिये यह आवश्यक नही की वह हमारे लिये भी उपयुक्त होगी ही । इसलिये उसे अपनी स्थानिकता की दृष्टि से वह कितनी हितकर है, इस की कसौटिपर ही भद्र-अभद्र का निर्णय कर स्वीकार करना होगा । | | भद्र या शुभ-ज्ञान संपूर्ण विश्व से हमें मिले। हमारा जो ज्ञान है वही सर्वश्रेष्ठ है ऐसा अहंकार भारतीय मनीषियों ने कभी नही पाला। यहाँतक कह डाला की ‘बालादपि सुभाषितं ग्राह्यं’। छोटा बच्चा भी कुछ श्रेष्ठ ज्ञान देता है तो उसे स्वीकार करना चाहिये । बाहर से आनेवाली शीतल और शुध्द हवा के लिये हम अपने घरों की खिडकियाँ खोलते है । ठीक उसी तरह हमने अपने मन की खिडकियाँ भी शुभ ज्ञान की प्राप्ति के लिये खुली रखनी चाहिये । किन्तु कुछ अशुद्ध हवा आने लगे तो हम जैसे खिडकियाँ बंद भी कर लेते है वैसी ही हमारी अभद्र ज्ञान के विषय में भूमिका होनी चाहिये । कोई बात अन्यों के लिए हितकर है इसलिये यह आवश्यक नही की वह हमारे लिये भी उपयुक्त होगी ही । इसलिये उसे अपनी स्थानिकता की दृष्टि से वह कितनी हितकर है, इस की कसौटिपर ही भद्र-अभद्र का निर्णय कर स्वीकार करना होगा । |
− | यहाँ भद्र का अर्थ भी ठीक से समझना होगा । भद्र का अर्थ केवल हमारे हित का है ऐसा नहीं वरना सब के हित का जो है वही भद्र ज्ञान है| और यह सब का हित भी केवल वर्तमान से संबंधित या अल्पावधी के लिये नहीं होकर चिरकालतक सब के हित का होना आवश्यक है । ऐसे ज्ञान को ही भद्र या शुभ ज्ञान कहा जा सकता है । | + | यहाँ भद्र का अर्थ भी ठीक से समझना होगा । भद्र का अर्थ केवल हमारे हित का है ऐसा नहीं वरना सब के हित का जो है वही भद्र ज्ञान है। और यह सब का हित भी केवल वर्तमान से संबंधित या अल्पावधी के लिये नहीं होकर चिरकालतक सब के हित का होना आवश्यक है । ऐसे ज्ञान को ही भद्र या शुभ ज्ञान कहा जा सकता है । |
| ऐसा भी हो सकता है की बाहर से आनेवाला ज्ञान सब के हित का ना हो या सब के हित का होनेपर भी चिरंतन हित का ना हो । ऐसी स्थिति में ऐसे ज्ञान को सुधारकर जबतक हम उसे चिरकालतक सब के हित का नही बना देते उस ज्ञान का उपयोग वर्जित रखें । वह ज्ञान भले ही हमारे हित का हो लेकिन कम से कम उस ज्ञानसे अन्यों का अहित नही होगा यह सुनिश्चित करनेपर ही वह ज्ञान भद्र कहा जा सकेगा । | | ऐसा भी हो सकता है की बाहर से आनेवाला ज्ञान सब के हित का ना हो या सब के हित का होनेपर भी चिरंतन हित का ना हो । ऐसी स्थिति में ऐसे ज्ञान को सुधारकर जबतक हम उसे चिरकालतक सब के हित का नही बना देते उस ज्ञान का उपयोग वर्जित रखें । वह ज्ञान भले ही हमारे हित का हो लेकिन कम से कम उस ज्ञानसे अन्यों का अहित नही होगा यह सुनिश्चित करनेपर ही वह ज्ञान भद्र कहा जा सकेगा । |
| भद्र ज्ञान के विषय में एक और पहलू भी विचार करने योग्य है । कोई तंत्रज्ञान कुछ मात्रा में तो लाभदाई है और कुछ मात्रा में हानी करनेवाला । ऐसे तंत्रज्ञान को वह जबतक सब के हित में काम करनेवाला है उस सीमातक ही उपयोग में लाना होगा । उस से आगे उस का उपयोग वर्जित करना होगा । उदा. संगणक को लें । एक सीमातक तो संगणक बहुत ही लाभदायक तंत्रज्ञान है । किंतु वह जब मानव के अहित के लिये उपयोग में लाया जाएगा तब उस का उपयोग वर्जित होगा । जिस व्यक्ति या संस्था के पास यह शुभ ज्ञान का विवेक नहीं है ऐसे लोगों को संगणक के ज्ञान से वंचित रखने में ही सब की भलाई होगी । | | भद्र ज्ञान के विषय में एक और पहलू भी विचार करने योग्य है । कोई तंत्रज्ञान कुछ मात्रा में तो लाभदाई है और कुछ मात्रा में हानी करनेवाला । ऐसे तंत्रज्ञान को वह जबतक सब के हित में काम करनेवाला है उस सीमातक ही उपयोग में लाना होगा । उस से आगे उस का उपयोग वर्जित करना होगा । उदा. संगणक को लें । एक सीमातक तो संगणक बहुत ही लाभदायक तंत्रज्ञान है । किंतु वह जब मानव के अहित के लिये उपयोग में लाया जाएगा तब उस का उपयोग वर्जित होगा । जिस व्यक्ति या संस्था के पास यह शुभ ज्ञान का विवेक नहीं है ऐसे लोगों को संगणक के ज्ञान से वंचित रखने में ही सब की भलाई होगी । |
| २.२ आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च | | २.२ आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च |
− | मेरे जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है । किन्तु जबतक मैं अपने सांसारिक कर्तव्य और लोकहित के संबंध में अपनी भूमिका ठीक से पूरी नहीं करता मुझे मोक्षगामी होने का कोई अधिकार नहीं है । ऐसी भारतीय मान्यता है । स्वामी विवेकानंद कहते थे जबतक मेरे भारत का एक भी व्यक्ति दुख से ग्रस्त है मुझे मोक्ष नहीं चाहिये । | + | मेरे जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है । किन्तु जबतक मैं अपने सांसारिक कर्तव्य और लोकहित के संबंध में अपनी भूमिका ठीक से पूरी नहीं करता मुझे मोक्षगामी होने का कोई अधिकार नहीं है । ऐसी भारतीय मान्यता है । स्वामी विवेकानंद कहते थे जबतक मेरे भारत का एक भी व्यक्ति दुख से ग्रस्त है मुझे मोक्ष नहीं चाहिये । |
− | ३. एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति/विविधता में एकता | + | |
| + | === ३. एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति/विविधता में एकता === |
| सत्य एक ही है । किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुध्दि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है । इन साधनों के आधारपर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है । ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है । | | सत्य एक ही है । किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुध्दि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है । इन साधनों के आधारपर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है । ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है । |
| सत्य एक अनुभूति भिन्न है सत्य यही तू जान इंद्रिय, मन, बुध्दि भिन्न है भिन्न सत्य अनुमान | | सत्य एक अनुभूति भिन्न है सत्य यही तू जान इंद्रिय, मन, बुध्दि भिन्न है भिन्न सत्य अनुमान |
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| आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं । सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति । | | आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं । सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति । |
| जिस प्रकार बारिश का पानी धरतीपर गिरता है । लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुध्द भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा। | | जिस प्रकार बारिश का पानी धरतीपर गिरता है । लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुध्द भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा। |
− | “विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है| इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना| इसलिए भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं| भेद होना यह प्राकृतिक ही है| इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है| यही भारतीय या हिन्दू संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है| यही हिन्दू धर्म का मर्म है| | + | “विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना। इसलिए भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं। भेद होना यह प्राकृतिक ही है। इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है। यही भारतीय या हिन्दू संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है। यही हिन्दू धर्म का मर्म है। |
− | ४ आत्मा, परमात्मा और इस से जुडी मान्यताएं | + | |
− | आत्मा और परमात्मा यह संकल्पनाएं इस्लाम में रूह और अल्ला और ईसाईयत में सोल और गॉड जैसी है ऐसी सर्वसाधारण लोगों की समझ होती है । किन्तु यह सोच ठीक नही है । आत्मा और परमात्मा की भारतीय संकल्पनाएं पूर्णत: भिन्न है । इसी प्रकार से अध्यात्म और स्पिरीच्युऍलिटी भी भिन्न संकल्पनाएं है । गलत अंग्रेजी शब्दों के उपयोग के कारण और अर्ध-ज्ञानी धर्मगुरूओं के उपदेशों के कारण सामान्य हिंदू भी इन सब को एक ही मानने लग गये है । किन्तु यह ठीक नही हे । इन में जो अंतर है उसे हम संक्षेप में समझकर आगे बढेंगे ।
| + | === ४ आत्मा, परमात्मा और इस से जुडी मान्यताएं === |
| + | आत्मा और परमात्मा यह संकल्पनाएं इस्लाम में रूह और अल्ला और ईसाईयत में सोल और गॉड जैसी है ऐसी सर्वसाधारण लोगों की समझ होती है । किन्तु यह सोच ठीक नही है । आत्मा और परमात्मा की भारतीय संकल्पनाएं पूर्णत: भिन्न है । इसी प्रकार से अध्यात्म और स्पिरीच्युऍलिटी भी भिन्न संकल्पनाएं है । गलत अंग्रेजी शब्दों के उपयोग के कारण और अर्ध-ज्ञानी धर्मगुरूओं के उपदेशों के कारण सामान्य हिंदू भी इन सब को एक ही मानने लग गये है । किन्तु यह ठीक नही हे । इन में जो अंतर है उसे हम संक्षेप में समझकर आगे बढेंगे । |
| - परमात्मा सर्वव्यापी और इसलिये सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान है । यह पूरी सृष्टि परमात्मा ने अपनी ईच्छा और शक्ति से अपने में से ही निर्र्माण की है । यह है परमात्मा की संकल्पना । अल्ला या गॉड ऐसे नहीं है । छ: दिन में विश्व का निर्माण कर गॉड थक जाता है । वह सर्वशक्तिमान कैसे हो सकता है ? जो गॉड डेव्हिल को या जो अल्ला शैतान इब्लिस को नियंत्रण में नही रख सकता वह सर्वशक्तिमान कैसे हो सकता है ? सातवें आसमानपर बैठनेवाला अर्थात् एक स्थानपर बैठनेवाला सर्वव्यापी कैसे हो सकता है ? जो सर्वव्यापी नहीं है वह सर्वज्ञानी कैसे हो सकता है ? आदम और ईव्ह ने ज्ञान का फल खाया इस लिये उन्हें दंड देनेवाला गॉड और ॠषियों को सत्यज्ञान का वेदों के रूप में स्वत: कथन करनेवाला परमात्मा एक कैसे हो सकता है ? अल्ला और गॉड दोनों ही ईर्षालू है । इन्हे स्पर्धा सहन नहीं होती । ये दोनों ही असहिष्णू माने जाते है । परमात्मा वैसा नहीं है । जिस प्रकार जिसे विज्ञान पता नहीं है वह भी विज्ञान के वही फल पाता है वैसे ही एक वैज्ञानिक पाता है उसी प्रकार जो परमात्मापर विश्वास नहीं भी रखता किंतु सदाचार से जीता है, परमात्मा की कृपा को प्राप्त होता है । किन्तु ऐसी बात अल्ला या गॉड के विषय में नहीं है । मनुष्य कितना भी सदाचारी हो वह जबतक वह ईसा और गॉड की या पप्रगंबर महम्मद और अल्ला की शरण में नहीं आएगा उसे क्रमश: हेवन या जन्नत की प्राप्ति नहीं होगी । | | - परमात्मा सर्वव्यापी और इसलिये सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान है । यह पूरी सृष्टि परमात्मा ने अपनी ईच्छा और शक्ति से अपने में से ही निर्र्माण की है । यह है परमात्मा की संकल्पना । अल्ला या गॉड ऐसे नहीं है । छ: दिन में विश्व का निर्माण कर गॉड थक जाता है । वह सर्वशक्तिमान कैसे हो सकता है ? जो गॉड डेव्हिल को या जो अल्ला शैतान इब्लिस को नियंत्रण में नही रख सकता वह सर्वशक्तिमान कैसे हो सकता है ? सातवें आसमानपर बैठनेवाला अर्थात् एक स्थानपर बैठनेवाला सर्वव्यापी कैसे हो सकता है ? जो सर्वव्यापी नहीं है वह सर्वज्ञानी कैसे हो सकता है ? आदम और ईव्ह ने ज्ञान का फल खाया इस लिये उन्हें दंड देनेवाला गॉड और ॠषियों को सत्यज्ञान का वेदों के रूप में स्वत: कथन करनेवाला परमात्मा एक कैसे हो सकता है ? अल्ला और गॉड दोनों ही ईर्षालू है । इन्हे स्पर्धा सहन नहीं होती । ये दोनों ही असहिष्णू माने जाते है । परमात्मा वैसा नहीं है । जिस प्रकार जिसे विज्ञान पता नहीं है वह भी विज्ञान के वही फल पाता है वैसे ही एक वैज्ञानिक पाता है उसी प्रकार जो परमात्मापर विश्वास नहीं भी रखता किंतु सदाचार से जीता है, परमात्मा की कृपा को प्राप्त होता है । किन्तु ऐसी बात अल्ला या गॉड के विषय में नहीं है । मनुष्य कितना भी सदाचारी हो वह जबतक वह ईसा और गॉड की या पप्रगंबर महम्मद और अल्ला की शरण में नहीं आएगा उसे क्रमश: हेवन या जन्नत की प्राप्ति नहीं होगी । |
| - आत्मा रुह और सोल इन संकल्पनाओं में भी ऐसा ही मूलभूत अंतर है । वर्तमान मानवी जीवन ही सबकुछ है । इस से पहले कुछ नही था और आगे भी कुछ नही है ऐसी इस्लाम और ईसाईयत की मान्यता है । इसलिये रूह या सोल को स्थायी हेवन या जन्नत और स्थायी हेल या दोजख की इन दो मजहबों में मान्यता है । भारतीय संकल्पना की आत्मा यह परमात्मा का ही अंश है । जो परमात्मा की इच्छा से ही निर्माण हुवा है । अंत में इसे परमात्मा में ही विलीन होना है । वह अनादि और अनंत ऐसे परमात्मा का ही अंश होने से वह भी अनादी और अनंत ही है । | | - आत्मा रुह और सोल इन संकल्पनाओं में भी ऐसा ही मूलभूत अंतर है । वर्तमान मानवी जीवन ही सबकुछ है । इस से पहले कुछ नही था और आगे भी कुछ नही है ऐसी इस्लाम और ईसाईयत की मान्यता है । इसलिये रूह या सोल को स्थायी हेवन या जन्नत और स्थायी हेल या दोजख की इन दो मजहबों में मान्यता है । भारतीय संकल्पना की आत्मा यह परमात्मा का ही अंश है । जो परमात्मा की इच्छा से ही निर्माण हुवा है । अंत में इसे परमात्मा में ही विलीन होना है । वह अनादि और अनंत ऐसे परमात्मा का ही अंश होने से वह भी अनादी और अनंत ही है । |
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| अपने पूर्वजों ने आत्मा और परमात्मा इन संकल्पनाओं से जुडे कई वर्तनसूत्रों और मान्यताओं का विकास किया है । उन का अब संक्षिप्त परिचय हम करेंगे । | | अपने पूर्वजों ने आत्मा और परमात्मा इन संकल्पनाओं से जुडे कई वर्तनसूत्रों और मान्यताओं का विकास किया है । उन का अब संक्षिप्त परिचय हम करेंगे । |
| ४.१ अमृतस्य पुत्रा: वयं | | ४.१ अमृतस्य पुत्रा: वयं |
− | हम अमृतपुत्र हैं| हम अमर हैं| अविनाशी हैं| मैं केवल शरीर नहीं हूं । मै अजर अमर अविनाशी ऐसा आत्मतत्व हूं । यह विचार ही मन से किसी भी बात के भय को नष्ट करनेवाला है । मेरा शरीर और मैं, हम भिन्न हैं| जैसे जीर्ण वस्त्र बदलकर हम नये वस्त्र धारण करते है उसी प्रकार से हमारी आत्मा एक जीर्ण शरीर को या जिस शरीर का विहित कार्य पूर्ण हो गया है उस शरीर को त्यागकर एक नये शरीर को धारण करती है । चष्मे का क्रमांक बदलनेपर हम दूसरा चष्मा ले लेते है । वैसा ही हमारा वर्तमान शरीर है । आवश्यकता पूर्ण होनेपर या उस के निरुपयोगी होनेपर उसे बदला जा सकता है । | + | हम अमृतपुत्र हैं। हम अमर हैं। अविनाशी हैं। मैं केवल शरीर नहीं हूं । मै अजर अमर अविनाशी ऐसा आत्मतत्व हूं । यह विचार ही मन से किसी भी बात के भय को नष्ट करनेवाला है । मेरा शरीर और मैं, हम भिन्न हैं। जैसे जीर्ण वस्त्र बदलकर हम नये वस्त्र धारण करते है उसी प्रकार से हमारी आत्मा एक जीर्ण शरीर को या जिस शरीर का विहित कार्य पूर्ण हो गया है उस शरीर को त्यागकर एक नये शरीर को धारण करती है । चष्मे का क्रमांक बदलनेपर हम दूसरा चष्मा ले लेते है । वैसा ही हमारा वर्तमान शरीर है । आवश्यकता पूर्ण होनेपर या उस के निरुपयोगी होनेपर उसे बदला जा सकता है । |
| ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् शरीर की आवश्यकता तो धर्म के पालन के लिये है । धर्म का पालन अच्छे ढंग से हो सके इसलिये शरीर स्वास्थ्य को महत्व है । | | ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् शरीर की आवश्यकता तो धर्म के पालन के लिये है । धर्म का पालन अच्छे ढंग से हो सके इसलिये शरीर स्वास्थ्य को महत्व है । |
− | आत्मा और परमात्मा को प्रत्यक्ष देखना हर किसी को संभव नहीं| किन्तु अनुमान तर्क के आधारपर उसे समझाया जा सकता है । कुछ वैज्ञानिक जो अनुमान और तर्क को विज्ञान में प्रमाण के रूप में मानते है परमात्मा और आत्मा के विषय में उन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण की माँग करते है । ऐसे अडियल या पूर्वाग्रही वैज्ञानिकों के मत का विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । आत्मा और परमात्मा यह दोनों ही संकल्पनाएं वैज्ञानिक सत्य ही हैं| | + | आत्मा और परमात्मा को प्रत्यक्ष देखना हर किसी को संभव नहीं। किन्तु अनुमान तर्क के आधारपर उसे समझाया जा सकता है । कुछ वैज्ञानिक जो अनुमान और तर्क को विज्ञान में प्रमाण के रूप में मानते है परमात्मा और आत्मा के विषय में उन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण की माँग करते है । ऐसे अडियल या पूर्वाग्रही वैज्ञानिकों के मत का विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । आत्मा और परमात्मा यह दोनों ही संकल्पनाएं वैज्ञानिक सत्य ही हैं। |
| ४.२ पंच ॠण : ॠण का अर्थ है कर्ज । कृतज्ञता का अर्थ है औरों ने अपने हित में किये उपकारों को याद रखना । और यथासंभव उस से उतराई होने का प्रयास करना । पशू पक्षियों की स्मृति कम होती है । संवेदनाएं भी कम होती है । बुध्दि और चित्त भी मनुष्य की तुलना में दुर्बल होता है । इसलिये उसे उपकारकर्ता के उपकारों का स्मरण नही रहता । किन्तु मनुष्य के लिये उपकारों का भूलना अच्छी बात नही मानी जाती । वह यदि उसपर किसी ने किये उपकार भूल जाता है तो उसे कृतघ्न कहा जाता है । कृतघ्नता यह मनुष्य का लक्षण नही माना जाता । | | ४.२ पंच ॠण : ॠण का अर्थ है कर्ज । कृतज्ञता का अर्थ है औरों ने अपने हित में किये उपकारों को याद रखना । और यथासंभव उस से उतराई होने का प्रयास करना । पशू पक्षियों की स्मृति कम होती है । संवेदनाएं भी कम होती है । बुध्दि और चित्त भी मनुष्य की तुलना में दुर्बल होता है । इसलिये उसे उपकारकर्ता के उपकारों का स्मरण नही रहता । किन्तु मनुष्य के लिये उपकारों का भूलना अच्छी बात नही मानी जाती । वह यदि उसपर किसी ने किये उपकार भूल जाता है तो उसे कृतघ्न कहा जाता है । कृतघ्नता यह मनुष्य का लक्षण नही माना जाता । |
| हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है । इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है । वे है भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण । | | हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है । इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है । वे है भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण । |
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| ४.३ चतुर्विध पुरूषार्थ : पुरूषार्थ शब्द आते ही पुडरूष प्रधानता का संशय संशयात्माओं को आने लगता है । भारतीय प्राचीन साहित्य में पुरूष शब्द पुत्र शब्द के अर्थ में पुरूष और स्त्री दोनों का समावेष होता है । भारतीय वर्तनसूत्रों में चार पुरूषार्थों का महत्वपूर्ण स्थान है । यह पुरूषार्थ है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । काम का अर्थ है कामनाएं, इच्छाएं । और अर्थ से तात्पर्य है इन इच्छाओं की पूर्ती के लिये किये प्रयासों से । इच्छाएं नही होंगी तो जीवन थम जाएगा । और इच्छाओं की पूर्ती के लिये प्रयास नही होंगे तो भी जीवन चलेगा नही। जीने के लिये हवा, पानी और सूर्यप्रकाश तो सहज ही उपलब्ध है । किन्तु मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो प्रयासों से ही हो सकती है । इसलिये इच्छाओं को भी पुरूषार्थ कहा गया है । इसलिये इन दोनों को पुरूषार्थ कहा गया है । मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होती है । यह सभी को ज्ञात है । कुछ इच्छाएं धर्म के अनुकूल होती है । कुछ इच्छाएं धर्म के प्रतिकूल भी होती है । इन इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास भी विविध मार्गों से किये जाते है । इन में कुछ धर्म से सुसंगत होते है । और कुछ धर्म विरोधी भी होते है । कामनाओं को और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयत्नों को, दोनों को ही धर्म के दायरे में रखना आवश्यक होता है । ऐसा करने से मनुष्य का अपना जीवन और जिस समाज का वह हिस्सा है वह समाज जीवन दोनों सुचारू रूप से चलते है । वास्तव में इन पुरूषार्थों में प्रारंभ तो काम पुरूषार्थ से होता है । उस के बाद अर्थ पुरूषार्थ आता है । किन्तु धर्म पुरूषार्थ को क्रम में सर्वप्रथम स्थानपर रखने का कारण यही है की सर्वप्रथम धर्मानुकूलता की कसौटिपर इच्छाओं की परिक्षा करो, उन में से धर्मविरोधी इच्छाओं का त्याग करो । केवल धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ती के प्रयास करो । इसी प्रकार इच्छापूर्ति के प्रयासों में भी अर्थात् अर्थ पुरूषार्थ के समय भी धर्म के अनुकूल प्रयास ही करो । धर्मविरोधी प्रयासों का त्याग करो । मनुस्मृति में (६-१७६) मे यही कहा है – परित्यजेदर्थकामौ यास्यातां धर्मवर्जितौ । श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है । धर्मका अविरोधी काम मैं ही हूं । | | ४.३ चतुर्विध पुरूषार्थ : पुरूषार्थ शब्द आते ही पुडरूष प्रधानता का संशय संशयात्माओं को आने लगता है । भारतीय प्राचीन साहित्य में पुरूष शब्द पुत्र शब्द के अर्थ में पुरूष और स्त्री दोनों का समावेष होता है । भारतीय वर्तनसूत्रों में चार पुरूषार्थों का महत्वपूर्ण स्थान है । यह पुरूषार्थ है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । काम का अर्थ है कामनाएं, इच्छाएं । और अर्थ से तात्पर्य है इन इच्छाओं की पूर्ती के लिये किये प्रयासों से । इच्छाएं नही होंगी तो जीवन थम जाएगा । और इच्छाओं की पूर्ती के लिये प्रयास नही होंगे तो भी जीवन चलेगा नही। जीने के लिये हवा, पानी और सूर्यप्रकाश तो सहज ही उपलब्ध है । किन्तु मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो प्रयासों से ही हो सकती है । इसलिये इच्छाओं को भी पुरूषार्थ कहा गया है । इसलिये इन दोनों को पुरूषार्थ कहा गया है । मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होती है । यह सभी को ज्ञात है । कुछ इच्छाएं धर्म के अनुकूल होती है । कुछ इच्छाएं धर्म के प्रतिकूल भी होती है । इन इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास भी विविध मार्गों से किये जाते है । इन में कुछ धर्म से सुसंगत होते है । और कुछ धर्म विरोधी भी होते है । कामनाओं को और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयत्नों को, दोनों को ही धर्म के दायरे में रखना आवश्यक होता है । ऐसा करने से मनुष्य का अपना जीवन और जिस समाज का वह हिस्सा है वह समाज जीवन दोनों सुचारू रूप से चलते है । वास्तव में इन पुरूषार्थों में प्रारंभ तो काम पुरूषार्थ से होता है । उस के बाद अर्थ पुरूषार्थ आता है । किन्तु धर्म पुरूषार्थ को क्रम में सर्वप्रथम स्थानपर रखने का कारण यही है की सर्वप्रथम धर्मानुकूलता की कसौटिपर इच्छाओं की परिक्षा करो, उन में से धर्मविरोधी इच्छाओं का त्याग करो । केवल धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ती के प्रयास करो । इसी प्रकार इच्छापूर्ति के प्रयासों में भी अर्थात् अर्थ पुरूषार्थ के समय भी धर्म के अनुकूल प्रयास ही करो । धर्मविरोधी प्रयासों का त्याग करो । मनुस्मृति में (६-१७६) मे यही कहा है – परित्यजेदर्थकामौ यास्यातां धर्मवर्जितौ । श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है । धर्मका अविरोधी काम मैं ही हूं । |
| मोक्ष पुरूषार्थ तो ऐसा करने से अनायास ही प्राप्त होता है । वैसे भी सामान्य मनुष्य के लिये मोक्ष पुरूषार्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है । वह तो जब सामान्य मनुष्य मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक विकास कर मुमुक्षु पद प्राप्त कर लेता है तब उस में मोक्षप्राप्ति की कामना जागती है । ऐसे मुमुक्षु लोगों के लिये मोक्ष पुरूषार्थ की योजना है । अन्यों के लिये तो धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का ही महत्व है । | | मोक्ष पुरूषार्थ तो ऐसा करने से अनायास ही प्राप्त होता है । वैसे भी सामान्य मनुष्य के लिये मोक्ष पुरूषार्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है । वह तो जब सामान्य मनुष्य मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक विकास कर मुमुक्षु पद प्राप्त कर लेता है तब उस में मोक्षप्राप्ति की कामना जागती है । ऐसे मुमुक्षु लोगों के लिये मोक्ष पुरूषार्थ की योजना है । अन्यों के लिये तो धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का ही महत्व है । |
− | ४.३.१ धर्म के विषय में अध्याय ३ में हमने लिखा है उसे देखें| आगे काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थों को जानने का प्रयास अब करेंगे| | + | ४.३.१ धर्म के विषय में अध्याय ३ में हमने लिखा है उसे देखें। आगे काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थों को जानने का प्रयास अब करेंगे। |
| काम पुरूषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाएं । धर्मसुसंगत इच्छाएं और आकांक्षाएं । सभी इच्छाओं को पुरूषार्थ नही कहा जाता । सामान्यत: पुत्रेषणा अर्थात् मै श्रेष्ठ बच्चों को जन्म दूं । वित्तेषणा अर्थात् मै अकूत धन कमाऊं । और लोकेषणा अर्थात् लोग मेरी सराहना करें । मेरा आदर सम्मान करें । ऐसी वाहत या यह तीन प्रमुख इच्छाएं तो हर व्यक्ति के मन में होती ही है । किंतु केवल ऐसी इच्छा पुरूषार्थ नहीं कहलातीं । श्रेष्ठ पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिये मेरा विवाह श्रेष्ठ सुशील कन्या से हो ऐसी इच्छा करना तो ठीक है । काम पुरूषार्थ ही है । किन्तु ऐसी किसी श्रेष्ट पराई स्त्री के या जो मेरे साथ विवाह के लिये तैयार नही है ऐसी कन्या के साथ मै बलपूर्वक विवाह करने की इच्छा करूं तो यह धर्म का विरोध करनेवाली इच्छा है और यह काम पुरूषार्थ नही काम पुरूषार्थ के विरोधी इच्छा मानी जाएगी । ऐसी इच्छा को अकरणीय माना गया है । | | काम पुरूषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाएं । धर्मसुसंगत इच्छाएं और आकांक्षाएं । सभी इच्छाओं को पुरूषार्थ नही कहा जाता । सामान्यत: पुत्रेषणा अर्थात् मै श्रेष्ठ बच्चों को जन्म दूं । वित्तेषणा अर्थात् मै अकूत धन कमाऊं । और लोकेषणा अर्थात् लोग मेरी सराहना करें । मेरा आदर सम्मान करें । ऐसी वाहत या यह तीन प्रमुख इच्छाएं तो हर व्यक्ति के मन में होती ही है । किंतु केवल ऐसी इच्छा पुरूषार्थ नहीं कहलातीं । श्रेष्ठ पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिये मेरा विवाह श्रेष्ठ सुशील कन्या से हो ऐसी इच्छा करना तो ठीक है । काम पुरूषार्थ ही है । किन्तु ऐसी किसी श्रेष्ट पराई स्त्री के या जो मेरे साथ विवाह के लिये तैयार नही है ऐसी कन्या के साथ मै बलपूर्वक विवाह करने की इच्छा करूं तो यह धर्म का विरोध करनेवाली इच्छा है और यह काम पुरूषार्थ नही काम पुरूषार्थ के विरोधी इच्छा मानी जाएगी । ऐसी इच्छा को अकरणीय माना गया है । |
| अर्थ पुरूषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास । अर्थ पुरूषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है । इच्चाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है । तब ही वह प्रयास पुरूषार्थ कहलाया जा सकेगा । ऊपर हमने देखा की श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है । इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरूषार्थ कहता है । | | अर्थ पुरूषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास । अर्थ पुरूषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है । इच्चाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है । तब ही वह प्रयास पुरूषार्थ कहलाया जा सकेगा । ऊपर हमने देखा की श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है । इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरूषार्थ कहता है । |
− | मोक्ष का भी वर्तमान संदर्भ में अर्थ हमें समझना होगा । हमारी मान्यता है – साविद्या या विमुक्तये| जीवन का लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होने से ही शिक्षा का लक्ष्य भी मुक्ति ही रहेगा| शिक्षा की व्याख्या स्वामी विवेकानंद कुछ ऐसी करते हैं – मनुष्य में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णत्व का प्रकटीकरण ही शिक्षा है| इस पूर्णत्व की व्याख्या पंडित दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं| व्यक्तिगत विकास, समश्तीगत विकास और सृष्टी गत विकास ही पूर्णत्व है| मानव का समग्र विकास है| व्यक्तिगत विकास यह शरीर, मन औए बुद्धि का विकास है| समष्टी गत विकास का अर्थ है समूचे समाज के साथ आत्मीयता की या कुटुंब भावना का विकास| और सृष्टी गत विकास का अर्थ है सृष्टी के हर अस्तित्व के साथ कुटुंब भावना का विकास| चराचर के साथ एकात्मता की अनुभूति उस चराचर में विद्यमान परमात्मा से ही एकात्मता की अनुभूति ही है| यही तो मुक्ति है| मोक्ष है| पूर्णत्व है| लेकिन यहाँ बस इतना ही ध्यान में लें की धर्मानुकूल काम और धर्मानुकूल अर्थ पुरूषार्थ के व्यवहार से मानव स्वाभाविक ही मोक्षगामी बन जाता है । | + | मोक्ष का भी वर्तमान संदर्भ में अर्थ हमें समझना होगा । हमारी मान्यता है – साविद्या या विमुक्तये। जीवन का लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होने से ही शिक्षा का लक्ष्य भी मुक्ति ही रहेगा। शिक्षा की व्याख्या स्वामी विवेकानंद कुछ ऐसी करते हैं – मनुष्य में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णत्व का प्रकटीकरण ही शिक्षा है। इस पूर्णत्व की व्याख्या पंडित दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं। व्यक्तिगत विकास, समश्तीगत विकास और सृष्टी गत विकास ही पूर्णत्व है। मानव का समग्र विकास है। व्यक्तिगत विकास यह शरीर, मन औए बुद्धि का विकास है। समष्टी गत विकास का अर्थ है समूचे समाज के साथ आत्मीयता की या कुटुंब भावना का विकास। और सृष्टी गत विकास का अर्थ है सृष्टी के हर अस्तित्व के साथ कुटुंब भावना का विकास। चराचर के साथ एकात्मता की अनुभूति उस चराचर में विद्यमान परमात्मा से ही एकात्मता की अनुभूति ही है। यही तो मुक्ति है। मोक्ष है। पूर्णत्व है। लेकिन यहाँ बस इतना ही ध्यान में लें की धर्मानुकूल काम और धर्मानुकूल अर्थ पुरूषार्थ के व्यवहार से मानव स्वाभाविक ही मोक्षगामी बन जाता है । |
| ४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् : | | ४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् : |
| सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी । संत तुलसीदासजी कहते है - परहितसम पुण्य नही भाई परपीडासम नही अधमाई । तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा । मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी भारतीय समाज की शध्दा है । इस श्रध्दा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) भारतीय राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनतापर कभी अत्याचार नहीं किये । किन्तु इहवादी भारतीय अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है । मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है । इन्हें इहवादी कहा जाता है । ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है । योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे । योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया । यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्याप्त की इन की मान्यता इहवादी थी । ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुवा । इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है । जो यह मानते हैं की जड के विकास में किसी स्तरपर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया । ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते । | | सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी । संत तुलसीदासजी कहते है - परहितसम पुण्य नही भाई परपीडासम नही अधमाई । तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा । मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी भारतीय समाज की शध्दा है । इस श्रध्दा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) भारतीय राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनतापर कभी अत्याचार नहीं किये । किन्तु इहवादी भारतीय अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है । मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है । इन्हें इहवादी कहा जाता है । ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है । योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे । योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया । यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्याप्त की इन की मान्यता इहवादी थी । ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुवा । इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है । जो यह मानते हैं की जड के विकास में किसी स्तरपर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया । ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते । |
| परोपकाराय फलन्ति वृक्ष: । परोपकारार्थ वहन्ति नद्य: । । परोपकाराय दुहन्ति गाव: । परोपकारार्थमिदं शरीरम् । । | | परोपकाराय फलन्ति वृक्ष: । परोपकारार्थ वहन्ति नद्य: । । परोपकाराय दुहन्ति गाव: । परोपकारार्थमिदं शरीरम् । । |
− | प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है । पेड फल देते हैं| नदियाँ जल देतीं हैं| गाय दूध देती है । मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुध्दिमान हूं, क्षमतावान हूं । इसलिये मैंने भी अपने शक्तियों का उपयोग लोगों के उपकार के लिये ही करना चाहिये । यह है भारतीय विचार । | + | प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है । पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है । मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुध्दिमान हूं, क्षमतावान हूं । इसलिये मैंने भी अपने शक्तियों का उपयोग लोगों के उपकार के लिये ही करना चाहिये । यह है भारतीय विचार । |
| इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है । केवल ईसा मसीहपर श्रध्दा या पैगंबर महम्मदपर श्रध्दा उन्हें हमेशा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है । इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है । अंग्रेजी भाषा में शायद इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है । | | इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है । केवल ईसा मसीहपर श्रध्दा या पैगंबर महम्मदपर श्रध्दा उन्हें हमेशा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है । इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है । अंग्रेजी भाषा में शायद इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है । |
− | भारतीय मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है । और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं| मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है । और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है । हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है । कृति तो प्रत्यक्ष शारिरिक पीडा देनेवाला कार्य है । उस का फल शारिरिर्क दृष्टि से भोगना ही पडेगा । आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे । | + | भारतीय मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है । और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है । और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है । हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है । कृति तो प्रत्यक्ष शारिरिक पीडा देनेवाला कार्य है । उस का फल शारिरिर्क दृष्टि से भोगना ही पडेगा । आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे । |
| यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है । वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है । ऐसी कृति से किसी को हानी होती हो या ना होती हो वह अपराध है । और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है । किंतु हमारी कृति से जबतक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानी नहीं होती तबतक वह पाप नहीं है । भारतीय सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। दो उदाहरणों से इसे हम स्पष्ट करेंगे। रेल्वे कानून के अनुसार रेल्वे की पटरियां लाँघकर इधर-उधर जाना अपराध है । किंतु जबतक मेरे ऐसा करने से किसी को हानी नहीं होती है किसी को कष्ट नहीं होता, वह पाप नहें है । कुछ वर्षपूर्व मेल गाडियों में धूम्रपान की अनुमति हुवा करती थी । और पियक्कड लोग रेलों में धूम्रपान किया करते थे । उन का धूम्रपान कानून के अनुसार अपराध नहीं था । दंडनीय नहीं था । किन्तु उन के धूम्रपान से लोगों को तकलीफ होती ही थी । इसलिये वह पाप अवश्य था । वरतमान में तो सार्वजनिक स्थानपर धूम्रपान कानून से अपराध माना जाता है। इसलिये रेल के डिब्बेजैसे सार्वजनिक स्थानोंपर धूम्रपान अब अपराध भी है और पाप भी है । अपराध का दण्ड मिलने की सभावनाएं तो इस जन्म के साथ समाप्त हो जातीं है । किन्तु पाप के फल को भोगने का बोझ तो जन्म-जन्मांतरतक पीछा नहीं छोडता । | | यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है । वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है । ऐसी कृति से किसी को हानी होती हो या ना होती हो वह अपराध है । और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है । किंतु हमारी कृति से जबतक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानी नहीं होती तबतक वह पाप नहीं है । भारतीय सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। दो उदाहरणों से इसे हम स्पष्ट करेंगे। रेल्वे कानून के अनुसार रेल्वे की पटरियां लाँघकर इधर-उधर जाना अपराध है । किंतु जबतक मेरे ऐसा करने से किसी को हानी नहीं होती है किसी को कष्ट नहीं होता, वह पाप नहें है । कुछ वर्षपूर्व मेल गाडियों में धूम्रपान की अनुमति हुवा करती थी । और पियक्कड लोग रेलों में धूम्रपान किया करते थे । उन का धूम्रपान कानून के अनुसार अपराध नहीं था । दंडनीय नहीं था । किन्तु उन के धूम्रपान से लोगों को तकलीफ होती ही थी । इसलिये वह पाप अवश्य था । वरतमान में तो सार्वजनिक स्थानपर धूम्रपान कानून से अपराध माना जाता है। इसलिये रेल के डिब्बेजैसे सार्वजनिक स्थानोंपर धूम्रपान अब अपराध भी है और पाप भी है । अपराध का दण्ड मिलने की सभावनाएं तो इस जन्म के साथ समाप्त हो जातीं है । किन्तु पाप के फल को भोगने का बोझ तो जन्म-जन्मांतरतक पीछा नहीं छोडता । |
| ४.५ कर्मसिध्दांत | | ४.५ कर्मसिध्दांत |
| मनुष्य को सन्मार्गपर रखने के लिये भारतीय मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे । कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है । कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ ऐसा जीवनदर्शन है । किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिध्दांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया। | | मनुष्य को सन्मार्गपर रखने के लिये भारतीय मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे । कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है । कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ ऐसा जीवनदर्शन है । किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिध्दांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया। |
− | वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत यह पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ और शस्त्रशुध्द सिद्धांत है| भारतीय विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिध्दांत कहा गया है । जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता । यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है । इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही । यह है कार्य-कारण सिध्दांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिध्दांत नहीं रहता । वह अंततक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिध्दांत बन जाता है । अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे । | + | वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत यह पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ और शस्त्रशुध्द सिद्धांत है। भारतीय विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिध्दांत कहा गया है । जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता । यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है । इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही । यह है कार्य-कारण सिध्दांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिध्दांत नहीं रहता । वह अंततक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिध्दांत बन जाता है । अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे । |
| क) किये हुवे अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है । अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है । मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये । यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया । इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे । इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया । तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुवा है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा । मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है । तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे । जैसे वैज्ञानिक सिध्दांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है । उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है । थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं । | | क) किये हुवे अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है । अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है । मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये । यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया । इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे । इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया । तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुवा है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा । मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है । तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे । जैसे वैज्ञानिक सिध्दांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है । उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है । थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं । |
| ख) किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता । अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है । जैसे हम बाजार जाते है । यह विचार कर के जाते है की पालक की सब्जी लाएंगे । और पैसे देकर बाजार से पालक ले आते है । इस में पैसे यह हमारा संचित कर्म है । और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है । किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है की पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही खतम हो गई है । यह बात हमारे हाथ में नहीं है । किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं । | | ख) किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता । अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है । जैसे हम बाजार जाते है । यह विचार कर के जाते है की पालक की सब्जी लाएंगे । और पैसे देकर बाजार से पालक ले आते है । इस में पैसे यह हमारा संचित कर्म है । और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है । किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है की पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही खतम हो गई है । यह बात हमारे हाथ में नहीं है । किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं । |
| विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे । बोह्म का सिध्दांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुवे है । अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है । यह तो हुवा वैज्ञानिक सिध्दांत । अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया । पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली । अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा । आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं । इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते । तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुवा है । उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है । फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुवा है । इसे समझना महत्वपूर्ण है । | | विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे । बोह्म का सिध्दांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुवे है । अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है । यह तो हुवा वैज्ञानिक सिध्दांत । अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया । पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली । अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा । आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं । इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते । तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुवा है । उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है । फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुवा है । इसे समझना महत्वपूर्ण है । |
− | यहाँ कर्म की भारतीय संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा । कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है । एक है संचित कर्म । हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है । यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है । दूसरा है प्रारब्ध कर्म । हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है । तीसरा होता है क्रियमाण कर्म । वर्तमान क्षण से आगे हम जो कर्म करनेवाले है, उसे क्रियमाण कर्म कहा जाता है । संचित और प्रारब्ध कर्म के फल बदलना किसी को संभव नहीं है। केवल अष्टांग योग के माध्यम से संचित और प्रारब्ध कर्म को दग्धबीज या नष्ट किया जा सकता है । किंतु क्रियमाण कर्म अर्थात् आगे इस जन्म में हम क्या करेंगे यह हम तय करते हैं| इस की हर मनुष्य को स्वतंत्रता होती है । इस स्वतंत्रता के कारण ही मनुष्य योनी को कर्मयोनी कहा जाता है । अन्य सब जीव कर्म करने को स्वतंत्र नही होते । उन्हें भोगयोनीयाँ कहा जाता है| | + | यहाँ कर्म की भारतीय संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा । कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है । एक है संचित कर्म । हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है । यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है । दूसरा है प्रारब्ध कर्म । हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है । तीसरा होता है क्रियमाण कर्म । वर्तमान क्षण से आगे हम जो कर्म करनेवाले है, उसे क्रियमाण कर्म कहा जाता है । संचित और प्रारब्ध कर्म के फल बदलना किसी को संभव नहीं है। केवल अष्टांग योग के माध्यम से संचित और प्रारब्ध कर्म को दग्धबीज या नष्ट किया जा सकता है । किंतु क्रियमाण कर्म अर्थात् आगे इस जन्म में हम क्या करेंगे यह हम तय करते हैं। इस की हर मनुष्य को स्वतंत्रता होती है । इस स्वतंत्रता के कारण ही मनुष्य योनी को कर्मयोनी कहा जाता है । अन्य सब जीव कर्म करने को स्वतंत्र नही होते । उन्हें भोगयोनीयाँ कहा जाता है। |
− | ग) जिस की बुध्दि अधिक विकसित होती है वह कर्म करने को अधिक स्वतंत्र होता है । अभी हमने देखा की अन्य सब जीवयोनियाँ भोगयोनियाँ हैं| इस का कारण उन की में बुध्दि का स्तर मनुष्य की तुलना में अत्यंत कम होता है यह है । और यह सामान्य व्यवहार की भी तो बात है । जिस की बुध्दि तेज होती है उसे हम अधिक सूचनाएं नहीं देते । वह अपनी बुध्दि के हिसाब से काम कर ही लेता है । अल्पबुध्दिवाले को या छोटे बच्चों को हम अधिक सूचनाएं करते हैं| स्वतंत्रता का संबंध इस तरह बुध्दि से होता ही है । | + | ग) जिस की बुध्दि अधिक विकसित होती है वह कर्म करने को अधिक स्वतंत्र होता है । अभी हमने देखा की अन्य सब जीवयोनियाँ भोगयोनियाँ हैं। इस का कारण उन की में बुध्दि का स्तर मनुष्य की तुलना में अत्यंत कम होता है यह है । और यह सामान्य व्यवहार की भी तो बात है । जिस की बुध्दि तेज होती है उसे हम अधिक सूचनाएं नहीं देते । वह अपनी बुध्दि के हिसाब से काम कर ही लेता है । अल्पबुध्दिवाले को या छोटे बच्चों को हम अधिक सूचनाएं करते हैं। स्वतंत्रता का संबंध इस तरह बुध्दि से होता ही है । |
− | घ) कर्मफलों का जोड या घट नहीं होता| अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है । अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है । दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं की पत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है । अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते । दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है । | + | घ) कर्मफलों का जोड या घट नहीं होता। अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है । अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है । दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं की पत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है । अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते । दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है । |
| च) परमात्मा सर्वशक्तिमान है । किन्तु वह आपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुवा है । परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है । उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है । किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है । फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों । | | च) परमात्मा सर्वशक्तिमान है । किन्तु वह आपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुवा है । परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है । उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है । किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है । फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों । |
− | हमारे कई संत कहते है की परमात्मा दयालू है । किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं की परमात्मा भक्त की परिक्षा लेता है । परिक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है की बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है । परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परिक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं| सहनशील बन जाते हैं| बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते । | + | हमारे कई संत कहते है की परमात्मा दयालू है । किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं की परमात्मा भक्त की परिक्षा लेता है । परिक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है की बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है । परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परिक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं। सहनशील बन जाते हैं। बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते । |
| वास्तव में मामुली कुछ करने से पापमुक्त होने की प्रथा तो ईसाईयत और इस्लाम की प्रतिक्रिया के स्वरूप में भारत में चली होगी ऐसा लगता है । केवल पाद्री को दिये कन्फेशन ( गलत काम की स्वीकारोक्ति) से पाप धुल जाते है ऐसी ईसाई मान्यता है । इसी प्रकार से केवल अल्लाह और पैगंबर महम्मदपर श्रध्दा रखनेमात्र से जब बुरे कर्मों के फल से छुटकारा मिलने लगा तो हिंदू पुजारी भी हिंदू प्रजा का मतांतरण रोकने के लिये आपध्दर्म के रूप में, सरल मार्ग बताने लग गये होंगे । साथ मे स्वार्थ भी साधने लग गये होंगे । ब्राह्मण को सोने की गाय की प्रतिमा दान करो, गंगा में नहा लो आदि पापकर्मों से मुक्ति के सरल उपाय बताने लग गये होंगे । किन्तु कर्मसिध्दांत ऐसे कोई समझौतों का समर्थन नहीं करता । | | वास्तव में मामुली कुछ करने से पापमुक्त होने की प्रथा तो ईसाईयत और इस्लाम की प्रतिक्रिया के स्वरूप में भारत में चली होगी ऐसा लगता है । केवल पाद्री को दिये कन्फेशन ( गलत काम की स्वीकारोक्ति) से पाप धुल जाते है ऐसी ईसाई मान्यता है । इसी प्रकार से केवल अल्लाह और पैगंबर महम्मदपर श्रध्दा रखनेमात्र से जब बुरे कर्मों के फल से छुटकारा मिलने लगा तो हिंदू पुजारी भी हिंदू प्रजा का मतांतरण रोकने के लिये आपध्दर्म के रूप में, सरल मार्ग बताने लग गये होंगे । साथ मे स्वार्थ भी साधने लग गये होंगे । ब्राह्मण को सोने की गाय की प्रतिमा दान करो, गंगा में नहा लो आदि पापकर्मों से मुक्ति के सरल उपाय बताने लग गये होंगे । किन्तु कर्मसिध्दांत ऐसे कोई समझौतों का समर्थन नहीं करता । |
| ४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना : अन्य समाज और भारतीय समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है । अन्य समाजों में गॉड या अल्लापर और उन के प्रेषितोंपर श्रध्दा रखना इतना हमेशा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है । स्वर्ग-नरक की भारतीय मान्यता यह बुध्दियुक्त है । भारतीय विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा । और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पडेंगी । स्वर्ग और नरक की भारतीय कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता । व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में भारतीय स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है । | | ४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना : अन्य समाज और भारतीय समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है । अन्य समाजों में गॉड या अल्लापर और उन के प्रेषितोंपर श्रध्दा रखना इतना हमेशा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है । स्वर्ग-नरक की भारतीय मान्यता यह बुध्दियुक्त है । भारतीय विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा । और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पडेंगी । स्वर्ग और नरक की भारतीय कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता । व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में भारतीय स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है । |
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| ५. तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा अर्थात् संयमित उपभोग : | | ५. तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा अर्थात् संयमित उपभोग : |
| अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । ये वे पाँच यम है । यम सामाजिक स्तरपर पालन करने के लिये होते है । इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना । कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी भारतीय मान्यता है । यह भारतीय मान्यता थोडी कठोर लगती है । किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुवा है । | | अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । ये वे पाँच यम है । यम सामाजिक स्तरपर पालन करने के लिये होते है । इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना । कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी भारतीय मान्यता है । यह भारतीय मान्यता थोडी कठोर लगती है । किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुवा है । |
− | वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं| मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है । और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा । तेलपर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराकपर हुवे हमले से यही सिध्द हुवा है । लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये वस्तू और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है । इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है । और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है । इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है । | + | वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं। मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है । और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा । तेलपर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराकपर हुवे हमले से यही सिध्द हुवा है । लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये वस्तू और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है । इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है । और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है । इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है । |
| इस समस्या का बुध्दियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है । जबतक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता । | | इस समस्या का बुध्दियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है । जबतक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता । |
| ६ यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे | | ६ यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे |
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| जैसे कुटुंब चलता है कौटुंबिक भावना के आधारपर । अब यदि यही कौटुंबिक भावना ग्राम स्तरपर विकसित करना हो तो क्या करना होगा । इस प्रश्न का उत्तर यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के सुयोग्य उपयोजन से मिल सकेगा । इसी के आधारपर ही तो हमारे पूर्वजों ने वसुधैव कुटुंबकम् के लिये प्रयास किये थे । | | जैसे कुटुंब चलता है कौटुंबिक भावना के आधारपर । अब यदि यही कौटुंबिक भावना ग्राम स्तरपर विकसित करना हो तो क्या करना होगा । इस प्रश्न का उत्तर यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के सुयोग्य उपयोजन से मिल सकेगा । इसी के आधारपर ही तो हमारे पूर्वजों ने वसुधैव कुटुंबकम् के लिये प्रयास किये थे । |
| ७. अपने कर्तव्य और औरों के अधिकारों के लिये प्रयास | | ७. अपने कर्तव्य और औरों के अधिकारों के लिये प्रयास |
− | कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है । सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है| वह है अन्यों के अधिकार| इसीलिये भारतीय विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासोंपर है जब की अभारतीय यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्षपर बल दिया गया है । केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है । एक कहानी के माध्यम से दोनों में अंतर देखेंगे । | + | कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है । सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है। वह है अन्यों के अधिकार। इसीलिये भारतीय विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासोंपर है जब की अभारतीय यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्षपर बल दिया गया है । केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है । एक कहानी के माध्यम से दोनों में अंतर देखेंगे । |
− | दो सगे भाई थे । पिता ने मरने से पूर्व बँटवारा कर दिया था । घर के दो समान हिस्से कर दिये थे । एक में छोटा भाई और दूसरे में बडा भाई रहता था । ऑंगन में भी लकीर खींच दी थी । किन्तु खेती की जमीन छोटी होने से जमीन का बँटवारा नही किया गया था । दीपावली से पूर्व फसल आई । खेत के मजदूरों का, गाँव का ऐसे सब हिस्से निकालने के बाद जो बचा उस के दो हिस्से किये । प्रत्येक भई के हिस्से में १०० बोरी धान आया । दोनों ने धान लाकर अपने ऑंगन में जमाकर रख दिया । रात्री में बडे भाई की नींद खुली । वह सोचने लगा मेरे घर में तो अब मेरा बेटा भी महनत के लिये उपलब्ध है । मेरा आधा संसार हो चुका है । मेरे भाई का तो अभी विवाह भी नहीं हुवा । विवाह में बहुत सारा खर्चा होगा । फिर बच्चे भी होंगे । छोटे भाई का परिवार बढनेवाला है । खर्चे बढनेवाले हैं| ऐसी स्थिति में यह ठीक नहीं है की मै पूरी फसल का आधा हिस्सा ले लूं । वह रात ही में उठा । अपने हिस्से में से धान की दस बोरियाँ उठाकर उसने ऑंगन के दूसरे हिस्से में अपने छोटे भाई की धान की बोरियों के साथ, भाई को ध्यान में ना आए इस पध्दति से जमाकर रख दी । | + | दो सगे भाई थे । पिता ने मरने से पूर्व बँटवारा कर दिया था । घर के दो समान हिस्से कर दिये थे । एक में छोटा भाई और दूसरे में बडा भाई रहता था । ऑंगन में भी लकीर खींच दी थी । किन्तु खेती की जमीन छोटी होने से जमीन का बँटवारा नही किया गया था । दीपावली से पूर्व फसल आई । खेत के मजदूरों का, गाँव का ऐसे सब हिस्से निकालने के बाद जो बचा उस के दो हिस्से किये । प्रत्येक भई के हिस्से में १०० बोरी धान आया । दोनों ने धान लाकर अपने ऑंगन में जमाकर रख दिया । रात्री में बडे भाई की नींद खुली । वह सोचने लगा मेरे घर में तो अब मेरा बेटा भी महनत के लिये उपलब्ध है । मेरा आधा संसार हो चुका है । मेरे भाई का तो अभी विवाह भी नहीं हुवा । विवाह में बहुत सारा खर्चा होगा । फिर बच्चे भी होंगे । छोटे भाई का परिवार बढनेवाला है । खर्चे बढनेवाले हैं। ऐसी स्थिति में यह ठीक नहीं है की मै पूरी फसल का आधा हिस्सा ले लूं । वह रात ही में उठा । अपने हिस्से में से धान की दस बोरियाँ उठाकर उसने ऑंगन के दूसरे हिस्से में अपने छोटे भाई की धान की बोरियों के साथ, भाई को ध्यान में ना आए इस पध्दति से जमाकर रख दी । |
| योगायोग से उसी रात थोडी देर बाद छोटे भाई की भी नींद खुली । उस ने सोचा । मै कितना स्वार्थी हूं । मै अकेला और बडे भैया के घर में चार लोग खानेवाले । फिर भी मैने धान का आधा हिस्सा ले लिया । यह ठीक नहीं है । वह रात में उठा । अपने हिस्से में से दस बोरियाँ धान उठाकर , ऑंगन के दूसरे हिस्से में बडे भाई के हिस्से के साथ, ध्यान में ना आए इस ढंग से जमाकर रखीं और सो गया । दूसरे दिन दोनों भाई उठे । दातौन करते ऑंगन में आए । धान की बोरियाँ देखने लगे । दोनों ही हिस्से समान देखकर दोनों चौंक उठे । दोनों के ध्यान में आया की जैसे मैंने अपने हिस्से की दस बोरियाँ दूसरे के हिस्से में रखीं थीं वैसे ही दूसरे भाई ने भी किया है । दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे । प्यार उमड आया । दोनों गले मिले । ऑंगन की रेखा मिटा दी गई । दोनों एक हो गए । अपने भाई के प्रति के कर्तव्यबोध के कारण ही यह हुवा था । | | योगायोग से उसी रात थोडी देर बाद छोटे भाई की भी नींद खुली । उस ने सोचा । मै कितना स्वार्थी हूं । मै अकेला और बडे भैया के घर में चार लोग खानेवाले । फिर भी मैने धान का आधा हिस्सा ले लिया । यह ठीक नहीं है । वह रात में उठा । अपने हिस्से में से दस बोरियाँ धान उठाकर , ऑंगन के दूसरे हिस्से में बडे भाई के हिस्से के साथ, ध्यान में ना आए इस ढंग से जमाकर रखीं और सो गया । दूसरे दिन दोनों भाई उठे । दातौन करते ऑंगन में आए । धान की बोरियाँ देखने लगे । दोनों ही हिस्से समान देखकर दोनों चौंक उठे । दोनों के ध्यान में आया की जैसे मैंने अपने हिस्से की दस बोरियाँ दूसरे के हिस्से में रखीं थीं वैसे ही दूसरे भाई ने भी किया है । दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे । प्यार उमड आया । दोनों गले मिले । ऑंगन की रेखा मिटा दी गई । दोनों एक हो गए । अपने भाई के प्रति के कर्तव्यबोध के कारण ही यह हुवा था । |
| अब इसी कहानी में ‘मेरे अधिकार’ का पहलू आने से क्या होगा इस की थोडी कल्पना करें । बडा भाई न्यायालय की सीढीयाँ चढता है । परिवार के घटक अधिक होने से, कानून के अनुसार घर के बडे हिस्सेपर अधिकार मांगता है । खेती में भी बडा हिस्सा माँगता है । छोटा भाई नहीं देता । दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति घृणा का शत्रुता का भाव निर्माण होता है । दोनों अच्छे से अच्छे वकील की सेवा लेते है । मुकदमा चलता है । दोनों धीरेधीरे कंगाल हो जाते है । घर, खेत गिरवी रखते है । दोनों का सर्वनाश होता है । | | अब इसी कहानी में ‘मेरे अधिकार’ का पहलू आने से क्या होगा इस की थोडी कल्पना करें । बडा भाई न्यायालय की सीढीयाँ चढता है । परिवार के घटक अधिक होने से, कानून के अनुसार घर के बडे हिस्सेपर अधिकार मांगता है । खेती में भी बडा हिस्सा माँगता है । छोटा भाई नहीं देता । दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति घृणा का शत्रुता का भाव निर्माण होता है । दोनों अच्छे से अच्छे वकील की सेवा लेते है । मुकदमा चलता है । दोनों धीरेधीरे कंगाल हो जाते है । घर, खेत गिरवी रखते है । दोनों का सर्वनाश होता है । |
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| - सामान्य ज्ञान एका पीढी से अगली पीढीतक संक्रमित करने की व्यवस्था | | - सामान्य ज्ञान एका पीढी से अगली पीढीतक संक्रमित करने की व्यवस्था |
| - अपने परिवार की विशेषताएं जैसे ज्ञान, अनुभव और कुशलताएं एक पीढी से दुसरी पीढी को विरासत के रूप में संक्रमित करने की व्यवस्था | | - अपने परिवार की विशेषताएं जैसे ज्ञान, अनुभव और कुशलताएं एक पीढी से दुसरी पीढी को विरासत के रूप में संक्रमित करने की व्यवस्था |
− | - कुटुंब प्रमुख परिवार के सब के हित में जिये ऐसी मानसिकता । और केवल जिये इतना ही नहें तो ऐसा परिवार के सभी घटकों को मनपूर्वक लगे भी यह महत्वपूर्ण बात है| | + | - कुटुंब प्रमुख परिवार के सब के हित में जिये ऐसी मानसिकता । और केवल जिये इतना ही नहें तो ऐसा परिवार के सभी घटकों को मनपूर्वक लगे भी यह महत्वपूर्ण बात है। |
| - जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा । | | - जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा । |
| - अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाना परिवार की समृध्दि बढाने में योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम का उपयोग करना । इसी व्यवहार के कारण देश समृध्द था । | | - अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाना परिवार की समृध्दि बढाने में योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम का उपयोग करना । इसी व्यवहार के कारण देश समृध्द था । |
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| अर्थात् जिस के एकत्रित परिवार में चार लाठी यानी चार मर्द हों वह चौधरी याने लोगों का मुखिया बन जाता है । जिस के घर में पाँच मर्द हों वह गाँव का पंच बन सकता है । और जिस के घर में छ: मर्द हों उस के साथ तो गाँव का चौधरी और गाँव का पंच भी उस से सलाह लेने आता है । | | अर्थात् जिस के एकत्रित परिवार में चार लाठी यानी चार मर्द हों वह चौधरी याने लोगों का मुखिया बन जाता है । जिस के घर में पाँच मर्द हों वह गाँव का पंच बन सकता है । और जिस के घर में छ: मर्द हों उस के साथ तो गाँव का चौधरी और गाँव का पंच भी उस से सलाह लेने आता है । |
| - एकत्रित परिवार का प्रतिव्यक्ति खर्च भी विभक्त परिवार से बहुत कम होता है । सामान्यत: विभक्त परिवार का खर्च एकत्रित परिवार के खर्चे से देढ गुना अधिक होता है । | | - एकत्रित परिवार का प्रतिव्यक्ति खर्च भी विभक्त परिवार से बहुत कम होता है । सामान्यत: विभक्त परिवार का खर्च एकत्रित परिवार के खर्चे से देढ गुना अधिक होता है । |
− | - वर्तमान भारत की तुलना यदि ५० वर्ष पूर्व के भारत से करें तो यह समझ में आता है कि ५० वर्षपूर्व परिवार बडे और संपन्न थे । उद्योग छोटे थे । उद्योगपति अमीर नहीं थे । किन्तु आज चन्द उद्योग बहुत विशाल और उद्योजक अमीर बन बैठे हैं| परिवार छोटे और उद्योगपतियों की तुलना में कंगाल या गरीब बन गये है । चंद उद्योगपति और राजनेता अमीर बन गये है । सामान्य आदमी ( देश की आधी से अधिक जनसंख्या ) गरीबी की रेखा के नीचे धकेला गया है । | + | - वर्तमान भारत की तुलना यदि ५० वर्ष पूर्व के भारत से करें तो यह समझ में आता है कि ५० वर्षपूर्व परिवार बडे और संपन्न थे । उद्योग छोटे थे । उद्योगपति अमीर नहीं थे । किन्तु आज चन्द उद्योग बहुत विशाल और उद्योजक अमीर बन बैठे हैं। परिवार छोटे और उद्योगपतियों की तुलना में कंगाल या गरीब बन गये है । चंद उद्योगपति और राजनेता अमीर बन गये है । सामान्य आदमी ( देश की आधी से अधिक जनसंख्या ) गरीबी की रेखा के नीचे धकेला गया है । |
| ८.२ ग्रामकुल | | ८.२ ग्रामकुल |
| अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ऐसे ग्रामकुल की रचना भी की थी । महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की भारतीय गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुवे थे । परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं । जप्रसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुवे थे । इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है । मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है । परिवार में जप्रसे पप्रसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे । गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ । परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जप्रसे परिवार के सभी लोफगों को दुख होता है । उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था । मिन्नतें करता था । उस के कष्ट दूर करने की व्य्वस्थाएं करता था । लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की समझ से परे है । जब उन के आका अंग्रेज इस व्यवस्था को नहीं समझ सके तो उन के चेले क्या समझेंगे । | | अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ऐसे ग्रामकुल की रचना भी की थी । महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की भारतीय गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुवे थे । परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं । जप्रसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुवे थे । इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है । मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है । परिवार में जप्रसे पप्रसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे । गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ । परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जप्रसे परिवार के सभी लोफगों को दुख होता है । उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था । मिन्नतें करता था । उस के कष्ट दूर करने की व्य्वस्थाएं करता था । लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की समझ से परे है । जब उन के आका अंग्रेज इस व्यवस्था को नहीं समझ सके तो उन के चेले क्या समझेंगे । |
| ८.३ वसुधैव कुटुंबकम् : अयं निज: परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम् | | ८.३ वसुधैव कुटुंबकम् : अयं निज: परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम् |
| भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण है । जिन के हृदय बडे होते है, मन विशाल होते है उन के लिये तो सारा विश्व ही एक परिवार होता है । ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये । वास्तव में एकत्रित परिवार जिस भावना और व्यवहारों के आधारपर सुव्यवस्थित ढॅग़ से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है । यह विश्वास और ऐसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी । यह बात आज भी असंभव नहीं है । वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा । | | भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण है । जिन के हृदय बडे होते है, मन विशाल होते है उन के लिये तो सारा विश्व ही एक परिवार होता है । ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये । वास्तव में एकत्रित परिवार जिस भावना और व्यवहारों के आधारपर सुव्यवस्थित ढॅग़ से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है । यह विश्वास और ऐसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी । यह बात आज भी असंभव नहीं है । वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा । |
− | वैश्वीकरण की पाश्चात्य घोषणाएं तो बस एक दिखावा और छलावा मात्र है । जिन समाजों में पति-पत्नि एक छत के नीचे उम्र गुजार नही सकते उन्हे हम भारतीयों को सीखाने का कोई अधिकार नहीं है| वसुधैव कुटुंबकम् कैसे होगा यह हम उन्हें सिखाएंगे । | + | वैश्वीकरण की पाश्चात्य घोषणाएं तो बस एक दिखावा और छलावा मात्र है । जिन समाजों में पति-पत्नि एक छत के नीचे उम्र गुजार नही सकते उन्हे हम भारतीयों को सीखाने का कोई अधिकार नहीं है। वसुधैव कुटुंबकम् कैसे होगा यह हम उन्हें सिखाएंगे । |
| ९. कृतज्ञता | | ९. कृतज्ञता |
| पाश्चात्य समाजों में कृतज्ञता व्यक्त करने की पध्दति भारतीय पध्दति से भिन्न है । किसी से उपकार लेनेपर थँक यू और किसी को अपने कारण तकलीफ होनेपर सॉरी ऐसा तुरंत कहने की पाश्चात्य पध्दति है । इतना संक्षेप में कृतज्ञता या खेद व्यक्त करके विषय पूरा हो जाता है । दूसरे ही क्षण वह जिस बात के लिये थँक यू कहा है या सॉरी कहा है उसे भूल जाता है । दूसरे ही क्षण से उस के लिये वह उपकार का या पश्चात्ताप का विषय नहीं रह जाता । | | पाश्चात्य समाजों में कृतज्ञता व्यक्त करने की पध्दति भारतीय पध्दति से भिन्न है । किसी से उपकार लेनेपर थँक यू और किसी को अपने कारण तकलीफ होनेपर सॉरी ऐसा तुरंत कहने की पाश्चात्य पध्दति है । इतना संक्षेप में कृतज्ञता या खेद व्यक्त करके विषय पूरा हो जाता है । दूसरे ही क्षण वह जिस बात के लिये थँक यू कहा है या सॉरी कहा है उसे भूल जाता है । दूसरे ही क्षण से उस के लिये वह उपकार का या पश्चात्ताप का विषय नहीं रह जाता । |
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| समाज के ॠण से मुक्ति केवल अपना काम ठीक ढंग से करने से नही होती । वह तो करना ही चाहिये । किन्तु साथ में ही समाज के उन्नयन के लिये ज्ञानदान, समयदान और धनदान करना भी आवश्यक बात है । इन के बिना मनुष्य की अधोगति सुनिश्चित ही माननी चाहिये । जनहित के काम करने से, उन में योगदान देने से ही इस ॠण से उॠण हो सकते है । | | समाज के ॠण से मुक्ति केवल अपना काम ठीक ढंग से करने से नही होती । वह तो करना ही चाहिये । किन्तु साथ में ही समाज के उन्नयन के लिये ज्ञानदान, समयदान और धनदान करना भी आवश्यक बात है । इन के बिना मनुष्य की अधोगति सुनिश्चित ही माननी चाहिये । जनहित के काम करने से, उन में योगदान देने से ही इस ॠण से उॠण हो सकते है । |
| ९.१.५ देवॠण | | ९.१.५ देवॠण |
− | देव शब्द दिव धातु से बना है| दिव से तात्पर्य है दिव्यता से| सृष्टी में ऐसे देवता हैं, जिनके बिना सृष्टी चल नहीं सकती| वायु, अग्नि, पृथ्वी, वरुण, इंद्र आदि ये देवता हैं| वेदों में इन्हें देवता कहा गया है| जिनमें विराट शक्ति है और जो अपनी शक्तियों को मुक्तता से बांटते रहते हैं| | + | देव शब्द दिव धातु से बना है। दिव से तात्पर्य है दिव्यता से। सृष्टी में ऐसे देवता हैं, जिनके बिना सृष्टी चल नहीं सकती। वायु, अग्नि, पृथ्वी, वरुण, इंद्र आदि ये देवता हैं। वेदों में इन्हें देवता कहा गया है। जिनमें विराट शक्ति है और जो अपनी शक्तियों को मुक्तता से बांटते रहते हैं। |
− | इन देवताओं के ऋण से मुक्ति यज्ञ के द्वारा होती है| अग्निहोत्रों से होती है| यज्ञ के कारण इन देवताओं की पुश्टी होती है| इनके पुष्ट होने से तात्पर्य है इनका प्रदूषण दूर होना| इनका प्रदूषण दूर होने से मनुष्य और समाज का भी भला होता है| | + | इन देवताओं के ऋण से मुक्ति यज्ञ के द्वारा होती है। अग्निहोत्रों से होती है। यज्ञ के कारण इन देवताओं की पुश्टी होती है। इनके पुष्ट होने से तात्पर्य है इनका प्रदूषण दूर होना। इनका प्रदूषण दूर होने से मनुष्य और समाज का भी भला होता है। |
| ९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ती ) | | ९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ती ) |
| गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधी करने की प्रथा थी । इस विधी में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी । यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे । यह संकल्प १५ थे । इन में कहा गया है की दान श्रध्दा से दो । भय के कारण दो । लज्जा के कारण दो । मित्रता के कारण दो । अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो । | | गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधी करने की प्रथा थी । इस विधी में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी । यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे । यह संकल्प १५ थे । इन में कहा गया है की दान श्रध्दा से दो । भय के कारण दो । लज्जा के कारण दो । मित्रता के कारण दो । अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो । |
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| ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, नर का नारायण बनने का अवसर दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना। | | ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, नर का नारायण बनने का अवसर दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना। |
| जगत में जड और चेतन ऐसे दो पदार्थ है । जड पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है । वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये । गती का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही । बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है । कुछ वप्रज्ञानिक कहेंगे की नही यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता । यह अपने आप होता है । किन्तु ऐसे वप्रज्ञानिक बगप्रर किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है । किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है । | | जगत में जड और चेतन ऐसे दो पदार्थ है । जड पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है । वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये । गती का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही । बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है । कुछ वप्रज्ञानिक कहेंगे की नही यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता । यह अपने आप होता है । किन्तु ऐसे वप्रज्ञानिक बगप्रर किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है । किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है । |
− | ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है । अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है । वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है । यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है । और सृष्टि के अंततक चलेगा । इस ॠणाणू को चलाता काप्रन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुवा और सृष्टि बन गई । किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है । किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टी एकदम नियमों के आधारपर एक व्यवस्था से चलती है । यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया ? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा ' यह सब परमात्मा की लीला है '। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं । सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम: । और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की । इसीलिये भारतीय मनीषि घोषणा करते हैं की जड और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं| इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का । अनूभूति के स्तर का । इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान । | + | ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है । अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है । वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है । यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है । और सृष्टि के अंततक चलेगा । इस ॠणाणू को चलाता काप्रन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुवा और सृष्टि बन गई । किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है । किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टी एकदम नियमों के आधारपर एक व्यवस्था से चलती है । यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया ? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा ' यह सब परमात्मा की लीला है '। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं । सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम: । और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की । इसीलिये भारतीय मनीषि घोषणा करते हैं की जड और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का । अनूभूति के स्तर का । इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान । |
− | १२ एकात्म जीवनदृष्टी | + | १२ एकात्म जीवनदृष्टि |
| अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचरपर होनेवाले परिणामों का विचार करना । और चराचर के अहित की बात नहीं करना । भारतीय पध्दति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है । इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है । पाश्चात्य पध्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है । फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है । इस पाश्चात्य प्रणालि का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है । टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग । अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ । और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही । अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना । | | अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचरपर होनेवाले परिणामों का विचार करना । और चराचर के अहित की बात नहीं करना । भारतीय पध्दति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है । इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है । पाश्चात्य पध्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है । फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है । इस पाश्चात्य प्रणालि का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है । टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग । अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ । और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही । अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना । |
| इसलिये जब भारतीय दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है । पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है । भारतीय अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहें की जा सकती । वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है । उस की आर्थिक सोच हो सकती है । किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता । | | इसलिये जब भारतीय दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है । पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है । भारतीय अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहें की जा सकती । वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है । उस की आर्थिक सोच हो सकती है । किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता । |
| १३ आत्मवत् सर्वभूतेषू | | १३ आत्मवत् सर्वभूतेषू |
− | पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है । इसी भारतीय मान्यता के आधारपर यह वर्तनसूत्र बना है । मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड चेतन सभी परमर्मतत्व ही है । इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों की ओर से अपेक्षा है । और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता । यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है - ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है । इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है । एक दृष्टी से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है । मनवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है । इस सूत्र का उपयोग करने की पध्दति समझना महत्वपूर्ण है । | + | पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है । इसी भारतीय मान्यता के आधारपर यह वर्तनसूत्र बना है । मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड चेतन सभी परमर्मतत्व ही है । इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों की ओर से अपेक्षा है । और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता । यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है - ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है । इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है । एक दृष्टि से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है । मनवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है । इस सूत्र का उपयोग करने की पध्दति समझना महत्वपूर्ण है । |
| १३.१ समस्या की ठीक प्रस्तुति करें। जैसे दहेज प्रथा को समस्या माना जाता है । किन्तु समस्या दहेज देना या लेना नही है । कोई भी पिता अपनी बेटी को यथासंभव अधिक से अधिक देना ही चाहता है । कई बार तो वरपक्ष की दहेज की अपेक्षा से अधिक भी दे देता है । समस्या तो तब निर्माण होती है जब पिता जितना देना चाहता है उस से अधिक देने के लिये उसपर दबाव आता है । इसलिये मूल समस्या है वधू के पितापर उस की इच्छा से अधिक दहेज देनेका दबाव । | | १३.१ समस्या की ठीक प्रस्तुति करें। जैसे दहेज प्रथा को समस्या माना जाता है । किन्तु समस्या दहेज देना या लेना नही है । कोई भी पिता अपनी बेटी को यथासंभव अधिक से अधिक देना ही चाहता है । कई बार तो वरपक्ष की दहेज की अपेक्षा से अधिक भी दे देता है । समस्या तो तब निर्माण होती है जब पिता जितना देना चाहता है उस से अधिक देने के लिये उसपर दबाव आता है । इसलिये मूल समस्या है वधू के पितापर उस की इच्छा से अधिक दहेज देनेका दबाव । |
| १३,२ दूसरे चरण में यह तय कीजिये की पीडित कौन है । दहेज के मामले में वधू के पिता यह समस्या-पीडित है । | | १३,२ दूसरे चरण में यह तय कीजिये की पीडित कौन है । दहेज के मामले में वधू के पिता यह समस्या-पीडित है । |
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| उध्दरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन । वप्रसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है । लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बप्रठे रहना ठीक नहीं है । सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उध्दरेद् आत्मनात्मानम् । | | उध्दरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन । वप्रसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है । लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बप्रठे रहना ठीक नहीं है । सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उध्दरेद् आत्मनात्मानम् । |
| १५ कृण्वंतो विश्वमार्यंम् | | १५ कृण्वंतो विश्वमार्यंम् |
− | कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे । हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है । ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है । वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ । प्राचीन और मध्यकालीन पूरे भारतीय साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा । किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया । इसे हिन्दुस्तानपर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया । आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया । इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिध्द हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, फिर बी यही पढ़ाया जा रहा है| | + | कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे । हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है । ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है । वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ । प्राचीन और मध्यकालीन पूरे भारतीय साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा । किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया । इसे हिन्दुस्तानपर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया । आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया । इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिध्द हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, फिर बी यही पढ़ाया जा रहा है। |
| यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है । आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये । ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रग़ के थे । उन्हों ने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया । ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है । इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है । तर्क के लिये मान लिजीये की आर्य यह जाति थी । तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना । इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती । किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर भारतीय समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही । चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है । यह सामान्य ज्ञान की बात है । किन्तु इसे प्रमाणों के आधारपर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है । सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है । फिर भी हमने इतिहास में ' आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है । मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से अधोरेखित होता है । | | यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है । आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये । ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रग़ के थे । उन्हों ने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया । ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है । इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है । तर्क के लिये मान लिजीये की आर्य यह जाति थी । तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना । इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती । किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर भारतीय समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही । चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है । यह सामान्य ज्ञान की बात है । किन्तु इसे प्रमाणों के आधारपर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है । सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है । फिर भी हमने इतिहास में ' आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है । मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से अधोरेखित होता है । |
| केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता । उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधारपर जबतक शक्ति खडी नहीं की जाती दुनियाँ उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती । सत्यमेव जयते यह अर्धसर्य है । सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है । इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है । अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है । सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा । ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा । दुर्जनों के मन में डर पप्रदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा । तब ही दुनियाँ भी आर्य बनने का प्रयास करेगी । | | केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता । उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधारपर जबतक शक्ति खडी नहीं की जाती दुनियाँ उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती । सत्यमेव जयते यह अर्धसर्य है । सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है । इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है । अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है । सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा । ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा । दुर्जनों के मन में डर पप्रदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा । तब ही दुनियाँ भी आर्य बनने का प्रयास करेगी । |
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| पहले घरों की रचना ऐसी थी की एकाध कमरा कम या अधिक होने से कोई समस्या नहीं होती थी । किन्तु वर्तमान आंतर-सुशोभन (इंटीरियर डेकोरेशन) के जमाने में एक कमरा कम हो गया तो सोने का कैसे होगा ? या स्वागत कक्ष का क्या होगा ? ऐसी समस्याएं खडी हो जातीं है । | | पहले घरों की रचना ऐसी थी की एकाध कमरा कम या अधिक होने से कोई समस्या नहीं होती थी । किन्तु वर्तमान आंतर-सुशोभन (इंटीरियर डेकोरेशन) के जमाने में एक कमरा कम हो गया तो सोने का कैसे होगा ? या स्वागत कक्ष का क्या होगा ? ऐसी समस्याएं खडी हो जातीं है । |
| शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है । ० से ९ तक के ऑंकडे भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है । वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन भारतीय ऑंकडों में और एक ऑंकडा जोडने की आजतक किसी को आवश्यकता नहीं लगी । यही इस अंक प्रणालि के पूर्णत्व का लक्षण है । हमारे भारतीय पूर्वजों ने विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है । इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जबतक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणालि मानव की अन्न की आवश्यकताएं हमेशा पूर्ण करती रहेगी । | | शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है । ० से ९ तक के ऑंकडे भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है । वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन भारतीय ऑंकडों में और एक ऑंकडा जोडने की आजतक किसी को आवश्यकता नहीं लगी । यही इस अंक प्रणालि के पूर्णत्व का लक्षण है । हमारे भारतीय पूर्वजों ने विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है । इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जबतक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणालि मानव की अन्न की आवश्यकताएं हमेशा पूर्ण करती रहेगी । |
− | वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है । कारण यह है की केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है| पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं| मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व(लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है| | + | वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है । कारण यह है की केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व(लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है। |
| अब पूर्णत्व के कुछ उदाहरण देखेंगे । - कुटुंब व्यवस्था । - गो आधारित खेती । | | अब पूर्णत्व के कुछ उदाहरण देखेंगे । - कुटुंब व्यवस्था । - गो आधारित खेती । |
| - अंकगणित की आठ मूल क्रियाएं । - ० से ९ तक के ऑंकडे । - देवनागरी लिपी | | - अंकगणित की आठ मूल क्रियाएं । - ० से ९ तक के ऑंकडे । - देवनागरी लिपी |
| वाचनीय साहित्य | | वाचनीय साहित्य |
| १. Our Glorious Heritage Author Bharatee krishn Tirth( Shankaraachaary, Puri Peeth) | | १. Our Glorious Heritage Author Bharatee krishn Tirth( Shankaraachaary, Puri Peeth) |
− | 2. चिरंतन हिन्दू जीवन दृष्टी, भारतीय विचार साधना प्रकाशन, पुणे | + | 2. चिरंतन हिन्दू जीवन दृष्टि, भारतीय विचार साधना प्रकाशन, पुणे |
| 3. श्रीमद्भगवद्गीता | | 3. श्रीमद्भगवद्गीता |
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