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, 29 February
ऋग्वेदीय ऐतरेय-आरण्यक के द्वितीय आरण्यक के अन्तर्गत चतुर्थ, पञ्चम और षष्ठ अध्यायों का नाम 'ऐतरेय-उपनिषद्' है। इसके प्रथम अध्याय में तीन खण्ड हैं और द्वितीय तथा तृतीय अध्याय एक-एक खण्ड के हैं। इस प्रकार यह एक लघुकाय उपनिषद् है। यह मूलतः आरण्यक-भाग होने से गद्यात्मक है। ऋषि महिदास ऐतरेय को इसका प्रणेता माना जाता है क्योंकि वे ही ऐतरेय ब्राह्मण और आरण्यक के प्रणेता हैं।
== परिचय ==
ऐतरेय-उपनिषद् के प्रथम खण्ड में आत्मा से चराचर प्रपञ्च-सृष्टि की उत्पत्ति का कथन है। प्रत्यक्ष जगत् के इस रूप में प्रकट होने से पहले कारण अवस्था में एकमात्र परमात्मा ही था। सृष्टि के आदि में उसने यह विचार किया कि 'मैं प्राणियों के कर्मफल भोगार्थ भिन्न-भिन्न लोकों की रचना करूँ' यह विचार कर उसने अम्भः, मरीचि, मरः और आपः- इन लोकों की रचना की। फिर उसने सूक्ष्म महाभूतों में से हिरण्यगर्भरूप पुरुष को निकालकर उसको समस्त अंग-उपांगों से युक्त करके मूर्तिमान् बनाया।
== वर्ण्यविषय ==
यह उपनिषद् साक्षात् रूप से ब्रह्मविद्या का वर्णन न करते हुए भी उसके माहात्म्य का विशद विवेचन करने के कारण उपनिषद् - साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान पर है।<ref>बलदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/1.SanskritVangmayaKaBrihatItihasVedas/page/482/mode/1up संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास - वेद खण्ड], सन् १९९६, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान - लखनऊ, (पृ० ४८३)।</ref>
== उद्धरण ==