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− | गणित समस्त विज्ञान का मूल है। गणित ही सृष्टि-रचना के मूल में है। संसार की प्रत्येक वस्तु किसी नियम से बद्ध है, उसमें कोई क्रम है। उस नियम और क्रम का ज्ञान गणित का विषय है। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु में गति है। गति का संबंध गणना से है। यह गणना गणित का विषय है। सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, ग्रह एवं पृथिवी की गति के ज्ञान से ही सूर्योदय, सूर्यास्त, सूर्य-ग्रहण, चंद्रग्रहण, भू-परिक्रमा आदि का ज्ञान होता है। पूरा ज्योतिष-शास्त्र गणित पर निर्भर है। स्थान और समय का निर्धारण गणित के आधार पर ही होता है। गति की निरन्तरता का नाम समय (time) है और गति का चतुर्दिक प्रसार ही स्थान (Space) है। इनके ज्ञान के लिए गणित की आवश्यकता होती है। गणित के द्वारा गति का आकलन किया जाता है, अतः गणित विज्ञान की आधारशिला है। | + | हमारी भारतीय संस्कृति में ज्योतिष एवं गणित की समृद्ध परम्परा रही है। ज्योतिष ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति, गति तथा उनके साथ हमारा संबंध बताने वाली विद्या एवं वहीं गणित के माध्यम से ग्रहों की गति, स्थिति एवं दूरी आदि की गणना की जाती है। इस प्रकार से ज्योतिष के सिद्धान्त स्कन्ध (खगोल शास्त्र) के साथ गणित का प्रयोग देखा जाता है। गणित समस्त विज्ञान का मूल है। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु में गति है, गति का संबंध गणना से है एवं संसार की प्रत्येक वस्तु किसी नियम से बद्ध है, उसमें कोई क्रम है। उस नियम, क्रम एवं गणना का ज्ञान गणित का विषय है। ग्रह, नक्षत्र एवं पृथिवी की गति के ज्ञान से ही सूर्योदय-सूर्यास्त, सूर्यग्रहण-चंद्रग्रहण, भू-परिक्रमण एवं परिभ्रमण आदि का ज्ञान होता है। गणना हेतु ज्योतिष-शास्त्र में गणित का प्रयोग देखा जाता है। स्थान और समय का निर्धारण गणित के आधार पर ही होता है। गणित के द्वारा गति का आकलन किया जाता है, अतः ज्योतिष एवं गणित का अन्योन्याश्रय संबंध है। |
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− | वेदांग-ज्योतिष में गणितशास्त्र का महत्व बताते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार मयूरों की शिखाएं और नागों (सर्पों) की मणियां सर्वोच्च स्थान पर रहती है, उसी प्रकार सारे वेदांगों में गणित का स्थान सर्वोपरि है।
| + | == परिचय== |
− | | + | गणित शब्द वैदिककाल में अपने मूलरूप में नहीं पाया जाता है तथापि उनमें गण गणपति और गण्या शब्द ऋग्वेद में उपलब्ध हैं। गणित के अन्य नाम गणना, संख्यान, संख्याशास्त्र, अंकविद्या, राशिविद्या आदि संस्कृत साहित्य में दृष्टिगत होते हैं। वैदिककाल में गणित नक्षत्रविद्या के अंतर्गत स्वीकार्य था क्योंकि धर्मपरायण भारतीय यज्ञप्रेमी थे। यज्ञफल की प्राप्ति तभी संभव थी जब उसका अनुष्ठान यथाकाल-यथानक्षत्र में किया जाए, यह गणना गणित द्वारा ही ज्ञात करना संभव थी। अतः ज्योतिष शास्त्र के सिद्धान्त स्कन्ध स्वरूप अंग रूप में में गणित का विकास हुआ, जिससे ग्रहों के गति की गणना द्वारा तिथि-नक्षत्रों,पर्वों का ठीक-ठीक ज्ञान हो सका। इस प्रकार यज्ञरूप कारण से गणित का आविर्भाव हुआ। निरोगत प्रदान करने वाले यज्ञों का अनुष्ठान ऋतुओं की संधियों अथवा पर्वों की संधियों पर आयोजित किया जाता था। प्रातः सायं की संधियों, पक्ष की संधियों, मास की संधियों, ऋतु परिवर्तन की संधियों, चतुर्मास की संधियों, उत्तरायण-दक्षिणायन की संधियों में सम्पन्न यज्ञ सम्पूर्ण वर्ष आरोग्य, समृद्धि, मनःशांति आदि के लिए लाभकारी होते थे। जैसा कि कहा भी है -<blockquote>यज्ञो वै संवत्सरः।</blockquote>ऋग्वेद के एक मंत्र में ज्योतिष संबंधि वार्षिक तिथियों की गणना के लिए अनेक गणितीय पदों का समावेश किया है - <blockquote>द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नम्यानि क उ तच्चिकेत। तस्मिन् साकं त्रिशता न शंकवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचला सः॥ </blockquote>प्रस्तुत मंत्र में 12 भागों में विभक्त 360 अंश के चक्र को तीन नाभियों (सर्दी, गर्मी, वर्षा) में विभक्त कहा है। इस चक्र का वर्णन महाभारत में भी उल्लिखित है - <blockquote>चतुर्विंशतिपर्व त्वां षण्णभि द्वादशप्रधि। तत्त्रिषष्टि शतं वै तु चक्रं पातु सदागति॥</blockquote>हे राजन्! 24 पर्व (पक्ष), छः नाभियां (ऋतुएं), 12 घेरे (मास) व 360 अरों (दिनों) वाला चक्र तुम्हारा कल्याण करें। इस चक्र से सूर्य की प्रदक्षिणा मार्ग का ज्ञान वैदिक ऋषियों को होता था, जिससे वे दिशाओं तथा 13वें अधिकमास की भी गणना कर लेते थे। वैदिक ऋषि ग्रहण गणना भी जानते थे। ज्योतिष तथा गणित शास्त्र की श्रुतिमूलकता के संदर्भ में सर्व प्रथम वेदों के अंतर्गत गणित के अंकुरों पर विचार किया जाएगा। स्थूल रूप से ज्योतिषशास्त्र के मुख्यतः दो भेद किए जाते हैं - गणित तथा फलित । |
− | ज्योतिष तथा गणित शास्त्र की श्रुतिमूलकता के संदर्भ में सर्व प्रथम वेदों के अंतर्गत गणित के अंकुरों पर विचार किया जाएगा। | |
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− | स्थूल रूप से ज्योतिषशास्त्र के मुख्यतः दो भेद किए जाते हैं। 1. गणित तथा 2. फलित । | |
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| गणित के दो भेद हैं – व्यक्त तथा अव्यक्त। | | गणित के दो भेद हैं – व्यक्त तथा अव्यक्त। |
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− | व्यक्त – जहां कल्पित अंकों द्वारा संयोग, वियोग, गुणा भाग इत्यादि प्रक्रिया द्वारा गणित किया जाए उसे व्यक्त गणित कहते हैं। | + | '''व्यक्त गणित''' - जहां कल्पित अंकों द्वारा संयोग, वियोग, गुणा भाग इत्यादि प्रक्रिया द्वारा गणित किया जाए उसे व्यक्त गणित कहते हैं। |
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− | अव्यक्त – जहां अंक के स्थान में अक्षर को मानकर संयोग-वियोग, गुणा-भाग आदि प्रक्रिया द्वारा गणित किया जाये उसे अव्यक्त गणित कहते हैं।
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− | == परिभाषा ==
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− | गणित शब्द गण धातु से क्त प्रत्यय लगाकर गिनना अर्थ में निष्पन्न है। आचार्य कौटिल्य ने कहा है –
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− | '''तस्माद्विक्रयः पण्यानां धृतो मितो वा कार्यः।'''
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− | अर्थात वस्तुओं को नाप-तोल-गिन कर विक्रय करें। कौटिल्य ने ही शैशवकाल से बालक के लिए गणित की शिक्षा का विधान किया है –
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− | '''व्रतचौलकर्मा लिपिसंख्यानञ्च उपयुञ्जीत्।'''
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− | अर्थात चूड़ाकर्म के पश्चात लिपि-लिखना, संख्यान-गिनती सिखाए। प्राचीन काल में बालकों को गिनती सिखाने के लिए गिनतारा (abacus) नामक उपकरण था। बालक को पटिया पर गणित सिखाने से यह पाटीगणित के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ।
| + | '''अव्यक्त गणित -''' जहां अंक के स्थान में अक्षर को मानकर संयोग-वियोग, गुणा-भाग आदि प्रक्रिया द्वारा गणित किया जाये उसे अव्यक्त गणित कहते हैं। |
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− | == परिचय == | + | ==परिभाषा== |
− | गणित शब्द वैदिककाल में अपने मूलरूप में नहीं पाया जाता है तथापि उसमें गण गणपति और गण्या शब्द ऋग्वेद में उपलब्ध हैं।गणित के अन्य नाम गणना, संख्यान, संख्याशास्त्र, अंकविद्या, राशिविद्या आदि साहित्य में दृष्टिगत हैं। वैदिककाल में गणित नक्षत्रविद्या के अंतर्गत स्वीकार्य था क्योंकि धर्मपारायण भारतीय यज्ञप्रेमी थी। यज्ञफल की प्राप्ति तभी संभव थी जब उसका अनुष्ठान यथाकाल-यथानक्षत्र किया जाए, यह गणना गणित द्वारा ही संभव थी। अतः ज्योतिष शास्त्र की आवश्यकतानुसार गणित का विकास हुआ, जिससे ग्रह-गति-गणना, द्वारा तिथि-नक्षत्रों-पर्वों का ठीक-ठीक ज्ञान हो सके। इस प्रकार यज्ञरूप कारण से गणित का आविर्भाव हुआ और विश्व ने गणित का प्रथम पाठ भारतवर्ष से सीखा –
| + | ज्योतिष शास्त्र वास्तव में आकाश में ज्योतिष्मान पिण्डों की गति और स्थिति के ज्ञान का ही विज्ञान है। वह शास्त्र जिससे प्रकाशमान ग्रह-नक्षत्रों इत्यादि की गति और स्थिति का कलन या ज्ञान किया जाता है। जैसा कि कहा गया है -<blockquote>ज्योतिष्मतांग्रह-नक्षत्रादीनांगतिंस्तिथिञ्चाधिकृत्यकृतंशास्त्रम्।</blockquote> |
| + | अर्थात् गणना बिना गणित के संभव नहीं है। अत: गणित के बिना ज्योतिष का ज्ञान असंभव ही है। गणना सिद्धांत ज्योतिष का अनन्य और मूलभूत भाग है और इसे ही बहुधा गणित नाम से संबोधित किया गया है। इसके बिना ज्योतिष की कल्पना ही नहीं हो सकती। भारतीय परम्परा में गणेश दैवज्ञ ने अपने ग्रन्थ बुद्धिविलासिनी में गणित की परिभाषा निम्नवत की है - <blockquote> |
| + | गण्यते संख्यायते तद्गणितम्। तत्प्रतिपादकत्वेन तत्संज्ञं शास्त्रम् उच्यते। </blockquote> |
| + | अर्थात् गणना के आधार को बताने वाला शास्त्र गणित शास्त्र कहलाता है। पाणिनीय धातुपाठ में गण-संख्याने धातु है, जिस धातु का अर्थ है - गणना करना। गण धातु में इतच् प्रत्यय लगाकर गिनना अर्थ में निष्पन्न है। अतः भारतीय चिन्तन में गणित अत्यन्त प्राचीन काल से हि खगोल विज्ञान के साथ ही विद्या विशेष के रूप में प्रयोग होता आ रहा है। |
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− | निरोगत प्रदान करने वाले यज्ञों का अनुष्ठान ऋतुओं की संधियों अथवा पर्वों की संधियों पर आयोजित किया जाता था। प्रातः सायं की संधियों, पक्ष की संधियों, मास की संधियों, ऋतु परिवर्तन की संधियों, चतुर्मास की संधियों, उत्तरायण-दक्षिणायन की संधियों में सम्पन्न यज्ञ सम्पूर्ण वर्ष आरोग्य, समृद्धि, मनःशांति आदि के लिए लाभकारी होते थे। कहा भी है –
| + | ==प्रमुख ग्रन्थकार== |
| + | विश्व प्रसिद्ध महान गणितज्ञ भारत में हुए थे। उनमें से प्रमुख हैं - |
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− | '''यज्ञो वै संवत्सरः।'''
| + | *आर्यभट्ट |
| + | *वराहमिहिर |
| + | *ब्रह्मगुप्त |
| + | *भास्कराचार्य |
| + | *बौधायन |
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− | ऋग्वेद के एक मंत्र में ज्योतिष संबंधि वार्षिक तिथियों की गणना के लिए अनेक गणितीय पदों का समावेश किया है –
| + | सिद्धांत ज्योतिष को गणित उपजीवी कहा गया है। किन्तु प्राचीन समय में गणित के ही एक अंग के रूप में इसको भी माना गया था। इसलिए भास्कराचार्य जी ने सिद्धांतज्योतिष का लक्षण करते हुये यह दिखलाया है, कि सिद्धांतज्योतिष में अंकगणित, बीजगणित तथा यंत्र भी अवयव के रूप में गृहीत होना चाहिए। ज्योतिष शास्त्र को पढ़ने का अधिकार किसको है इसका वर्णन करते हुए भास्कराचार्य कहते हैं कि - <blockquote>द्विविधगणितमुक्तं व्यक्तमव्यक्त युक्तं तदवगमननिष्ठः शब्दशास्त्रे पटिष्ठः। यदि भवति तदेदं ज्योतिषं भूरिभेदं प्रपठितुमधिकारी सोऽन्यथानामधारी॥</blockquote> |
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− | '''द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नम्यानि क उ तच्चिकेत। तस्मिन् साकं त्रिशता न शंकवोsर्पिताः षष्टिर्न् चलाचला सः॥ '''
| + | == ज्योतिष एवं गणित महत्व== |
| + | भारतीय परम्परा में गणेश दैवज्ञ ने अपने ग्रन्थ बुद्धिविलासिनी में गणित की परिभाषा निम्नवत की है- |
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− | प्रस्तुत मंत्र में 12 भागों में विभक्त 360 अंश के चक्र को तीन नाभियों (सर्दी, गर्मी, वर्षा) में विभक्त कहा है। इस चक्र का वर्णन महाभारत में भी उल्लिखित है –
| + | :गण्यते संख्यायते तद्गणितम्। तत्प्रतिपादकत्वेन तत्संज्ञं शास्त्रं उच्यते। |
| + | :(जो परिकलन करता और गिनता है, वह गणित है तथा वह विज्ञान जो इसका आधार है वह भी गणित कहलाता है।) |
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− | '''चतुर्विंशतिपर्व त्वां षण्णभि द्वादशप्रधि। तत्त्रिषष्टि शतं वै तु चक्रं पातु सदागति॥ '''
| + | वेदांग ज्योतिष में गणित का स्थान सर्वोपरि (मूधन्य) बताया गया है - |
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− | हे राजन्! 24 पर्व (पक्ष), छः नाभियां (ऋतुएं), 12 घेरे (मास) व 360 अरों (दिनों) वाला चक्र तुम्हारा कल्याण करें। इस चक्र से सूर्य की प्रदक्षिणा मार्ग का ज्ञान वैदिक ऋषि को होता था, जिससे वे दिशाओं तथा 13वें अधिकमास की भी गणना कर लेते थे। वैदिक ऋषि ग्रहण गणना भी जानते थे। विश्व प्रसिद्ध महान गणितज्ञ भारत में हुए थे। उनमें से प्रमुख हैं –
| + | यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्ध्नि संस्थितम् ॥ -- (वेदांग ज्योतिष - ५) |
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− | 1. आर्यभट्ट
| + | जिस प्रकार मोरों के सिर पर शिखा और नागों के सिर में मणि सर्वोच्च स्थान में होते हैं उसी प्रकार वेदांगशास्त्रों में गणित का स्थान सबसे उपर (मूर्धन्य) है। |
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− | 2. वराहमिहिर
| + | इसी प्रकार, बहुभिर्प्रलापैः किम्, त्रयलोके सचरारे। यद् किंचिद् वस्तु तत्सर्वम्, गणितेन् बिना न हि ॥ — महावीराचार्य, गणितसारसंग्रह में |
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− | 3. ब्रह्मगुप्त
| + | (बहुत प्रलाप करने से क्या लाभ है ? इस चराचर जगत में जो कोई भी वस्तु है वह गणित के बिना नहीं है / उसको गणित के बिना नहीं समझा जा सकता) |
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− | 4. भास्कराचार्य
| + | खगोल-विज्ञान के साथ तो गणित का अन्योन्य सम्बन्ध माना गया है। भास्कराचार्य का कहना है कि खगोल तथा गणित में एक दूसरे से अनभिज्ञ पुरुष उसी प्रकार महत्त्वहीन है, जैसे घृत के बिना व्यंजन, राजा के बिना राज्य तथा अच्छे वक्ता के बिना सभा होती है - |
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− | 5. बौधायन
| + | भोज्यं यता सर्वरसं विनाज्यं राज्यं यथा राजविवर्जितं च। सभा न भातीव सुवक्तृहीना गोलानभिज्ञो गणकस्तथात्र ॥ -- (सिद्धान्तशिरोमणि, गोलाध्याय, श्लोक 4) |
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− | सिद्धांत ज्योतिष को गणित उपजीवी कहा गया है। किन्तु प्राचीन समय में गणित के ही एक अंग के रूप में इसको भी माना गया था। इसलिए भास्कराचार्य जी ने सिद्धांतज्योतिष का लक्षण करते हुये यह दिखलाया है, कि सिद्धांतज्योतिष में अंकगणित, बीजगणित तथा यंत्र भी अवयव के रूप में गृहीत होना चाहिए। ज्योतिष शास्त्र को पढ़ने का अधिकार किसको है इसका वर्णन करते हुए भास्कराचार्य कहते हैं कि -
| + | गणकों के गुण |
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− | '''द्विविधगणितमुक्तं व्यक्तमव्यक्त युक्तं तदवगमननिष्ठः शब्दशास्त्रे पटिष्ठः।'''
| + | गणितसारसंग्रह के संज्ञाधिकार के अन्त में महावीराचार्य ने गणकों (गणितज्ञों) के ८ गुण गिनाए हैं- |
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− | '''यदि भवति तदेदं ज्योतिषं भूरिभेदं प्रपठितुमधिकारी सोsन्यथानामधारी॥'''
| + | अथ गणकगुणनिरूपणम लघुकरणोहापोहानालस्यग्रहणधारणोपायैः। व्यक्तिकराङ्कविशिष्टैर् गणकोऽष्टाभिर् गुणैर् ज्ञेयः॥ |
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− | == गणितशास्त्र का उद्भव ==
| + | लघुकरण, ऊह, अपोह, अनालस्य, ग्रहण, धारण, उपाय, व्यक्तिकरांकविशिष्ट - इन आठ गुणों से गणक को जाना जाता है। |
− | वेदों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उनमें गणितशास्त्र से सम्बद्ध पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। उनमें एक संख्या से लेकर परार्ध संख्या तक का उल्लेख है। गणित का तो बाद में विकास हुआ अतएव ज्योतिष शब्द प्रारम्भिक परिभाषा की ओर संकेत करता है।
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− | छान्दोग्य उपनिषद् का नक्षत्र विद्या शब्द भी ज्योतिष को परिभाषित करता है। संहिता काल में ही गति गणना करना प्रारंभ कर दिया था तभी तो कहा गया है –
| + | आचार्य कौटिल्य ने कहा है– <blockquote>'''तस्माद्विक्रयः पण्यानां धृतो मितो वा कार्यः।'''</blockquote>अर्थात वस्तुओं को नाप-तोल-गिन कर विक्रय करें। कौटिल्य ने ही शैशवकाल से बालक के लिए गणित की शिक्षा का विधान किया है –<blockquote>'''व्रतचौलकर्मा लिपिसंख्यानञ्च उपयुञ्जीत्।'''</blockquote>अर्थात चूड़ाकर्म के पश्चात लिपि-लिखना, संख्यान-गिनती सिखाए। प्राचीन काल में बालकों को गिनती सिखाने के लिए गिनतारा (abacus) नामक उपकरण था। बालक को पटिया पर गणित सिखाने से यह पाटीगणित के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। |
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− | '''प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शं यादसे गणकम्।'''
| + | ==ग्रहों की स्थिति, काल एवं गति== |
| + | महर्षि लगध ने वेदांग ज्योतिष में ग्रहों की स्थिति, काल एवं गति की गणना के सूत्र दिए गए हैं - <blockquote>तिथि मे का दशाम्य स्ताम् पर्वमांश समन्विताम्। विभज्य भज समुहेन तिथि नक्षत्रमादिशेत॥ </blockquote>अर्थात् तिथि को 11 से गुणा कर उसमें पर्व के अंश जोड़ें और फिर नक्षत्र संख्या से भाग दें। इस प्रकार तिथि के नक्षत्र बतावें। नेपाल में इसी ग्रन्थ के आधार मे विगत ६ साल से वैदिक तिथिपत्रम्" व्यवहार मे लाया गया है। |
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− | अर्थात विशिष्ट ज्ञान के लिए नक्षत्रदर्शक गणक के पास जाओ। स्पष्ट है गणक का अर्थ यहां ज्योतिषी है क्योंकि वह गतियों की गणना कर लेते थे। ज्योतिषी ग्रहों की गति और स्थिति आदि की गणना करने के लिए विभाजन, गुणा, जोड़ और घटाव जैसी गणितीय तकनीकों का उपयोग करते हैं जिनका उपयोग जन्म कुंडली विश्लेषण में किया जाता है। संस्कृत ग्रंथों में कटपयादि० और भूत संख्या विधियों से अंकों और संख्याओं को सामान्य संस्कृत छंदों में पिरोकर संस्कृत के तथ्य और सूत्र लिखे गए हैं।
| + | == गणित एवं गोल विज्ञान == |
| + | ज्योतिष का हर स्कन्ध गणित, गोल, तर्क एवं यन्त्राधारित होने से विज्ञानमय है। गणित सिद्धान्त स्कन्ध के कल्पादि गणना सिद्धान्त, युगादि गणना तन्त्र तथा इष्टवर्षादि गणना करण के बारे में भी यथार्थ जानकारी दी गयी है। गणित की मूल शाखाओं के साथ नवीन गणितीय एवं खगोलीय विकास के बारे में भी यथार्थ विवरण प्रस्तुत किये गये हैं। प्राचीन गणित सिद्धान्त के निम्नांकित विभाग आज प्राप्त होते हैं - <ref>प्रो० सच्चिदानन्द मिश्र, [https://bhu.ac.in/Images/files/p61_1.pdf भारतीय ज्योतिष का वैज्ञानिकत्व - एक समीक्षा], प्रज्ञा-पत्रिका, अंक-६१, सन् २०१५-१६, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (पृ० ०७)।</ref> |
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− | == कटपयादि विधि ==
| + | # '''व्यक्त गणित -''' इसके अन्तर्गत अंकगणित, के दश प्रकार तथा सर्वविध क्षेत्रगणित, घनक्षेत्रीय एवं गोलीयगणित, काष्ठसम्बद्धकर्कच, कुट्टक तथा अंकपाश छः विभाग मूल रूप में प्राप्त होते हैं। |
− | संख्याओं को शब्द या श्लोक के रूप में आसानी से याद रखने की प्राचीन भारतीय पद्धति है। क्योंकि भारत में खगोलीय ग्रंथ पद्य रूप में लिखे जाते थे, इसलिए संखाओं को शब्दों के रूप में अभिव्यक्त किए बिना विषय का समुचित विवेचन नहीं किया जा सकता था। भारतीय ऋषि-महर्षियों ने इसका समाधान कटपयादि के रूप में निकाला। वररुचि ने सर्वप्रथम कटपयादि का अंकमाला तैयार किया जिसके द्वारा किसी शब्द को संख्या में अभिव्यक्त किया जा सकता है। निम्न लिखित श्लोक इस पद्धति को स्पष्ट करता है –
| + | # '''अव्यक्त गणित -''' बीजगणित - इसके कई भेद प्रयोग भेद से हो गये हैं। |
| + | # '''त्रिकोणगणित -''' सरल एवं चापीय त्रिकोण गणित ये दो भेद हैं। |
| + | # '''रेखागणित -''' ये गणित के मूल विभाग गोलीय क्षेत्रों के योग से काफी विस्तृत हो जाते हैं। |
| + | # '''ग्रह गणित -''' ग्रहगणित के ११ विभाग हैं। इसमें ग्रहों तथा नक्षत्रों के आनयन के विभिन्न प्रभेद सम्बद्ध हैं। |
| + | # '''गोलीय-''' उपपत्ति एवं गोलीय यन्त्र तथा वेध - ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। काल सापेक्ष गणना एवं वेध की युक्तियाँ इससे सम्बद्ध हैं। |
| + | # '''सोत्तरप्रश्न -''' सोदाहरण सर्वविध गणित एवं गोलीय गणित तथा गोलीयोपपत्ति का समवेत रूप इसमें प्राप्त होता है। |
| + | # '''पञ्चांगगणित -''' वस्तुतः यह करण ग्रन्थ का विषय है। विभिन्न सिद्धान्तों का प्रत्यक्ष अवगमन इसके द्वारा होता है। गोलीय वेध की भूमिका भी इससे जुडी है। वस्तुतः पंचांग निर्माण में वर्षफल संहिता, वृष्टिविद्या एवं वातावरण, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, कृषि, सामाजिकव्यवहार, विभिन्न शुभाशुभ कार्यों के मुहूर्त, धर्मशास्त्रीय विधान एवं व्रत पर्व उत्सव आदि का समन्वित रूप इसे बहु आयामी बना देता है। लेकिन इसका मूल भी गणित तथा गोलीय वेध है। |
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− | नज्ञावचश्च शून्यानि सङ्ख्याः कटपयादयः। मिश्रे तूपान्त्यहल् संख्या न च चिन्त्यो हलस्वरः॥
| + | ==गणितशास्त्र का उद्भव== |
| + | वेदों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उनमें गणितशास्त्र से सम्बद्ध अनेक उद्धरण उपलब्ध होते हैं। उनमें एक संख्या से लेकर परार्ध संख्या तक का उल्लेख है। गणित का तो बाद में विकास हुआ अतएव ज्योतिष शब्द प्रारम्भिक परिभाषा की ओर संकेत करता है। छान्दोग्य उपनिषद् का नक्षत्र विद्या शब्द भी ज्योतिष को परिभाषित करता है। संहिता काल में ही गति गणना करना प्रारंभ कर दिया था तभी तो कहा गया है - <blockquote>प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शं यादसे गणकम्।</blockquote>अर्थात विशिष्ट ज्ञान के लिए नक्षत्रदर्शक गणक के पास जाओ। स्पष्ट है गणक का अर्थ यहां ज्योतिषी है क्योंकि वह गतियों की गणना कर लेते थे। ज्योतिषी ग्रहों की गति और स्थिति आदि की गणना करने के लिए विभाजन, गुणा, जोड़ और घटाव जैसी गणितीय तकनीकों का उपयोग करते हैं जिनका प्रयोग जन्म कुंडली विश्लेषण में किया जाता है। संस्कृत ग्रंथों में कटपयादि और भूत संख्या विधियों से अंकों और संख्याओं को सामान्य संस्कृत छंदों में पिरोकर संस्कृत के सूत्र एवं श्लोक लिखे गए हैं। गति की निरन्तरता का नाम समय (TIME ) है और गति का चतुर्दिक् प्रसार ही स्थान (SPACE) है। इनके ज्ञान के लिए गणित की आवश्यकता होती है। हमारे शास्त्रों में गणित तथा खगोलिकी में आने वाली संख्याऐं भी श्लोकों में आसानी से प्रयुक्त की जा सकती थीं। इसके लिये प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में वर्णांक एवं अक्षरांक ये दो पद्धतियां दिखाई देती हैं। |
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− | '''अर्थ –''' न, ज तथा अ शून्य को निरूपित करते हैं। (समस्त स्वरों का मान शून्य है) शेष नौ अंक क, ट, प और य से आरंभ होने वाले व्यंजन वर्णों द्वारा निरूपित होते हैं। किसी संयुक्त व्यंजन में केवल अंतिम वाला व्यंजन ही लिया जाएगा। स्वर रहित व्यंजन छोड़ दिया जाएगा। | + | ==कटपयादि विधि== |
| + | संख्याओं को शब्द या श्लोक के रूप में आसानी से याद रखने की प्राचीन भारतीय पद्धति है। क्योंकि भारत में खगोलीय ग्रंथ पद्य रूप में लिखे जाते थे, इसलिए संखाओं को शब्दों के रूप में अभिव्यक्त किए बिना विषय का समुचित विवेचन नहीं किया जा सकता था। भारतीय ऋषि-महर्षियों ने इसका समाधान कटपयादि के रूप में निकाला। वररुचि ने सर्वप्रथम कटपयादि का अंकमाला तैयार किया जिसके द्वारा किसी शब्द को संख्या में अभिव्यक्त किया जा सकता है। निम्न लिखित श्लोक इस पद्धति को स्पष्ट करता है – <blockquote>नज्ञावचश्च शून्यानि सङ्ख्याः कटपयादयः। मिश्रे तूपान्त्यहल् संख्या न च चिन्त्यो हलस्वरः॥ (सद्रत्नमाला)<ref>शंकर वर्मन् महाराज, [https://archive.org/details/sadratnamalaofsankaravarmasarmak.v.astronomy_109_g/page/22/mode/1up?view=theater सद्रत्नमाला], सन् 2001, इंडियन नेशनल साइंस अकादमी नई दिल्ली अध्याय - 03, श्लोक - 03 (पृ० 22)। </ref></blockquote>'''अर्थ –''' न, ज तथा अ शून्य को निरूपित करते हैं। (समस्त स्वरों का मान शून्य है) शेष नौ अंक क, ट, प और य से आरंभ होने वाले व्यंजन वर्णों द्वारा निरूपित होते हैं। किसी संयुक्त व्यंजन में केवल अंतिम वाला व्यंजन ही लिया जाएगा। स्वर रहित व्यंजन छोड़ दिया जाएगा। |
| | | |
| अतः वर्णों के मान निम्नलिखित तालिका के अनुसार होंगे – | | अतः वर्णों के मान निम्नलिखित तालिका के अनुसार होंगे – |
| {| class="wikitable" | | {| class="wikitable" |
− | |1 | + | |+कटपयादि संख्या सारिणी |
− | |2
| + | !1 |
− | |3
| + | !2 |
− | |4
| + | !3 |
− | |5
| + | !4 |
− | |6
| + | !5 |
− | |7
| + | !6 |
− | |8
| + | !7 |
− | |9
| + | !8 |
− | |0
| + | !9 |
| + | !0 |
| |- | | |- |
| |क | | |क |
Line 113: |
Line 119: |
| |भ | | |भ |
| |म | | |म |
− | |<nowiki>-</nowiki> | + | | - |
− | |<nowiki>-</nowiki> | + | | - |
− | |<nowiki>-</nowiki> | + | | - |
− | |<nowiki>-</nowiki> | + | | - |
− | |<nowiki>-</nowiki> | + | | - |
| |- | | |- |
| |य | | |य |
Line 127: |
Line 133: |
| |स | | |स |
| |ह | | |ह |
− | |<nowiki>-</nowiki> | + | | - |
− | |<nowiki>-</nowiki> | + | | - |
| |} | | |} |
| शब्द के अक्षरों को उल्टे क्रम में लिया जाता है। | | शब्द के अक्षरों को उल्टे क्रम में लिया जाता है। |
Line 134: |
Line 140: |
| '''उदाहरण''' | | '''उदाहरण''' |
| | | |
− | शब्द -- कटपयादि संख्या | + | शब्द - कटपयादि संख्या |
| | | |
− | · राम – 25
| + | *राम – 25 |
| + | *कृष्ण – 15 |
| + | *महेंद्र – 285 |
| | | |
− | · कृष्ण – 15
| + | ==भूतसंख्या विधि== |
− | | + | इस पद्धति का अपर नाम शब्दांक पद्धति भी है। इस पद्धति में प्रयुक्त होने वाले कुछ प्रचलित संकेत शब्द ये हैं। (इनके पर्यायवाची भी इसी अर्थ में आते हैं)। <ref>[https://msrvvp.ac.in/model_paper_pdf_2023_2024/practice_book/class_10.pdf गणित अभ्यास पुस्तिका],सन् 2022, महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद संस्कृत शिक्षा बोर्ड, अध्याय - 1 (पृ० 6-7)। </ref> |
− | · महेंद्र – 285
| + | {| class="wikitable" |
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| + | !अंक |
| + | !संकेत - शब्द |
| + | |- |
| + | |0 |
| + | |शून्य, ख, अम्बर, गगन, नभ, वियत्, अनन्त |
| + | |- |
| + | |1 |
| + | |चन्द्र, इन्दु, विधु, सोम, अब्ज, भू, धरा, गो, रूप, तनु |
| + | |- |
| + | |2 |
| + | |यम, अश्विन, नेत्र, अक्षि, कर्ण, कर, पक्ष, द्वय, अयन, युगल |
| + | |- |
| + | |3 |
| + | |राम, गुण, त्रिगुण, भुवन, काल, अग्नि, त्रिनेत्र, लोक, पुर |
| + | |- |
| + | |4 |
| + | |वेद, श्रुति, सागर, वर्ण, आश्रम, युग, तुर्य, कृत, अय, दिश |
| + | |- |
| + | |5 |
| + | |बाण, शर, इषु, भूत, प्राण, तत्त्व, इन्द्रिय, विषय, पाण्डव |
| + | |- |
| + | |6 |
| + | |रस, अंग, ऋतु, दर्शन, अरि, तर्क, कारक, षण्मुख |
| + | |- |
| + | |7 |
| + | |नग, अग, पर्वत, ऋषि, मुनि, वार, स्वर, छन्द, द्वीप, धातु, अश्व |
| + | |- |
| + | |8 |
| + | |वसु, अहि, नाग, राज, सर्प, सिद्धि, भूति, अनुष्टुप् |
| + | |- |
| + | |9 |
| + | |अंक, नन्द, निधि, ग्रह, रन्ध्र, छिद्र, द्वार, दुर्गा |
| + | |- |
| + | |10 |
| + | |दिश्, दिशा, अंगुलि, पंक्ति, ककुभ्, रावणशिर, अवतार |
| + | |- |
| + | |11 |
| + | |रुद्र, ईश्वर, हर, ईश, भव, महादेव, अक्षौहिणी |
| + | |- |
| + | |12 |
| + | |रवि, सूर्य, अर्क, मास, राशि, व्यय, भानु, दिवाकर |
| + | |- |
| + | |13 |
| + | |विश्वेदेवाः, विश्व, काम, अतिजगती |
| + | |- |
| + | |14 |
| + | |मन, विद्या, इन्द्र, शक्र, लोक |
| + | |- |
| + | |15 |
| + | |तिथि, दिन, अहन् |
| + | |- |
| + | |16 |
| + | |नृप, भूप, भूपति, अष्टि, कला |
| + | |- |
| + | |17 |
| + | |अत्यष्टि |
| + | |- |
| + | |18 |
| + | |धृति, पुराण |
| + | |- |
| + | |19 |
| + | |अतिधृति |
| + | |- |
| + | |20 |
| + | |नख, कृति |
| + | |- |
| + | |21 |
| + | |उत्कृति, प्रकृति, स्वर्ग |
| + | |- |
| + | |22 |
| + | |आकृति |
| + | |- |
| + | |23 |
| + | |विकृति |
| + | |- |
| + | |24 |
| + | |गायत्री, जिन, अर्हत्, सिद्ध |
| + | |- |
| + | |27 |
| + | |नक्षत्र, उडुम भ |
| + | |- |
| + | |33 |
| + | |देव, अमर, सुर, त्रिदश |
| + | |- |
| + | |49 |
| + | |तान |
| + | |} |
| + | मुहूर्त चिंतामणि के इस श्लोक में सभी नक्षत्रों में उपस्थित तारों की संख्या भूतसंख्या विधि के माध्यम से बताया गया है - <blockquote>त्रित्र्यङ्गपञ्चाग्निकुवेदवह्नय:शरेषुनेत्राश्विशरेन्दुभूकृता:। वेदाग्निरुद्राश्वियमाग्निवह्नयोस्ब्धय:शतंद्विरदा:भतारका:।। (मुहूर्त चिंतामणि,नक्षत्र प्रकरण, श्लोक 58)</blockquote> |
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− | == भूतसंख्या विधि == | + | ==सारांश== |
− | इस पद्धति का अपर नाम शब्दांक पद्धति भी है। इस पद्धति में प्रयुक्त होने वाले कुछ प्रचलित संकेत शब्द ये हैं। (इनके पर्यायवाची भी इसी अर्थ में आते हैं)।
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− | == उद्धरण == | + | ==उद्धरण== |
| [[Category:Jyotisha]] | | [[Category:Jyotisha]] |
| [[Category:Hindi Articles]] | | [[Category:Hindi Articles]] |
| + | <references /> |