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सुधार जारि
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==परिचय॥ introduction==
 
==परिचय॥ introduction==
ग्रहण सिद्धान्त ज्योतिष का महत्वपूर्ण अंग है। सामान्यतया हम जानते हैं कि ग्रहण एक खगोलीय घटना है, जो आकाश में ग्रह (सूर्य-चन्द्र एवं पृथ्वी) पिण्डों के परस्पर कारण से घटित होता है। ग्रहण के बारे में गणितीय  एवं फलित सिद्धान्तों को जानने का प्रयास किया। प्राचीन ज्योतिर्विदों ने सिद्धान्त स्कन्ध में बताया है कि सामान्यतया ग्रहण(एक ग्रह बिम्ब के द्वारा दूसरे ग्रह बिम्ब का ढका जाना) अनेकों आकाश में होते रहते हैं परन्तु रवि एवं चन्द्र का ग्रहण हमारे जगत् को विशेष रूप से प्रभावित करता है, इसलिये इनके ग्रहण की आनयन विधि तथा विविध प्रकार का क्षेत्रात्मक फल या प्रभाव भी वर्णित किया गया है। ज्योतिषशास्त्र के स्कन्धत्रय में ग्रहण की परिचर्चा है। ग्रहण के सैद्धान्तिक, प्रायोगिक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण भारतीय परंपरा में हमें दृष्टि गोचर होते हैं।<ref>कृष्ण कुमार भार्गव,  [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/92902 ग्रहण परिचय एवं स्वरुप], सन् 2023, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली।</ref> ग्रहणों की चर्चा भी वेदों में है, परन्तु कहीं कोई ऐसी बात नहीं लिखी है जिससे पता चले कि वेदकालीन ऋषियों को ग्रहण के कारण का कितना पता था। परन्तु एक स्थान में यह है-<blockquote>यं वै सूर्य स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः। अत्रयस्तमन्वविंदन्नह्य१न्ये अशक्नुवन् ॥(ऋ०सं०५,४०,९)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%8B%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%83_%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%82_%E0%A5%AB.%E0%A5%AA%E0%A5%A6 ऋग्वेद संहिता], मण्डल-५, सूक्त-४०, मन्त्र-९।</ref></blockquote>जिस सूर्य को असुर के पुत्र स्वर्भानु ने अंधकार में छिपा दिया था उसे महर्षि अत्रि लोगों ने पा लिया। यह शक्ति दूसरों में तो थी नहीं। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि संभवतः अत्रि के पुत्र ग्रहण की किसी प्रकार की गणना कर सकते रहे होंगे और पहले से बता सकते रहे होंगे कि सूर्यग्रहण का अंत कब होगा।<ref>गोरख प्रसाद, [https://epustakalay.com/book/39264-bhartiiya-jyotisha-ka-itihas-by-gorakh-prasad/ भारतीय ज्योतिष का इतिहास], सन् १९५६, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ (पृ०३४)।</ref> समस्त ज्ञान-विज्ञान के मूल स्रोत वेद ही हैं। वेदों में भी ग्रहण पर पर्याप्त विचार किया गया है। इसी प्रकार ग्रहण का उल्लेख गोपथब्राह्मण, ताण्ड्यब्राह्मण आदि ग्रन्थों में तथा वेद की विभिन्न शाखाओं यथा आश्वलायनशाखामें भी ग्रहण का वर्णन प्राप्त होता है। इसी क्रम में वेद के अंगभूत ज्योतिष शास्त्र में ग्रहण के विषय में विस्तृत विचार किया गया है।  
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ग्रहण सिद्धान्त ज्योतिष का महत्वपूर्ण अंग है। सामान्यतया हम जानते हैं कि ग्रहण एक खगोलीय घटना है, जो आकाश में ग्रह (सूर्य-चन्द्र एवं पृथ्वी) पिण्डों के परस्पर कारण से घटित होता है। ग्रहण के बारे में गणितीय  एवं फलित सिद्धान्तों को जानने का प्रयास किया। प्राचीन ज्योतिर्विदों ने सिद्धान्त स्कन्ध में बताया है कि सामान्यतया ग्रहण(एक ग्रह बिम्ब के द्वारा दूसरे ग्रह बिम्ब का ढका जाना) अनेकों आकाश में होते रहते हैं परन्तु रवि एवं चन्द्र का ग्रहण हमारे जगत् को विशेष रूप से प्रभावित करता है, इसलिये इनके ग्रहण की आनयन विधि तथा विविध प्रकार का क्षेत्रात्मक फल या प्रभाव भी वर्णित किया गया है। ज्योतिषशास्त्र के स्कन्धत्रय में ग्रहण की परिचर्चा है। ग्रहण के सैद्धान्तिक, प्रायोगिक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण भारतीय परंपरा में हमें दृष्टि गोचर होते हैं।<ref name=":2">कृष्ण कुमार भार्गव,  [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/92902 ग्रहण परिचय एवं स्वरुप], सन् 2023, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली।</ref> ग्रहणों की चर्चा भी वेदों में है, परन्तु कहीं कोई ऐसी बात नहीं लिखी है जिससे पता चले कि वेदकालीन ऋषियों को ग्रहण के कारण का कितना पता था। परन्तु एक स्थान में यह है-<blockquote>यं वै सूर्य स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः। अत्रयस्तमन्वविंदन्नह्य१न्ये अशक्नुवन् ॥(ऋ०सं०५,४०,९)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%8B%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%83_%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%82_%E0%A5%AB.%E0%A5%AA%E0%A5%A6 ऋग्वेद संहिता], मण्डल-५, सूक्त-४०, मन्त्र-९।</ref></blockquote>जिस सूर्य को असुर के पुत्र स्वर्भानु ने अंधकार में छिपा दिया था उसे महर्षि अत्रि लोगों ने पा लिया। यह शक्ति दूसरों में तो थी नहीं। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि संभवतः अत्रि के पुत्र ग्रहण की किसी प्रकार की गणना कर सकते रहे होंगे और पहले से बता सकते रहे होंगे कि सूर्यग्रहण का अंत कब होगा।<ref>गोरख प्रसाद, [https://epustakalay.com/book/39264-bhartiiya-jyotisha-ka-itihas-by-gorakh-prasad/ भारतीय ज्योतिष का इतिहास], सन् १९५६, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ (पृ०३४)।</ref> समस्त ज्ञान-विज्ञान के मूल स्रोत वेद ही हैं। वेदों में भी ग्रहण पर पर्याप्त विचार किया गया है। इसी प्रकार ग्रहण का उल्लेख गोपथब्राह्मण, ताण्ड्यब्राह्मण आदि ग्रन्थों में तथा वेद की विभिन्न शाखाओं यथा आश्वलायनशाखामें भी ग्रहण का वर्णन प्राप्त होता है। इसी क्रम में वेद के अंगभूत ज्योतिष शास्त्र में ग्रहण के विषय में विस्तृत विचार किया गया है।  
    
#'''सिद्धान्त ज्योतिष-''' ग्रहण के काल का आनयन किया जाता है। आज के समय में ग्रहण जैसे विषयों के सूक्ष्म चिंतन हेतु अनेक यंत्रों की सहायता ली जाती है। जिसके लिये पर्याप्त धन एवं श्रम की भी आवश्यकता होती है, परन्तु ज्योतिषशास्त्र के सिद्धान्त स्कन्ध की गणितीय प्रक्रिया के माध्यम से अत्यन्त अल्प धन एवं श्रम में इसके विभिन्न सैद्धान्तिक विषयों का ज्ञान किया जाता है।
 
#'''सिद्धान्त ज्योतिष-''' ग्रहण के काल का आनयन किया जाता है। आज के समय में ग्रहण जैसे विषयों के सूक्ष्म चिंतन हेतु अनेक यंत्रों की सहायता ली जाती है। जिसके लिये पर्याप्त धन एवं श्रम की भी आवश्यकता होती है, परन्तु ज्योतिषशास्त्र के सिद्धान्त स्कन्ध की गणितीय प्रक्रिया के माध्यम से अत्यन्त अल्प धन एवं श्रम में इसके विभिन्न सैद्धान्तिक विषयों का ज्ञान किया जाता है।
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चन्द्रमा यदि सूर्य और पृथ्वी के मध्यवर्ती हो तो सूर्यरश्मि चन्द्र से अवरुद्ध होती है, उसी को सूर्यग्रहण कहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा के संगमकाल में अर्थात् अमावस्या को सूर्यग्रहण की संभावना होती है। यदि चन्द्रकक्षा और भूकक्षा समतल स्थित होती तो प्रति पूर्णमासी को चन्द्रग्रहण एवं प्रत्येक अमावस्या को सूर्यग्रहण होता। क्योंकि उस काल में सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सूत्र में रहने से चन्द्र द्वारा सूर्यरश्मि बाधित वा भूच्छाया द्वारा चन्द्रबिम्ब छादित होता। किन्तु चन्द्रकक्षा और पृथ्वी कक्षा समतलस्थ नहीं है। इन दो कक्षाओं के दो बिन्दुमात्र  में तिर्यग्भाव से सन्धि होती है। जिन राहु, केतु को चन्द्रपात कहते हैं, इसी पातस्थान में या उसके समीप में चन्द्रमा जब आता है। तब चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी समतलस्थ होती है। अत एव प्रत्येक पूर्णमासी वा अमावस्या को चन्द्रमा अपने पातस्थ वा निकटस्थ न होने से चन्द्र या सूर्यग्रहण नहीं होता।
 
चन्द्रमा यदि सूर्य और पृथ्वी के मध्यवर्ती हो तो सूर्यरश्मि चन्द्र से अवरुद्ध होती है, उसी को सूर्यग्रहण कहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा के संगमकाल में अर्थात् अमावस्या को सूर्यग्रहण की संभावना होती है। यदि चन्द्रकक्षा और भूकक्षा समतल स्थित होती तो प्रति पूर्णमासी को चन्द्रग्रहण एवं प्रत्येक अमावस्या को सूर्यग्रहण होता। क्योंकि उस काल में सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सूत्र में रहने से चन्द्र द्वारा सूर्यरश्मि बाधित वा भूच्छाया द्वारा चन्द्रबिम्ब छादित होता। किन्तु चन्द्रकक्षा और पृथ्वी कक्षा समतलस्थ नहीं है। इन दो कक्षाओं के दो बिन्दुमात्र  में तिर्यग्भाव से सन्धि होती है। जिन राहु, केतु को चन्द्रपात कहते हैं, इसी पातस्थान में या उसके समीप में चन्द्रमा जब आता है। तब चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी समतलस्थ होती है। अत एव प्रत्येक पूर्णमासी वा अमावस्या को चन्द्रमा अपने पातस्थ वा निकटस्थ न होने से चन्द्र या सूर्यग्रहण नहीं होता।
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==सूर्य ग्रहण॥ Solar Eclipse==
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==[[Solar Eclipse (सूर्य ग्रहण)]]==
    
किसी एक पदार्थ के द्वारा किसी अन्य पदार्थ का ग्रहण करना या आच्छादित करना ही ग्रहण है। सूर्य के बिना ब्रह्माण्ड की कल्पना भी असंभव है। इसी सूर्य के कारण हम सभी दिन रात्रि की व्यवस्था को अनुभूत करते हैं। साथ ही साथ सूर्य का लौकिक एवं आध्यात्मिक महत्व शास्त्रों में बताया गया है इसी कारण हमारे शास्त्रों में सूर्य ग्रहण के विषय में पर्याप्त विचार किया गया है। सूर्यग्रहण शराभाव अमान्त में होता है। सूर्य ग्रहण में छाद्य सूर्य तथा छादक चन्द्र होता है। सूर्य ग्रहण में विशेष रूप से लंबन एवं नति का विचार किया जाता है। सूर्यग्रहण का विचार शास्त्रों में इसलिये किया जाता है क्योंकि सूर्य का महत्व अत्यधिक है। सूर्य को संसार का आत्मा कहा गया है यथा- सूर्य आत्मा जगतः<nowiki>''</nowiki>। वस्तुतः सूर्य के प्रकाश से ही सारा संसार प्रकाशित होता है। ग्रह तथा उपग्रह भी सूर्य के प्रकाश के कारण ही प्रकाशित होते हैं। कहा जाता है कि-<blockquote>तेजसां गोलकः सूर्यः ग्रहर्क्षाण्यम्बुगोलकाः। प्रभावन्तो हि दृश्यन्ते सूर्यरश्मिप्रदीपिताः॥(सिद्धा०तत्ववि०)<ref>कमलाकर भट्ट, सिद्धान्ततत्वविवेकः, सन् १९९१, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, बिम्बाधिकार (पृ० ३१५)।</ref></blockquote>हम सभी जानते हैं कि प्रकाश की अवस्था में ही किसी वस्तु का होना या न होना हम देख सकते हैं अंधेरे में किसी का होना या न होना हम नहीं देख सकते। इसी प्रकाश का प्रमुख आधार या मूल सूर्य ही है। सूर्य के विना ब्रह्माण्ड की कल्पना भी असंभव है। इसी सूर्य के कारण हम सभी दिन रात्रि की व्यवस्था को अनुभूत करते हैं। साथ ही साथ सूर्य का लौकिक एवं आध्यात्मिक महत्व शास्त्रों में बताया गया है।
 
किसी एक पदार्थ के द्वारा किसी अन्य पदार्थ का ग्रहण करना या आच्छादित करना ही ग्रहण है। सूर्य के बिना ब्रह्माण्ड की कल्पना भी असंभव है। इसी सूर्य के कारण हम सभी दिन रात्रि की व्यवस्था को अनुभूत करते हैं। साथ ही साथ सूर्य का लौकिक एवं आध्यात्मिक महत्व शास्त्रों में बताया गया है इसी कारण हमारे शास्त्रों में सूर्य ग्रहण के विषय में पर्याप्त विचार किया गया है। सूर्यग्रहण शराभाव अमान्त में होता है। सूर्य ग्रहण में छाद्य सूर्य तथा छादक चन्द्र होता है। सूर्य ग्रहण में विशेष रूप से लंबन एवं नति का विचार किया जाता है। सूर्यग्रहण का विचार शास्त्रों में इसलिये किया जाता है क्योंकि सूर्य का महत्व अत्यधिक है। सूर्य को संसार का आत्मा कहा गया है यथा- सूर्य आत्मा जगतः<nowiki>''</nowiki>। वस्तुतः सूर्य के प्रकाश से ही सारा संसार प्रकाशित होता है। ग्रह तथा उपग्रह भी सूर्य के प्रकाश के कारण ही प्रकाशित होते हैं। कहा जाता है कि-<blockquote>तेजसां गोलकः सूर्यः ग्रहर्क्षाण्यम्बुगोलकाः। प्रभावन्तो हि दृश्यन्ते सूर्यरश्मिप्रदीपिताः॥(सिद्धा०तत्ववि०)<ref>कमलाकर भट्ट, सिद्धान्ततत्वविवेकः, सन् १९९१, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, बिम्बाधिकार (पृ० ३१५)।</ref></blockquote>हम सभी जानते हैं कि प्रकाश की अवस्था में ही किसी वस्तु का होना या न होना हम देख सकते हैं अंधेरे में किसी का होना या न होना हम नहीं देख सकते। इसी प्रकाश का प्रमुख आधार या मूल सूर्य ही है। सूर्य के विना ब्रह्माण्ड की कल्पना भी असंभव है। इसी सूर्य के कारण हम सभी दिन रात्रि की व्यवस्था को अनुभूत करते हैं। साथ ही साथ सूर्य का लौकिक एवं आध्यात्मिक महत्व शास्त्रों में बताया गया है।
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ग्रहण, ब्रह्माण्डस्थ ग्रह-नक्षत्रादि पिण्डों के परस्पर संयोग से होने वाली एक ऐसी अद्भुत एवं विस्मयकारी आकाशीय घटना है जिसके द्वारा वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक दोनों जगत् प्रभावित होते हैं। एक ओर वैज्ञानिक वर्ग जहाँ  इसके द्वारा ब्रह्माण्ड की स्थिति को जानने का प्रयास करता है तो वहीं दूसरी तरफ आध्यात्मिक एवं धार्मिक जगत् से सम्बद्ध लोग इस काल के अतीव पुण्यदायक होने से चतुर्विधपुरुषार्थों के प्रत्येक अवयवों की पुष्टि हेतु वेद-विहित कर्मानुष्ठान-स्नान, दान एवं होम आदि करते हुए परा एवं अपरा विद्या के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सुखमय एवं समृद्ध बनाते हैं।
 
ग्रहण, ब्रह्माण्डस्थ ग्रह-नक्षत्रादि पिण्डों के परस्पर संयोग से होने वाली एक ऐसी अद्भुत एवं विस्मयकारी आकाशीय घटना है जिसके द्वारा वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक दोनों जगत् प्रभावित होते हैं। एक ओर वैज्ञानिक वर्ग जहाँ  इसके द्वारा ब्रह्माण्ड की स्थिति को जानने का प्रयास करता है तो वहीं दूसरी तरफ आध्यात्मिक एवं धार्मिक जगत् से सम्बद्ध लोग इस काल के अतीव पुण्यदायक होने से चतुर्विधपुरुषार्थों के प्रत्येक अवयवों की पुष्टि हेतु वेद-विहित कर्मानुष्ठान-स्नान, दान एवं होम आदि करते हुए परा एवं अपरा विद्या के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सुखमय एवं समृद्ध बनाते हैं।
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==चन्द्र ग्रहण॥ lunar eclipse==
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==[[Lunar Eclipse (चन्द्र ग्रहण)|lunar]] [[Solar Eclipse (सूर्य ग्रहण)|E]]<nowiki/>clipse (चन्द्र ग्रहण)==
 
चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा को ही होता है जबकि चन्द्रमा और सूर्य के बीच पृथ्वी आ जाती है तो पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पडने से उसका कुछ भाग अथवा पूरा चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। इसी को चन्द्र ग्रहण कहते हैं।
 
चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा को ही होता है जबकि चन्द्रमा और सूर्य के बीच पृथ्वी आ जाती है तो पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पडने से उसका कुछ भाग अथवा पूरा चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। इसी को चन्द्र ग्रहण कहते हैं।
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===चन्द्रग्रहण के नियम===
 
===चन्द्रग्रहण के नियम===
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* चन्द्रकक्षा में स्थित पृथ्वी की छाया के केन्द्र से चन्द्रबिम्ब के केन्द्र तक जो अन्तर है, वह भूच्छाया और चन्द्रमा के व्यासार्द्ध के योग से न्यून होने से ग्रहण नहीं हो सकता है।
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*चन्द्रकक्षा में स्थित पृथ्वी की छाया के केन्द्र से चन्द्रबिम्ब के केन्द्र तक जो अन्तर है, वह भूच्छाया और चन्द्रमा के व्यासार्द्ध के योग से न्यून होने से ग्रहण नहीं हो सकता है।
* पृथ्वी से चन्द्रमा जितनी दूर, भूच्छाया उसके प्रायः साढे तीन गुणा अधिक दूर विस्तृत एवं इस छाया के जिस प्रदेश में चन्द्रमा प्रवेश करता है, वह क्षेत्र चन्द्रव्यास से प्रायः तीन गुणा अधिक होता है।
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*पृथ्वी से चन्द्रमा जितनी दूर, भूच्छाया उसके प्रायः साढे तीन गुणा अधिक दूर विस्तृत एवं इस छाया के जिस प्रदेश में चन्द्रमा प्रवेश करता है, वह क्षेत्र चन्द्रव्यास से प्रायः तीन गुणा अधिक होता है।
 
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स्पर्शकाल से मोक्ष पर्यंत काल को स्थिति कहा जाता है। स्पर्श से मध्य ग्रहण तक स्पार्शिक स्थित्यर्ध तथा मध्य ग्रहण से मोक्ष पर्यन्त तक मौक्षिक स्थित्यर्ध होता है।<ref>देवेश कुमार मिश्र, कृष्ण कुमार भार्गव, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/92901 ग्रहण-विचार], सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ०८६)।</ref>
 
स्पर्शकाल से मोक्ष पर्यंत काल को स्थिति कहा जाता है। स्पर्श से मध्य ग्रहण तक स्पार्शिक स्थित्यर्ध तथा मध्य ग्रहण से मोक्ष पर्यन्त तक मौक्षिक स्थित्यर्ध होता है।<ref>देवेश कुमार मिश्र, कृष्ण कुमार भार्गव, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/92901 ग्रहण-विचार], सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ०८६)।</ref>
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=== ग्रहण का स्वरूप===
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===ग्रहण का स्वरूप===
 
ग्रहण के चार स्वरूप होते हैं - खण्ड, पूर्ण, खग्रास तथा वलय।
 
ग्रहण के चार स्वरूप होते हैं - खण्ड, पूर्ण, खग्रास तथा वलय।
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=== ग्रहण के प्रभाव===
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===ग्रहण के प्रभाव===
 
ग्रहण के प्रभाव को हम तीन वर्गों में विभाजित करके विवेचना कर सकते हैं-  
 
ग्रहण के प्रभाव को हम तीन वर्गों में विभाजित करके विवेचना कर सकते हैं-  
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==सारांश==
 
==सारांश==
चन्द्रग्रहण पूर्णिमा तथा सूर्यग्रहण अमावस्या को होता है क्योंकि अपनी-अपनी कक्षाओं में भ्रमण करते हुए सूर्य एवं चन्द्रमा का परस्पर १८० अंश की दूरी पर होते हैं तो पूर्णिमा होती है तथा उस समय सूर्य एवं चन्द्रमा के मध्य में स्थित भूपिण्डस्थ जनों के समक्ष सूर्य किरणों के संसर्ग से प्रकाशित चन्द्रपिण्ड का उज्ज्वल भाग पूर्ण बिम्ब रूप में दिखाई पडता है परन्तु उक्त स्थिति में जब चन्द्रमा अपनी कक्षा में पात के आसन्न होता है तब पृथ्वी द्वारा सूर्य किरणों के अवरोध होने से जो भूमि की छाया बनती है वह भी स्वविरुद्ध दिशा में १८० अंश पर द्वितीय पात के आसन्न सूर्य एवं चन्द्र कक्षाओं से होकर ही आगे तक जाती है। अतः अपनी कक्षा में भ्रमण करता हुआ चन्द्रमा उस भूभा में प्रविष्ट होकर ग्रहण ग्रस्त हो जाता है। इसलिये इसके सैद्धान्तिक स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए आचार्यों ने लिखा है कि संपात सूर्य का भुजांश जब १४॰ से न्यून होता है, तब चन्द्रग्रहण की सम्भावना होती है। ग्रहण, ब्रह्माण्डस्थ ग्रह-नक्षत्रादि पिण्डों के परस्पर संयोग से होने वाली एक ऐसी अद्भुत एवं विस्मयकारी आकाशीय घटना है जिसके द्वारा वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक दोनों जगत् प्रभावित होते हैं। एक ओर वैज्ञानिक वर्ग जहाँ इसके द्वारा ब्रह्माण्ड की स्थिति को जानने का प्रयास करता है तो वहीं दूसरी तरफ आध्यात्मिक एवं धार्मिक जगत् से सम्बद्ध लोग इस काल के अतीव पुण्यदायक होने से चतुर्विधपुरुषार्थों के प्रत्येक अवयवों की पुष्टि हेतु वेद-विहित कर्मानुष्ठान-स्थान-दान एवं होम आदि करते हुए परा एवं अपरा विद्या के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सुखमय एवं समृद्ध बनाते हैं।  
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चन्द्रग्रहण पूर्णिमा तथा सूर्यग्रहण अमावस्या को होता है क्योंकि अपनी-अपनी कक्षाओं में भ्रमण करते हुए सूर्य एवं चन्द्रमा का परस्पर १८० अंश की दूरी पर होते हैं तो पूर्णिमा होती है तथा उस समय सूर्य एवं चन्द्रमा के मध्य में स्थित भूपिण्डस्थ जनों के समक्ष सूर्य किरणों के संसर्ग से प्रकाशित चन्द्रपिण्ड का उज्ज्वल भाग पूर्ण बिम्ब रूप में दिखाई पडता है परन्तु उक्त स्थिति में जब चन्द्रमा अपनी कक्षा में पात के आसन्न होता है तब पृथ्वी द्वारा सूर्य किरणों के अवरोध होने से जो भूमि की छाया बनती है वह भी स्वविरुद्ध दिशा में १८० अंश पर द्वितीय पात के आसन्न सूर्य एवं चन्द्र कक्षाओं से होकर ही आगे तक जाती है। अतः अपनी कक्षा में भ्रमण करता हुआ चन्द्रमा उस भूभा में प्रविष्ट होकर ग्रहण ग्रस्त हो जाता है। इसलिये इसके सैद्धान्तिक स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए आचार्यों ने लिखा है कि संपात सूर्य का भुजांश जब १४॰ से न्यून होता है, तब चन्द्रग्रहण की सम्भावना होती है। ग्रहण, ब्रह्माण्डस्थ ग्रह-नक्षत्रादि पिण्डों के परस्पर संयोग से होने वाली एक ऐसी अद्भुत एवं विस्मयकारी आकाशीय घटना है जिसके द्वारा वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक दोनों जगत् प्रभावित होते हैं। एक ओर वैज्ञानिक वर्ग जहाँ इसके द्वारा ब्रह्माण्ड की स्थिति को जानने का प्रयास करता है तो वहीं दूसरी तरफ आध्यात्मिक एवं धार्मिक जगत् से सम्बद्ध लोग इस काल के अतीव पुण्यदायक होने से चतुर्विधपुरुषार्थों के प्रत्येक अवयवों की पुष्टि हेतु वेद-विहित कर्मानुष्ठान-स्थान-दान एवं होम आदि करते हुए परा एवं अपरा विद्या के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सुखमय एवं समृद्ध बनाते हैं।<ref name=":2" />
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==पारिभाषिक शब्दावली==
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== पारिभाषिक शब्दावली==
 
'''भूभा-''' भू का अर्थ पृथ्वी और भा का अर्थ छाया होता है। इस प्रकार भूभा का अर्थ भूमि की छाया हुआ।
 
'''भूभा-''' भू का अर्थ पृथ्वी और भा का अर्थ छाया होता है। इस प्रकार भूभा का अर्थ भूमि की छाया हुआ।
  
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