Eclipse (ग्रहण)

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ज्योतिष शास्त्र के तीन स्कन्ध हैं- सिद्धान्त, संहिता और होरा। इन तीनों स्कंधों में ग्रहण के विषय में पर्याप्त विचार किया गया है, ग्रहण आकाशीय अद्भुत चमत्कृतिका अनोखा दृश्य है। ज्योतिषशास्त्र के तीनों स्कन्ध लोककल्याणपरक हैं। सौर मण्डल में ग्रहों-उपग्रहों के कारण कई खगोलीय घटनाएँ घटती रहती हैं। ये सारी घटनाएं मानव को आश्चर्य चकित, तथा भय को भी उत्पादित करती हैं। इन्हीं खगोलीय घटनाओं में ग्रहण नामक घटना भी घटित होती रहती है। उससे अश्रुतपूर्व, अद्भुत ज्योतिष्क-ज्ञान और ग्रह-उपग्रहोंकी गतिविधि एवं स्वरूपका परिस्फुट परिचय प्राप्त हुआ है। आकाशीय यह घटना भारतीय मनीषियोंको अत्यन्त प्राचीनकालसे अभिज्ञात रही है और इस पर धार्मिक तथा वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक एवं ज्योतिषीय ग्रन्थों में प्राप्त होता आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण ज्ञानके उपज्ञ(प्रथम ज्ञाता) आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाशकालसे ग्रहणके ऊपर अध्ययन, मनन और स्थापन होते चले आये हैं। गणितके बलपर ग्रहणका पूर्ण पर्यवेक्षण प्रायः पर्यवसित हो चुका है। पृथ्वी पर मुख्यतः दो प्रकार के ग्रहण होते हैं- पहला सूर्य ग्रहण और दूसरा चन्द्र ग्रहण। जिसका सैद्धान्तिक एवं फलात्मक विमर्श ज्योतिष शास्त्र में विशिष्ट रूप से किया गया है।

परिचय॥ introduction

ग्रहण सिद्धान्त ज्योतिष का महत्वपूर्ण अंग है। सामान्यतया हम जानते हैं कि ग्रहण एक खगोलीय घटना है, जो आकाश में ग्रह (सूर्य-चन्द्र एवं पृथ्वी) पिण्डों के परस्पर कारण से घटित होता है। ग्रहण के बारे में गणितीय एवं फलित सिद्धान्तों को जानने का प्रयास किया। प्राचीन ज्योतिर्विदों ने सिद्धान्त स्कन्ध में बताया है कि सामान्यतया ग्रहण(एक ग्रह बिम्ब के द्वारा दूसरे ग्रह बिम्ब का ढका जाना) अनेकों आकाश में होते रहते हैं परन्तु रवि एवं चन्द्र का ग्रहण हमारे जगत् को विशेष रूप से प्रभावित करता है, इसलिये इनके ग्रहण की आनयन विधि तथा विविध प्रकार का क्षेत्रात्मक फल या प्रभाव भी वर्णित किया गया है। ज्योतिषशास्त्र के स्कन्धत्रय में ग्रहण की परिचर्चा है। ग्रहण के सैद्धान्तिक, प्रायोगिक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण भारतीय परंपरा में हमें दृष्टि गोचर होते हैं।[1] ग्रहणों की चर्चा भी वेदों में है, परन्तु कहीं कोई ऐसी बात नहीं लिखी है जिससे पता चले कि वेदकालीन ऋषियों को ग्रहण के कारण का कितना पता था। परन्तु एक स्थान में यह है-

यं वै सूर्य स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः। अत्रयस्तमन्वविंदन्नह्य१न्ये अशक्नुवन् ॥(ऋ०सं०५,४०,९)[2]

जिस सूर्य को असुर के पुत्र स्वर्भानु ने अंधकार में छिपा दिया था उसे महर्षि अत्रि लोगों ने पा लिया। यह शक्ति दूसरों में तो थी नहीं। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि संभवतः अत्रि के पुत्र ग्रहण की किसी प्रकार की गणना कर सकते रहे होंगे और पहले से बता सकते रहे होंगे कि सूर्यग्रहण का अंत कब होगा।[3] समस्त ज्ञान-विज्ञान के मूल स्रोत वेद ही हैं। वेदों में भी ग्रहण पर पर्याप्त विचार किया गया है। इसी प्रकार ग्रहण का उल्लेख गोपथब्राह्मण, ताण्ड्यब्राह्मण आदि ग्रन्थों में तथा वेद की विभिन्न शाखाओं यथा आश्वलायनशाखामें भी ग्रहण का वर्णन प्राप्त होता है। इसी क्रम में वेद के अंगभूत ज्योतिष शास्त्र में ग्रहण के विषय में विस्तृत विचार किया गया है।

  1. सिद्धान्त ज्योतिष- ग्रहण के काल का आनयन किया जाता है। आज के समय में ग्रहण जैसे विषयों के सूक्ष्म चिंतन हेतु अनेक यंत्रों की सहायता ली जाती है। जिसके लिये पर्याप्त धन एवं श्रम की भी आवश्यकता होती है, परन्तु ज्योतिषशास्त्र के सिद्धान्त स्कन्ध की गणितीय प्रक्रिया के माध्यम से अत्यन्त अल्प धन एवं श्रम में इसके विभिन्न सैद्धान्तिक विषयों का ज्ञान किया जाता है।
  2. संहिता स्कन्ध- सामूहिक एवं समष्टिगत ग्रहण के प्रभाव की गणना संहिता स्कन्ध के अन्तर्गत आने वाले ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है।
  3. होरा स्कन्ध- व्यक्ति पर ग्रहण के प्रभाव को होरास्कन्धीय ग्रन्थों में बताया गया है।

इस प्रकार से ज्योतिष शास्त्र के तीनों स्कन्धों में ग्रहण संबंधि जानकारी प्राप्त होती है। होरा व संहिता का विषय पूर्णतया सिद्धान्त स्कन्ध पर निर्भर है, क्योंकि गणित प्रक्रिया द्वारा ग्रहों की भिन्न-भिन्न गति-स्थिति आदि का विचार सिद्धान्त स्कन्ध से ही होता है।

परिभाषा॥ Definition

ग्रहण- गृह्णाति इति ग्रहणम् अथवा ग्राह्यतेऽनेनेति ग्रहणम्।[4] ग्रहण एक आकाशीय घटना है, जो दो बिम्बों के कारण निश्चित कालावधि में घटित होता है। मुख्यतया दो ग्रहण होते हैं- चन्द्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण।

चन्द्रग्रहण- चन्द्रस्य ग्रहणं चन्द्रग्रहणं भवति। यह ग्रहण पूर्णिमा तिथि को शराभाव में होता है। जब सपात सूर्य का भुजांश १४॰ या उससे न्यून होता है। इसमें छाद्य चन्द्रमा एवं छादक भूभा होता है।

सूर्यग्रहण- सूर्यस्य ग्रहणं सूर्यग्रहणम्। यह ग्रहण अमावस्या को शराभाव में होता है। जब सपात सूर्य का भुजांश ७ अंश या उससे न्यून होता है। इसमें छाद्य सूर्य तथा छादक चन्द्रमा होता है।

अमावस्या- कृष्णपक्ष की पन्द्रहवीं तिथि को अमावस्या कहते हैं। इसी तिथि को शराभाव में सूर्यग्रहण संभव होता है।

पूर्णिमा- शुक्लपक्ष की पन्द्रहवीं तिथि को पूर्णिमा संज्ञक कहा गया है। चन्द्रग्रहण पूर्णिमा को ही शराभाव में होता है।

ग्रहण विचार॥ eclipse consideration

किसी खगोलीय पिण्ड का पूर्ण अथवा आंशिक रूप से किसी अन्य खगोलीय पिण्ड के द्वारा ढका जाना ग्रहण कहलाता है। जब कोई खगोलीय पिण्ड किसी अन्य पिण्ड के पीछे आ जाता है या किसी खगोलीय पिण्ड का प्रकाश अन्य पिण्ड के द्वारा बाधित होता है, तब ग्रहण होता है। भूसापेक्ष दृश्य अनुरोध के द्वारा मुख्यतया ग्रहण के दो भेद हैं- सूर्य ग्रहण एवं दूसरा चन्द्रग्रहण। चन्द्रमा अमावस्या को सूर्य और पृथ्वी के मध्यस्थान में प्रवेश करता है और पृथ्वी पूर्णिमा को चन्द्रमा और सूर्य के मध्यवर्तिनी होती है। पृथ्वी स्वयं पर प्रकाश एवं ईषत् दीर्घ गोलाकार है, इससे इसका जो भाग सूर्यरश्मि से प्रकाशित होता है, उसके विपरीत भाग में सूच्याकार (सूची सी आकृति) इस भूच्छाया में जब चन्द्रमा प्रवेश करत है, तब वह क्रमशः अन्धकार से आच्छादित होने लगता है। इसी को चन्द्रग्रहण कहते हैं। ऐसी घटना केवल पूर्णिमा को ही होती है इस कारण पूर्णिमा को ही चन्द्रग्रहण हो सकता है।

चन्द्रमा यदि सूर्य और पृथ्वी के मध्यवर्ती हो तो सूर्यरश्मि चन्द्र से अवरुद्ध होती है, उसी को सूर्यग्रहण कहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा के संगमकाल में अर्थात् अमावस्या को सूर्यग्रहण की संभावना होती है। यदि चन्द्रकक्षा और भूकक्षा समतल स्थित होती तो प्रति पूर्णमासी को चन्द्रग्रहण एवं प्रत्येक अमावस्या को सूर्यग्रहण होता। क्योंकि उस काल में सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सूत्र में रहने से चन्द्र द्वारा सूर्यरश्मि बाधित वा भूच्छाया द्वारा चन्द्रबिम्ब छादित होता। किन्तु चन्द्रकक्षा और पृथ्वी कक्षा समतलस्थ नहीं है। इन दो कक्षाओं के दो बिन्दुमात्र में तिर्यग्भाव से सन्धि होती है। जिन राहु, केतु को चन्द्रपात कहते हैं, इसी पातस्थान में या उसके समीप में चन्द्रमा जब आता है। तब चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी समतलस्थ होती है। अत एव प्रत्येक पूर्णमासी वा अमावस्या को चन्द्रमा अपने पातस्थ वा निकटस्थ न होने से चन्द्र या सूर्यग्रहण नहीं होता।

Solar Eclipse (सूर्य ग्रहण)

किसी एक पदार्थ के द्वारा किसी अन्य पदार्थ का ग्रहण करना या आच्छादित करना ही ग्रहण है। सूर्य के बिना ब्रह्माण्ड की कल्पना भी असंभव है। इसी सूर्य के कारण हम सभी दिन रात्रि की व्यवस्था को अनुभूत करते हैं। साथ ही साथ सूर्य का लौकिक एवं आध्यात्मिक महत्व शास्त्रों में बताया गया है इसी कारण हमारे शास्त्रों में सूर्य ग्रहण के विषय में पर्याप्त विचार किया गया है। सूर्यग्रहण शराभाव अमान्त में होता है। सूर्य ग्रहण में छाद्य सूर्य तथा छादक चन्द्र होता है। सूर्य ग्रहण में विशेष रूप से लंबन एवं नति का विचार किया जाता है। सूर्यग्रहण का विचार शास्त्रों में इसलिये किया जाता है क्योंकि सूर्य का महत्व अत्यधिक है। सूर्य को संसार का आत्मा कहा गया है यथा- सूर्य आत्मा जगतः''। वस्तुतः सूर्य के प्रकाश से ही सारा संसार प्रकाशित होता है। ग्रह तथा उपग्रह भी सूर्य के प्रकाश के कारण ही प्रकाशित होते हैं। कहा जाता है कि-

तेजसां गोलकः सूर्यः ग्रहर्क्षाण्यम्बुगोलकाः। प्रभावन्तो हि दृश्यन्ते सूर्यरश्मिप्रदीपिताः॥(सिद्धा०तत्ववि०)[5]

हम सभी जानते हैं कि प्रकाश की अवस्था में ही किसी वस्तु का होना या न होना हम देख सकते हैं अंधेरे में किसी का होना या न होना हम नहीं देख सकते। इसी प्रकाश का प्रमुख आधार या मूल सूर्य ही है। सूर्य के विना ब्रह्माण्ड की कल्पना भी असंभव है। इसी सूर्य के कारण हम सभी दिन रात्रि की व्यवस्था को अनुभूत करते हैं। साथ ही साथ सूर्य का लौकिक एवं आध्यात्मिक महत्व शास्त्रों में बताया गया है।

सूर्य ग्रहण के प्रमुख भेद

सूर्य ग्रहण के मुख्यतः तीन भेद होते हैं- १- पूर्ण ग्रहण, २- खण्ड ग्रहण तथा ३- वलयाकार ग्रहण।

  1. पूर्ण सूर्य ग्रहण- पूर्ण सूर्य ग्रहण उस समय होता है जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी पास रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है और चन्द्रमा पूरी तरह से पृथ्वी को अपने छाया क्षेत्र में ले लेता है। इसके फलस्वरूप सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक पहुँच नहीं पाता है और पृथ्वी पर अंधकार जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तब पृथ्वी पर पूरा सूर्य दिखाई नहीं देता। इस प्रकार बनने वाला ग्रहण पूर्ण सूर्य ग्रहण कहलाता है। किन्तु सामान्यतः सूर्य का बिम्ब बडा होने के कारण तथा चंद्रमा का बिम्ब सूर्य की अपेक्षा छोटा होने के कारण यह स्थिति तब ही बन सकती है जब सूर्य अपने उच्च पर हो तथा चंद्रमा अपने नीच पर हो और उसी समय सूर्य ग्रहण हो क्योंकि सूर्य उच्च पर होने पर दृष्टि के कारण वह हमें छोटा तथा चन्द्रमा नीच में होने के कारण बडा दिखाई देता है इसी अवस्था में पूर्ण सूर्य ग्रहण हो सकता है। पूर्ण सूर्य ग्रहण बहुत ही कम होता है।
  2. आंशिक सूर्य ग्रहण- आंशिक सूर्यग्रहण में जब चन्द्रमा सूर्य व पृथ्वी के बीच में इस प्रकार आए कि सूर्य का कुछ ही भाग पृथ्वी से दिखाई नहीं देता है अर्थात् चन्द्रमा, सूर्य के केवल कुछ भाग को ही अपनी छाया में ले पाता है। इससे सूर्य का कुछ भाग ग्रहण ग्रास में तथा कुछ भाग ग्रहण से अप्रभावित रहता है तो पृथ्वी के उस भाग विशेष में लगा ग्रहण आंशिक सूर्य ग्रहण कहलाता है। सभी पूर्ण ग्रहण या वलयाकार ग्रहण का आरंभ खंड ग्रहण के रूप में ही होता है।
  3. वलयाकार सूर्य ग्रहण- वलयाकार सूर्य ग्रहण में जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफी दूर रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है अर्थात् चन्द्र सूर्य को इस प्रकार ढकता है, कि सूर्य का केवल मध्य भाग ही छाया क्षेत्र में आता है और पृथ्वी से देखने पर चन्द्रमा द्वारा सूर्य पूरी तरह ढका दिखाई नहीं देता बल्कि सूर्य के बाहर का क्षेत्र प्रकाशित होने के कारण कंगन या वलय के रूप में चमकता दिखाई देता है। कंगन आकार में बने सूर्यग्रहण को ही वलयाकार सूर्य ग्रहण कहा जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण में सूर्य ग्रहण

सूर्यग्रहण संभवासंभव का आधुनिक स्वरूप- सामान्यतः एक वर्ष में अधिकतम ७ ग्रहण हो सकते हैं, जिसमें अधिकतम ३ चन्द्र ग्रहण हो सकते हैं एवं चार सूर्य ग्रहण। कभी-कभी ५ सूर्य ग्रहण भी एक वर्ष में हो जाते हैं वैसी स्थिति में उस वर्ष में २ चन्द्र ग्रहण होंगे। इस तथ्य के अनुसार सूर्य ग्रहण हेतु भुजांश का आधुनिक मान स्वीकार किया जाता है। जिससे ही यह मान संभव है अन्यथा नहीं।

ग्रहण, ब्रह्माण्डस्थ ग्रह-नक्षत्रादि पिण्डों के परस्पर संयोग से होने वाली एक ऐसी अद्भुत एवं विस्मयकारी आकाशीय घटना है जिसके द्वारा वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक दोनों जगत् प्रभावित होते हैं। एक ओर वैज्ञानिक वर्ग जहाँ इसके द्वारा ब्रह्माण्ड की स्थिति को जानने का प्रयास करता है तो वहीं दूसरी तरफ आध्यात्मिक एवं धार्मिक जगत् से सम्बद्ध लोग इस काल के अतीव पुण्यदायक होने से चतुर्विधपुरुषार्थों के प्रत्येक अवयवों की पुष्टि हेतु वेद-विहित कर्मानुष्ठान-स्नान, दान एवं होम आदि करते हुए परा एवं अपरा विद्या के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सुखमय एवं समृद्ध बनाते हैं।

lunar Eclipse (चन्द्र ग्रहण)

चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा को ही होता है जबकि चन्द्रमा और सूर्य के बीच पृथ्वी आ जाती है तो पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पडने से उसका कुछ भाग अथवा पूरा चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। इसी को चन्द्र ग्रहण कहते हैं।

पूर्ण ग्रहण में भी चन्द्रमा पर बिल्कुल अँधेरा नहीं हो जाता। इसका कारण भूमि का वायुमण्डल सूर्य के प्रकाश को इस प्रकार झुका देता है कि ग्रसित होने पर भी चन्द्रमा हल्के लाल रंग का दिखाई देता है।

खण्ड ग्रहण के समय पृथ्वी की छाया जो चन्द्रमा पर पडती है वह गोलाई लिये होती है जिससे यह ज्ञात होता है कि पृथ्वी गोल है। पृथ्वी की जो छाया चन्द्रमा पर पडती है उसके दो भाग होते हैं। एक तो प्रच्छाया (Umbra) तथा दूसरी को उपच्छाया (Penumbra) कहते हैं। जब चन्द्रमा प्रच्छाया में प्रवेश करता है तो पूर्ण ग्रहण होता है किन्तु उपच्छाया में प्रवेश करने पर खण्ड ग्रहण ही दिखाई देता है।[6]

वैज्ञानिक दृष्टिकोण में चन्द्रग्रहण

चन्द्रग्रहण के नियम

  • चन्द्रकक्षा में स्थित पृथ्वी की छाया के केन्द्र से चन्द्रबिम्ब के केन्द्र तक जो अन्तर है, वह भूच्छाया और चन्द्रमा के व्यासार्द्ध के योग से न्यून होने से ग्रहण नहीं हो सकता है।
  • पृथ्वी से चन्द्रमा जितनी दूर, भूच्छाया उसके प्रायः साढे तीन गुणा अधिक दूर विस्तृत एवं इस छाया के जिस प्रदेश में चन्द्रमा प्रवेश करता है, वह क्षेत्र चन्द्रव्यास से प्रायः तीन गुणा अधिक होता है।

ग्रहण की अवस्थाएँं॥ stages of eclipse

ग्रहण की विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं। जैसे जब पूर्ण ग्रहण होता है तब ग्रहण की पाँच अवस्थाएँ होती हैं जैसे-

  1. स्पर्श
  2. सम्मीलन
  3. मध्य
  4. उन्मीलन
  5. मोक्ष

स्फुटतिथ्यावसाने तु मध्यग्रहणमादिशेत्। स्थित्यर्धनाडिकाहीने स्पर्शो मोक्षस्तु संयुते॥ तद्वदेव विमर्दार्धनाडिका हीनसंयुते। निमीलनोन्मीलनाख्ये भवेतां सकलग्रहे॥(सूर्य सि० चंद्रग्र० १६/१७)[7]

इसी प्रकार सम्मीलन काल से उन्मीलन काल पर्यन्त विमर्द काल होता है तथा सम्मीलन से मध्यग्रहण तथा मध्यग्रहण से उन्मीलन पर्यंत विमर्दार्द्ध होता है। पर्वान्तकाल में मध्यग्रहण होता है तथा मध्यग्रहण स्थित्यर्धकालपूर्व स्पर्श काल तथा मध्य ग्रहण से स्थित्यर्ध काल के अनंतर मोक्ष अवस्था होती है। तथा मध्य ग्रहण से विमर्दार्द्ध पूर्व ग्रहण की सम्मीलन अवस्था तथा मध्यग्रहण से विमर्दार्द्ध के बाद उन्मीलन अवस्था होती है। खंड ग्रहण की स्थिति में ग्रहण की तीन अवस्थाएँ होती हैं-

  1. स्पर्श
  2. मध्यग्रहण
  3. मोक्ष

स्पर्शकाल से मोक्ष पर्यंत काल को स्थिति कहा जाता है। स्पर्श से मध्य ग्रहण तक स्पार्शिक स्थित्यर्ध तथा मध्य ग्रहण से मोक्ष पर्यन्त तक मौक्षिक स्थित्यर्ध होता है।[8]

ग्रहण का स्वरूप

ग्रहण के चार स्वरूप होते हैं - खण्ड, पूर्ण, खग्रास तथा वलय।

ग्रहण के प्रभाव

ग्रहण के प्रभाव को हम तीन वर्गों में विभाजित करके विवेचना कर सकते हैं-

  1. व्यक्तिगत प्रभाव- ग्रहण के प्रभाव को प्रायः सभी शास्त्रकारों ने अशुभ माना है। यदि कोई भी व्यक्ति ग्रहण को देखता है तो उसके लिये शास्त्रकारों ने हितकर नहीं बताया है। प्रत्येक मनुष्य पर ग्रहण के दुष्प्रभाव को प्राचीन आचार्यों ने अपनी-अपनी अन्वेषण पद्धति से पृथक् - पृथक् परिगणित किया है। आचार्य हारीत ने बताया है कि जिस भी व्यक्ति के जन्मनक्षत्र में चन्द्र या सूर्य का ग्रहण होता है तो उसे हानि, शत्रुता तथा तिरस्कार प्राप्त होता है।
  2. सामूहिक प्रभाव- विशेषरूप से ग्रहण के सामूहिक का ही वर्णन प्राचीन ग्रन्थों एवं पुराणों में प्राप्त होता है। महाभारत में पाया जाता है कि- चन्द्रसूर्यावुभौ ग्रस्तौ एक मासीं त्रयोदशीम्। अपर्वणि ग्रहावेतावुत्पातं जनयिष्यतः॥ अर्थात् ऐसे ग्रहण काल में उत्पात अवश्य होंगे। इस प्रकार के ग्रहण का आख्यान गोपथ ब्राह्मण २/३/१९ तथा शतपथ ब्राह्मण ५/३/२/२ एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण ४/२ में प्राप्त होता है। बृहत्संहिता में वराहमिहिराचार्य जी ने बताया है कि यदि एक मास में रवि एवं चन्द्र दोनों का ग्रहण हो तो राजा के सेना में विद्रोह तथा कोश एवं शस्त्र नाश होता है। इस प्रकार वशिष्ठ संहिता में बताया गया है कि यदि उत्तरायण में सूर्य या चन्द्र ग्रहण हो तो विप्र, सज्जन एवं राजा की हानि होती हैं। वसिष्ठ संहिता के ही ६ पर्वों के आधार पर पृथक् - पृथक् अशुभ फलों को बताया गया है। ग्रहण के समय में उत्पात, उल्कापात, दिग्दाह, भूकम्प, धूलिवर्षण आदि दिखाई दे तो पुनः ग्रहण तथा अशुभदायक माना गया है।
  3. स्थानीय प्रभाव- ज्योतिषशास्त्र एक वैज्ञानिक शास्त्र है। प्रत्येक परिस्थितियों का विश्लेषण करना इसका पुनीत एवं मंगल कार्य है। काल की गणना तथा कालजन्य विकृतियों का खण्ड-खण्ड कर उसका विश्लेषण तथा दोष शमन उपाय प्रत्येक ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में अवश्य प्राप्त होता ही है। भचक्र में गतिमान रवि-चन्द्र ग्रहण निश्चित रूप से अमावस्या तथा पूर्णिमा को ही होगा परन्तु, मास का निश्चय नहीं है कि यह ग्रहण अमुक मास में ही पतित होगा।

धार्मिक विवेचन॥ religious discourse

ऋषि-मुनियों ने सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन के लिए मना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में कीटाणु बहुलता से फैल जाते हैं। खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं। इसलिये ऋषियों ने पात्रों में कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जायें और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जायें। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान भी इसीलिये बनाया गया ताकि स्नान से शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढे, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जायें और धुल कर बह जायें।

ग्रहण के दौरान भोजन न करने के विषय में "जीव विज्ञान" विषय के प्रोफेसर टारिंस्टन ने पर्याप्त अनुसंधान करके सिद्ध किया है कि सूर्य-चंद्र ग्रहण के समय मनुष्य के पेट की पाचन-शक्ति कमजोर हो जाती है, जिसके कारण इस समय किया गया भोजन अपच, अजीर्ण आदि शिकायतें पैदा कर शारीरिक या मानसिक हानि पहुँचा सकता है। भारतीय धर्म विज्ञानवेत्ताओं का मानना है कि सूर्य-चंद्र ग्रहण लगने से दस घंटे पूर्व से ही इसका कुप्रभाव शुरू हो जाता है। अंतरिक्षीय प्रदूषण के समय को सूतक काल कहा गया है। इसलिए सूतक काल और ग्रहण के समय में भोजन तथा पेय पदार्थों के सेवन की मनाही की गई है। चूंकि ग्रहण से हमारी जीवन शक्ति का ह्रास होता है और तुलसी दल में विद्युत शक्ति व प्राण शक्ति सबसे अधिक होती है, इसलिये सौर मण्डलीय ग्रहण काल में ग्रहण प्रदूषण को समाप्त करने के लिए भोजन तथा पेय सामग्री में तुलसी के कुछ पत्ते डाल दिए जाते हैं जिसके प्रभाव से न केवल भोज्य पदार्थ बल्कि अन्न, आटा आदि भी प्रदूषण से मुक्त बने रह सकते हैं।

पुराणों में ग्रहण का स्वरूप॥ Nature of eclipse in Puranas

श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध के नवम अध्याय में ग्रहण का वर्णन प्राप्त होता है कि-

देवलिंगप्रतिच्छन्नः स्वर्भानुर्देवसंसदि। प्रविष्टः सोममपिबच्चन्द्रार्काभ्यां च सूचितः॥

चक्रेण क्षुरधारेण जहार पिबतः शिरः। हरितस्य कबन्धस्तु सुधयाप्लावितोऽपतत् ॥

शिरस्त्वमरतां नीतमजोग्रहमचीक्लपत्। यस्तु पर्वणि चन्द्रार्काबभिधावति वैरधीः॥(श्रीमद्भा०-८/९/२४-२६)

अर्थात जब भगवान विष्णु ने मोहिनी स्वरूप धारण कर देवताओं को अमृतपान करा रहे थे तब राहू देवता का स्वरूप धारण कर देवताओं की पंक्ति में बैठ गय। यह जानकारी चंद्र और सूर्य ने सभी को दे दी जिससे भगवान विष्णु ने राहू के शिर को सुदर्शन चक्र से अलग कर दिया किन्तु अमृत पान का सेवन करने से उसकी मृत्यु नहीं हुई। एवं शिर का नाम राहु तथा शरीर का नाम केतू के रूप में हुआ। इसी से ये दोनों ग्रह हुये ऐसी मान्यता है। तथा चंद्र और सूर्य से शत्रुता होने के कारण पूर्णिमा में चंद्रमा का तथा अमावस्या में ये सूर्य को ग्रसते हैं। पुराणों में यह कथा अत्यंत प्रसिद्ध है। इसी पौराणिक एवं सैद्धान्तिक स्वरूप को सामंजस्य कराते हुये आचार्य भाकर ग्रहण के कारण को बताते हैं-

राहुकुभाः मण्डलगः शशांकं शशांकगश्छादयतीनबिम्बम्। तमोमयः शम्भुवरप्रदानात् सर्वागमानामविरुद्धमेतत् ॥(सिद्धान्तशि० गो० श्लो०१०)[9]

वस्तुतः राहु-केतु एक संज्ञा है आधुनिक विद्वान् भी शिर को Dragon;'s head एवं शरीर को Dragon;'s Tail कहते हैं। सैद्धांतिक रूप से ग्रहण की स्पष्टीकरण की प्रक्रिया में चंद्रविमण्डल एवं क्रान्तिमण्डल के संपात स्थान को चन्द्रपात कहा जाता है। इसी चन्द्रपात के पूर्वी संपात को राहू तथा पश्चिमी संपात को केतू कहा जाता है। इन्हीं संपात के आसन्न जब अमावस्या या पूर्णिमा होती है, तब ही ग्रहण होता है।

रामायण में ग्रहण का स्वरूप

वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड में पूर्ण सूर्यग्रहण का स्पष्ट विवरण दिया गया है। यह विवरण तेईसवें सर्ग के प्रथम पंद्रह(११ श्लोक) श्लोकों में है। इसमें राहु को ग्रहण का कारण बताया गया है। भगवान राम और खर के बीच युद्ध का जो विवरण है, उसी में इसका उल्लेख है।

महाभारत में ग्रहण का स्वरूप

संस्कृत साहित्य में महाभारत का विशेष महत्व है। इतिहास ग्रन्थों में महाभारत का विशिष्ट स्थान है। महभारत में किसी विषय का उल्लेख यदि प्राप्त होता है तो वह उसकी प्रामाणिकता एवं ऐतिहासिकता को और अधिक पुष्ट करता है। प्रस्तुत ग्रहण का उल्लेख भी हमें महाभारत में प्राप्त होता है। महाभारत काल के लोगों को ज्ञान था कि ग्रहण अमावस्या या पूर्णिमा में ही होता है। वहाँ अमावस्या या पूर्णिमा को पर्व शब्द से व्यवहार किया गया है।

वर्ष की लंबाई के संबंध में भी महाभारत के एक कथन से हमें सहायता मिलती है। ज्ञात होगा कि जुआ से हारने पर पांडवों को १२ वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास स्वीकार करना पडा था, परंतु अज्ञातवास के लगभग अंत में अपने आश्रयदाता पर विपत्ति पडने पर अर्जुन को दुर्योधन आदिके विरुद्ध युद्ध करना पडा। जब दुर्योधन आदि ने अर्जुन को पहचान लिया तब उन्हैं यह जानने की आवश्यकता पडी कि वनवास के आरंभ से उस दिन तक पूरे १३ वर्ष बीत गये थे या नहीं।आपस में मतभेद होने के कारण यह प्रश्न भीष्म के सम्मुख रखा गया। तब उन्होंने दुर्योधन से कहा-

तेषां कालातिरेकण ज्योतिषां च व्यतिक्रमात् । पंचमे पंचमे वर्षे द्वौ मासावुपजायतः॥३॥एवमभ्यधिका मासाः पंच च द्वादश क्षपाः। त्रयोदशानां वर्षाणामिति मे वर्तते मतिः॥४॥(विराट पर्व, अ० ५२)

पांडवों और कौरवों के बीच लडाई १८ दिन चली थी। इसी सन्दर्भ में महाभारत में कहा गया है कि युद्ध के समय में पूर्णिमा और संभावित पूर्ण सूर्यग्रहण (इसे कुरुक्षेत्र के मैदान से देखा जाना था) के बीच सिर्फ १३ दिनों का अन्तर था। महाभारत काल में एक ही पक्ष में दो ग्रहण लगने का वर्णन आया है। साथ ही साथ १२ दिन के पक्ष के साथ ही १४, १५ और १६ दिनों का पक्षों का उल्लेख महाभारत में आया है। यथा-

चतुर्दशी पंचदशी भूतपूर्वा तु षोडशीं। इमां तु नाभिजाने ह्यमावस्यां त्रयोदशीम् ॥चन्द्रसूर्यावुभौ ग्रस्तौ एकमासी त्रयोदशीम्। अपर्वाणि ग्रहावेतावुत्पातं जनयिष्यतः॥(म०भा०६/३/३२-३३)[10]

आधुनिक विज्ञान द्वारा विश्लेषण

आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से जब सूर्य व पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो चन्द्रमा के पीछे सूर्य का बिम्ब कुछ समय के लिए ढक जाता है, उसी घटना को सूर्यग्रहण कहा जाता है। पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है और चन्द्रमा पृथ्वी की। कभी-कभी चन्द्रमा, सूर्य और धरती के बीच आ जाता है। फिर वह सूर्य की आंशिक या समस्त प्रकाश को रोक लेता है जिससे धरती पर छाया फैल जाता है। इस घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। यह घटना प्रत्येक अमावस्या को ही होती है। सामान्यतया चन्द्रमा, सूर्य के सिर्फ कुछ हिस्से को ही ढकता है। यह स्थिति खण्ड -ग्रहण कहलाती है। कभी-कभी ही ऐसा होता है कि चन्द्रमा, सूर्य को पूरी तरह ढँक लेता है। इसे पूर्ण-ग्रहण कहते हैं। पूर्ण-ग्रहण धरती के बहुत कम क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। ज्यादा से ज्यादा दो सौ पचास (२५०) किलोमीटर के सम्पर्क में। इस क्षेत्र के बाहर केवल खंड-ग्रहण दिखाई देता है। पूर्ण-ग्रहण के समय चन्द्रमा को सूरज के सामने से गुजरने में दो घण्टे लगते हैं। चन्द्रमा सूरज को पूरी तरह से, ज्यादा से ज्यादा, सात मिनट तक ढँकता है। इन कुछ क्षणों के लिये आसमान में अंधेरा हो जाता है, या यूँ कहें कि दिन में रात हो जाती है। चन्द्रमा द्वारा सूर्य बिम्ब के पूरे या कम भाग के ढके जाने की वजह से सूर्य ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं जिन्हैं पूर्ण सूर्य ग्रहण, आंशिक सूर्य ग्रहण व वलयाकार सूर्य ग्रहण कहते हैं।

ग्रहण फल एवं कृत्याकृत्य विचार

ग्रहण विचार भारतीय संस्कृति के प्रधान विषय हैं। ग्रहण में विधि और निषेध का पालन किया जाता है। जिसका समर्थन धर्मशास्त्र भी करते हैं।

ग्रहण काल में वर्जित कार्य

ग्रहण काल में मुख्यतया २४ कार्यों को वर्जित किया गया है। तद्यथा-

छेद्यं न पत्रं तृणदारुपुष्पं कार्यं न केशांबरपीडनं च। दन्ता न शोध्याः पुरुषं न वाच्यं भोज्यं च वर्ज्यं मदनो न सेव्यः॥

बाह्यं न वाजी द्विरदादि किंचिद्दोह्यं न गावो महिषीसमाजम्। यात्रां न कुर्याच्छयनं च तद्वत् ग्रहे निशाभर्तुरर्हर्पतेश्च॥

निद्रायां जायते अन्धः विण्मूत्रे ग्रामसूकरः। मैथुने च भवेत्कुष्ठी वधूर्वध्या द्विभोजने॥

न केवल ग्रहण अपितु ग्रहण पूर्व सूतक काल में भी उक्त कार्य वर्जित हैं। चन्द्रग्रहण में तीन प्रहर अर्थात् ९ घंटा तथा सूर्यग्रहण में चार प्रहर अर्थात् १२ घंटा पूर्व से सूतक काल होता है।

ग्रहण का महत्व

वस्तुतः आकाशीय समस्त घटनाओं का सैद्धान्तिक एवं वैज्ञानिक महत्व होता है। परन्तु यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे'' इस सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड में स्थित समस्त पिंडों का चराचर के साथ परस्पर संबंध होता है तथा उनका प्रभाव भी होता है। इसी क्रम में आकाश में विद्यमान ग्रह नक्षत्रों का भू पृष्ठ पर शुभाशुभ प्रभाव से हम सभी परिचित हैं। इसी सिद्धान्त के अनुसार ग्रहण का भी दैहिक-दैविक एवं भौतिक प्रभावजन्य आगम पुराण आदि में ग्रहण के समय जप, दान, होम आदि विषयों का महत्व बताया गया है। जैसे-

बहुफलं जपदानहुतादिके स्मृतिपुराणविदो प्रवदन्ति हि। सदुपयोगिजने सचमत्कृतिर्ग्रहणमिन्द्विनयोः कथयाम्यतः॥(सि०शिरो०)

ग्रहण के महत्व को तीन प्रकार से विभाजित किया जा सकता है-

  1. धार्मिक महत्व
  2. लोक में चमत्कृति
  3. रवि-चन्द्रबिम्बों का भौतिक, रासायनिक एवं वैज्ञानिक चिंतन

1. धार्मिक महत्व- वेद- पुराण के अनुसार धर्म कार्यों जैसे- जप, अनुष्ठान, हवन आदि के करने से जो फल प्राप्त होता है वही कार्य यदि सूर्य या चन्द्र ग्रहण के काल में किया जाये तो उसका फल अनंत गुना प्राप्त होता है। ग्रहण के दौरान थोडा सा ही किया हुआ दान भूमिदान के समान माना जाता है, तथा लघु अनुष्ठान का फल भी यज्ञ के फल के बराबर तथा सामान्य जल से स्नान भी गंगा स्नान के फलके बराबर होता है। जैसे-

सर्वं भूमिसमं दानं सर्वे ब्रह्मसमद्विजाः। सर्वं गंगासमं तोयं ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः॥ इन्दोर्लक्ष्यगुणं पुण्यं रवेर्दशगुणं तु तत् । गंगादितीर्थसम्प्राप्तौ प्रोक्तं कोटिगुणं भवेत् ॥(बृहद्दै० रं०)[11]

इसी प्रकार ग्रहण काल में कुछ विशेष स्थानों पर स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है। उनमें से प्रयाग, पुष्करक्षेत्र, गया, कुरुक्षेत्र, गंगासागर आदि हैं। इन स्थानों में ग्रहण काल में यदि स्नान किया जाता है तो हजारों वर्षों के पापों का क्षय होता है। यथा-

दशजन्मकृतं पापं गंगासागरसंगमे। जन्मान्तरसहस्रेषु यत्पापं समुपार्जितम्। तन्नश्येत् सन्निहत्यां राहुग्रस्ते दिवाकरे॥(बृहद्दै० रं०)[12]

ग्रहण के दौरान किए जाने वाले धार्मिक कृत्यों के बारे में बताया गया है कि-

स्पर्शे स्नानं भवेद्धोमो ग्रस्तयोर्मुच्यमानयोः। दानं स्थान्मुक्तये स्नानं ग्रहे चन्द्रार्कयोर्विधिः॥(बृहद्दै० रं०)[11]

अर्थात् ग्रहण की स्पर्श अवस्था में स्नान एवं ग्रसित होने पर हवन, जप तथा मोक्ष होते समय दान एवं मोक्ष की समाप्ति पर पुनः स्नान करना चाहिये। इस प्रकार ग्रहण का धार्मिक महत्व शास्त्रों में प्रतिपादित किया गया है।

2. लोक में चमत्कृति- हम सभी जानते हैं कि सौरमण्डल में ग्रह एवं उपग्रहों के संयोग से आकाशमें कई विस्मयकारक घटनाएँ घटित होती रहती हैं। क्योंकि सामान्य नियम के अनुसार पूर्णिमा में पूर्ण चंद्र का शुक्ल बिम्ब हमें दिखाई देता है लेकिन ग्रहण की अवधि में स्वच्छ रात्रि होने पर भी कुछ समय के लिये चन्द्र का दर्शन नहीं होता है यह लोक में एक चमत्कार के समान प्रतीत होता है। इसी प्रकार अमावस्या के दिन में सूर्य का अदृश्य होना भी इसी बात को दर्शाता है। एवं कहीं पर यह ग्रहण दिखाई देता है एवं कहीं नहीं, इस प्रकार ग्रहण का चमत्कारिक स्वरूप हम सभी देख पाते हैं तथा ज्योतिष शास्त्र के द्वारा साधित काल में हम ग्रहण को देख पाते हैं।

3. रवि-चन्द्रबिम्बों का भौतिक, रासायनिक एवं वैज्ञानिक चिंतन- ग्रहण के दौरान पडने वाले दुष्प्रभाव (आँखों आदि के) से हम सभी परिचित हैं। साथ ही साथ ग्रहण के आसपास कई प्राकृतिक घटनाएँ भी घटित होती हैं जैसे भूकंप आदि। प्रायः देखा जाता है कि भूकंप या अन्यप्राकृतिक घटनाएं पूर्णिमा, अमावस्या, सप्तमी, अष्टमी आदि तिथियों में घटित होती हैं। इनका एक कारण चंद्रग्रहण भी होता है क्योंकि चंद्रमा पृथ्वी के अत्यंत सन्निकट है जिसका प्रभाव भूमि पर सर्वाधिक होता है। दुनिया में घटित

ग्रहण एवं राहु केतु

विश्व के मूर्धन्य खगोलविदों से पूछिये तो राहु तथा केतु नाम के कोई ग्रह हमारे सौर मण्डल में नहीं हैं। सौर-मण्डल के ग्रह हैं- बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, अरुण(हर्शल), वरुण (नेपच्यून) यम(प्लूटो) नाम का नवां ग्रह भी कुछ दिनों पूर्व तक स्वीकृत था, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ ने लम्बी वार्ता एवं वाद-प्रतिवाद के पश्चात यम को ग्रह कहे जा सकने की पात्रता से वंचित कर दिया है अतः अब सौर-मण्डल में मात्र आठ ग्रह हैं। सूर्य तथा चन्द्र आधुनिक परिभाषाओं के अनुसार ग्रह नहीं हैं। सूर्य एक तारा है तथा चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। ग्रह तथा उपग्रह की आधुनिक परिभाषा के अनुसार जो आकाशीय पिण्ड सूर्य की परिक्रमा करते हैं वे ग्रह हैं तथा जो पिण्ड इन ग्रहों की परिक्रमा करते हैं वे उस ग्रह-विशेष के उपग्रह हैं। किन्तु भारतीय ज्योतिष में ग्रह की परिभाषा भिन्न है। याज्ञवल्क्य स्मृति में एक श्लोक इस प्रकार है-

सूर्यः सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो बृहस्पतिः। शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेति ग्रहाः स्मृताः॥(आचाराध्याय)

सूर्य, चन्द्र, महीपुत्र अर्थात् मंगल, सोमपुत्र या चन्द्र-पुत्र अर्थात् बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ग्रह कहे जाते हैं। पृथ्वी से देखने पर जो भी आकाशीय पिण्ड अंतरिक्ष में पृथ्वी के सापेक्ष गति करते प्रतीत होते हैं उन सब को भारतीय ज्योतिष में ग्रह की संज्ञा प्रदान की गयी और इस दृष्टि से चन्द्रमा तो पृथ्वी के सापेक्ष स्पष्टतः गतिमान है ही, सूर्य भी पृथ्वी के सापेक्ष गतिमान प्रतीत होता है भले ही उसकी गति आभासी तथा पृथ्वी की अपनी गति के कारण है अतः भारतीय ज्योतिष में सूर्य भी ग्रह माना गया। पृथ्वी से पृथ्वी की कोई सापेक्ष गति नहीं है अतः भारतीय ज्योतिष में पृथ्वी को ग्रह नहीं माना गया। यह अंतर ज्योतिष तथा खगोल का अन्तर है अतः इससे भ्रम में नहीं पडना चाहिये।

नवग्रहों की सूची
क्र०सं० भारतीय नामावली यूरोपीय नामावली
1. सूर्य बुध
2. चंद्रमा शुक्र
3. बुध मंगल
4. शुक्र पृथिवी
5. मंगल बृहस्पति
6. बृहस्पति शनि
7. शनि यूरेनस
8. राहू नेपच्यून
9. केतु --(पहले प्लूटो को नौवां ग्रह माना जाता था।)

इस सूची को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय सूची भूमण्डल के ग्रहों की है, जबकि यूरोपीय नामावली सूर्य का चक्कर लगाने वाले सौरमण्डल के अंतरिक्षीय पिण्डों की है। इसलिये भारतीय कालगणना में सौरमण्डल का नहीं भूमण्डल का अधिक उपयोग है।[13]

ऋग्वेद संहिताके ५वें मण्डलान्तर्गत ४०वें सूत्रमें सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का वर्णन मिलता है। इस स्थानपर ग्रहणोंकी उपद्रव-शान्ति के लिये इन्द्र आदि देवताओंसे प्रार्थनाएँ की गयी हैं। ग्रहण लगनेका कारण राहु और केतु को ही माना गया है।

समवायागके १५वें समवायके ३रे सूत्रमें राहुके दो भेद बतलाये हैं- नित्य राहु और पर्वराहु। नित्यराहु को कृष्णपक्ष और शुक्लपक्षका कारण तथा पर्वराहु को चन्द्रग्रहण का कारण माना है।[14]

चन्द्रमाकी अपने कक्षकी एक परिक्रमा २७ दिन ७ घंटे ४३ मिनट और १२ सेकण्ड में होती रहती है। सिद्धान्तशिरोमाणि (गो० ग्र० वा०१)-में भास्कराचार्य इस स्थितिका मिरूपण निम्नांकित श्लोकमें किया है-

पश्चाद् भागाज्जलदवदधःसंस्थितोऽभ्येत्य चन्द्रो भानोर्बिम्बं स्फुरदसितया छादयत्यात्ममूर्त्या। पश्चाद् स्पर्शो हरिदिशि ततो मुक्तिरस्यात् एव क्वापि च्छन्नः क्वचिदपिहितो नैष कक्षान्तरत्वात्॥(सि०शि०)

चन्द्रमा पृथ्वी के उपग्रह और अपारदर्शक हैं, जो स्वतः प्रकाशक न होनेके कारण अप्रकाशित पिण्ड हैं। अण्डेके आकारवाले अपने भ्रमण-पथ (अक्ष)- पर घूमते हुए वे सूर्यकी परिक्रमा करते हुए पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं। ज्योतिषीको किसी असुरके शरीरमें दिलचस्पी (स्पृहा) नहीं है। उसके लिये तो राहु और केतुका दूसरा ही अर्थ है। जिस मार्गपर पृथ्वी सूर्यकी परिक्रमा करती है या यों कहें कि सूर्य पृथ्वीकी परिक्रमा करता है, वह क्रान्तिवृत्त एवं चन्द्रमाका पृथ्वीके चारों ओरका मार्ग-वृत्त (अक्ष) - ये दोनों जिन बिन्दुओंपर एक-दूसरेको काटते हैं, उनमें से एक का नाम राहु और दूसरे का केतु है।

आकाश में उत्तर की ओर बढते हुए चन्द्रमाकी कक्षा जब सूर्यको काटती है, तब उस सम्पात-बिन्दुको राहु और दक्षिणकी ओर नीचे उतरते हुए चन्द्रमाकी कक्षा जब सूर्यकी कक्षा को पार करती है, तब उस सम्पात बिन्दु को केतु कहते हैं।[15]

ग्रहणकाल एवं भोजन निषेध

सूर्य और चन्द्रके ग्रहण-समयमें जल तथा अन्नादिमें विषोत्पादक कीटाणु बहुलतासे हो जाते हैं। इसका अनुभव अणुवीक्षण-यन्त्रसे किया जाता है। इसीलिये ऋषियोंने पात्रोंमें कुश डालनेकी आज्ञादी थी, क्योंकि सभी कीटाणु कुशों में आ जातेहैं।[16]

चन्द्रग्रहण जिस समय लगता है उससे पूर्व तीन प्रहरों में भोजन नहीं करना चाहिये। सूर्यग्रहण लगने से चार प्रहर पहले भोजन करना निषेद्ध है, यथा-

अथ ग्रहणं निर्णीयते। तत्र चन्द्रग्रहणे यस्मिन् यामे ग्रहणं तस्मात्पूर्वंप्रहरत्रयंन भुञ्जीत। सूर्यग्रहे तु प्रहर चतुष्टयं न भुञ्जीत।(निर्णय सिन्धु) [17]

वृद्धगौतम में कहा गया है कि सूर्यग्रहण में चार प्रहर पूर्वमें और चन्द्रग्रहण के समय तीन प्रहर पहले से बालक, वृद्ध एवं आतुर रोगी को छोडकर अन्य कोई मनुष्यों को भोजन नहीं करना चाहिये, जैसे-

सूर्यग्रहे तु नाश्नीयात्पूर्वं यामचतुष्टयम् । चन्द्रग्रहे तु यामांस्त्रीन् बालवृद्धातुरैर्विना॥(माधवीये वृद्धगौतम)[17]

सारांश

चन्द्रग्रहण पूर्णिमा तथा सूर्यग्रहण अमावस्या को होता है क्योंकि अपनी-अपनी कक्षाओं में भ्रमण करते हुए सूर्य एवं चन्द्रमा का परस्पर १८० अंश की दूरी पर होते हैं तो पूर्णिमा होती है तथा उस समय सूर्य एवं चन्द्रमा के मध्य में स्थित भूपिण्डस्थ जनों के समक्ष सूर्य किरणों के संसर्ग से प्रकाशित चन्द्रपिण्ड का उज्ज्वल भाग पूर्ण बिम्ब रूप में दिखाई पडता है परन्तु उक्त स्थिति में जब चन्द्रमा अपनी कक्षा में पात के आसन्न होता है तब पृथ्वी द्वारा सूर्य किरणों के अवरोध होने से जो भूमि की छाया बनती है वह भी स्वविरुद्ध दिशा में १८० अंश पर द्वितीय पात के आसन्न सूर्य एवं चन्द्र कक्षाओं से होकर ही आगे तक जाती है। अतः अपनी कक्षा में भ्रमण करता हुआ चन्द्रमा उस भूभा में प्रविष्ट होकर ग्रहण ग्रस्त हो जाता है। इसलिये इसके सैद्धान्तिक स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए आचार्यों ने लिखा है कि संपात सूर्य का भुजांश जब १४॰ से न्यून होता है, तब चन्द्रग्रहण की सम्भावना होती है। ग्रहण, ब्रह्माण्डस्थ ग्रह-नक्षत्रादि पिण्डों के परस्पर संयोग से होने वाली एक ऐसी अद्भुत एवं विस्मयकारी आकाशीय घटना है जिसके द्वारा वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक दोनों जगत् प्रभावित होते हैं। एक ओर वैज्ञानिक वर्ग जहाँ इसके द्वारा ब्रह्माण्ड की स्थिति को जानने का प्रयास करता है तो वहीं दूसरी तरफ आध्यात्मिक एवं धार्मिक जगत् से सम्बद्ध लोग इस काल के अतीव पुण्यदायक होने से चतुर्विधपुरुषार्थों के प्रत्येक अवयवों की पुष्टि हेतु वेद-विहित कर्मानुष्ठान-स्थान-दान एवं होम आदि करते हुए परा एवं अपरा विद्या के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सुखमय एवं समृद्ध बनाते हैं।[1]

पारिभाषिक शब्दावली

भूभा- भू का अर्थ पृथ्वी और भा का अर्थ छाया होता है। इस प्रकार भूभा का अर्थ भूमि की छाया हुआ।

पात- चन्द्रविमण्डल और क्रान्तिवृत्त का सम्पात दो स्थानों पर होता है। प्रथम सम्पात को पात (राहु) एवं द्वितीय सम्पात को केतु कहते हैं।

ग्रास- ग्रास से तात्पर्य छादक बिम्ब द्वारा छाद्य बिम्ब को ढकने से है। ग्रहणकाल में जितना भाग ढकता है, उतना ही ग्रासमान माना जाता है। यह सामान्य बात है। विशेषतः सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से छाद्य और छादक के मानैक्यार्ध (छाद्य बिम्ब और छादक बिम्ब के व्यास के योग का आधा) में तात्कालिक चन्द्रशर घटाने से शेष ग्रास प्रमाण होता है।

शर- सामान्यतया शर का अर्थ होता है- दूरी या अन्तर। इसी को विक्षेप भी कहते हैं। गोलीय रीति के अनुसार कदम्बप्रोत्तवृत्त में बिम्ब से ग्रहस्थान तक की दूरी (अन्तर) को मध्यम शर कहते हैं।

स्पष्टशर - स्थानीय बिम्बीय अहोरात्रवृत्त के अन्तर(ध्रुवप्रोतवृत्त) में को स्पष्ट शर कहते हैं।

वलयाकार- वलय (चूडी) के समान आकृति।

चंद्रमण्डल- चन्द्रमा का भ्रमण मार्ग।

क्रान्तिमण्डल- सूर्य का भ्रमण वृत्त(मार्ग)।

लंबन-

नति-

उद्धरण

  1. 1.0 1.1 कृष्ण कुमार भार्गव, ग्रहण परिचय एवं स्वरुप, सन् 2023, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली।
  2. ऋग्वेद संहिता, मण्डल-५, सूक्त-४०, मन्त्र-९।
  3. गोरख प्रसाद, भारतीय ज्योतिष का इतिहास, सन् १९५६, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ (पृ०३४)।
  4. Puneeta Gupta, Prachya Pashchatya Matanusar Surya evam Chandra Grahan ki Samiksha, Completed Date: 2022, Banaras Hindu University,Saranshika (Page- 1)।
  5. कमलाकर भट्ट, सिद्धान्ततत्वविवेकः, सन् १९९१, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, बिम्बाधिकार (पृ० ३१५)।
  6. नन्द लाल दशोरा, ब्रह्माण्ड और ज्योतिष रहस्य, सन् १९९४, रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार (पृ० १५१)।
  7. उदयनारायण सिंह, सूर्यसिद्धान्त, भाषानुवाद सहित, सन् १८९६, शास्त्र प्रकाश ऑफिस मुजफ्फरपुर अध्याय- ४, श्लोक-१६/१७ (पृ० ६१)।
  8. देवेश कुमार मिश्र, कृष्ण कुमार भार्गव, ग्रहण-विचार, सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ०८६)।
  9. भास्कराचार्य जी,सिद्धान्त शिरोमणि, गिरिजाप्रसादद्विवेदी जी- प्रस्तावना सहित, सन् १९२६, नवलकिशोर-प्रेस-लखनऊ(पृ० १३४)।
  10. महाभारत, भीष्मपर्व, अध्याय-०३, (श्लोक- ३२/३३)।
  11. 11.0 11.1 श्री रामदीन पण्डित , बृहद् दैवज्ञ रंजनम्, सन् १९९९, खेमराज श्री कृष्णदास प्रकाशन, बम्बई , अध्याय-३३, श्लोक-२२/२३(पृ०१०४)।
  12. श्री रामदीन पण्डित , बृहद् दैवज्ञ रंजनम्, सन् १९९९, खेमराज श्री कृष्णदास प्रकाशन, बम्बई , अध्याय-३३, श्लोक-२८/२९(पृ०१०४)।
  13. विश्वजीत कुमार, सौरमण्डल, सन् 2023, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ०94)।
  14. डॉ नेमिचंद्र शास्त्री, भारतीय ज्योतिष, सन् १९६६, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन-कलकत्ता, (पृ० ७६)।
  15. कल्याण पत्रिका, सूर्य-चन्द्रग्रहण-विमर्श, सन् २०१४, गीताप्रेस गोरखपुर, (पृ० ३१६)।
  16. श्री दीनानाथ शर्मा शास्त्रीजी, हिन्दू धर्म के आचार-विचार एवं उनका वैज्ञानिक रहस्य, सन् १९५४, श्रीसनातनधर्मालोक ग्रन्थमाला कार्यालय, रामदल, दरीबा कलाँ, दिल्ली (पृ०२५४)।
  17. 17.0 17.1 Puneeta Gupta, Prachya Pashchatya Matanusar Surya evam Chandra Grahan ki Samiksha, Completed Date: 2022, Banaras Hindu University, chapter 5, (page- 280)।