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| इसके अतिरिक्त भी आचार्य ने लिखा है कि समग्र भूमण्डल पर स्थित व्यक्तियों के लिये सुमेरु उत्तर दिशा में होता है। अतः सुमेरु से १८०० दूसरी तरफ दक्षिण दिशा सिद्ध होगी। परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में सूर्योदय तथा सूर्यास्त के द्वारा दिग्साधन करने से व्यवहारिक उपयोग में भी अनुभव हीनता से अनेक समस्याएं दिग् निर्धारण में उपस्थित हो जाती हैं क्यों कि सूर्य के विषुवत् रेखा से २३०। २७ (परम क्रान्ति तुल्य) उत्तर से लेकर विषुवत् रेखा से २३०।२७ दक्षिण तक भ्रमण करने के कारण ४६०।५४ के बीच में हर स्थान पर सूर्योदय एवं सूर्यास्त का स्थान क्रमशः रोज बदलता रहेगा जिससे एक जगह पर भी प्रतिदिन पूर्वादि दिशाएं भिन्न-भिन्न होती रहेंगी। अतः ४६०।५४ के मध्य किस बिन्दु के सूर्योदय को पूर्व बिन्दु मानकर किसी कार्य व्यापार का सम्पादन किया जाय एतदर्थ आचार्यों ने सूक्ष्म दिग्ज्ञान की व्यवस्थाएं दी हैं क्यों कि यागादि कर्म में स्वल्प दिग्दोष उपस्थित होने पर भी उनके फल नहीं मिलते है। अतः आचार्यों ने इस प्रपंच से मुक्ति के लिये सूक्ष्म प्रकार से दिग् साधन की अनेक विधियाँ ग्रन्थों में दी हैं। | | इसके अतिरिक्त भी आचार्य ने लिखा है कि समग्र भूमण्डल पर स्थित व्यक्तियों के लिये सुमेरु उत्तर दिशा में होता है। अतः सुमेरु से १८०० दूसरी तरफ दक्षिण दिशा सिद्ध होगी। परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में सूर्योदय तथा सूर्यास्त के द्वारा दिग्साधन करने से व्यवहारिक उपयोग में भी अनुभव हीनता से अनेक समस्याएं दिग् निर्धारण में उपस्थित हो जाती हैं क्यों कि सूर्य के विषुवत् रेखा से २३०। २७ (परम क्रान्ति तुल्य) उत्तर से लेकर विषुवत् रेखा से २३०।२७ दक्षिण तक भ्रमण करने के कारण ४६०।५४ के बीच में हर स्थान पर सूर्योदय एवं सूर्यास्त का स्थान क्रमशः रोज बदलता रहेगा जिससे एक जगह पर भी प्रतिदिन पूर्वादि दिशाएं भिन्न-भिन्न होती रहेंगी। अतः ४६०।५४ के मध्य किस बिन्दु के सूर्योदय को पूर्व बिन्दु मानकर किसी कार्य व्यापार का सम्पादन किया जाय एतदर्थ आचार्यों ने सूक्ष्म दिग्ज्ञान की व्यवस्थाएं दी हैं क्यों कि यागादि कर्म में स्वल्प दिग्दोष उपस्थित होने पर भी उनके फल नहीं मिलते है। अतः आचार्यों ने इस प्रपंच से मुक्ति के लिये सूक्ष्म प्रकार से दिग् साधन की अनेक विधियाँ ग्रन्थों में दी हैं। |
| ==दिक् साधन की विविध शास्त्रीय विधियां== | | ==दिक् साधन की विविध शास्त्रीय विधियां== |
− | ज्योतिष शास्त्र में दिक्साधन करने हेतु शंकु का बहुत महत्त्व है। अथर्ववेद के उपवेद रूप में प्रसिद्ध वास्तुशास्त्र में भी दिग्ज्ञान के शुद्धिकरण हेतु शंकु के प्रयोग का वर्णन भी उपलब्ध होता है। ग्राम-नगर-पुर-गृह आदि के निर्माण में शंकु का पर्याप्त महत्त्व रहता है। उपर्युक्त बातों को जानकर हम यह भी कह सकते हैं कि दिक् साधन वास्तुशास्त्र का एक प्रयोजन है। शंकु मुख्यतया लकडी-लोहे-धातु आदि से निर्मित एक दण्डिका होती है। जिसकी लम्बाई १२, १८ या २४ अंगुल की तथा उसके आधार की चौडाई ४,५ अथवा ६ अंगुल की हो सकती है। इसी प्रकार यह दण्डिका सूची के आकार की होती है। जो स्थान अथवा देश या क्षेत्र जहां हमें निर्माण का कार्य करना | + | ज्योतिष शास्त्र में दिक्साधन करने हेतु शंकु का बहुत महत्त्व है। अथर्ववेद के उपवेद रूप में प्रसिद्ध वास्तुशास्त्र में भी दिग्ज्ञान के शुद्धिकरण हेतु शंकु के प्रयोग का वर्णन भी उपलब्ध होता है। ग्राम-नगर-पुर-गृह आदि के निर्माण में शंकु का पर्याप्त महत्त्व रहता है। उपर्युक्त बातों को जानकर हम यह भी कह सकते हैं कि दिक् साधन वास्तुशास्त्र का एक प्रयोजन है। |
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| + | - शंकु मुख्यतया लकडी-लोहे-धातु आदि से निर्मित एक दण्डिका होती है। जिसकी लम्बाई १२, १८ या २४ अंगुल की तथा उसके आधार की चौडाई ४,५ अथवा ६ अंगुल की हो सकती है। इसी प्रकार यह दण्डिका सूची के आकार की होती है। जो स्थान अथवा देश या क्षेत्र जहां हमें निर्माण का कार्य करना |
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| == दिक्साधन की आधुनिक विधि == | | == दिक्साधन की आधुनिक विधि == |
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| == देश == | | == देश == |
− | देश अथवा स्थान के बिना हम दिक् और काल का ज्ञान ही नहीं कर सकते हैं। अर्थात् दिक् और काल का आधार देश ही है। देश के भेद से काल में भी भेद उत्पन्न हो जाता है। अतः भारतीय ज्योतिष परम्परा में त्रिप्रश्न अर्थात् दिक् , देश और काल तीनों का समग्र चिन्तन किया जाता है जिस में देश का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि देश से ही निर्माण प्रक्रिया का शुभारम्भ होता है। | + | देश अथवा स्थान के बिना हम दिक् और काल का ज्ञान ही नहीं कर सकते हैं। अर्थात् दिक् और काल का आधार देश ही है। देश के भेद से काल में भी भेद उत्पन्न हो जाता है। अतः भारतीय ज्योतिष परम्परा में त्रिप्रश्न अर्थात् दिक् , देश और काल तीनों का समग्र चिन्तन किया जाता है जिस में देश का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि देश से ही निर्माण प्रक्रिया का शुभारम्भ होता है। देश का सम्बन्ध क्षेत्र विशेष अथवा स्थान विशेष से है जिसमें वास्तुनिर्माण किया जाना है। काल का सम्बन्ध समय से है। ज्योतिष के क्षेत्र में दिक् साधन के उपरान्त देशके शुभाशुभत्व का विचार किया जाता है। अतः शास्त्रानुसार देश और काल की शुद्धता के आधार पर वास्तु का विधान होना चाहिये। ज्योतिष और वास्तु के ग्रन्थों में दिक् , देश, काल पर विस्तार से वर्णन मिलता है। क्षेत्र अथवा देश का निर्धारण अक्षांश व देशान्तर के आधार पर होता है। प्रकृति, जनपद एवं जलवायु को दृष्टि में रखकर देश-भूमि चयन किया जाता है।<ref name=":1">योगेंद्र कुमार शर्मा, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80827 देश की अवधारणा एवं भेद], सन् २०२१, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ०२७७)।</ref> |
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− | == परिचय ==
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− | देश का सम्बन्ध क्षेत्र विशेष अथवा स्थान विशेष से है जिसमें वास्तुनिर्माण किया जाना है। काल का सम्बन्ध समय से है। ज्योतिष के क्षेत्र में दिक् साधन के उपरान्त देशके शुभाशुभत्व का विचार किया जाता है। अतः शास्त्रानुसार देश और काल की शुद्धता के आधार पर वास्तु का विधान होना चाहिये। ज्योतिष और वास्तु के ग्रन्थों में दिक् , देश, काल पर विस्तार से वर्णन मिलता है। क्षेत्र अथवा देश का निर्धारण अक्षांश व देशान्तर के आधार पर होता है। प्रकृति, जनपद एवं जलवायु को दृष्टि में रखकर देश-भूमि चयन किया जाता है।<ref name=":1">योगेंद्र कुमार शर्मा, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80827 देश की अवधारणा एवं भेद], सन् २०२१, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ०२७७)।</ref> | |
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| == देश का विचार == | | == देश का विचार == |
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| द्वितीय प्रकार से हम अपने देश का निर्धारण देशान्तरों के माध्यम से करते हैं कि कल्पना की है। इसके अन्तर्गत इनमें से एक वृत्त को मानक भूमध्य देशान्तर मानकर उससे पूर्व या पश्चिम कितने अंशादि पर अपना स्थान अथवा देश है इसका ज्ञान किया जाता है। किसी स्थान की सटीक स्थिति को उस स्थान के अक्षांश व देशान्तर की मदद से जान सकते हैं। किसी स्थान को अक्षांशधरातल पर उस स्थान की उत्तर-दक्षिण स्थिति को बताता है। यहाँ हम अक्षांश व देशान्तर को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं।<ref name=":1" /> | | द्वितीय प्रकार से हम अपने देश का निर्धारण देशान्तरों के माध्यम से करते हैं कि कल्पना की है। इसके अन्तर्गत इनमें से एक वृत्त को मानक भूमध्य देशान्तर मानकर उससे पूर्व या पश्चिम कितने अंशादि पर अपना स्थान अथवा देश है इसका ज्ञान किया जाता है। किसी स्थान की सटीक स्थिति को उस स्थान के अक्षांश व देशान्तर की मदद से जान सकते हैं। किसी स्थान को अक्षांशधरातल पर उस स्थान की उत्तर-दक्षिण स्थिति को बताता है। यहाँ हम अक्षांश व देशान्तर को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं।<ref name=":1" /> |
− | ===अक्षांश विचार=== | + | ===अक्षांश विचार (Latitudes)=== |
| पूर्व से पश्चिम की तरफ पृथ्वी को घेरते हुए पूरी गोलाई में यदि पृथ्वी के उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों वाले भागों में समान दूरी पर रेखायें खीची जायें तो इनको अक्षांश (Latitude) कहा जाता है। इन अक्षांशों की सहायता से किसी व्यक्ति का स्थान भूमध्य रेखा अथवा विषुवत रेखा कितनी दूरी पर है? यह जान सकते हैं। | | पूर्व से पश्चिम की तरफ पृथ्वी को घेरते हुए पूरी गोलाई में यदि पृथ्वी के उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों वाले भागों में समान दूरी पर रेखायें खीची जायें तो इनको अक्षांश (Latitude) कहा जाता है। इन अक्षांशों की सहायता से किसी व्यक्ति का स्थान भूमध्य रेखा अथवा विषुवत रेखा कितनी दूरी पर है? यह जान सकते हैं। |
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| इसी के अनुसार लग्न आदि समस्त गणनायें की जाती हैं तथा पंचांग आदि बनाये जाते हैं। सामान्यतया हम ये समझते हैं कि भूमध्यरेखा ०॰ अक्षांश रेखा है। अतः इसे ही निरक्षदेश कहते हैं। भूमध्यरेखा के समीप स्थित सभी स्थानों का राशि उदयमान बराबर रहता है। हम इस विषुवत रेखा से जैसे उत्तर अथवा दक्षिण दिशा की तरफ जाते हैं वैसे-वैसे उन स्थानों के राशि उदयमान में परिवर्तन आता जाता है। | | इसी के अनुसार लग्न आदि समस्त गणनायें की जाती हैं तथा पंचांग आदि बनाये जाते हैं। सामान्यतया हम ये समझते हैं कि भूमध्यरेखा ०॰ अक्षांश रेखा है। अतः इसे ही निरक्षदेश कहते हैं। भूमध्यरेखा के समीप स्थित सभी स्थानों का राशि उदयमान बराबर रहता है। हम इस विषुवत रेखा से जैसे उत्तर अथवा दक्षिण दिशा की तरफ जाते हैं वैसे-वैसे उन स्थानों के राशि उदयमान में परिवर्तन आता जाता है। |
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− | ===देशान्तर विचार=== | + | ===देशान्तर विचार (Longitudes)=== |
− | देशान्तर का अर्थ होता है दो रेखा देशों का अन्तर। देश का अर्थ यहां स्थान है न कि राजनैतिक मानचित्र पर | + | देशान्तर का अर्थ होता है दो रेखा देशों का अन्तर। देश का अर्थ यहां स्थान है न कि राजनैतिक मानचित्र पर दर्शाया गया कोई देश। इस तरह सामान्य परिभाषा के आधार पर देशान्तर का अर्थ दो स्थानों का अन्तर है। यह देशान्तर दो प्रकार का होता है- १ , पूर्व- पश्चिम, जिसे हम पूर्वापर देशान्तर कहते हैं तथा दूसरा दक्षिण-उत्तर जिसे याम्योत्तर देशान्तर कहते हैं। पूर्वापर देशान्तर का ज्ञान अक्षांश द्वारा किया जाता है। रेखांश या देशान्तर रेखाएँ वे होती हैं जो रेखायें पृथ्वी पर उत्तरी ध्रुव से प्रारम्भ होकर भूमध्य रेखा को खडी काटती हुई दक्षिणी ध्रुव तक जाती है। |
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− | दर्शाया गया कोई देश। इस तरह सामान्य परिभाषा के आधार पर देशान्तर का अर्थ दो स्थानों का अन्तर है। यह देशान्तर दो प्रकार का होता है- १ , पूर्व- पश्चिम, जिसे हम पूर्वापर देशान्तर कहते हैं तथा दूसरा दक्षिण-उत्तर जिसे याम्योत्तर देशान्तर कहते हैं। पूर्वापर देशान्तर का ज्ञान अक्षांश द्वारा किया जाता है। रेखांश या देशान्तर रेखाएँ वे होती हैं जो रेखायें पृथ्वी पर उत्तरी ध्रुव से प्रारम्भ होकर भूमध्य रेखा को खडी काटती हुई दक्षिणी ध्रुव तक जाती है। | |
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− | देशान्तर रेखायें उत्तर से दक्षिण आडी रेखाएँ हैं तथा पृथ्वी पर पूर्व व पश्चिम की तरफ बराबर दूरी पर गोल पर इस प्रकार दिखती है जैसे संतरा की कलियां हों। इन रेखांश रेखाओं पर किसी एक स्थान को निश्चित करके भूमि पर दूसरे स्थानों की दूरी उस निश्चित किये हुए स्थान से नापी जाती है। अतः इनको ही हम देशान्तर रेखाओं के नाम से जानते हैं। इंग्लैण्ड स्थित ग्रीनविच नामक स्थान पर ०॰ देशान्तर मान लिया है अर्थात् ग्रीनविच को ०॰ देशान्तर मानकर निश्चित कर लिया गया है। प्राचीन काल में भारतीय ज्योतिष के अनुसार उज्जैन के देशान्तर को ०॰ निश्चित किया गया था। जहां से सभी स्थानों की दूरी मापी जाती थी। परन्तु अब ग्रीनविच से सभी स्थानों की दूरी मापी जाती है।
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− | यल्लङ्कोज्जयिनीपुरीकुरुक्षेत्रादिदेशान् स्पृशेत् । सूत्रं मेरुगतं बुधैर्निगदिता सा मध्यरेखाभुवः॥ | + | देशान्तर रेखायें उत्तर से दक्षिण आडी रेखाएँ हैं तथा पृथ्वी पर पूर्व व पश्चिम की तरफ बराबर दूरी पर गोल पर इस प्रकार दिखती है जैसे संतरा की कलियां हों। इन रेखांश रेखाओं पर किसी एक स्थान को निश्चित करके भूमि पर दूसरे स्थानों की दूरी उस निश्चित किये हुए स्थान से नापी जाती है। अतः इनको ही हम देशान्तर रेखाओं के नाम से जानते हैं। इंग्लैण्ड स्थित ग्रीनविच नामक स्थान पर ०॰ देशान्तर मान लिया है अर्थात् ग्रीनविच को ०॰ देशान्तर मानकर निश्चित कर लिया गया है। प्राचीन काल में भारतीय ज्योतिष के अनुसार उज्जैन के देशान्तर को ०॰ निश्चित किया गया था। जहां से सभी स्थानों की दूरी मापी जाती थी। परन्तु अब ग्रीनविच से सभी स्थानों की दूरी मापी जाती है। यल्लङ्कोज्जयिनीपुरीकुरुक्षेत्रादिदेशान् स्पृशेत् । सूत्रं मेरुगतं बुधैर्निगदिता सा मध्यरेखाभुवः॥ |
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| == सारांश == | | == सारांश == |
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| ==काल की अवधारणा== | | ==काल की अवधारणा== |
| + | (main article Bharatiya Kalaman (भारतीय कालमन)) |
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| यास्कानुसार काल वह शक्ति है जो सबको गति देती है। संसार में गति अथवा कर्म का मूलाधार काल ही है क्योंकि कोई भी गति या कर्म किसी काल में ही किया जाता है, चाहे वह सूक्ष्म हो या व्यापक हो। वस्तुतः ज्योतिषशास्त्र काल विधायक शास्त्र है, इसका मुख्य आधार ही कालगणना है। जन्मकुण्डली निर्माण से लेकर मुहूर्त शोधन व समष्टि गत शुभाशुभ का विचार तक इसी काल के सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं स्थूल दोनों रूपों द्वारा होता है अर्थात् सर्वत्र काल गणना ही आधार है। | | यास्कानुसार काल वह शक्ति है जो सबको गति देती है। संसार में गति अथवा कर्म का मूलाधार काल ही है क्योंकि कोई भी गति या कर्म किसी काल में ही किया जाता है, चाहे वह सूक्ष्म हो या व्यापक हो। वस्तुतः ज्योतिषशास्त्र काल विधायक शास्त्र है, इसका मुख्य आधार ही कालगणना है। जन्मकुण्डली निर्माण से लेकर मुहूर्त शोधन व समष्टि गत शुभाशुभ का विचार तक इसी काल के सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं स्थूल दोनों रूपों द्वारा होता है अर्थात् सर्वत्र काल गणना ही आधार है। |
| ===परिचय=== | | ===परिचय=== |
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| 60 लीक्षक व 1 प्राण = 10 दीर्घ अक्षर के उच्चारण का काल | | 60 लीक्षक व 1 प्राण = 10 दीर्घ अक्षर के उच्चारण का काल |
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| अयन | | अयन |
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− | गोल | + | गोल |
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| == उद्धरण == | | == उद्धरण == |