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| === औषधि निर्माण सेवन मुहूर्त === | | === औषधि निर्माण सेवन मुहूर्त === |
| + | ज्योतिष विज्ञान के बिना औषधियों का निर्माण यथा समय गुण युक्त नहीं किया जा सकता। स्पष्ट है कि ग्रहों के तत्त्व और स्वभाव को ज्ञात कर उन्हीं के अनुसार उसी तत्त्व और स्वभाव वाली औषधि का निर्माण करने से वह विशेष गुणकारी हो जाती है। |
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| औषधि एवं रसायन के निर्माण, औषधि सेवन, शल्यक्रिया(सर्जरी) और चिकित्सा सबंधी कार्यों के लिये ज्योतिषशास्त्र में मुहूर्त का विधान किया गया है। मुहूर्तचिन्तामणिकार कहते हैं-<blockquote>भैषज्यं सल्लघुमृदुचरे मूलभे द्व्यङ्गलग्ने। शुक्रेन्द्विज्ये विदि च दिवसे चापि तेषां रवेश्च। शुद्धे रिष्फद्युनमृतिगृहे सत्तिथौ नो जनेर्भे॥<ref>विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी, मुहूर्तचिन्तामणि, मणिप्रदीप टीका, सन् २०१८,वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०८८)।</ref></blockquote>उपर्युक्त नक्षत्र, वार, राशि, तिथि, ग्रहशुद्धि एवं ग्रहों का बल ज्ञातकर ऐसे आयुप्रद योगमें औषधक्रिया का सेवन करना उत्तम कहा गया है। दीपिकाकार का मत है कि-जन्मनक्षत्र में कदापि औषधग्रहण करना प्रारंभ नहीं करना चाहिये। | | औषधि एवं रसायन के निर्माण, औषधि सेवन, शल्यक्रिया(सर्जरी) और चिकित्सा सबंधी कार्यों के लिये ज्योतिषशास्त्र में मुहूर्त का विधान किया गया है। मुहूर्तचिन्तामणिकार कहते हैं-<blockquote>भैषज्यं सल्लघुमृदुचरे मूलभे द्व्यङ्गलग्ने। शुक्रेन्द्विज्ये विदि च दिवसे चापि तेषां रवेश्च। शुद्धे रिष्फद्युनमृतिगृहे सत्तिथौ नो जनेर्भे॥<ref>विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी, मुहूर्तचिन्तामणि, मणिप्रदीप टीका, सन् २०१८,वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०८८)।</ref></blockquote>उपर्युक्त नक्षत्र, वार, राशि, तिथि, ग्रहशुद्धि एवं ग्रहों का बल ज्ञातकर ऐसे आयुप्रद योगमें औषधक्रिया का सेवन करना उत्तम कहा गया है। दीपिकाकार का मत है कि-जन्मनक्षत्र में कदापि औषधग्रहण करना प्रारंभ नहीं करना चाहिये। |
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| *'''कफज ग्रह'''- शुक्र और चन्द्र। | | *'''कफज ग्रह'''- शुक्र और चन्द्र। |
| बुध को तटस्थ(न्यूट्रल) कहा गया है, इन ग्रहों के दाय काल में अथवा इनके दुर्बल होने से उक्त त्रिदोषजन्य व्याधियाँ होती है। जिसे व्यवहार में भी अनुभव किया गया है | | बुध को तटस्थ(न्यूट्रल) कहा गया है, इन ग्रहों के दाय काल में अथवा इनके दुर्बल होने से उक्त त्रिदोषजन्य व्याधियाँ होती है। जिसे व्यवहार में भी अनुभव किया गया है |
− | ===वातजन्य व्याधियॉं=== | + | ===वातजन्य व्याधियाँ=== |
| शनि, राहु, केतु के दुष्प्रभाव से वात जन्य व्याधियाँ होती हैं । यह पहले भी कहा जा चुका है । ये वात व्याधियाँ चिकित्सा शास्त्र के जनक आयुर्वेद शास्त्र के चरक संहिता में अस्सी प्रकार की बताई गई हैं । इन सभी के अनेक भेद तथा उपभेद भी हैं । जिसपर चिकित्साशास्त्र आधारित हैं । इसी प्रसंग में इन ८० प्रकार की वात व्याधियों का नाम चरक संहिता से संग्रहीत कर नीचे दिया जा रहा है<ref>अत्रिदेवजी गुप्त, चरक संहिता(हिन्दी अनुवाद सहित),वाराणसी: भार्गव पुस्तकालय, सूत्रनिदान स्थान, अध्याय-२० (पृ०२४०)।</ref>-{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;| | | शनि, राहु, केतु के दुष्प्रभाव से वात जन्य व्याधियाँ होती हैं । यह पहले भी कहा जा चुका है । ये वात व्याधियाँ चिकित्सा शास्त्र के जनक आयुर्वेद शास्त्र के चरक संहिता में अस्सी प्रकार की बताई गई हैं । इन सभी के अनेक भेद तथा उपभेद भी हैं । जिसपर चिकित्साशास्त्र आधारित हैं । इसी प्रसंग में इन ८० प्रकार की वात व्याधियों का नाम चरक संहिता से संग्रहीत कर नीचे दिया जा रहा है<ref>अत्रिदेवजी गुप्त, चरक संहिता(हिन्दी अनुवाद सहित),वाराणसी: भार्गव पुस्तकालय, सूत्रनिदान स्थान, अध्याय-२० (पृ०२४०)।</ref>-{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;| |
| * १. नखभेद | | * १. नखभेद |
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| * ८०. अस्वप्न अनवस्थित}} | | * ८०. अस्वप्न अनवस्थित}} |
| ये मुख्यतः वात जन्य व्याधियाँ हैं । शनि, राहु, तथा केतु ग्रह की दुर्बलता, अनिष्ट अरिष्ट सूचक होने पर उक्त व्याधियों का होना सुनिश्चित है । | | ये मुख्यतः वात जन्य व्याधियाँ हैं । शनि, राहु, तथा केतु ग्रह की दुर्बलता, अनिष्ट अरिष्ट सूचक होने पर उक्त व्याधियों का होना सुनिश्चित है । |
− | ===पित्तजन्य व्याधियॉं=== | + | ===पित्तजन्य व्याधियाँ=== |
| पित्तजन्य ४० प्रकार की व्याधियाँ (रोग) होती हैं । हमारे ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य, मंगल तथा गुरु के दुर्बल तथा अरिष्ट सूचक होने पर अघोलिखित व्याधियाँ (रोग) होती हैं, जिनकी नामावली अधोलिखित हैं<ref>अत्रिदेवजी गुप्त, चरक संहिता(हिन्दी अनुवाद सहित),वाराणसी: भार्गव पुस्तकालय, सूत्रनिदान स्थान, अध्याय-२० (पृ०२४१/२४२)।</ref>-{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;| | | पित्तजन्य ४० प्रकार की व्याधियाँ (रोग) होती हैं । हमारे ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य, मंगल तथा गुरु के दुर्बल तथा अरिष्ट सूचक होने पर अघोलिखित व्याधियाँ (रोग) होती हैं, जिनकी नामावली अधोलिखित हैं<ref>अत्रिदेवजी गुप्त, चरक संहिता(हिन्दी अनुवाद सहित),वाराणसी: भार्गव पुस्तकालय, सूत्रनिदान स्थान, अध्याय-२० (पृ०२४१/२४२)।</ref>-{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;| |
| * १. ओष | | * १. ओष |
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| * ३९. नेत्र शूल | | * ३९. नेत्र शूल |
| * ४०. अमलका हरा वर्ण या पीला वर्ण}}गुरु, सूर्य तथा मंगल के कारण ये व्याधियाँ होती हैं। इसलिये इन ग्रहों के दायकाल में इनका निदान तथा समाधान आवश्यक है। | | * ४०. अमलका हरा वर्ण या पीला वर्ण}}गुरु, सूर्य तथा मंगल के कारण ये व्याधियाँ होती हैं। इसलिये इन ग्रहों के दायकाल में इनका निदान तथा समाधान आवश्यक है। |
− | ===कफजन्य व्याधियॉं=== | + | ===कफजन्य व्याधियाँ=== |
| कफ जन्य रोग चन्द्रमा और शुक्र के प्रभाव से होते हैं। चन्द्र और शुक्र दोनों ग्रहों की प्रकृति शीतल है। शीतव्याधि से २० प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। जिसकी चर्चा चिकित्सा शास्त्र में महर्षि चरक ने चरक संहिता के २०वें अध्याय में वर्णित किया है। इन रोगों के भी उपरोग अनेकों हैं। जिसकी चर्चा आयुर्वेद शास्त्र में विस्तार पूर्वक की गयी है। ये व्याधियाँ प्रसंगतः अधोलिखित रूप से यहाँ दी जा रही हैं<ref>अत्रिदेवजी गुप्त, चरक संहिता(हिन्दी अनुवाद सहित),वाराणसी: भार्गव पुस्तकालय, सूत्रनिदान स्थान, अध्याय-२० (पृ०२४३/२४४)।</ref>-{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;| | | कफ जन्य रोग चन्द्रमा और शुक्र के प्रभाव से होते हैं। चन्द्र और शुक्र दोनों ग्रहों की प्रकृति शीतल है। शीतव्याधि से २० प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। जिसकी चर्चा चिकित्सा शास्त्र में महर्षि चरक ने चरक संहिता के २०वें अध्याय में वर्णित किया है। इन रोगों के भी उपरोग अनेकों हैं। जिसकी चर्चा आयुर्वेद शास्त्र में विस्तार पूर्वक की गयी है। ये व्याधियाँ प्रसंगतः अधोलिखित रूप से यहाँ दी जा रही हैं<ref>अत्रिदेवजी गुप्त, चरक संहिता(हिन्दी अनुवाद सहित),वाराणसी: भार्गव पुस्तकालय, सूत्रनिदान स्थान, अध्याय-२० (पृ०२४३/२४४)।</ref>-{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;| |
| * १. तृप्ति | | * १. तृप्ति |