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== प्राचीन व आधुनिक दिक्साधन विधियों में अन्तर ==
 
== प्राचीन व आधुनिक दिक्साधन विधियों में अन्तर ==
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सामान्यतया दिक्साधन करने हेतु प्राचीन व नवीन दोनों ही प्रकार की विधियों को अपना सकते हैं परन्तु इनमें दिक्ज्ञान की शुद्धता व सटीकता होना पहली आवश्यकता है। हमारे शास्त्रों में शास्त्रकारों ने दिक्साधन का विशद विवेचन करके एक विशिष्ट विषय के रूप में समाज के सामने प्रस्तुतत किया है। इसके माध्यम से विविध कार्य व गणनाएं सम्पादित की जाती हैं। सामान्यतः व्यवहार में लायी जाने वाली दिशाओं में अगर कुछ अंशात्मक अन्तर पाते हैं तो परिणाम बदल जाते हैं जो कि शास्त्रीय प्रमाणों में अन्तर उत्पन्न कर सकता है।
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आधुनिक नवीन दिक् साधन विधियां भिन्न-भिन्न हैं। क्योंकि प्राचीन विधियों में सूर्य की गति ध्रुव की स्थिति, नक्षत्रों की स्थिति दिनमान विषुवदिन आदि के आधार पर दिक् साधन करते हैं। वर्तमान में दिक्सूचक यन्त्र भूमि के चुम्बकीय प्रभाव के कारण कार्य करता है। हालांकि इनमें दोष भी उत्पन्न हो सकते हैं। जैसे एक साथ पास-पास में दो चुम्बकीय यन्त्र रखे हो तो दोनों में परिणाम भिन्न आ सकते हैं। किसी बडी चुम्बक के क्षेत्र में आने से कम्पास आदि यन्त्र सही-सही परिणाम नहीं दे पाते हैं। इसलिये प्राचीन विधियां प्रत्यक्ष सिद्ध होती हैं। आधुनिक चुम्बकीय दिक्साधक यन्त्र में कुछ वैज्ञानिक त्रुटियां भी रह सकती हैं क्योंकि प्राचीन विधियां शंकु आदि पर आधारित होती है इसलिये खगोल पर वास्तविक उत्तर दिशा प्राप्त करने में अन्तर आ सकता है। अतः दोनों विधियों का प्रयोग कर दिशा सुनिश्चित करनी चाहिए।
    
=== ध्रुवतारे से दिक्साधन विधि ===
 
=== ध्रुवतारे से दिक्साधन विधि ===
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== दिक् साधन का महत्व ==
 
== दिक् साधन का महत्व ==
 
विभिन्न शास्त्रकार दिशाओं के महत्व को समझाते हुये कहते हैं कि कोई भी निर्माण जो मानवों द्वारा किया जाता है जैसे भवन, राजाप्रसाद, द्वार, बरामदा, यज्ञमण्डप आदि में दिक्शोधन करना प्रथम व अपरिहार्य है क्योंकि दिक्भ्रम होने पर यदि निर्माण हो तो कुल का नाश होता है।<ref>योगेंद्र कुमार शर्मा,  [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80829 दिक् की अवधारणा एवं भेद], सन् 2021, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २९४)।</ref><blockquote>प्रसादे सदनेsलिन्दे द्वारे कुण्डे विशेषताः। दिङ्मूढे कुलनाशः स्यात्तस्मात् संसाधयेद्दिशः॥(वास्तुरत्नावली-३/१)</blockquote>वस्तुतः प्राचीन ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर आज हर कोई समझदार व्यक्ति दिग् ज्ञान से परिचित हैं। लगभग हर व्यक्ति पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा का ज्ञान रखता है परन्तु फिर भी हमारे शास्त्रों में इन चार दिशाओं के अतिरिक्त भी अन्य चार दिशाओं का भी वर्णन विद्यमान है, जिनका नाम क्रमशः ईशान, आग्नेय, नैरृत्य व पश्चिम उत्तर के मध्य वायव्य तथा उत्तर पूर्व के मध्य ईशान दिशा है। इन चारों को विदिशा अथवा कोणीय दिशा के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार से क्रमशः प्रदक्षिण क्रम अर्थात् सृष्टिक्रम या दक्षिणावर्त क्रमशः पूर्व-आग्नेय-दक्षिण-नैरृत्य-पश्चिम-वायव्य-उत्तर ईशान आदि दिशाओं का उल्लेख हमें शास्त्रों में मिलता है।
 
विभिन्न शास्त्रकार दिशाओं के महत्व को समझाते हुये कहते हैं कि कोई भी निर्माण जो मानवों द्वारा किया जाता है जैसे भवन, राजाप्रसाद, द्वार, बरामदा, यज्ञमण्डप आदि में दिक्शोधन करना प्रथम व अपरिहार्य है क्योंकि दिक्भ्रम होने पर यदि निर्माण हो तो कुल का नाश होता है।<ref>योगेंद्र कुमार शर्मा,  [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80829 दिक् की अवधारणा एवं भेद], सन् 2021, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २९४)।</ref><blockquote>प्रसादे सदनेsलिन्दे द्वारे कुण्डे विशेषताः। दिङ्मूढे कुलनाशः स्यात्तस्मात् संसाधयेद्दिशः॥(वास्तुरत्नावली-३/१)</blockquote>वस्तुतः प्राचीन ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर आज हर कोई समझदार व्यक्ति दिग् ज्ञान से परिचित हैं। लगभग हर व्यक्ति पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा का ज्ञान रखता है परन्तु फिर भी हमारे शास्त्रों में इन चार दिशाओं के अतिरिक्त भी अन्य चार दिशाओं का भी वर्णन विद्यमान है, जिनका नाम क्रमशः ईशान, आग्नेय, नैरृत्य व पश्चिम उत्तर के मध्य वायव्य तथा उत्तर पूर्व के मध्य ईशान दिशा है। इन चारों को विदिशा अथवा कोणीय दिशा के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार से क्रमशः प्रदक्षिण क्रम अर्थात् सृष्टिक्रम या दक्षिणावर्त क्रमशः पूर्व-आग्नेय-दक्षिण-नैरृत्य-पश्चिम-वायव्य-उत्तर ईशान आदि दिशाओं का उल्लेख हमें शास्त्रों में मिलता है।
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== सारांश ==
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दिक्साधन की अनेक विधियों का अध्ययन करके यह पाया है कि मानव व्यवहार हेतु दिशाओं का ज्ञान होना परमावश्यक है। प्राचीन काल से ही दिशाओं के साधन व उनके स्वरूप को समझने के लिए इनका सटीक ज्ञान प्रमुखतः सूर्य के माध्यम से ही किया जाता रहा है। जहां एक तरफ शंकुच्छाया के माध्यम से दिशाओं का प्रतिपादन एकदम वैज्ञानिक है। वहीं वर्तमान काल के वैज्ञानिक युग में दिशाओं के परिज्ञान हेतु मात्र दिक्सूचक यन्त्र का प्रयोग किया जाता है। जो कभी-कभी पूर्णतया शुद्ध परिणाम नहीं देते हैं। अतः हम निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि दिक्ज्ञान के लिये हमारी शास्त्रीय प्राचीन विधियां अधिक उपयुक्त एवं तर्कसंगत हैं।
    
== देश का विचार ==
 
== देश का विचार ==
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