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विदित हो कि दिग्ज्ञान की दो विधियाँ  शास्त्रों में वर्णित हैं, जिसमें प्रथम स्थूल दिग्ज्ञान विधि है जिसके द्वारा सामान्य कार्य व्यवहार हेतु सरल विधियों से दिग्ज्ञान किया जाता है तथा द्वितीय दिग्ज्ञान की विधि सूक्ष्म होती है जिसमें श्रमपूर्वक गणित व्यवहार एवं सूक्ष्म कार्यों के सम्पादन हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान होता है। आचार्यों ने सिद्धान्त ग्रन्थों में स्थूल एवं गणितीय प्रयोग हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान विधि का विचार पूर्वक प्रतिपादन किया है।
 
विदित हो कि दिग्ज्ञान की दो विधियाँ  शास्त्रों में वर्णित हैं, जिसमें प्रथम स्थूल दिग्ज्ञान विधि है जिसके द्वारा सामान्य कार्य व्यवहार हेतु सरल विधियों से दिग्ज्ञान किया जाता है तथा द्वितीय दिग्ज्ञान की विधि सूक्ष्म होती है जिसमें श्रमपूर्वक गणित व्यवहार एवं सूक्ष्म कार्यों के सम्पादन हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान होता है। आचार्यों ने सिद्धान्त ग्रन्थों में स्थूल एवं गणितीय प्रयोग हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान विधि का विचार पूर्वक प्रतिपादन किया है।
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ज्ञात्वा पूर्वं धरित्री दहनखननसम्प्लावनैः संविशोध्य, पश्चात्कृत्वा समानां मुकुरजठरवद्वाचायित्वाद्विजेन्द्रेः।
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ज्ञात्वा पूर्वं धरित्री दहनखननसम्प्लावनैः संविशोध्य, पश्चात्कृत्वा समानां मुकुरजठरवद्वाचायित्वाद्विजेन्द्रेः।<blockquote>पुण्याहं कूर्मशेषो क्षितिमपि कुसुमाद्यैः समाराध्य शुद्धे, वारे व्यतिथ्यां च कुर्मात् सुरपतिककुभः साधनं मण्डपार्थम् ॥(बृ०वा०मा०अ०दि०सा०श्लो०सं०३) </blockquote>
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पुण्याहं
   
===स्थूल दिक् साधन===
 
===स्थूल दिक् साधन===
 
<blockquote>यत्रोदितोsर्कः किल तत्र पूर्वा तत्रापरा यत्र गतः प्रतिष्ठाम् । तन्मत्स्यतोsन्ये च ततोsखिलानामुदकस्थितो मेरुरितिप्रसिद्धम् ॥</blockquote>भास्कराचार्य के इस वचन के अनुसार सभी स्थानों पर जिस दिशा में सूर्य का उदय होता है वह उस स्थान की पूर्व दिशा तथा जिस दिशा में सूर्य का अस्त होता है वह पश्चिम दिशा होती है। इस प्रकार पूर्व और पश्चिम दिशा का सूर्योदय एवं सूर्यास्त देखकर निर्धारण करने के बाद पुनः पूर्व और पश्चिम बिन्दुओं की सहायता से पूर्वाभिमुख खडे होकर वाम भाग द्वारा उत्तर और दक्षिण भाग द्वारा दक्षिण दिशा का निर्धारण किया जाता है।
 
<blockquote>यत्रोदितोsर्कः किल तत्र पूर्वा तत्रापरा यत्र गतः प्रतिष्ठाम् । तन्मत्स्यतोsन्ये च ततोsखिलानामुदकस्थितो मेरुरितिप्रसिद्धम् ॥</blockquote>भास्कराचार्य के इस वचन के अनुसार सभी स्थानों पर जिस दिशा में सूर्य का उदय होता है वह उस स्थान की पूर्व दिशा तथा जिस दिशा में सूर्य का अस्त होता है वह पश्चिम दिशा होती है। इस प्रकार पूर्व और पश्चिम दिशा का सूर्योदय एवं सूर्यास्त देखकर निर्धारण करने के बाद पुनः पूर्व और पश्चिम बिन्दुओं की सहायता से पूर्वाभिमुख खडे होकर वाम भाग द्वारा उत्तर और दक्षिण भाग द्वारा दक्षिण दिशा का निर्धारण किया जाता है।
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== दिक्साधन की आधुनिक विधि ==
 
== दिक्साधन की आधुनिक विधि ==
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वर्तमान में दिक् साधन हेतु प्राचीन विधियों के साथ-साथ कुछ आधुनिक विधियां भी प्रयोग में हैं। वस्तुतः सर्वविदित है कि वर्तमान काल यंत्रप्रधान काल है अतः लगभग हर कार्य यन्त्रों के द्वारा करने का प्रयास हो रहा है।
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प्राचीन व आधुनिक दिक्साधन विधियों में अन्तर
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== प्राचीन व आधुनिक दिक्साधन विधियों में अन्तर ==
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=== ध्रुवतारे से दिक्साधन विधि ===
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वास्तुराजवल्लभ में ध्रुवतारे द्वारा दिक्साधन की विधि को बताया गया है कि ध्रुव तारे के ऊपर मार्कटिका नाम की दो तारिकाएँ  जब भ्रमण के दौरान तारे के साथ सीधी रेखा में आ जाए, तो उस ओर ही उत्तर दिशा रहती है, मार्कटिका की दोनों तारिकाओं तथा अवलम्ब के एक सूत्र में होने पर अवलम्ब के पीछे घडे पर दीप रखने पर दोनों तारिकाएँ एक सूत्र में आ जाए तब दीपक की तरफ वाली दिशा दक्षिण होगी और तारिकाओं के तरफ वाली दिशा उत्तर होगी। इसको समझने के लिये ३२ अंगुल का वृत्त बनाएं फिर उसमें १२ अंगुल का शंकु केन्द्र में रखें जहां इसकी छाया वृत्त में प्रवेश करे वहां पश्चिम दिशा तथा जिधर से छाया निर्गत हो वह पूर्व दिशा होगी। इस प्रकार चारों दिशाओं का ज्ञान हो जाता है। जैसा कि कहा भी है कि-<blockquote>तारे मार्कटिके ध्रुवस्य समतां नीतेऽवलम्बे नते दीपाग्रेण तदैक्यतश्च कथिता सूत्रेण सौम्या ककुद्।
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शङ्कोर्नेत्रगुणे तु मण्डलवरे छायाद्वयान्मत्स्ययोर्जाता यत्र युतिस्तु शड़्कुतलयो याम्योत्तरे स्तः स्फुटे॥(वास्तुरत्नावली दिग्ज्ञानाध्याय- श्लोक ८)</blockquote>
    
== दिक् साधन का महत्व ==
 
== दिक् साधन का महत्व ==
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