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ज्योतिष शास्त्र में दिशाओं की संख्या १० कही गयी है। पूर्व, अग्नि कोण, दक्षिण, नैरृत्य कोण, पश्चिम, वायव्य कोण, उत्तर, ऐशान्य कोण, ऊर्ध्व एवं अधः दिशा। इनमें प्रधान पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण चार दिशा, चार कोण एवं ऊर्ध्व एवं अधः दिशा। इनमें प्रधान पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण चार दिशा, चार कोण एवं ऊर्ध्व तथा अधः दिशाओं को विदिशा के नाम से भी जाना जाता है।
 
ज्योतिष शास्त्र में दिशाओं की संख्या १० कही गयी है। पूर्व, अग्नि कोण, दक्षिण, नैरृत्य कोण, पश्चिम, वायव्य कोण, उत्तर, ऐशान्य कोण, ऊर्ध्व एवं अधः दिशा। इनमें प्रधान पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण चार दिशा, चार कोण एवं ऊर्ध्व एवं अधः दिशा। इनमें प्रधान पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण चार दिशा, चार कोण एवं ऊर्ध्व तथा अधः दिशाओं को विदिशा के नाम से भी जाना जाता है।
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दिक् साधन की विधि
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=== विदिशा निर्णय ===
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<blockquote>आग्नेयी पूर्वदिग्ज्ञेया दक्षिणादिक् च नैरृती। वायवी पश्चिम दिक् स्यादैशानी च तथोत्तरा॥</blockquote>अर्थात् अग्निकोण की गणना पूर्वदिशा में, वायव्य कोण की पश्चिम दिशा में, नैरृत्य कोण की दक्षिण दिशा में तथा ईशान कोण की गणना उत्तर दिशा में जानना चाहिये।
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=== दिशा विचार ===
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<blockquote>यत्रोदेत्यस्ततां गच्छेदर्कस्ते पूर्वपश्चिमे। ध्रुवो यत्रोत्तरादिक् सा तद्विरुद्धा च दक्षिणा॥</blockquote>अर्थात् जिस दिशा में सूर्य का उदय होता है, वह पूर्व दिशा है, जिस दिशा में सूर्य अस्त होता है, उसे पश्चिम दिशा कहते है। जिस दिशा में ध्रुव तारा दिखलाई दें उसे उत्तर दिशा और उससे विरुद्ध भाग में दक्षिण दिशा समझना चाहिये।
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=== स्पष्टदिक् साधन ===
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<blockquote>सायानार्काजसंक्रान्तौ काले सूर्योदये नरैः। भास्कराभिमुखैर्ज्ञेया दिशोsथ विदिशः स्फुटाः॥ संमुखे पूर्वदिग् ज्ञेया पश्चाद् ज्ञेया च पश्चिमा। उत्तरा वामभागे या दक्षिणे सा च दक्षिणा॥</blockquote>सायन मेष के संक्रान्ति में सूर्योदय काल में सूर्याभिमुख होकर स्पष्ट दिशा और विदिशाओं का ज्ञान करना चाहिये। सम्मुख जो दिखे वह पूर्व, पीछे पश्चिम, बायें उत्तर और दाहिनें भाग की दक्षिण दिशा होती है।
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प्रधानतया आठ दिशाओं के स्वामी इस प्रकार कहे गये हैं-<blockquote>प्राच्यादिशा रविसितकुजराहुयमेन्दुसौम्यवाक्पतयः। क्षीणेन्द्वर्कयमाराः पापास्तैः संयुतः सौम्यः॥</blockquote>पूर्वादि आठ दिशाओं के स्वामी क्रमशः सूर्य, शुक्र, मंगल, राहु, शनि, चन्द्र, बुध और गुरु होते हैं।
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{| class="wikitable"
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|+स्पष्टार्थ चक्र
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|'''दिशा'''
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|पूर्व
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|अग्निकोण
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|दक्षिण
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|नैरृत्यकोण
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|पश्चिम
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|वायव्यकोण
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|उत्तर
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|ईशानकोण
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|-
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|'''स्वामी'''
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|सूर्य
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|शुक्र
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|मंगल
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|राहु
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|शनि
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|चन्द्र
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|बुध
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|गुरु
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|}
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=== दिक् साधन की विधि ===
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अभी तक हमने दिशाओं को पूर्वादि भेद से दश प्रकार की होती हैं। जिनका उपयोग किसी भी एक स्थान से दूसरे स्थान का निर्धारण करने में किया जाता है। वर्तमान समाज वैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टि से अति उन्नत हो गया है अतः आजकल सभी लोग कम्पास नामक या अन्य किसी आधुनिक यन्त्र से पूर्वादि दिशाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं, परन्तु पुरातन काल में जब विज्ञान इतना उन्नत नहीं था तथा इससे सम्बन्धित सुविधाएँ सबके लिए सुलभ नहीं थी तब भी हमारे ऋषि-महर्षि एवं आचार्यगण ग्रह-नक्षत्रादि के वेध के द्वारा अथवा सूर्य की छाया के द्वारा पूर्वादि दिशाओं का ज्ञान करते थे। अतः हमारे प्राचीन शास्त्रों में दिग् ज्ञान की जो विधियाँ महत्त्वपूर्ण बतलायी गई हैं उनका हम उपस्थापन यहाँ कर रहे हैं-
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विदित हो कि दिग्ज्ञान की दो विधियाँ  शास्त्रों में वर्णित हैं, जिसमें प्रथम स्थूल दिग्ज्ञान विधि है जिसके द्वारा सामान्य कार्य व्यवहार हेतु सरल विधियों से दिग्ज्ञान किया जाता है तथा द्वितीय दिग्ज्ञान की विधि सूक्ष्म होती है जिसमें श्रमपूर्वक गणित व्यवहार एवं सूक्ष्म कार्यों के सम्पादन हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान होता है। आचार्यों ने सिद्धान्त ग्रन्थों में स्थूल एवं गणितीय प्रयोग हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान विधि का विचार पूर्वक प्रतिपादन किया है।
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=== स्थूल दिक् साधन ===
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<blockquote>यत्रोदितोsर्कः किल तत्र पूर्वा तत्रापरा यत्र गतः प्रतिष्ठाम् । तन्मत्स्यतोsन्ये च ततोsखिलानामुदकस्थितो मेरुरितिप्रसिद्धम् ॥</blockquote>भास्कराचार्य के इस वचन के अनुसार सभी स्थानों पर जिस दिशा में सूर्य का उदय होता है वह उस स्थान की पूर्व दिशा तथा जिस दिशा में सूर्य का अस्त होता है वह पश्चिम दिशा होती है। इस प्रकार पूर्व और पश्चिम दिशा का सूर्योदय एवं सूर्यास्त देखकर निर्धारण करने के बाद पुनः पूर्व और पश्चिम बिन्दुओं की सहायता से पूर्वाभिमुख खडे होकर वाम भाग द्वारा उत्तर और दक्षिण भाग द्वारा दक्षिण दिशा का निर्धारण
    
दिक् साधन विविध शास्त्रीय विधियाँ
 
दिक् साधन विविध शास्त्रीय विधियाँ
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