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यद्यपि समग्र कला आदि के स्रोत अष्टादश विद्याऐं ही हैं। जहां तक कला का संबंध है, वहाँ 64 की प्रतिस्पर्धी गणनाएँ हैं।
यद्यपि समग्र कला आदि के स्रोत अष्टादश विद्याऐं ही हैं। जहां तक कला का संबंध है, वहाँ 64 की प्रतिस्पर्धी गणनाएँ हैं।
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वेदों में कलाऐं
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=== वेदों में कलाऐं॥ Arts in Vedas ===
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वेद भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के मूल स्रोत हैं। भारतीयों के लिये जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त षोडश संस्कार आदि समस्त क्रिया कर्म वेद बोधित आचरण के अनुकूल हुआ करते हैं। विश्व के आद्यतम ग्रन्थ ऋग्वेद में 'शिल्प' और 'कला' शब्द के प्रयोग के साथ ही शिल्पों के वे सन्दर्भ भी हैं जिन्होंने मानव जीवन को 'सुपेशस्' (सुन्दर), छन्दोमय और अमृत के योग्य बनाया। अतः ऋग्वेद भारतीय शिल्प कलाओं का प्रथम वाचिक साक्ष्य है।
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== कलाओं के भेद ॥ Difference of Arts ==
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भारतीय संस्कृत वाग्मय में 64 कलाओं के नाम के आधार पर कुछ लोग यह सोचते हैं कि भारत में कला के 64 भेद किये गए हैं। वस्तुतः ये भावना भ्रम में डालने वाली है। कलाओं का 64 वर्गीकरण न होकर परिगणन किया गया है। भारतीय कलाओं की गणना में 64 ही नहीं 16, 32, 84, 86, 100 आदि कई संख्याओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं।
==कलाओं का प्रयोजन॥ Purpose of arts==
==कलाओं का प्रयोजन॥ Purpose of arts==
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भारतीय कलाकार की यह विशेषता है कि वह केवल शारीरिक अनुरंजन को ही कला का विषय न मानकर सांस्कृतिक मानसिक और बौद्धिक विकास का ध्यान रखकर कला का सृजन करते हैं।
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कला शब्द साहित्य और जनजीवन से अभेद सम्बन्ध रखता है। इसकी प्राचीनता ऐतिहासिकता निर्विवाद हैं, प्राचीन काल में कला का मुख्य तात्पर्य तत्ववाद था।
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==कला का महत्त्व॥ Importance of art==
==कला का महत्त्व॥ Importance of art==
कला का यह उद्देश्य माना जाता है कि उससे ज्ञान में वृद्धि, सदाचार में प्रवृत्ति एवं जीविकोपार्जन में सहायता मिले। प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उस समय कला का प्रयोग दैनिक जीवन में कितना व्याप्त रहा है। श्री कृष्णचन्द्र जी को सभी कलाओं की शिक्षा दी गई थी एवं वे सभी कलाओं में प्रवीण थे जैसा कि श्री मद्भागवत जी में भी कहा गया है-<blockquote>अहोरात्रैश्चतुःषष्ट्या संयत्तौ तावतीः कलाः।(भाग०महापु०)<ref name=":0">श्री मद्भागवत महापुराण, (द्वितीय खण्ड) हिन्दी टीका सहित,स्कन्ध १०,अध्याय ४५ , श्लोक ३६, हनुमान प्रसाद् पोद्दार,गोरखपुर गीता प्रेस सन् १९९७ पृ०४१२।</ref></blockquote>केवल चौंसठ दिन रात में ही संयम शिरोमणि दोनों भाइयों ने गुरूजी के एक बार कहने मात्र से चौंसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
कला का यह उद्देश्य माना जाता है कि उससे ज्ञान में वृद्धि, सदाचार में प्रवृत्ति एवं जीविकोपार्जन में सहायता मिले। प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उस समय कला का प्रयोग दैनिक जीवन में कितना व्याप्त रहा है। श्री कृष्णचन्द्र जी को सभी कलाओं की शिक्षा दी गई थी एवं वे सभी कलाओं में प्रवीण थे जैसा कि श्री मद्भागवत जी में भी कहा गया है-<blockquote>अहोरात्रैश्चतुःषष्ट्या संयत्तौ तावतीः कलाः।(भाग०महापु०)<ref name=":0">श्री मद्भागवत महापुराण, (द्वितीय खण्ड) हिन्दी टीका सहित,स्कन्ध १०,अध्याय ४५ , श्लोक ३६, हनुमान प्रसाद् पोद्दार,गोरखपुर गीता प्रेस सन् १९९७ पृ०४१२।</ref></blockquote>केवल चौंसठ दिन रात में ही संयम शिरोमणि दोनों भाइयों ने गुरूजी के एक बार कहने मात्र से चौंसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
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अर्जुन नृत्य कला नल भीम आदि पाक कला में निपुण थे। परशुराम द्रोणाचार्य आदि धनुर्वेद में कुशल थे। इससे ज्ञात होता है कि गुरुकुलों में सभी को प्रायः सभी कलाओं की शिक्षा दी जाती रही होगी। परन्तु सभी का स्वभाव साम्य नहीं होता जैसा कि देखा भी जाता है किसी कि प्रवृत्ति किसी ओर तो किसी की किसी ओर होती है। जिसकी जिस ओर प्रवृत्ति है उसी में अभ्यास करने से कुशलता शीघ्र प्राप्त होती है।(कल्या० शिक्षा०)<ref>पं०श्री दुर्गादत्त जी त्रिपाठी, प्राचीन शिक्षा में चौंसठ कलाऐं, शिक्षांक, सन् १९८८, गोरखपुर गीताप्रेस पृ०१२९।</ref>
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* यह सृष्टि ब्रह्म की कला है।
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* महादेव शिव नृत्य-शिरोमणि 'नटराज' हैं।
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* वीणावादिनी सरस्वती ललित कलाओं की अधिष्ठात्री देवी है।
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* वेणु की मधुर तान से जगत् को रस-विभोर करने वाले श्री कृष्ण जी सर्वश्रेष्ठ 'वंशी-वादक'है।
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राजर्षि भर्तृहरिने ने भी कलाओं का जीवन में महत्त्व बतलाते हुए कहा है कि -<blockquote>साहित्य सङ्गीत कलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छ विषाणहीनः।</blockquote>अर्थात् जिस व्यक्ति में कोई कला नहीं है, वह व्यक्ति निश्चित ही पशुरूप है। पशुओं में भी सींग और पूँछ से हीन अर्थात् विकृत एवं अपूर्ण पशुतुल्य कहा गया है।<blockquote>प्रभुभिः पूज्यते लोके कलैव न कुलीनता। कलावान् मान्यते मूर्ध्नि सत्सु देवेषु शम्भुना॥</blockquote>अर्थात् संसार में ज्ञानी लोग कला का ही आदर करते हैं, कुलीनता की नहीं। जैसा कि अनेक देवताओं के होते हुए भी भगवान् शंकर कलावान् चन्द्रमा को ही शिर पर धारण करते हैं।
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अर्जुन नृत्य कला नल भीम आदि पाक कला में निपुण थे। परशुराम द्रोणाचार्य आदि धनुर्वेद में कुशल थे। इससे ज्ञात होता है कि गुरुकुलों में सभी को प्रायः सभी कलाओं की शिक्षा दी जाती रही होगी। परन्तु सभी का स्वभाव साम्य नहीं होता जैसा कि देखा भी जाता है किसी कि प्रवृत्ति किसी ओर तो किसी की किसी ओर होती है। जिसकी जिस ओर प्रवृत्ति है उसी में अभ्यास करने से कुशलता शीघ्र प्राप्त होती है। <ref>पं०श्री दुर्गादत्त जी त्रिपाठी, प्राचीन शिक्षा में चौंसठ कलाऐं, शिक्षांक, सन् १९८८, गोरखपुर गीताप्रेस पृ०१२९।</ref>
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राजर्षि भर्तृहरिने ने भी कलाओं का जीवन में महत्त्व बतलाते हुए कहा है कि -<blockquote>साहित्य सङ्गीत कलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छ विषाणहीनः। (नीतिश० श्लो०१२)<ref>भर्तृहरि, [https://epustakalay.com/book/28084-neeti-shatak-by-babu-haridas-vaidhya-bharthari/ नीति शतक], श्लोक १२, मथुराः हरिदास एण्ड कम्पनी लिमिटेड सन् १९४९ (पृ०३४)।</ref></blockquote>अर्थात् जिस व्यक्ति में कोई कला नहीं है, वह व्यक्ति निश्चित ही पशुरूप है। पशुओं में भी सींग और पूँछ से हीन अर्थात् विकृत एवं अपूर्ण पशुतुल्य कहा गया है।<blockquote>प्रभुभिः पूज्यते लोके कलैव न कुलीनता। कलावान् मान्यते मूर्ध्नि सत्सु देवेषु शम्भुना॥(सुभा० भाण्डा०)<ref>नारायणराम आचार्य, सुभाषित रत्न भाण्डागारम, गुण प्रशंसा प्रकरण, श्लोक १९, सन् १९५२ (पृ०८१)।</ref></blockquote>अर्थात् संसार में ज्ञानी लोग कला का ही आदर करते हैं, कुलीनता की नहीं। जैसा कि अनेक देवताओं के होते हुए भी भगवान् शंकर कलावान् चन्द्रमा को ही शिर पर धारण करते हैं।
बौद्ध ग्रन्थ- ललितविस्तर में 64 कलाओंकी सूची एक सूची प्राप्त होती है। कहा जाता है कि बोधिसत्व को गोपा से विवाह करने के लिये कलाओं के ज्ञान की परीक्षा देनी पडी थी।<ref>ललितविस्तर, शान्तिभिक्षु शास्त्री, शिल्पसन्दर्शन परिवर्त, सन् १९८४, लखनऊ: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पृ० २८२।</ref>
बौद्ध ग्रन्थ- ललितविस्तर में 64 कलाओंकी सूची एक सूची प्राप्त होती है। कहा जाता है कि बोधिसत्व को गोपा से विवाह करने के लिये कलाओं के ज्ञान की परीक्षा देनी पडी थी।<ref>ललितविस्तर, शान्तिभिक्षु शास्त्री, शिल्पसन्दर्शन परिवर्त, सन् १९८४, लखनऊ: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पृ० २८२।</ref>
===वंशागत कला॥ Traditional Arts===
===वंशागत कला॥ Traditional Arts===
वंशागत कला के सीखने में अल्प प्रयत्न के द्वारा भी सुगमता पूर्वक पारंगत हुआ जा सकता है। बालकपन से ही उसके वंश-परम्पराकी कलाके संस्कार उसके अन्दर पूर्व से ही जो समाहित रहते हैं गुरुकुल आदि में विद्या अध्ययन करते समय उन कलाओं में उसे शीघ्र ही नैपुण्य प्राप्त हो जाता है एवं गुरुजन आदि भी तदनुकूल कला का ज्ञान भी प्रदत्त करते हैं। सभी विद्याओं में सामन्य प्रवेश उचित है किन्तु वंशागत कला में अरुचि दिखा कर अन्य ओर प्रयत्न करना यह अनुचित पद्धति है। जैसाकि महाभारत आदि में धनुर्धरों के पुत्रों का धनुर्विद्या में निपुण होना एवं यह वर्तमान में भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है एक लकडी का कार्य करने वाले का पुत्र जितने जल्दी पिता के कार्य में दक्षता प्राप्त कर सकता है उतना अन्य जन नहीं। वर्तमान शिक्षा पद्धति से लोगों को वंशागत कला के कार्यों के प्रति घृणा तथा अरुचि उत्पन्न होती जा रही है जिसके द्वारा पिता दादाजी आदि के पैतृक व्यवसाय नष्ट हो रहे हैं। जैसाकि शुक्राचार्य जी लिखते हैं—<blockquote>यां यां कलां समाश्रित्य निपुणो यो हि मानवः। नैपुण्यकरणे सम्यक् तां तां कुर्यात् स एव हि॥(शु० नीति.4.4.100)<ref>श्रीमत् शुक्राचार्य्यविरचितः शुक्रनीतिसारः,अध्याय०४ प्रकरण०४ श्लोक०१००, १८९०: कलिकाताराजधान्याम्, द्वितीयसंस्करणम् पृ०३६९।</ref></blockquote>जो मानव जिस-जिस कला में निपुण हैं उन्हैं अपनी उसी नैपुण्य युक्त कला में अभ्यास करने से दक्षता प्राप्त होती है।
वंशागत कला के सीखने में अल्प प्रयत्न के द्वारा भी सुगमता पूर्वक पारंगत हुआ जा सकता है। बालकपन से ही उसके वंश-परम्पराकी कलाके संस्कार उसके अन्दर पूर्व से ही जो समाहित रहते हैं गुरुकुल आदि में विद्या अध्ययन करते समय उन कलाओं में उसे शीघ्र ही नैपुण्य प्राप्त हो जाता है एवं गुरुजन आदि भी तदनुकूल कला का ज्ञान भी प्रदत्त करते हैं। सभी विद्याओं में सामन्य प्रवेश उचित है किन्तु वंशागत कला में अरुचि दिखा कर अन्य ओर प्रयत्न करना यह अनुचित पद्धति है। जैसाकि महाभारत आदि में धनुर्धरों के पुत्रों का धनुर्विद्या में निपुण होना एवं यह वर्तमान में भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है एक लकडी का कार्य करने वाले का पुत्र जितने जल्दी पिता के कार्य में दक्षता प्राप्त कर सकता है उतना अन्य जन नहीं। वर्तमान शिक्षा पद्धति से लोगों को वंशागत कला के कार्यों के प्रति घृणा तथा अरुचि उत्पन्न होती जा रही है जिसके द्वारा पिता दादाजी आदि के पैतृक व्यवसाय नष्ट हो रहे हैं। जैसाकि शुक्राचार्य जी लिखते हैं—<blockquote>यां यां कलां समाश्रित्य निपुणो यो हि मानवः। नैपुण्यकरणे सम्यक् तां तां कुर्यात् स एव हि॥(शु० नीति.4.4.100)<ref>श्रीमत् शुक्राचार्य्यविरचितः शुक्रनीतिसारः,अध्याय०४ प्रकरण०४ श्लोक०१००, १८९०: कलिकाताराजधान्याम्, द्वितीयसंस्करणम् पृ०३६९।</ref></blockquote>जो मानव जिस-जिस कला में निपुण हैं उन्हैं अपनी उसी नैपुण्य युक्त कला में अभ्यास करने से दक्षता प्राप्त होती है।
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== कला धर्म॥ ==
===जीवन में कला का औचित्य॥ Justification of art in life===
===जीवन में कला का औचित्य॥ Justification of art in life===
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संसार की सम्पूर्ण सभ्यताओं का आधार मनुष्य की सुख पाने की अभिलाषा है। मनुष्य की अभिलाषाओं का न तो कभी अंत ही है और न उसकी सुख की लालसा ही समाप्त होती है। कला कार्य करने की वह शैली है जिसमें हमें सुख या आनन्द मिलता है। कला के नाम से ललितकलाओं, संगीतकला, चित्रकला और काव्य कलाऐं आदि ये सब जीवन जीने की कला के अन्तर्गत हैं। जीवन जीने की कला में निपुण होना अर्थात् [https://dharmawiki.org/index.php/Purushartha%20(%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5:) पुरुषार्थ] चतुष्टय की प्राप्ति होना। इसमें यह सब कलाऐं योग देती हैं। [https://dharmawiki.org/index.php/Bharatiya%20Samskrtika%20Parampara%20(%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE) भारतीय जीवन विधान] में कलाओं को आत्मसात करने के संस्कार बाल्यकाल से ही प्रदत्त किये जाते हैं।
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संसार की सम्पूर्ण सभ्यताओं का आधार मनुष्य की सुख पाने की अभिलाषा है। मनुष्य की अभिलाषाओं का न तो कभी अंत ही है और न उसकी सुख की लालसा ही समाप्त होती है। कला कार्य करने की वह शैली है जिसमें हमें सुख या आनन्द मिलता है। कला के नाम से ललितकलाओं, संगीतकला, चित्रकला और काव्य कलाऐं आदि ये सब जीवन जीने की कला के अन्तर्गत हैं। जीवन जीने की कला में निपुण होना। इसमें यह सब कलाऐं योगदान देती हैं जैसे चित्रकला का ज्ञान हमें प्रत्येक कार्य को सुन्दरता पूर्वक करना सिखाता आदि इसी प्रकार प्रत्येक कला का जीवन जीने में कुछ न कुछ औचित्य अवश्य है। इसीलिये भारतीय जीवन विधान में कलाओं को आत्मसात करने के संस्कार बाल्यकाल से ही प्रदत्त किये जाते हैं।
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==== कला एवं समाज॥ ====
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==== कला एवं समाज ॥ Art and Society ====
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मनुश्य
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==== कलाकारों का महत्व॥ ====
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==== कलाकारों का महत्व॥ Importance of Artists ====
अर्थोपार्जन क्षेत्र में कला॥
अर्थोपार्जन क्षेत्र में कला॥