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− | Pravrt rtu appears in Ashadha and Shravana months as per Hindu calendar. <blockquote>आषाढश्रावणौ-प्रावृट् (Sush. Samh. 6.10)<ref name=":0">Sushruta Samhita ([https://niimh.nic.in/ebooks/esushruta/?mod=read&h=pravRuS Sutrasthanam Adhyaya 6 Sutra 10])</ref></blockquote> | + | Pravrt rtu appears in Ashadha and Shravana months as per Hindu calendar. <blockquote>आषाढश्रावणौ-प्रावृट् (Sush. Samh. 6.10)<ref name=":0">Sushruta Samhita ([https://niimh.nic.in/ebooks/esushruta/?mod=read&h=pravRuS Sutrasthanam Adhyaya 6 Sutra 10])</ref> |
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| + | प्रावृट् शुचिनभौ ज्ञेयौ....शुचिनभौ आषाढश्रावणौ| (Char. Siddh. 6.5)<ref>Charaka Samhita (Siddhisthanam Adhyaya 6 Sutra 5)</ref></blockquote> |
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| == प्रावृड्वर्षयोः को भेदः? Difference between Pravrt and Varsha Rtu == | | == प्रावृड्वर्षयोः को भेदः? Difference between Pravrt and Varsha Rtu == |
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| == Specifications related to Pravrt rtu described in Samhitas == | | == Specifications related to Pravrt rtu described in Samhitas == |
| Asht. Hrud. Su. 16.12 - इदानीं कस्मिन्काले कस्य स्नेहस्योपयोगः शस्त इति दर्शयन्नाह - ] - - - - तैलं प्रावृषि, वर्षान्ते सर्पिरन्यौ तु माधवे| | | Asht. Hrud. Su. 16.12 - इदानीं कस्मिन्काले कस्य स्नेहस्योपयोगः शस्त इति दर्शयन्नाह - ] - - - - तैलं प्रावृषि, वर्षान्ते सर्पिरन्यौ तु माधवे| |
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| + | Asht. Hrud. Su. 5.20 -- प्रावृष्यान्तरिक्षं जलं परं वरं-अत्यन्तं पथ्यम्| नदीसम्भवं त्वपथ्यम्| |
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| + | Asht. Hrud. Su. 3.7 - शीतेऽग्र्यं वृष्टिधर्मेऽल्पं बलं मध्यं तु शेषयोः ---- वृष्टिग़र्मे-प्रावृड्ग्रीष्मयोः, |
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| + | Asht. Hrud. Su. 13.14- commentary of arunadatta- प्रावृषि हि दोषत्रयकोप उक्तः| |
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| + | Asht. Hrud. Su. 13.34- commentary of arunadatta - प्रावृषि घनघनौषसङ्घट्टसादिते सर्वतो जगत्यवसन्नोऽग्निर्भवति| आदानदुर्बलं च शरीरं भवति| ओषधयश्च जलदजलप्लावितमूला अल्पवीर्याः सम्पद्यन्ते| भूबाष्पसंयोगाच्चौषधीनां विदग्धत्वम्| अतोऽपथ्यतां गता अयोगायैव| |
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| + | Asht. Hrud. Su. 22.21- कालीयकादयः प्रावृषि, - Mukhalepas as per the season |
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| + | A.H. Ni. 2.51- प्रावृट्सञ्चितस्य पित्तस्य , प्रावृषि प्राकृतो ज्वरो वातप्रधानः पित्तश्लेष्माणौ त्वनुबलत्वेन वातस्य स्थितौ, न तु सन्निपात इव स्वयं ज्वरकारकावित्यर्थः| |
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| + | Cha. Viman. 8.125- साधारणलक्षणास्त्रय ऋतवः- प्रावृट्शरद्वसन्ता इति| |
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| + | तत्र, वर्षास्वोषधयस्तरुण्योऽल्पवीर्या आपश्चाप्रशान्ताः <sup>[१]</sup> क्षितिमलप्रायाः, ता उपयुज्यमाना नभसि मेघावतते जलप्रक्लिन्नायां भूमौ क्लिन्नदेहानां प्राणिनां शीतवातविष्टम्भिताग्नीनां <sup>[२]</sup> विदह्यन्ते, विदाहात् पित्तसञ्चयमापादयन्ति; स सञ्चयः शरदि प्रविरलमेघे वियत्युपशुष्यति पङ्केऽर्ककिरणप्रविलायितः पैत्तिकान् व्याधीञ्जनयति | |
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| + | ता एवौषधयो निदाघे निःसारा रूक्षा अतिमात्रं लघ्व्यो भवन्त्यापश्च, ता उपयुज्यमानाः सूर्यप्रतापोपशोषितदेहानां देहिनां रौक्ष्याल्लघुत्वाच्च <sup>[४]</sup> वायोः सञ्चयमापादयन्ति; स सञ्चयः प्रावृषि चात्यर्थं जलोपक्लिन्नायां भूमौ क्लिन्नदेहानां देहिनां शीतवातवर्षेरितो वातिकान् व्याधीञ्जनयति | |
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| + | एवमेष दोषाणां सञ्चयप्रकोपहेतुरुक्तः ||११|| (Sush. SAmh. Su 6.11) |
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| + | Time of the day equivalent to the season- अपराह्णे प्रावृषः <sup>[१]</sup> , प्रदोषे वार्षिकं, एवमहोरात्रमपि वर्षमिव शीतोष्णवर्षलक्षणं दोषोपचयप्रकोपोपशमैर्जानीयात् ||१४|| -Su. Su 6.14 |
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| + | == Potable water per season == |
| + | तत्र वर्षास्वान्तरिक्षमौद्भिदं वा सेवेत, महागुणत्वात्; शरदि सर्वं, प्रसन्नत्वात्; हेमन्ते सारसं ताडागं वा; वसन्ते कौपं प्रास्रवणं वा; ग्रीष्मेऽप्येवं; प्रावृषि चौण्ट्यमनभिवृष्टं सर्वं चेति ||८|| |
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| + | प्रावृषि चौण्ट्यमनवमनभिवृष्टं सर्वं चेति अनवं पुरातनं, तच्च सारसं ताडागं वा; अनभिवृष्टमनाभसं, तच्च कौपम्| - Su. sU 45.8) |
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| + | == अव्यापन्नप्रावृडृतुलक्षणम == |
| + | प्रावृष्यम्बरमानद्धं पश्चिमानिलकर्षितैः <sup>[१]</sup> | |
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| + | अम्बुदैर्विद्युदुद्द्योतप्रस्रुतैस्तुमुलस्वनैः ||३१|| |
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| + | कोमलश्यामशष्पाढ्या शक्रगोपोज्ज्वला मही | |
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| + | कदम्बनीपकुटजसर्जकेतकभूषिता ||३२|| (Su. su. 6.31-32) |
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| + | Commentary- अव्यापन्नप्रावृडृतुलक्षणमाह- प्रावृषीत्यादि| पश्चिमानिलकर्षितैरम्बुदैरम्बरमाकाशं प्रावृषि आनद्धमाच्छादितं भवति| कथम्भूतैरम्बुदैरित्याह- विद्युदुद्द्योतेत्यादि|- विद्युदुद्द्योतेन सह प्रस्रुतैः क्षरितैः, तुमुलस्वनैः प्रचण्डगर्जितैः| मही च प्रावृषि कथम्भूता भवतीत्याह- कोमलेत्यादि|- शष्पं बालतृणम्, आढ्या समृद्धा| शक्रगोपः इन्द्रवधूः, अन्ये ज्योतिरिङ्गणमाहुः| नीपो धूलीकदम्बः||३१-३२|| |
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| + | == Rtucharya for Pravrt == |
| + | निदाघोपचितं चैव प्रकुप्यन्तं समीरणम् | |
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| + | निहन्यादनिलघ्नेन विधिना विधिकोविदः ||४८|| |
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| + | नदीजलं रूक्षमुष्णमुदमन्थं तथाऽऽतपम् | |
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| + | व्यायामं च दिवास्वप्नं व्यवायं चात्र वर्जयेत् ||४९|| |
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| + | नवान्नरूक्षशीताम्बुसक्तूंश्चापि विवर्जयेत् | |
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| + | यवषष्टिकगोधूमान् शालींश्चाप्यनवांस्तथा ||५०|| |
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| + | हर्म्यमध्ये निवाते च भजेच्छय्यां मृदूत्तराम् | |
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| + | सविषप्राणिविण्मूत्रलालादिष्ठीवनादिभिः ||५१|| |
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| + | समाप्लुतं तदा तोयमान्तरीक्षं विषोपमम् | |
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| + | वायुना विषदुष्टेन प्रावृषेण्येन दूषितम् ||५२|| |
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| + | तद्धि सर्वोपयोगेषु तस्मिन् काले विवर्जयेत् | |
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| + | अरिष्टासवमैरेयान् सोपदंशांस्तु युक्तितः ||५३|| |
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| + | पिबेत् प्रावृषि जीर्णांस्तु रात्रौ तानपि वर्जयेत् | |
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| + | निरूहैर्बस्तिभिश्चान्यैस्तभाऽन्यैर्मारुतापहैः ||५४|| |
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| + | कुपितं शमयेद्वायुं वार्षिकं चाचरेद्विधिम् |५५| (Sush. Samh. uttartantra 64. 48-55) |
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| + | == References == |